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द्रव्यों से जिनेन्द्र का और तीर्थ का पूजन करता है। तीनों समय सामायिक-वंदना करता है। शास्त्र-स्वाध्याय और धर्मचर्चा करने में निरत रहता है। बार बार जाकर पर्वतादि क्षेत्र की वंदना करता है और चलते-चलते यही भावना करता है कि भव-भव में मुझे ऐसा ही पुण्य योग मिलता रहे । सारांश यह है कि यात्री अपना सारा समय धर्मपरुषार्थ की साधना में ही लगाता है। वह तीर्थस्थान पर रहते हुए अपने मन में बुरी भावना उठने ही नहीं देता, जिससे वह कोई निंदनीय कार्य कर सके । उस पवित्र स्थान पर यात्रीगण ऐसी प्रतिज्ञायें बड़े हर्ष से लेते हैं जिनको अन्यत्र वे शायद ही स्वीकार करते । यह सब तीर्थ का माहात्म्य है। ऐसे पवित्र स्थान को किसी भी तरह अपवित्र नहीं बनाना ही उत्तम है। शौचादि क्रियायें भी वाह्य शुचिता
*-'जिणजणमणिख्खवण-णाणुप्पत्तिमोख्खसंपत्ति।
णिसिहीसु खेतपूजा, पुव्वविहाणेण कायव्वा ॥ ४५२ ॥' अर्थ-जिनेन्द्र की जन्मभूमि, दीक्षाभूमि, केवलज्ञान उत्पन्न होने
की भूमि और मोक्ष प्राप्त होने की भूमि, इतने स्थानों में पूर्व कही हुई विधि के अनुसार ( जल चन्दनादि से ) पूजा करना चाहिये। इसका नाम क्षेत्र पूजा है।
-वसुनंदि श्रावकाचार प०७८ ।
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