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उसके समागम में पहुँचकर मुमुक्षु संसार-सागर से तरने का उद्योग करता है, क्योंकि तीर्थों का प्रभाव ही ऐसा है। वह योगियों की योगनिष्ठा ज्ञान-ध्यान और तपश्चरण से पवित्र किये जा चुके हैं। उनमें भी निर्वाणक्षेत्र महातीर्थ हैं, क्योंकि वहां से बड़े २ प्रसिद्ध पुरुष ध्यान करके सिद्ध हुये हैं । पुराणपुरुष अर्थात् तीर्थङ्कर आदि महापुरुषों ने जिन स्थानों का आश्रय लिया हो अथवा ऐसे महातीर्थ जो तीर्थङ्करों के कल्याणक स्थान हों, उनमें ध्यान की सिद्धि विशेष होती है। ध्यान ही वह अमोघवाण है जो पापशत्र को छिन्नभिन्न कर देता है। मुमुतुपाप से भयभीत होता है। पाप में पीड़ा है और पीड़ा से सब डरते हैं । इस पीड़ा से बचने के लिये भव्यजीव तीर्थक्षेत्रों की शरण लेते हैं। जन-साधारण का यह विश्वास है कि तीर्थ स्थान की वंदना करनेसे उनका पाप-मैल धुल जाता है । लोगों का यह श्रद्धान सार्थक है, परन्तु यह विवेकसहित होना चाहिये, क्योंकि जब तक तीर्थ के स्वरूप, उसके महत्व और उसकी वास्तविक विनय करने का रहस्य नहीं समझा जायगा, तबतक केवल तीर्थ के दर्शन कर लेना पर्याप्त नहीं है । लोक में सागर, पर्वत, नदी आदि को तीर्थ मान कर उनमें स्नान करलेने मात्र से ही बहुधा पवित्र हुआ माना जाता है, किन्तु यह धारणा गलत है। बाहरी शरीर मल के धुलने से आत्मा पवित्र नहीं होती है। आत्मा तब ही पवित्र होती है जब कि क्रोधादि अन्तर्मल दूर हों।
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