Book Title: Bhuvandipak
Author(s): Bacchu Sharm
Publisher: Gangavishnu Shrikrushnadas
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RST - CELL શ્રેય જીર્ણોદ્ધાર -: સંયોજક :શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવના હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫. મો. ૯૪૨૬૫ ૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૦૭૯-૨૨૧૩૨૫૪૩ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “અહો શ્રુતજ્ઞાનમ” ગ્રંથ જીર્ણોધ્ધાર ૯૯ ભુવનદીપક : દ્રવ્ય સહાયક: પૂજ્ય આગમોદ્ધારક આનંદસાગરસૂરીશ્વરજી સમુદાયના પૂ. સાધ્વીજી શ્રી વજરત્નાશ્રીજી મ.સા. તથા પૂ. સાધ્વીજી રાજપૂણ્યાશ્રીજી મ.સા.ની પ્રેરણાથી આગમોદ્ધારક જ્ઞાનશાળાના જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી : સંયોજક: શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-380005 (મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૬૭ ઈ.સ. ૨૦૧૧ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "Aho Shrut Gyanam" Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અહો શ્રુતજ્ઞાનમ્ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર – સંવત ૨૦૬૫ (ઈ. ૨૦૦૯) સેટ નં-૧ ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ કર્તા-ટીકાકા-સંપાદક 001 002 003 004 005 006 007 008 009 010 011 012 013 014 015 016 017 018 019 020 021 022 023 024 025 026 027 श्री नंदीसूत्र अवचूरी श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी श्री अर्हद्गीता - भगवद्गीता श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं श्री मानतुङ्गशास्त्रम् अपराजित पृच्छा शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम् शिल्परत्नम्भाग-१ शिल्परत्नम्भाग - २ प्रासादतिलक काश्यशिल्पम् प्रासादमञ्जरी राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र शिल्पदीपक वास्तुसार पर्णव उत्तरार्ध જિનપ્રાસાદમાર્તણ્ડ जैन ग्रंथावली હીરકલશ જૈનજ્યોતિષ न्यायप्रवेशः भाग - १ दीपार्णव पूर्वार्ध अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-१ अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग २ प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह तत्त्पोपप्लवसिंहः शक्तिवादादर्शः पू. विक्रमसूरिजीम. सा. पू. जिनदासगणिचूर्णीकार पू. मेघविजयजी गणिम. सा. पू. भद्रबाहुस्वामीम. सा. पू. पद्मसागरजी गणिम. सा. पू. मानतुंगविजयजीम. सा. श्री बी. भट्टाचार्य श्री नंदलाल चुनिलालसोमपुरा | श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री विनायक गणेश आपटे श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री नारायण भारतीगोंसाई श्री गंगाधरजी प्रणीत श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री प्रभाशंकर ओघडभाई શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલસોમપુરા श्री जैन श्वेताम्बरकोन्फ्रन्स શ્રી હિમ્મતરામમહાશંકર જાની श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव श्री प्रभाशंकर ओघडभाई पू. मुनिचंद्रसूरिजीम. सा. श्री एच. आर. कापडीआ श्री बेचरदास जीवराजदोशी श्री जयराशी भट्ट बी. भट्टाचार्य श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री પૃષ્ઠ 238 286 84 18 48 54 810 850 322 280 162 302 156 352 120 88 110 498 502 454 226 640 452 500 454 188 214 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 028 414 192 824 288 520 578 278 252 324 302 038 196 190 202 | क्षीरार्णव | श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 029 वेधवास्तुप्रभाकर श्री प्रभाशंकर ओघडभाई | 030 શિલ્પપત્રીવાર | श्री नर्मदाशंकरशास्त्री 031. प्रासाद मंडन पं. भगवानदास जैन 032 | શ્રી સિદ્ધહેમ વૃત્તિ વૃતિ અધ્યાય પૂ. ભવિષ્યમૂરિનમ.સા. 033 श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्यायर पू. लावण्यसूरिजीम.सा. 034 | શ્રીસિમ વૃત્તિ ચૂક્યાસ અધ્યાય છે પૂ. ભાવસૂરિનીમ.સા. 035 | શ્રસિહમ વૃત્તિ ચૂદાન અધ્યાય (ર) (૩) પૂ. ભવિષ્યમૂરિનીમ.સા. 036 | श्री सिद्धहेम बृहद्वृति बृहन्न्यास अध्याय५ पू. लावण्यसूरिजीम.सा. | 037 વાસ્તુનિઘંટુ પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા તિલકમન્નરી ભાગ-૧ પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 039 | તિલકમન્નરી ભાગ-૨ પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 040 તિલકમઝરી ભાગ-૩ પૂ. લાવણ્યસૂરિજી સપ્તસન્ધાન મહાકાવ્યમ પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી 042 સપ્તભીમિમાંસા પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી ન્યાયાવતાર સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 045 | સામાન્ય નિયુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 046 | સપ્તભળીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 047 વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી 048 | નયોપદેશ ભાગ-૧ તરકિણીતરણી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 050 ન્યાયસમુચ્ચય પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 051 સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ પૂ. લાવણ્યસૂરિજી દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ પૂ. દર્શનવિજયજી 053 | બૃહદ્ ધારણા યંત્ર પૂ. દર્શનવિજયજી જ્યોતિર્મહોદય સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી 041. 480 228 043 6o 044 218 190 138 296 2io 049. 274 286 216 052 532 13 112 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પાદક | પૃષ્ઠ ! 160 202 48 322 અહો શ્રુતજ્ઞાનમ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર- સંવત ૨૦૬૬ (ઈ. ૨૦૧૦ - સેટ નં-૨ ક્રમ પુસ્તકનું નામ ભાષા કર્તા-ટીકાકા(સંપાદક 055 | श्री सिद्धहेम बृहद्वत्ति बूदन्यास अध्याय-६ पू. लावण्यसूरिजीम.सा. 296 056 | विविध तीर्थ कल्प पू. जिनविजयजी म.सा. 057 | भारतीय हैन श्रम संस्कृति सने मना शु४. पू. पूण्यविजयजी म.सा. 164 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः | सं श्री धर्मदत्तसूरि । 059 व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका श्री धर्मदत्तसूरि 0608न संगीत राजमाता | . श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी 306 061 चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश) | श्री रसिकलाल एच. कापडीआ | 062 व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय सं श्री सुदर्शनाचार्य 668 | 063 चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी पू. मेघविजयजी गणि 516 064 विवेक विलास सं/J. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य 268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध सं पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 456 066 सन्मतितत्त्वसोपानम् |सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा. 0676शमादा ही गुशनुवाई | गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 मोहराजापराजयम् सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया 428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह सं/J. श्री अंबालाल प्रेमचंद | 071 सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य | 308 072 | जन्मसमुद्रजातक सं/हिं श्री भगवानदास जैन 128 073| मेघमहोदय वर्षप्रबोध सं/हिं श्री भगवानदास जैन 532 0748न सामुद्रिनi iय jथी J४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 0758न यित्र इल्पद्र्भ साग-१ ४४. श्री साराभाई नवाब 374 420 406 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 076 | જન વિને જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 7 સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 7 | ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 079 | શિલ્પ ચિતામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 114 08 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨ 082 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083 આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧ 084 | કલ્યાણ કારક 085 | વિશ્વનયન વોશ 086 | કથા રત્ન કોશ ભાગ-1 087 કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 હસ્તસગ્નીવનમાં | ગુજ. | શ્રી સારામાકું નવાવ 238 | ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવાવ 194 ગુજ. | શ્રી સારામારૂં નવાવ 192 ગુજ. | શ્રી મનસુહાનાન્ન મુવમન | 254 ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારીમ 260 ગુજ. | શ્રી નાગનાથ મંવારમ 238 ગુજ. | શ્રી નવીન્નાથ મંવારમ 260 ગુજ. | પૂ. વરાન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પાર્શ્વનાથ શાસ્ત્રી 910 सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा 436 ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરાન કોશી 336 | ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરાન તોશી | 230 સં. | પૂ. મે વિનયની પૂ.સવિનયન, પૂ. पुण्यविजयजी | आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी 560 088 . 322 114 089 એ%ચતુર્વિશતિકા 090 સમ્મતિ તક મહાર્ણવાવતારિકા Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार पृष्ठ 272 92 240 93 254 282 95 118 466 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार-संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची।यह पुस्तके वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम पुस्तक नाम कर्ता/टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक |91 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना स्यादवाद रत्नाकर भाग-२ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना स्यादवाद रत्नाकर भाग-३ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना स्यावाद रत्नाकर भाग-४ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना स्यावाद रत्नाकर भाग-५ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना 96 पवित्र कल्पसूत्र पुण्यविजयजी सं./अं साराभाई नवाब 97 समराङ्गण सूत्रधार भाग-१ | भोजदेवसं . टी. गणपति शास्त्री समराङ्गण सूत्रधार भाग-२ भोजदेव टी. गणपति शास्त्री 99 . | भुवनदीपक पद्मप्रभसूरिजी सं. वेंकटेश प्रेस | 100 | गाथासहस्त्री समयसुंदरजी सं. सुखलालजी भारतीय प्राचीन लिपीमाला गौरीशंकर ओझा हिन्दी मुन्शीराम मनोहरराम 102 शब्दरत्नाकर साधुसुन्दरजी हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सुबोधवाणी प्रकाश न्यायविजयजी सं./गु हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 लघु प्रबंध संग्रह जयंत पी. ठाकर ओरीएन्ट इस्टी. बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३ माणिक्यसागरसूरिजी आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मतितर्क प्रकरण भाग-१,२,३ सिद्धसेन दिवाकर सुखलाल संघवी सन्मतितर्क प्रकरण भाग-४,५ सिद्धसेन दिवाकर सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका सतिषचंद्र विद्याभूषण एसियाटीक सोसायटी 342 98 362 134 70 101 316 224 612 307 250 514 107 454 354 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 109 सं./हि 337 110 सं./हि 354 111 372 112 सं./हि सं./हि सं./हि 142 113 336 364 सं./गु सं./गु पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाहर जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार अरविन्द धामणिया यशोविजयजी ग्रंथमाळा | यशोविजयजी ग्रंथमाळा | नाहटा ब्रधर्स | जैन आत्मानंद सभा जैन आत्मानंद सभा | फार्बस गुजराती सभा फार्बस गुजराती सभा | फार्बस गुजराती सभा 218 116 656 122 जैन लेख संग्रह भाग-१ पुरणचंद्र नाहर जैन लेख संग्रह भाग-२ पुरणचंद्र नाहर जैन लेख संग्रह भाग-३ पुरणचंद्र नाहर | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१ कांतिसागरजी जैन प्रतिमा लेख संग्रह दौलतसिंह लोढा 114 राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह विशालविजयजी प्राचिन लेख संग्रह-१ । विजयधर्मसूरिजी बीकानेर जैन लेख संग्रह अगरचंद नाहटा 117 प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१ जिनविजयजी 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२ जिनविजयजी 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१ गिरजाशंकर शास्त्री 120 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२ गिरजाशंकर शास्त्री गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३ गिरजाशंकर शास्त्री ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. | पी. पीटरसन 122 __ इन मुंबई सर्कल-१ ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. | पी. पीटरसन 123 इन मुंबई सर्कल-४ ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. पी. पीटरसन । इन मुंबई सर्कल-५ कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत पी. पीटरसन __ इन्स्क्रीप्शन्स | 126 | विजयदेव माहात्म्यम् जिनविजयजी 764 सं./हि सं./हि सं./हि सं./गु सं./गु सं./गु 404 404 121 540 रॉयल एशियाटीक जर्नल 274 रॉयल एशियाटीक जर्नल 41 124 400 अं. रॉयल एशियाटीक जर्नल भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपार्टमेन्ट, भावनगर जैन सत्य संशोधक 125 320 148 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्रीः ॥ भुवनदीपकः। SHR+SHESISE संस्कृतटीकया पं०वचूशर्मविरचितभाषाटीकया च सहितः ।। VVUNVVVNMUNAVA ALLAVIMVVVVVIVNVI गङ्गाविष्णु श्रीकृष्णदास, मालिक-" लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर " स्टीम्-प्रेस, कल्याण-बंबई. संवत् १९९६, शके १८६१. NNNNNNNNNNNNNNNNNNNA "Aho Shrut Gyanam" Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mamalnARAM -GRE - - - ENA मुद्रक और प्रकाशक गङ्गाविष्णु श्रीकृष्णदास, मालिक-"लक्ष्मीवेंकटेश्वर " स्टीम्-प्रेस, कल्याण-बंबई. सन् १८६७ के आक्ट २५ के वमुजब रजिष्टरी सब हक प्रकाशकने अपने स्वाधीन रक्खा है. - - - Printsav- समान.KAMBINAमराम "Aho Shrut Gyanam" Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना। यह बात किसीसे छिपी नहीं है कि भूत, भविष्य, वर्तमान इन तीनों कालोंकी बात कहनेकी शक्ति देनेवाला केवल ज्योतिष शास्त्र ही प्रसिद्ध है, यद्यपि इस शास्त्रके छोटे बडे अनेकानेक ग्रन्थ हैं और अपने २ विषयमें एकसे एक चढे वढे हैं परन्तु. छोटे ग्रन्योंमें प्रश्न तथा कुण्डलीफल कहने के लिये जैसा यह उत्तम है वैसा और कोई नहीं और जो लोग संस्कृत भाषाको भलीभांति नहीं समझ सको उनके लाभार्थ मिथिलामण्डलान्तर्गत कनिगामग्रामनिवासी श्रीवबुये शर्मात्मज ज्योतिर्विद् झोपनामक श्रीबच्चूश द्वारा इसकी सरल भाषाटीका करवाकर व प्राचीन संस्कृतटीका भी शुद्ध कराकर संयुक्त कर दी है। संस्कृतटीका तथा भाषाटीका सहित इस भुवनदीपक ग्रन्यको मैं निज “लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर" स्टीम्-प्रेस, कल्याण बम्बई में मुद्राकर प्रकाशित करता हूँ. आशा है कि ज्योतिषीगण इसे ग्रहण कर स्वयं लाभ उठावेंगे और हमारे परिश्रमको सफल करेंगे । आपका कृपाभिलाषी गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास, अध्यक्ष " लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर" (स्टीम् ) प्रेस, कल्याण-बम्बई. "Aho Shrut Gyanam" Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wrona OC अथ भुवनदापकांवषयानुक्रमाणका । विषयाः श्लोकाः । विषयाः श्लोकाः मङ्गलाचरणम् १ भार्या धृता विवाहिता ट्त्रिंशद्वारनामानि २ वा इति ज्ञानम् राशिस्वामिनः ११ | विषकन्याज्ञानम् ग्रहाणामुच्चनीचराशयः १३ भावान्तकग्रहफलम् ग्रहाणां मिथो मित्रशत्रसमभेदाः१६ विवाहसमये वृष्टिज्ञानम् राहोर्विशेषः १८ वादप्रश्नः ग्रहाणां ग्रामचरवनचरादिभेदाः २३ संकीर्णपदनिर्णयः तन्वादिद्वादशस्थानेष्ववलो प्रवासिचिंताज्ञानम् कनपदार्थाः रोगविषयज्ञानम् दुर्गभंगज्ञानम् इष्टकालानयनम् चौर्यादिज्ञानम् लग्नचंद्रयोर्बलनिर्णयः १२० विनष्टग्रहलक्षणम् क्रयविक्रयज्ञानम् १२७ नौकाशुभाशुभज्ञानम् १३८ राजयोगनिरूपणम् पुत्रप्राप्तिज्ञानम् कार्यावधिज्ञानलामादिज्ञा० । द्वादशभावानां शुभाशुभज्ञा० १४७ कार्यनाशज्ञानम् ८४ द्रेष्काणादेव सर्वफलनिर्णयः १५० गर्भक्षेमप्रश्नः ८७ दोषज्ञानम् १५८ गुर्विण्याः प्रसवः ८८ दिनचर्याज्ञानम् अपत्ययुग्मप्रसवः ८९ गर्भस्थपुत्रकन्याज्ञानम् गर्भस्य मासज्ञानम् ९० ग्रंथसमाप्तिश्लोकः १७. इति विषयानुक्रमणिका समाप्ता । "Aho Shrut.Gyanam" Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीः ॥ अथ भुवनदीपकः । संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः । सारस्वतं नमस्कृत्य महः सर्वतमोपहम् ॥ ग्रहभावप्रकाशेन ज्ञानमुन्मील्यते मया ॥१॥ सं० टी०-सारस्वतमिति । सरस्वत्याः संबन्धि सारस्वतम् । वा सरस्वत्याः पार्वत्या अपत्यं पुत्रं सारस्वतं गणेशं तच्च तन्महश्च तन्नमस्कृत्य मया ज्ञानमुन्मील्यते प्रकटीक्रियते । कथंभूतं महः ? सर्वस्यापि तमसोऽन्धकारस्याऽपहारकं विनाशकम् । केनोन्मील्यत इत्याह- ग्रहेति । ग्रहाः सूर्यादयः, भावा मेषादिराशयः, तेषां प्रकाशेन प्रकटीकरणेन । अश्वा-ग्रहा: सूर्याद्यास्तेषां यो भावः क्रूराऽकादिरूपस्तत्प्रकाशेन ॥ १ ॥ स्वाभीष्टदेवस्य पदारविन्दं ध्यात्वा हृदि श्रीबबुयेतनूजः । बच्चूसमाख्यो नृगिराऽस्य टीका कुर्वेऽर्भकानन्दकरी मनोज्ञाम् ॥ १ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) भुवनदीपकः । अर्थ- ग्रन्थकी निर्विघ्न समाप्तिके लिये ग्रंथकी आदि में मंगल करना शिष्टसंप्रदाय है, इसीलिये यह पद्मप्रभुसूरि नामक आचार्य भी नमस्कारात्मक मंगल करते हैं - कि, सकल अज्ञानरूप अन्धकारोंको नाश करनेवाले सरस्वती सम्बन्धी [ या (सारस्वत) पार्वतीजीका पुत्र गणेशरूपी ] तेजको नमस्कार करके इस भुवनदीपक नामक ग्रन्थ में सूर्यादि नवग्रह और लग्नादि द्वादश भावोंके व्याख्यारूप प्रकाशद्वारा ज्योतिश्शास्त्र सम्बन्धी ज्ञानको मैं प्रकाश करता हूँ अर्थात् जिस तरह दीपकसे अन्धकारमें स्थित वस्तुओंका ज्ञान होता है, उसी तरह इस " भुवनदीपक " ग्रंथद्वारा ज्योतिशास्त्र सम्बन्धी ज्ञानको प्रकाश करता हूँ ॥ १ ॥ गृहाधिपा उच्चनीचा अन्योन्यं मित्रशत्रवः || राहोगृहोच्चनीचानि केतुर्यत्रावतिष्ठते ॥ २ ॥ सं० टी० -अस्मिन् ग्रन्ये षटूत्रिंशद्वाराणि प्रवर्तन्ते तस्मातान्येव पूर्वमुद्दिशति नवलोकैः । अस्मिन् भुवनदीपके षट्त्रिंशद्वाराणि वक्ष्यन्त इत्यन्ते सम्बन्धः । गृहाधिपा इति-गृहाणां मेषादीनां लग्नानामविषाः स्वामिनः १, उच्चनीचत्वम् २, अन्योन्यं मित्रशत्रवः ३, राहोरुच्चनीचगृहाणि ४, केतुर्यत्र यस्मिन् राशौ अवतिष्ठते ५ ॥ २ ॥ अर्थ - इस ग्रंथ में छत्तीस द्वार हैं। उन छत्तीसों द्वारोंमें जो जो विषय आचार्य कहेंगे, उनको पहिले नौ श्लोकोंमें कहते हैं - कि, "Aho Shrut Gyanam" Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका - भाषाटी कासमेतः । (३) १ द्वारमें गृहाधिप अर्थात् मेषादि द्वादश राशियोंके स्वामीका वर्णन, २ में ग्रहों का उच्च नीचका विचार, ३ में ग्रहोंके परस्पर मित्र और शत्रुका कथन, ४ में राहुका गृह और उच्च तथा नीच, ५ में जिस स्थानपर केतु रहता है, इसका वर्णन करेंगे ॥ २ ॥ स्वरूपं ग्रहचक्रस्य वीक्ष्यं द्वादशवेश्मसु ॥ निर्णयोऽभीष्टकालस्य यथालनं विचार्यते ॥ ३ ॥ सं० टी० - ग्रहचक्रस्य स्वरूपम् ६, द्वादशस्वपि गृहेषु कुत्र किं विलोकनीयमिति ७, अभीष्टकालस्य निर्णयः ८, लग्नविचारः ९ ॥ ३ ॥ अर्थ - ६ में ग्रहों के स्वरूप, ७ में बारहों भावों के बीचमें कौन भावसे क्या देखना उसका वर्णन, ८ में इष्टकालका ज्ञान, ९ में लग्नसम्बन्धी विचार ॥ ३ ॥ ग्रहो विनष्टो यादृक् स्याद्राजयोगचतुष्टयम् ॥ लाभादीनां विचारश्च लग्नेशावस्थितेः फलम् ४ || सं० टी० - विनष्टो ग्रहः कीदृक् तस्य व्याख्या उच्यते १ राजयोगचतुष्टयम् ११, लाभालाभविचारः १२, लग्नाधिप स्थितेः फलम् १३ ॥ ४ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) भुवनदीपकः । अर्थ - १० में कीदृश ग्रह विनष्ट होता है, उसका विचार, ११ में चार प्रकारके राजयोगोंका कथन, १२ में लाभालाभका विचार, १३ में लग्नेशकी स्थिति से फल कथन ॥ ४ ॥ गर्भस्य क्षेममेतस्य गुर्विण्याः प्रसवो यदा ॥ अपत्ययुग्मप्रसवो ये मासा गर्भसंभवाः ॥ ५ ॥ सं० टी० - एतस्य गर्भस्य क्षेमं कल्याणमस्ति वा नवा १४, गुर्विण्याः प्रसवः प्रसूतिकालसमय: १५, युगलबालजन्मज्ञानम् १६, ये मासा गर्भसंभवाः संख्याः १७ ॥ ५ ॥ अर्थ - १४ में प्रश्नद्वारा गर्भका कल्याण रहेगा या गर्भपात होगा, इसका विचार, १५ में गुर्विणीके प्रसवसमयका ज्ञान, १६ में यमज अर्थात् दो संतानोंके एकसाथ जन्म होनेका विचार, १७ में जिस मासका गर्भ है, उस मासका निर्णय करेंगे ॥ ५ ॥ धृता विवाहिता भार्या विषकन्या यथा भवेत् ॥ भावान्तगो ग्रहो यादृग्विवाहादिविचारणाः ||६|| सं० टी० - धृता उद्धृता विवाहिता भार्या १८, यथा येन प्रकारेण विषकन्या भवेत् १९, भावान्तगस्य ग्रहस्य स्वरूपम् २०, विवाहादिविचारणाः २१ ॥ ६ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (५) अर्थ-१८ में कन्यालामालाभप्रश्नमें धरी हुई या विवाहिता कन्या मिलेगी, इसका विचार, १९ में विषकन्याप्राप्तिके योग जिस तरह होता है, उसका कथन, २० में भावके अन्तमें स्थित ग्रह जिसप्रकार फल करता है, उसका विचार, २१ में विवाहादिक विचार करेंगे ॥ ६ ॥ वक्तव्यता विवादस्य संकीर्णपदनिर्णयः ।। निश्चयो दीप्तपृच्छासु पथिकस्य गमागमौ ॥७॥ सं० टी०-विवादस्य विवादिनः वक्तव्यता २२, संकीर्णपदनिर्णयः २३, दीप्तपृच्छासु धातुवादादिपृच्छासु निर्णयः २४, पथिकस्य गमागमौ २५ ॥७॥ __ अर्थ-२२ में विवाद अर्थात् युद्धादिमें जय पराजयका कथन, २३ में संकीर्णपदका विचार, २४ में दीत (क्रूर) या धातुवादा. दिक प्रश्नमें संदिग्ध वस्तुओंका निश्चय, २५ में प्रवासी मनुष्यका गमागम ( जाने आने ) का विचार करेंगे ॥ ७ ॥ मृत्युयोगो दुर्गभङ्गश्चौर्यादिस्थानसप्तकम् ॥ क्रयणकार्यविज्ञानं नौमृत्युबन्धनत्रयम् ॥ ८॥ सं० टी०-मृत्युयोगः २६, दुर्गभंगः कोटभंगः २७, चौर्यादिस्थानसप्तकम् २८, ऋयणकार्यविज्ञानं समर्घस्वरूपम् २९, नौमृत्युबन्धनानां त्रयं नौकुशलताधरणकादि ३० ॥ ८ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) भुवनदीपकः। अर्थ-२६ में मृत्युयोग कथन, २७ में दुर्ग ( किला ) भंग होजानेका योग, २८ में चौर्यादि सात स्थानोंका विचार, २९ में क्रय विक्रयकार्याकार्य अर्थात् व्यापारमें लाभालाभका विचार, ३० में नौका, मृत्यु और बंधन इन तीनोंका विचार करेंगे ॥ ८ ॥ लाभादयो दिनेऽतीते फलं मासस्य लग्नपात् ॥ द्रेष्काणादेः फलं सर्व दोषज्ञानं महाऽद्भुतम्॥९॥ सं० टी०-अतीते दिने गतदिने लाभालाभादयो विचाराः ३१, लग्नपतेः सकाशात्कदा लाभः कस्मिन्मासे लाभः ३२, द्रेष्काणादिफलम् ३३, अद्भुतदोषज्ञानम् ३४ ॥९॥ अर्थ-३१ में व्यतीत दिनके लाभालाभ विचार, ३२ में लग्न. स्वामीके वशसे मासफलका विचार, ३३ में द्रेष्काणादिके संपूर्ण फलोंका विचार, ३४ में' महान् अद्भुत संबन्धी दोषज्ञानका कथन करेंगे ॥९॥ दिनचर्या नृपादीनां गर्भेऽस्मिन्कि भविष्यति । षत्रिंशदस्मिन्दाराणि ग्रन्थे भुवनदीपक॥१०॥ सं० टी०-राजादीनां कस्मिन्दिने कि भविष्यतीति दिनचर्या ३५, अस्मिन् गर्भे किं पुत्रकादि ३६, अस्मिन् भुवनदीपके शास्त्रे षत्रिंशवाराणि नवभिः श्लोकः कथितानि । इति पत्रिंशवाराणि ॥ १०॥ "Aho Shrut.Gyanam" Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः (७) अर्थ-३५ में राजादिकोंके दिनचर्या अर्थात् कौन दिनमें क्या शुभाशुभ होगा, उसका विचार, ३६ में इस गर्भमें क्या होगा ? अर्थात् पुत्रादिकका विचार करेंगे । इस "भुवनदीपक" नामक ग्रंथमें ये छत्तीस द्वारोंके विषय मैंने नौ श्लोकोंमें कहे ॥ १० ॥ मेषवृश्चिकयोभीमः शुक्रो वृपतुलाभृतोः॥ बुधःकन्यामिथुनयोःकर्कस्वामी तु चन्द्रमाः ११ सं० टी०-मेषवृश्चिकयोः प्रथमाष्टमयोः स्वामी मंगलः, वृषतुलयोः द्वितीयसप्तमयोः स्वामी शुक्रः, कन्यामिथुनयोः षष्ठतृतीययोः स्वामी बुधः, कर्कस्य चतुर्थभवनस्य स्वामी चन्द्रमाः ॥११॥ ___ अर्थ-अब प्रथम द्वार में मेषादिराशिके स्वामीका निर्णय करते हैंकि, मेष और वृश्चिकका मंगल, वृष और तुलाका शुक्र, कन्या और मिथुनका बुध, तथा कर्क राशिका चन्द्रमा स्वामी है ॥ ११ ॥ स्यान्मीनधन्विनो वः शनिर्मकरकुम्भयोः ॥ सिंहस्याधिपतिः सूर्यः कथितो गणकोत्तमैः१२ सं० टी०-मीनधन्विनोः द्वादशनवमयोः स्वामी जीवो बृहस्पतिः, मकरकुम्भयोः दशमकादशयोः स्वामी शनिः, सिंहस्य पंचमस्थानस्याधिपतिः सूर्यः, गगकोत्तमज्योतिविद्भिः कथितः। पूर्व किल सिंहादिगृहषट्कस्य स्वामी सूर्यः, "Aho Shrut Gyanam" Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवनदीपकः । ( ८ ) कर्कादिगृहपदकस्य स्वामी चन्द्रः । परं बुधादिग्रहप्रार्थनयैकमेक दत्तं, चन्द्रसूर्ययोः एकमेकं गृहं स्वस्य स्थितमित्येके कगृहाधिपतित्वमनयोः अपरेषां च बुधादिग्रहाणां गृहयुगलाधिपतित्वमिति भावार्थः । चन्द्रेण बुधाय मिथुनराशिः दत्तः, सूर्येण कन्याराशिः । चन्द्रेण शुक्राय वृषराशिः, सूर्येण तुलाराशिः । चन्द्रेण भौमाय मेषराशिः, सूर्येण वृश्चिकराशिः । चन्द्रेण गुरखे मीनराशिः सूर्येण धनुराशिः । चन्द्रेण शनैश्वराय कुम्भराशिः, सूर्येण मकरराशिदत्तः ॥ १२ ॥ इति गृहाधिपद्वारं प्रथमम् ॥ १ ॥ अर्थ-मीन और धनुका बृहस्पति, मकर और कुम्भका शनि, तथा सिंहका स्वामी सूर्य है, ऐसा गणित के जाननेवाले उत्तम विद्वानोंने कहा है ॥ १२ ॥ अथ राशिस्वामिचक्रम् | ग्रहाः रवि चं. सं. बुध बृ. राशि सिंह कर्क मेष मिथु मिथु धन राशि. O ० शु. इति गृहाधिपद्वारम् । "Aho Shrut Gyanam"; वृष श. मकर वृश्चि. | कन्या | मीन तुला | कुम्भ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमतः। (९) रवेर्मेषतुले प्रोक्ते चन्द्रस्य वृषवृश्चिकौ ॥ भौमस्य मृगकको च कन्यामीनो बुधस्य च १३ सं० टी०-अथोच्चनीचद्वारमाह-रवेःसूर्यस्य मेष उच्चं, तुला नीचम् । कुतः ? सप्तमत्वात् । ' उच्चान्नीचं सप्तममर्कादीनाम् । इत्याद्युक्तत्वाच्च । एवं सर्वत्र ज्ञेयम् । तथा चन्द्रस्य वृष उच्चं, वृश्चिकः नीचम् । तथा भौमस्य मकर उच्चं, कों नीचम् । तथा बुधस्य कन्योचं, भीनो नीचम् ॥ १३ ॥ ___ अर्थ-अब द्वितीय द्वारमें उच्च और नीच एकत्र ही क्रमसे कहते हैंसूर्यका मेष और तुला क्रमसे उच्च और नीचे है अर्थात् सूर्यका उच्च मेष राशि है और नीच तुला है। इसी प्रकारसे चन्द्रमाका उच्च वृष है और नीच वृश्चिक है, मंगलका उच्च मकर है और नीच कर्क है, बुधका उच्च कन्या राशि है और नीच मीन है ॥ १३ ॥ जीवस्य कर्कमकरौ मीनकन्ये सितस्य च ॥ तुलामेषौ च मंदस्य उच्चनीचे उदाहृते ॥१४॥ सं० टी०-बृहस्पतेः कर्कः उच्चं, मकरो नीचम् । तथा शुक्रस्य मीन उच्चं, कन्या नीचम् । तथा मंदस्य शने: तुला उच्चं, मेषो नीचम् । अथ प्रस्तावात्परमोच्चादि शास्त्रान्तराल्लिख्यते-यथा वेर्मेषतुलेति । प्रागुक्तेषु उच्चभवनेषु त्रिशांशापेक्षया "दश १० शिख्य३ष्टाविंशति २८ तिथी १५ न्द्रिय५त्रिनवक२७ विशेषु २० ।" इत्याद्यर्थाऽपराधसंज्ञायां ज्ञेयम् । तथा हि "Aho Shrut Gyanam" Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) भुवनदीपकः। मेषस्य दशमे त्रिंशांशे रविः परमोच्चगतः सर्वतस्तेजस्कारी। एवं चन्द्रादिष्वापि । उच्चफलं चैतत-"सुखी १ भोगी २ धनी३ नेता ४ जायते मण्डलाधिपः ५॥ नृपतिश्चक्रवर्ती च ६-७ सूर्याधुच्चैरनुक्रमात् ॥ १ ॥" जातकेन च. परमोच्चसंज्ञा मेषे तु प्रथमदशमभागान् यावत् सूर्य उच्चं पश्चात्तेजः पतित इति । एवं चन्द्रादिष्वपि । तथा च तुलायां दशमे त्रिशांशे सूर्य: परमनीचं गतः सर्वतस्तेजोहासकारी । एवं चन्द्रादिष्वपि ज्ञेयम् ॥ १४ ॥ इत्युच्चनीचद्वारं द्वितीयम् ॥ २ ॥ ____ अर्थ-बृहस्पतिका कक उच्च है और मकर नीच है, शुक्र का उच्च मीन है और नीच कन्या है, शनैश्चरका उच्च तुला है और नीच मेष है, यह ग्रहोंका उच्च नीच कहा है ॥ १४ ॥ अथोच्चनीच-चक्रम् । ग्रहाः रवि / चं. । मं, | बुध । बृ. । शु. श. उच्च मेष | वृष | मकर | कन्या कर्क | मीन | तुला राशि नीच तुला । वृश्चि. कर्क | मीन | मकर । कन्या | मेष ॥ হিহি अश १० । ३ २८/१५ | | २७ ... . इति उच्चनीचद्वारम् । "Aho Shrut Gyanam' Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (११) रवीन्दुभौमगुरखो ज्ञशुक्रशनिराहवः॥ स्वस्मिन्मित्राणिचत्वारिपरस्मिञ्च्छत्रवःस्मृताः॥ सं०टी०-अन्योन्यमित्रशत्रद्वारमाह-रविचन्द्रभौमगुरवः एते चत्वारः परस्परं मित्राणि अविरोधित्वात् । तथा ज्ञो बुधः शुक्रशनिराहवोऽपि स्वस्वविषये मित्राणि अविरोधित्वात् । तथा अमीषां चतुर्णा मध्ये यदि पञ्चमः कोपि मिलति स शत्रुरेव परदलत्वात् ॥ १५॥ __ अर्थ-अब तृतीय द्वारमें परस्पर शत्रु मित्र कहते हैं-रवि, चन्द्र, मंगल, बृहस्पति ये चारों परस्पर मित्र हैं, तथा बुध, शुक्र, शनि और राहु ये भी परस्पर मित्र हैं और शेषग्रह शत्रु हैं ॥ १५ ॥ राहुरव्योः परं वैरं गुरुभार्गवयोरपि ॥ हिमांशुबुधोरं विवस्वन्मन्दयोरपि ॥ १६॥ ज्ञशनी सुहृदौ मित्राण्यचन्द्रकुजाः सदा ॥ पूज्यवर्गों गुरुसितौ सैंहिकेयस्य कथ्यते ॥ १७॥ सं०-टी०-अत्रैव ग्रहाणां परमवैरमाह-राहुरव्योरिति । राहु. सूर्ययोः परं वैरम् । बृहस्पतिशुक्रयोरपि तथैव । तथा हिमांशु बुधयो:रम्, विवस्वान् सूर्यो, मन्दः शनैश्चरस्तयोः परं वैरम्, "Aho Shrut Gyanam" Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) भुवनदीपकः । ज्ञशनी बुधशनैश्वरौ सुहृदौ, अर्कचन्द्रकुजाः सदा मित्राणि, गुरुसितौ परस्परं पूज्यवर्गों । परमित्यस्य सर्वत्र सम्बन्धः सैंहिकेयस्य कथ्यते इत्यस्याग्रिमश्लोके सम्बन्धः । इति अन्योन्यमित्रशद्वारं तृतीयम् ॥ १६ ॥ १७ ॥ अर्थ - अब परम वैर और परम मैत्री कहते हैं- राहु और रवि बृहस्पति और शुक्र, चन्द्रमा और बुब, सूर्य और शनि इन दो दो ग्रहों को आपस में महावैर है । अब परम मित्र कहते हैं - बुध, शनि, मंगल, चन्द्रमा, और रवि, ये सर्वदा परस्पर परम मित्र हैं और बृहस्पति तथा शुक सर्वदा आपसमें पूज्यभाव रखते हैं ॥ १६ ॥ १७ ॥ इति शत्रु मित्रद्वारम् ॥ ३ ॥ यबुधस्य ग्रहस्योच्चं राहोस्तदगृहमुच्यते ॥ यद्बुधस्य गृहं राहोस्तदुच्चं ब्रुवते बुधाः ॥ १८ ॥ सं० टी० - अथ राहूच्चादिद्वारमाह- बुधस्य यदुखं कन्यालक्षणं राहोस्तत्सामान्यं गृहमूचिरे । तथा यच्च बुधस्य सामान्यं मिथुनं तद्राहरुच्चमिति बुधाः पण्डिताः ब्रुवते कथयन्ति ॥ १८ ॥ अर्थ - अब चतुर्थद्वार में राहुके गृहादिक कहते हैं - जो बुधका उच्च (कन्या ) कहा है, वह राहुका गृह है और जो बुधका गृह (मिथुन) है, वह राहुका उच्च है, ऐसा पंडितलोग कहते हैं ॥ १८ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (१३) कन्या राहुगृहं प्रोक्तं राहूचं मिथुनं स्मृतम् ।। राहुनीचं धनुर्वर्णादिकं शनिवदस्य च ॥ १९॥ सं०टी०-एतदेव पाठान्तरेणाह-कन्या राहोः सामान्यं गृहं तथा राहोरचं मिथुनं स्मृतं कथितम् । राहोनीचं धनुः। अस्य राहोर्वर्णादिकं स्वभावादिकं शनिवत्, एकस्वभावात् १९ अर्थ-पूर्व कथित राहुके गृहादिकको स्पष्ट करते हैं-कि, राहुका गृह कन्या कहा है और उच्च मिथुन कहा है तथा नीच धनराशि है और राहुके स्वरूप आदि शनिके सदृश हैं ॥ १९ ॥ राहुर्दुष्टः परं किंचिदुदास्ते मित्रसमनि ॥ कन्यामिथुनयोः किञ्चिद्विधत्ते शुभमप्ययम्॥२०॥ सं० टी०-अथ राहोः स्वभावमाह-राहुर्यद्यपि दुष्टः क्रूरत्वातथापि मित्रगृहे बुधशनिगृहे वर्तमानः किञ्चिदुदासीनो भवति, दुष्टकरणाभावात् । तथा कन्यायां मिथुने वा वर्तमानः किञ्चित् शुभमपि विधत्ते करोति । एवमयं राहुः शुभाध्यवसायत्वात् । विशेषश्चायम्-" अजवृषकर्कटलग्ने रक्षति राहुः समस्तदुरितेभ्यः । पृथ्वीपतिः प्रसन्नः कृतापराधं यथा पुरुषम् ॥ " इति भावः पाठान्तरेण तथा मतान्तरम्-" ज्येष्ठः कुजोऽर्क आषाढः शुक्रस्तु श्रावणः शशी । नभस्यो ज्ञोऽश्विनोजौ च गुरुमार्गे च "Aho Shrut Gyanam" Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) भुवनदीपकः । पौष || मन्दः फाल्गुनमाघौ च राहुश्चैत्रः समाधवः । यद्वा मेषे विश्वत्रे इत्यादौ मासनिर्णयः ॥ रवौ मृगादिषट्कस्ये उत्तरायणमन्यथा । दक्षिणायनमेतद्वा लग्नात्पूर्वाऽपरार्धयोः ॥ राशिषट्के खेराद्ये चन्द्रे शुद्धः परेऽपरः । यस्यां राशौ वेश्चन्द्रः स पादस्य तिथिद्वयम् ॥ सूर्याक्रान्तादिलग्नानि षड्वासरोऽन्यथा निशा " ॥ २० ॥ इति राहूच्चादिद्वारं चतुर्थम् ॥ ४ ॥ अर्थ - यद्यपि राहु दुष्टग्रह है तथापि मित्र अर्थात् शनि और बुधके घरमें रहने से उदासीन रहता है अर्थात् दुष्टफलको नहीं करता है । और कन्या या मिथुन राशिमें होने से किंचित् शुभमी करता है ॥ २० ॥ इति राहुगृहोच्चनीचद्वारम् ॥ ४ ॥ राहुच्छाया स्मृतः केतुर्यत्र राशौ भवेदयम् || तस्मात्सप्तमके केतू राहुः स्याद्यत्र चांशके ॥ २१॥ तस्मादंशे सप्तमे स्यात्तोरंशो नवांशकः ॥ त्रिंशांशो भागशब्देन पारम्पर्यमिदं गुरोः ॥ २२ ॥ सं० टी०-अथ केतुस्थितिद्वारमाह-राहुच्छायारूपः केतुः स्मृतः । यत्र यस्मिन् राशौ अयं राहुर्भवेत् तस्माद्राशेः सप्तमे केतुः । अथवा यत्र यस्मिन् नवांशके अयं राहुः स्यात्तस्मात्ससमे स्थाने तत्तुल्ये नवांशे केतुः स्यादेवेत्यर्थः ॥ २१ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (१५) तथा तस्मादिति । अर्थः प्रागुक्त एव । परं केतोरंशको नवांशक एव । अत्र भागशब्देन त्रिंशांशकभाग एव ज्ञेयः । परं चानयनप्रकारो गुरोः सकाशाज्ज्ञेयः । “ आम्नायाः खलु दुर्लभाः" इत्युक्तत्वादिति प्रत्यक्षमाह-इदं वचनं यस्मिन् ग्रह त्रिंशांशे राहुः स्यात्तस्मिन् ग्रहत्रिंशांशे केतुः स्यात् । "कुजयमजीवज्ञसिताः पञ्चे ५न्द्रिय५वसु ८ मुनीन्द्रियांशानाम् ५ । विषमेषु समक्षेषुक्रमेण त्रिशांशकाः कल्प्याः ॥ " एवं होराद्रेष्काणदशांशा ज्ञेयाः ॥ २२ ॥ इति केतुस्थितिद्वारं पञ्च. मम् ॥ ५ ॥ अर्थ-अब पञ्चमद्वारमें केतुका स्थानादि वर्णन करते हैं-राहुका छायारूप केतु है, इसी लिये राहु जिस राशिमें जितने अंशपर रहता है, उससे सप्तम राशिपर उतने ही अंशपर केतुका स्थान रहता है, इस ग्रन्थमें अंश शब्दसे नवमांश तथा भाग शब्दसे त्रिशांशका ग्रहण है, ऐसा परंपरासे तथा गुरुद्वारा जानना चाहिये ॥ २१ ॥ २२ ॥ ___ इति केतुस्थितिद्वारम् ॥ ५ ॥ भार्गवेन्दू जलचरौ ज्ञजीवौ ग्रामचारिणौ ॥ राहुक्षितिजमन्दार्का ब्रुवतेऽरण्यचारिणः २३ ॥ ___ सं०टी०-अथ ग्रहस्वरूपादिद्वारमाह-भार्गवः शुक्रः,इन्दुश्चन्द्रमा द्वावपि जलचरौ । ज्ञो बुधो जीवो बृहस्पतिः ग्राम "Aho Shrut Gyanam" Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) भुवनदीपकः । चारिणौ । तथा राहुभौमशनैश्वरसूर्याः चत्वारोऽपि अरण्यचारिणः इति पण्डिता ब्रुवते ॥ २३ ॥ अर्थ- अब छठे द्वारमें मूक प्रश्नोत्तरके लिये ग्रहोंके स्थानस्वरूपादि कहते हैं - शुक्र और चन्द्रमा जलचारी हैं, बुध और बृहस्पति ग्रामचारी हैं तथा राहु, मङ्गल, शनि और रवि ये वनचारी हैं, ऐसा पंडित लोग कहते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि, प्रश्न समय में जो ग्रह बलवान् होकर लग्नको देखे या युक्त हो तो उसको कथित स्थानसम्बन्धी वस्तु कहना । जैसे- शुक्र या चन्द्र बलवान् हो तो जल सम्बन्धी इत्यादि ॥ २३ ॥ प्रभातमिन्दुजगुरू मध्याह्न रविभूमिजौ ॥ अपराह्न भार्गवेन्द्र सन्ध्यां मन्दभुजङ्गमौ ॥ २४ ॥ सं० टी० - ग्रहाणां प्रभातादिकालज्ञानमाह - चिन्तायां कदा नष्टं कदा मूकमिति भावितप्रश्ने इन्दुजो बुधः, गुरुर्बृहस्पतिः सबलौ यदि लग्ने तदा प्रभातकालं कथयतः । तथा सूर्यभौमौ मध्याह्नकालं वदतः । तथा शुक्रचन्द्रो अपराह्नकालं तृतीयप्रहरं ज्ञापयतः । तथा शनैश्चरराहू संध्याकालं कथयतः । तथा मतान्तरे - "शनिराहुसुराचार्यै राश्यवस्थितमानतः । त्रिकाल - विषये कार्ये वर्षाकं ब्रुवते बुधाः ॥ २४ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका - भाषाटीकासमेतः । ( १७ ) अर्थ - ग्रहपरसे मूकप्रश्न में कालज्ञान कहते हैं - बुध या बृहस्पति बलवान् होकर लग्नको देखें या युक्त हों तो प्रातःकाल कहना, रवि और मंगलसे मध्याह्न, शुक्र और चन्द्रमासे अपराह्न, शनि और राहुसे संध्याकाल कहना अर्थात् प्रश्नसम्बन्धी वस्तु किस समय में गई थी, अमुक काम किस समयमें होगा, इत्यादि जानने के लिये यह कहा गया है ॥ २४ ॥ तिर्यग्दृशौ बुधसितौ भौमाको व्योमदर्शिनौ || जीवेन्द्र समदृष्टी च शनिराहू त्वोदृशौ ॥ २५ ॥ सं० टी० - अथ नष्टादेिवस्तुतिर्यगादिसुचकं ग्रहस्वरूपमाहबुधशुकौ तिर्यग्दृष्टी भवतः । मंगलसूर्यावूर्ध्वदृष्टी भवतः । अत्र व्योमशब्देन ऊर्ध्वमुच्यते । दृष्टिवशाच कोटचक्रे सुभटे वा घातनिर्णयः । बृहस्पतिचन्द्रौ समदृष्टी भवतः । शनी राहुवाघोदृष्टी भवतः । कोऽर्थः - यदा किञ्चिन्नष्टं विनष्टं वा कुत्रास्तीति प्रश्ने यो ग्रहो लग्ने वा वस्तु पश्यति, दृष्ट्यनुसारेण गतवस्तुस्थानं वाच्यमिति भावः । पाठान्तरेण पूर्वादिज्ञानमाह - " शुक्रार्कौ स्तः पूर्वमुख गुरुसौम्यावुदङ्मुखौ । सोमशनी च प्रतीच्यौ शेषा दक्षिणतोमुखाः ॥ " दृष्टिविशेषमाह पाठान्तरेण - "दशमतृतीये नवपञ्चमे चतुर्थाष्टमे कलत्रं च । पश्यन्ति पाद I २ "Aho Shrut Gyanam" Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) भुवनदीपकः। वृद्धया फलानि चैवं प्रयच्छन्ति॥' तथा च-" तृतीय३कादशे. ११ पादं दलं व्योम १० चतुर्थ ४ के। त्रिकोणे अधिमूर्त्यस्ते पूर्ण पश्यन्ति खेचराः ॥"एतदेव पुनर्विशेषमाह-" पूर्ण पश्यति रविजस्तृतीय ३, १० दशमे त्रिकोणमपि जीवः५, ९ । चतुरनं ४, ८ भूमिसुतः सितार्कबुधहिमकराः कलत्रं च ॥" ताजिके-"एकादशेऽपि भवने सर्वे पश्यन्ति खेचराः । षट्स्वान्त्या १२ नि न पश्यन्ति दीपान्धा इव खेचराः " ॥ २५ ॥ __अर्थ-यहां नष्टादि वस्तुओंके स्थान जाननेके लिये ग्रहोंकी तियगादि दृष्टि वर्णन करते हैं-बुध और शुक्र तिरछी दृष्टिवाले हैं, मंगल और रवि आकाशके तरफ ऊर्ध्व दृष्टिवाले हैं, बृहस्पति और चन्द्रमा समदर्शी हैं, शनि और राहु नीचेकी तरफ दृष्टिवाले हैं। इसका तात्पर्य यह है कि, जो ग्रह बलवान् होकर लग्नको देखे, उस ग्रहकी दृष्टिके समान स्थान सम्बन्धी वस्तु कहना । यथा-रवि या मंगल बलवान् होकर देखें तो आकाश स्थित, बुध या शुक्र देखें तो भित्ति (दीवाल) आदिमें खोदे हुए स्थानमें, बृहस्पति या चन्द्रमा देखें तो समान भूमिमें, शनि या राहु बलयुक्त होकर लग्नको देखें तो भूमिमें खात आदि सम्बन्धी वस्तु जानना । यहां दृष्टिके संबन्धसे जिस २ स्थानपर जितनी २ दृष्टि ग्रहोंकी होती है, उसको लिखता हूँ-शनिवर्जित सब ग्रह स्वाधिष्टित स्थानसे तृतीय और दशमको एकपाद दृष्टिसे देखते हैं, परन्तु शनि इन दोनों स्थानोंको पूर्ण दृष्टिसे देखता है। तथा गुरु "Aho Shrut Gyanam" Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (११) वर्जित सब ग्रह नवम और पञ्चमको द्विपाद दृष्टिसे देखते हैं, परन्तु गुरु इन दोनों स्थानोंको पूर्ण दृष्टि से देखता है । फिर मंगलवर्जित सब ग्रह चतुर्थ और अष्टमको त्रिपाद दृष्टि से देखते हैं, परन्तु मंगल इन दोनों स्थानोंको पूण देखता है और सप्तमको सब ग्रह पूर्ण देखते हैं। इसके चक्र भी लिखते हैं। अथ दृष्टिचक्रम् । | प्रहाः । रवि | चन्द्र | मंगल बुध | बृ. । शुक्र । शान | राहु | ३-१०३-१०३-१०३-१० ३-१० ० स्थान द्वि.दृ. स्था, त्रि. ह. स्था. पूर्ण इ. स्था, पहाः चन्द्र शक एकपाददृष्टि '-८ ० ४-८४-८४-८४-८४-८ १० X Ramanand इससे सिद्ध हुवा कि, प्रथम, द्वितीय, छठे, ग्यारहवें, बारहवें स्थानोंपर ग्रहोंकी दृष्टि नहीं होती, इसमें एक स्थान स्थित ग्रह युक्त कहलाता है, इसीलिये दृष्टिका उपादान नहीं होनेसे भी पूर्ण फल दायक होता है ॥ २५ ॥ पित्तं प्रभाकरक्ष्माजौ श्लेष्मा भार्गवशीतगू ॥ ज्ञगुरू समधातू च पवनौ राहुमन्दगौ ॥२६॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) भुवनदीपकः। सं० टी०-अथ ग्रहाणां पित्तादिधातुज्ञानमाह-रोगिणां पृच्छायां वा जन्मकाले यदि सूर्यमंगलौ मूर्ती स्यातां तदा पित्तभाव वदतः। भार्गवः शुक्रः शीतगुश्चन्द्रः श्लेष्मविकार कथयतः।ज्ञगुरू समधातुभावम् । राहुशनी पवनं वातप्रकोपम्२६ अर्थ-अब रोगादिप्रश्नद्वारा या जन्मपत्रद्वारा मनुष्योंकी प्रकृति जाननेके लिये ग्रहोंकी प्रकृति कहते हैं-सूर्य और मंगल पित्तप्रकृतिवाले हैं, शुक्र और चंद्रमा कफप्रकृतिवाले हैं, बुध और बृहस्पति समधातुवाले हैं अर्थात् पित्त, कफ और वायु ये तीनों सम हैं । राहु और शनि वातप्रकृतिवाले हैं। इसका तात्पर्य यह है कि, प्रश्नसमयमें या जन्मपत्रादिमें जो ग्रह बलवान् होकर लग्नको देखे या युक्त हो उस ग्रहकी प्रकृति प्राणको कहनी चाहिये ॥ २६ ॥ कुजाकौँ कटुको जीवो मधुरस्तुवरो बुधः॥ क्षाराम्लो चन्द्रभृगुजौ तीक्ष्णौसर्किनन्दनौ ॥२७ सं० टी०-अथ ग्रहाणां रसज्ञानमाह-कुजो मंगलः, अर्कः सूर्यः द्वावपि कटुकस्वभावौ । गुरुः मधुरस्वभावः । बुधस्तुवरः कषायप्रकृतिः । चन्द्रः क्षारः । शुक्रः अम्लः । राहुशनी तीक्ष्णौ, क्रूरप्रकृतिकवादिति भावः ॥ २७ ॥ ___ अर्थ-यह प्राणी किस रसका प्रिय है, इसको जाननेके लिये ग्रहोंके रस कहते हैं-मंगल और रवि कडुवा रसके प्रिय हैं, बृहस्पति मधुर "Aho Shrut Gyanam" Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (२१) रसका प्रिय है, बुध तुवर (कषाय) रसका प्रिय है, चंद्रमा क्षारप्रिय है, शुक्र अम्ल ( खट्टा) रसका प्रिय है, राहु और शनि तीक्ष्णरस प्रिय है । प्रयोजन यह है कि, जन्मपत्रमें या प्रश्नकुण्डलीमें जो ग्रह बलवान् होकर लग्नको देखे या युक्त हो, उस ग्रहके जो रस कहे हैं, वह प्राणी भी उसी रसका प्रिय होगा ॥ २७॥ मन्दंदूरगभौमाः स्युर्धातुः सवितृभार्गवौ ॥ मूलं जीवश्च सौम्यश्च जीवं प्राहुमहाधियः२८॥ सं०टी०-अथ धातुमूलजीवज्ञानमाह-मन्दः शनैश्चरः इन्दुः चन्द्रमाः, उरगो राहुः, भौमो मंगलः, चतुर्णी मध्ये योकोऽपि लग्ने भवति वा पश्यति तदा धातुं वदति । प्रच्छकस्येति शेषः। सूर्यशुक्रौ लग्ने वर्तमानौ पश्यन्तौ वा मूलचिन्ता कथयतः । जीवो बृहस्पतिः, सौम्यो बुधः लग्ने वर्तमानौ पश्यन्तौ वा जीवचिन्तां वदतः । महाधियः पण्डिता इति वदति । पाठान्तरेणापि धात्वादिज्ञानमाह-" बलिनौ केन्द्रोपगतौ रविभौमौ धातुकारको प्रश्ने । बुधसौरी मूलकरौ शशिगुरुशुक्रास्तथा जीवम् ॥ स्वगृहं स्वोच्चं हद्दा त्रैराशिकमथ मुशल्लहं चैते । पंचगृहाधिकारं विनाऽधिकारं ग्रहो न बली॥ मन्दारसौम्यवाक्पतिसितचन्द्रार्का यथोत्तरं बालनः। नैस "Aho Shrut Gyanam" Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) भुवनदीपकः । गिकवलमेतद्वलसाम्ये स्यादधिकबलचिंता ॥ " तत्र जीवास्त्रिधा ॥२८॥ __ अर्थ-प्रश्नद्वारा धातु, मूल और जीवज्ञान कहते हैं-यदि प्रश्न समयमें शनि, चन्द्रमा, राहु, मङ्गल इनमें कोई बली होकर लग्नको देखे या युक्त हो तो धातुचिंता जाननी, सूर्य और शुक्र हों तो मूलचिंता, बृहस्पति और बुध हों तो जीवचिंता कहनी चाहिये, ऐसा महान् बुद्धिमानोंने कहा है ॥ २८ ॥ द्विपदौ भार्गवगुरू भौमाौं च चतुष्पदौ ॥ पक्षिणौ बुधसौरी च चन्द्रराहू सरीसृपौ॥२९॥ सं० टी०-तत्रापदद्विपदचतुष्पदादिज्ञानमाह-द्विपदौ इति । भार्गवगुरू द्विपदौ । कोऽर्थः-द्विपदीचन्तां कथयतः । अथवा वस्तुचौरज्ञाने द्विपद इति, सर्वत्र ज्ञाने विचारणीयम् । मङ्गलादित्यौ द्वौ चतुष्पदौ प्राग्वत् । बुधशनी खगौ पक्षिणी भवतः। चन्द्रराहू सरासपा सपों, अपदावात शेषः। प्राग्वादात चिन्त्यौ ॥ २९॥ ___ अर्थ-पूर्वकथितानुसार जीवचिंता ज्ञात होनेसे द्विपदादि ज्ञानार्थ ग्रहोंकी द्विपदादि संज्ञा कहते हैं-शुक्र और बृहस्पति द्विपदसंज्ञक हैं, मंगल और रवि चतुष्पदसंज्ञक हैं, बुध और शनि पक्षीसंज्ञक हैं, "Aho Shrut Gyanam" Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भावाटीकासमेतः। (२३) चन्द्रमा और राहु सरीसृप ( सर्पादि ) संज्ञक हैं । तात्पर्य यह है कि, जीव ज्ञात होनेसे कौन जीव है, इसको जाननेके लिये जो ग्रह बली होकर लग्नको देखे या युक्त हो उसी ग्रहका कथित जीव कहना ॥ २९॥ विप्रो शुक्रगुरू शत्रौ कुजाकौ शूद्र इन्दुजः ।। इन्दुर्वैश्यः स्मृतौ म्लेच्छौ सैंहिकेयशनैश्चरौ३०॥ सं० टी०-अय जातिविशेषमाह-जातिः पञ्चधा प्रोक्ता विप्राविति । शुक्रबृहस्पती विप्रजाति वदतः । मंगलसूर्यो क्षत्रियजाति कथयतः। बुधः शूदजाति वदति । चन्द्रो वैश्यजातिम् । राहुशनी म्लेच्छजाती म्लेच्छेतरजातिश्चांडालादिरिति शेष इति भावः ॥ ३० ॥ - अर्थ-अब पूर्वकथितानुसार यदि द्विपद आवे तो जाति जाननेके लिये ग्रहोंकी जाति कहते हैं-शुक्र और बृहस्पति ब्राह्मण हैं, मंगल और रवि क्षत्रिय हैं, बुध शूद्र है,चन्द्रमा वैश्य है, राहु और शनैश्चर म्लेच्छ कहे गये हैं । इसका आशय यह है कि, जो ग्रह बलवान् होकर लग्नको देखता हो या लग्नमें हो उस ग्रहका कहा हुआ जाति प्रश्नसंबन्धी द्विपदका कहना ॥ ३० ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) भुवनदीपकः। स्थूल इन्दुः सितः षण्ढश्चतुरस्रौ कुजोष्णगू ॥ वर्तुलौ सौभ्यधिषणो दीपों शनिभुजंगमौ ॥३१॥ ___ सं० टी०-अथ देहस्वरूपमाह-स्थूल इति । चन्द्रः स्थूलाङ्गो न कृश इति शेषः । शुक्रः षण्डः नपुंसकादिः, आदिपदेन बालकोऽतिवृद्धो वा, कन्दर्परहित इति शेषः । कुजो भौमः, उष्णगुः सूर्यः, तौ चतुरस्रो चतुष्कोणी नात्युच्चाङ्गौ न लघू इति शेषः । बुधबृहस्पती वर्तुलाकारौ । शानराहू दी! कथयतः इति सर्वत्र विचार्यम् ॥ ३१ ॥ अर्थ-उस मनुष्यका आकार जाननेके लिये ग्रहोंका आकार कहते हैं । चन्द्रमा मोटे शरीरवाले हैं, शुक्र षंढ ( निर्यि ) अर्थात् दुर्बल है, मंगल और रवि समान शरीरवाले हैं, बुब और बृहस्पति वर्तुल (गोलाकार ) शरीरवाले हैं, शनि और राहु दीर्व (लंबा ) आकारवाले हैं, इसमें जो ग्रह सर्वाधिक बली होकर लग्नको देखे या लग्नमें स्थित हो, उसी ग्रहका आकार उस मनुष्यका कहना ॥ ३१ ॥ रक्तवर्णः कुजः प्रोक्तो धिषणः कनकद्युतिः॥ शुकपिच्छसमः सौम्यो गौरकान्तिरथोष्णगुः३२॥ मन्दाराकस्य पुष्पेण समद्युतिरनुष्णगुः ।। कविरत्यंतधवलः फगी कृष्णः शनिस्तथा ॥३३॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (२५) सं० टी०--अथ ग्रहाणां वर्णस्वरूपमाह-रक्तवर्ण इति । भौमो रक्तवर्णः। धिषणो बृहस्पतिः कनकद्युतिः स्वर्णकांतिः । बुधः शुकपिच्छतमः नीलकान्तिः । उष्णगुः सूर्यो गौरकांतिः ॥ ३२ ॥ मंदाराकस्य मंदारः कल्पवृक्षस्तदभावे अर्कपुष्प इव कांतिः । अनुष्णगुश्चन्द्र इति शेषः । कविः शुक्रः अत्यन्तधवल: श्वेतः । शनिराहू कृष्णवर्णी अतिश्यामो इति ॥ ३३ ॥ __ अर्थ-अब स्वरूप जाननेके लिये ग्रहोंका स्वरूप कहते हैं-मंगलका रक्त वर्ण, बृहस्पतिका सुवर्णके सदृश वर्ण, बुधका शुकपक्षीके पक्षसम नील वर्ग, सूर्यको गौरकांति, चन्द्रमाकी पारिजात पुष्पके सदृश या आकके फूल सदृश कांति, शुक्रका अति शुक्लवर्ण, राहु और शनि कृष्ण वर्ण कहे गये अर्थात् जो ग्रह बली होकर लग्नको देखे या लग्नमें हो, उसका वर्ण उस मनुष्यका कहना ॥ ३२ ॥ ३३ ॥ अवनीशो दिनमणिस्तपस्वी रोहिणीप्रियः॥ स्वर्णकारः क्षितेः पुत्रो ब्राह्मणो रोहिणीभवः॥३४॥ वणिग्गुरुः कविर्वैश्यो वृषलः सूर्यनंदनः ।। सैंहिकेयो निषादश्च सूत्रकाष मनाया। "Aho Shrut Gyanam' Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) भुवनदीपकः । सं० टी० - अथ ग्रहाणामधिकारविशेषमाह - अवनीश इति । अवनिः पृथिवी तदीशो राजा इव सूर्यः । रोहिणीमियश्चन्द्रः सोsपि तपस्वीति । अत्रिजत्वात्तदुपवृत्तिः । क्षितिपुत्रो भौमः स्वर्णकारः वृत्तिविशेषः । बुधो ब्राह्मणः ॥ ३४ ॥ बृहस्पतिर्गुरुः वणिकपुत्र इति शेषः । कविः शुको वैश्यः अतिधनीति शेषः | सूर्यनंदनः शनिः दासः अनुचर इति शेषः । सैंहिकेयो राहुः निषादश्चण्डालः हिंसक इति शेषः । सर्वेष्वपि शुभाशुभकार्येषु कथितः इति । जीवचिन्तायां वाच्यमिति ॥ ३५ ॥ अर्थ- मनुष्य के अधिकार जाननेके लिये ग्रहोंका अधिकार कहते हैंसूर्य राजा है, चन्द्रमा तपस्वी है, मंगल सुनार है, बुध ब्राह्मण है,. बृहस्पति वणिक् ( बानियां ) है, शुक्र वैश्य है, शनि दास है और राहु चाण्डाल है, यह विचार सब कार्य में सम्पत है । आशय यह है कि, जन्मपत्रमें या प्रश्नसमय में जो ग्रह अधिक बलत्राला हो और लग्नको देखे या युक्त हो, उस ग्रहकी आजीविका उस मनुष्यको कहनी चाहिये, यह जीवचिंता हुई || ३४ ॥ ३५ ॥ शुक्रे चंद्रे भवेद्रौप्यं बुधे स्वर्णमुदाहृतम् ॥ गुरौ रत्नयुतं हेम सूर्ये मौक्तिकमुच्यते ॥ ३६ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (२७) भौमे वपु शनौ लोहं राहावस्थीनि कीर्तयेत् ॥ धातोर्विनिश्चये ज्ञाते विशेषोऽस्मादुदाहृतः॥३७॥ सं० टी-अथ धातुचिन्ताविशेषमाह-शुक्र इति । शुक्रे वा चन्द्रे लग्नस्थिते पश्याति वा तदा धातूनां मध्ये रौप्यं वाच्यम् । बुधे च स्वर्ण स्यादित्युदाहृतं कथितम् । गुरौ तथा स्थिते च रत्नजडितं स्वर्णम् । सूर्ये मौक्तिकं वा जडितं भूषणं चोच्यते कथ्यते ॥ ३६॥ भौम इति । भौमे लग्नस्थे वा लग्नं पश्यति तदा धातुमध्ये पु सीसकं वाच्यम् । शनौ च लोहादि । आदिपदेन पाषाणसंग्रहः । राहौ च अस्थीनि हस्तिदन्तादि कीर्तयेत् कथयेत् पण्डित इति शेषः । एवं लग्ने ग्रहदर्शनाद्धातूनां विशिष्ट निश्चये जाते अस्मात्कथितप्रकारादातोविशेष उदाहृतः कथितः । ज्योतिर्विद्भिरिति तमेव विशेषस्थानं कथयति ॥ ३७॥ अर्थ-अब पूर्वरीतिसे यदि धातुचिंता आवे तो कौन धातु है, इसके जाननेके लिये ग्रहोंके द्वारा धातुज्ञान लिखते हैं-शुक्र या चद्रमा लग्नमें स्थित हों या लग्नको देखते हों तो रौप्य ( चांदी) जानना, बुध हो तो सोना कहा है, बृहस्पति हो तो रत्नसे जडा हुआ सोना, सूर्य हो तो मोती, मङ्गल हो तो सीसा, शनि हो तो "Aho Shrut Gyanam" Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) भुवनदीपकः । लोहा, राहु हो तो हड्डी आदि कहना चाहिये । धातुज्ञान निश्चय होनेके पोछे इसीप्रकार विशेष धातुज्ञान कर लेना ॥ ३६ ॥ ३७॥ शुके चन्द्रे जलाधारो देवतावसतिगुरौ ॥ रखौ चतुष्पदस्थानमिष्टकानिचयो बुधे ॥३८॥ दग्धस्थानं कुजे प्रोक्तं शनौ राहौ च बाह्यभूः॥ अमीभिर्हिबुकस्थाने नष्टभूमि विलोकयेत् ॥३९॥ - सं० टी०-अथ ग्रहाणां स्थानविशेषमाह-शुक्र इति । शुक्रे चंद्रे वा लग्ने स्थिते पश्यति वा जलाशयः जलस्थानं ज्ञेयम् । गुरौ देवालयस्थानं च । रखौ च चतुष्पदस्थानम् । बुधे च इष्टकानिचयः, पाषाणादिस्थानमिष्टकासमूहो वाच्यः ॥ ३८॥ कुजे भौमे दग्धस्थानम्, अग्निदग्धमिति शेषः, तत्प्रोक्तं कथितम् । शनौ राहौ च बाह्यभूः । उद्यानपर्वतादिः, अथवा बहिर्भूः मलस्थानमिति शेषः । अमीभिरिति । अमीभिः सूर्यादिग्रहैः कृत्वा हिबुकस्थाने चतुर्थस्थाने निधनादिपृच्छायाम् ‘क गतः' इति धनादिप्रश्ने यदि चतुर्थस्थाने लग्नपतिः स्वामी वाऽन्यः कोऽपि ग्रहो भवति पश्यति वा तदा तदनुसारेण प्रागुक्तग्रहस्थानतया विचार्य नष्टवस्तुस्थानं वक्तव्यमिति भावः ॥ ३९॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (२९) अर्थ-अब नष्टवस्तुआदि किस स्थानमें है, इसको जाननेके लिये, दो श्लोक कहते हैं-शुक्र या चन्द्रमा लग्नमें स्थित हो या देखता हो तो नष्टवस्तु आदि जलमें जानना, बृहस्पति हो तो देवताका स्थान, रवि हो तो चतुष्पद (पशु) के रहनेका स्थान, बुध हो तो ईटसमूहोंका स्थान, मंगल हो तो दग्ध हुआ स्थान, शनि या राहु हो तो बाहरकी भूमि अर्थात् वन पर्वत आदि जाने । इन ग्रहों द्वारा चतुर्थ स्थानमें नष्ट वस्तुका विचार करना चाहिये । अर्थात् लग्नका स्वामी या अन्य कोई ग्रह चतुर्थ स्थानमें हो या देखता हो. तो उसी ग्रहके कथित स्थानमें नष्ट वस्तु है, ऐसा कहना चाहिये ॥ ३८॥३९॥ जीवमङ्गलमार्तण्डान्वदन्ति पुरुषान्बुधाः ॥ सोमसोमजमन्दाहिभृगुपुत्रांश्च योषितः॥४०॥ सं० टी०-अथ वस्तुस्थापकस्य ग्राहकस्य वा चौरादिज्ञानमाह-जीवेति । जीवभौमसूर्यास्त्रीनपि ग्रहान् बुधाः पुरुषान् एतेषां मध्ये एकोऽपि कश्चिल्लग्नस्थो वा पश्याति तदा पुरुषान् कथयंति दैवज्ञा इति शेषः । सोमश्चन्द्रः, सोमजो बुधः, मन्दः शनिः, अही राहुः, भृगुपुत्रः शुक्रस्तान् योषित्संज्ञकान् स्वीसंज्ञकान बुधा दैवज्ञा वदन्ति । अतस्तान् पदार्थान् स्त्रीहस्तांगीकृतानिति वदन्ति । एषां मध्ये एकोऽपि ग्रह इति शेषः ॥४०॥ "Aho Shrut Gyanam Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) भुवनदीपकः । ' अर्थ-अब यहां जीवचिंतामें पुरुषसंज्ञक जीव है या स्त्रीसंज्ञक; इसको जाननेके लिये ग्रहोंकी स्त्रीपुरुषसंज्ञा लिखते हैं-बृहस्पति, मङ्गल और रवि इनको पंडितजन पुरुषग्रह कहते हैं, सोम, बुध, शनि, राहु और शुक्र इनको स्त्रीग्रह कहते हैं । आशय यह है कि, यदि पुरुषसंज्ञक ग्रह लग्नमें स्थित हो या लग्नको देखता हो तो जीव भी पुरुषसंज्ञक जानना, और स्त्री ग्रह हो तो स्त्री जाननी । इसी प्रकार चौरादि ज्ञानमें भी स्त्री पुरुषका विवरण कर लेना चाहिये ॥४०॥ युवा कुजः शिशुः सौम्यः शशिशुकौ च मध्यमौ॥ मन्दमार्तण्डदेवेज्यफणिनः स्थविरा ग्रहाः ॥ ४॥ ___ सं० टी०-इदानी ग्रहाणां वयोऽनुमानस्वरूपमाह-युवेति । यदा चतुर्थस्थाने मंगलसंबंधिमेषवृश्चिकरूपं भवत्यथवा चतुर्थस्थानाधिपति मस्तत्रस्थो वा पश्यति, तदा वाच्यं वस्तुग्राहकश्चोरो युवा तरुणोऽस्तीति । यदि चतुर्थस्थानाधिपतिबुधस्तदा बालको द्वादशवर्षाभ्यन्तरवयस्कश्चोर इति शेषः । चन्द्रः शुक्रो वा चतुर्थस्थानाधिपतिः तदा मध्यवयाः पुरुषश्चोरश्चत्वारिंशदवाधि इति शेषः । यदि चतुर्थस्थाने शनिसूर्यगुरुराहुसंबन्धी कश्चन भवति, तदा वृद्धश्चोरः। कोऽर्थः-चत्वारिंशदूर्ध्वमायुः । प्रश्नलग्नाचतुर्थस्थानाधिपतिविचारणया "Aho Shrut Gyanam" Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (३१) चोरवयो वाच्यमित्यर्थः । वर्णजात्यादिकञ्च प्रागुक्तयुक्त्या विप्रादि ज्ञेयम् । इति पूर्वसंबन्धः ॥ ४१ ॥ __अर्थ-अब उस जीवकी अवस्था ( उमर) जाननेके लिये ग्रहोंकी उमर कहते हैं-मंगल युवा अवस्थाका है, बुध बालक, चन्द्रमा और शुक्र मध्यम अर्थात् अर्धवयस्क हैं; शनि, रवि, बृहस्पति और राहु ये वृद्ध अवस्थावाले हैं। इसका आशय यह है कि, जो ग्रह लग्नसे चतुर्थस्थानका स्वामी हो या चतुर्थ स्थानमें स्थित हो या देखता हो उस ग्रहकी अवस्था चौर आदिको कहना चाहिये ॥ ४१ ॥ भौममन्दाकंभोगीन्द्राः प्रकृत्या दुःखदा नृणाम् ॥ ज्ञगुरुश्वेतकिरणशुकाः सुखकराः सदा ॥ ४२ ॥ ___ सं० टी०-अथ ग्रहाणां प्रकृतिस्वरूपमाह-भौमेति । भौम. शनिसूर्यराहवः प्रकृत्या स्वभावेन लोकानां दुःखदायका भवंति क्रूरत्वादिति शेषः। बुधगुरुचन्द्रशुक्राः स्वभावेन सौख्यदायकाः स्युः। सौम्यप्रकृतित्वादिति भावः । एवं वस्तुज्ञाने च सर्वज्ञानम् ॥ ४२ ॥ इति ग्रहस्वरूपादिद्वारं पष्ठम् ॥ ६॥ अर्थ-अब ग्रहोंकी प्रकृति कहते *-मंगल, शनि, रवि, राहु ये क्रूर (पाप) ग्रह सर्वदा मनुष्योंको दुःख देनेवाले हैं और बुध, बृहस्पति, चन्द्रमा, शुक्र ये शुभग्रह होनेके कारण सर्वदा मनुष्योंको "Aho Shrut Gyanam" Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) भुवनदीपकः । सुख देनेवाले हैं । इस द्वार में कहे हुए विचारद्वारा धातु, मूल, जीव, स्वरूप, जाति, अवस्था, स्थान, काल, देश, दिशा आदि सभी प्रश्नोंमें ज्ञात कर लेना चाहिये ॥ ४२ ॥ इति ग्रहस्वरूपादिद्वारम् ॥ ६ ॥ रूपलक्षणवर्णानां केश दोषसुखायुषाम् ॥ वयःप्रमाणजातीनां तनुस्थानान्निरीक्षयेत् ॥ ४३ ॥ । सं० टी० - अथ भावविचारद्वारमाह-रूपेति । रूपं कृष्णादि । लक्षणं मशादिज्ञानम् । वर्णो ब्राह्मणादिः । क्लेशः दुःखकष्टादिः रोगिजीवितमरणादिः । दोषश्छल च्छिद्रादिः । वक्ष्यमाणसुखं योषिदादिभवम् । वयो बालक तरुणादि । प्रमाणम् अनुमानम् - आयुषामिति शेषः । जातिरिति प्रसिद्धा एते रूपादयः पृच्छा निर्णयाः प्रथमात्तनुस्थानाज्ज्ञेयाः प्रथमस्थानानुसारेणापि विचारणीयाः । इति तनुभावविचारो - ऽयम् ॥ ४३ ॥ अर्थ- अब सप्तम द्वारमें कौन भावसे क्या विचार करना, उसको कहते हैं-रूप ( दीर्घ लघु स्थूलादि ), लक्षण ( तिलामसकादि ), वर्ण ( गौरकृष्णादि), क्लेश ( दुःख ) दोष ( अवगुणआदि ), सुख ( धनस्त्रीपुत्रादि ), वयस् ( बालकादि ) का प्रमाण, जाति ( ब्राह्मणादि ) इनको लग्नसे देखना चाहिये ॥ ४६ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (३३) मणिमुक्ताफलं स्वर्ण रत्नधातुकदम्बकम् ॥ क्रयाणकार्घज्ञानानिधनस्थानान्निरीक्षयेत् ॥४४॥ सं० टी०-अथ द्वितीयस्थानवीक्षणमाह-मणिमुक्तेति । मणिश्चन्द्रकान्तादिः । मुक्ताफलं प्रसिद्धम् । स्वर्ण प्रसिद्धम् । रनं वडूयादि । धातूनां लोहादीनां सप्तानां कदम्बकं समूहः । तथा ऋयाणकानि मनिष्ठादीनि, त्रिषष्टिशतसंख्यानीति तेषाम् अर्घस्य महर्घसमर्घादेः परिज्ञानमवबोधः । एतत् सर्व धनस्थानावितीयस्थानादिलोकनीय विचारणीयमित्यर्थः ॥ ४४ ॥ अर्थ-अब द्वितीय भावका विचार लिखते हैं-मणि, मोती, सोना, रत्ल (हीरकादि) और धातुसमूह, क्रयाणक ( मंजिष्ठादि ) धान्यविशेष इन सब चीजोंकी महर्घतासमर्घतादिक विचार धनभाव ( द्वितीय स्थान ) से करना चाहिये ॥ ४४ ॥ भगिनीभ्रातृभृत्यानां दासकर्मकृतामपि ॥ कुर्वीत वीक्षणं विद्वान्सम्यग्दुश्चिक्यवेश्मनि ॥४५॥ सं० टी०-अथ तृतीयस्थाननिरीक्षणमाह-भगिनी सहोदरी। भ्राता प्रसिद्धः । भृत्यः सेवकः । दासः प्रसिद्धः । कर्मकृतां प्रेष्यकादीनां सर्वेषाम् । वीक्षणं विचारणं विद्वान्पण्डितः "Aho Shrut Gyanam" Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) भुवनदीपकः। दुश्चिक्यवेश्मनि तृतीयभवने सम्यक् नान्यथाभावेन विचार्य कुर्वीतेति ॥ ४५॥ अर्थ-बहिन, भाई, भृत्य (नौकर), दासकर्म ( टहल ) करनेवाला इन सबोंको तृतीय भावसे देखना चाहिये ॥ ४५ ॥ वाटिकाखलकक्षेत्रमहौषधिनिधीनिह ॥ विवरादिप्रवेशं च पश्येत्पातालतो बुधः ॥ ४६॥ ___ सं० टी०-अथ चतुर्थभवननिरीक्षणमाह-वाटिका पुष्पवनम् । खलकं धान्यकुट्टनगाहनस्थलम् । क्षेत्र प्रसिद्धम् । महौषधयोऽष्टशतसंख्याः । निधीन् द्रव्यं च निखातादीनि । विवरादिप्रवेशम् । आदिना गृहप्रवेशसुखादिकम् । पातालत श्चतुर्थभावतो बुधो दैवज्ञः पश्येत् । धातूनामनेकार्थत्वाद्विचारये दिति भावः ॥ ४६॥ अर्थ-वाटिका (फुलवाडी ), खलक (धान्य कूटने तथा मर्दन करनेका स्थान ), महौषधि, खानि, पर्वतके कन्दरे आदिमें प्रवेश इन सब विषयोंको पंडित जन चतुर्थ भावसे देखें ॥ ४६॥ गभांपत्यविनेयानां मन्त्रसाधनयोरपि ॥ विद्यावुद्धिप्रबन्धानां सुतस्थानाद्विनिश्चयः ॥४७॥ __ सं० टी०-अथ पञ्चमगृहवीक्षणमाह-गर्भस्वरूपम्, अपत्यम् अपत्योत्पत्त्यादि । विनेयः शिष्यादिः । मन्त्रसाधनं "Aho Shrut.Gyanam" Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (३५) विद्यासाधनमन्त्रकरणादि । विद्या आकाशगमनमित्यादि । बुद्धिः प्रसिद्धा। प्रबन्धो नवीनशास्त्रकथारूपः। प्रतापानाम्'इत्यपि पाठः । एतेषां सुतात्पञ्चमस्थानाद्विनिश्चयो वाच्यः ॥४७॥ __अर्थ-गर्भ, सन्तान, विनेय (शिष्य ), मन्त्र अर्थात् मंत्रका उप. देश लेना और उसका साधन करना, विद्या, बुद्धि, प्रबंध ( ग्रंथादिकी रचना) इन सबोंका निश्चय पञ्चम स्थानसे करना चाहिये ॥ ४७ ॥ सैरिभीरिपुसंग्रामगवोष्ट्रकूरकर्मणाम् ॥ मातुलातकशङ्कानां रिपुस्थानाद्विनिर्णयः॥४८॥ ___ सं० टी०-अथ षष्ठस्थानवक्तव्यमाह-सैरिभी महिषी । रिपुभिः वैरिभिः सह संग्रामः । गौः वृषादिः । उष्ट्रः प्रसिद्धः। छेदभेदादि क्रूरकर्म । मातुलो मातुतिप्रश्नः । आतङ्क भयशंकादि । सर्वेषां रिपुस्थानात्वष्ठस्थानाद्विलोकयेत् ॥ ४८॥ अर्थ-भैंस शत्रओंसे युद्ध, गाय, ऊँट, करकर्म, मामा. भयसंदेह आदि सबोंका विचार छठे स्थानसे करना चाहिये ॥ १८ ॥ वाणिज्यं व्यवहारं च विवादं च समं परैः॥ गमागमकलत्राणि पश्येत् प्राज्ञः कलत्रतः ॥४९॥ सं० टी०-अथ सप्तमभवनवीक्षणमाह-वाणिज्यं क्रय. विक्रयादिव्यवहारठ्याजेन परेषां द्रव्यार्पणम्, अन्यैः परैः सह "Aho Shrut Gyanam" Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) भुवनदीपकः । विवादं कलहादि, गमनागमनादि । कलत्रं स्वीकार्यम् । प्राज्ञः पण्डितः । कलत्रात्सप्तमभवनात्पश्येत् ॥ ४९ ॥ __ अर्थ-वाणिज्य अर्थात् क्रय विक्रय, व्यवहार अर्थात् व्याजपर द्रव्य लगाना, शत्रुओंके साथ विवाद, गमागम ( परदेश जाना और आना ), स्त्री इन सबोंको पंडितजन सप्तम भावसे देखें ॥ ४९ ॥ नद्युत्तारेऽध्ववैषम्ये दुर्गे शात्रवसंकटे । नष्टे दष्टे रणे व्याधौ छिद्रे छिद्रं निरीक्षयेत्॥५०॥ ___ सं० टी०-अथाष्टमभावनिरीक्षणमाह-नद्युत्तरणे, अध्वनो मार्गस्य कुशलादि तस्य वैषम्ये, जलस्थलोभयभेदात्रिविधो दुर्गस्तस्य भङ्गग्रहणादि, शात्रवसंकटे वैरिभिर्गृहीते बन्धमोक्षादि, नष्टे स्वयमेव गते वस्तुनि चोरगृहीते वा, दष्टे सर्पादिना, रणे संग्रामे, व्याधौ शारीरके, छिद्रे शाकिन्यादिदोषगृहीते; एतेषु छिद्रमष्टमस्थानं निरीक्षयेत् ॥ ५० ॥ अर्थ-नदीपार होनेमें, मार्गकी विषमतामें, दुर्ग ( किलोंका ) भंग या अपने वशमें करने आदिमें, शत्रुसम्बन्धी संकट अर्थात् शत्रुओंद्वारा बंधनादिको प्राप्त करने और छूटनेमें, द्रव्यादिके नष्ट अर्थात् चोरी आदि होनेमें, सर्पादिद्वारा काटे जानेमें, युद्धमें, व्याधिमें, छिद्र ( शाकिनी आदि दोष ) में पंडितजन अष्टम भावको देखें ॥ १०॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (३७) वापीकूपतडागादि प्रपादेवगृहाणि च ॥ दीक्षा यात्रा मठं धर्म धर्मानिश्चित्य कीर्तयेत्५१॥ ___ सं०टी०-अथ नवमस्थाननिरीक्षणमाह-वापीकूपौ प्रसिद्धौ । तडाग आखातसरः । प्रपा जलपानस्थानं, देवगृहं, दीक्षा तपस्यारूपा । यात्रा तीर्थसेवा । मठं धर्मशालादि । धर्म धर्मकार्यम् । धर्मात्रवमस्थानानिश्चित्य कीर्तयेत् । परमत्रापि सबले गमनागमनराज्यलाभो वाच्यः ॥५१ ।। अथे-बावडी, कुंआ, पोखर आदिके निर्माण, प्याऊ, देवताओंके मंदिर आदि, मंत्रग्रहण तीर्थयात्रा, मठ अर्थात् धर्मशाला धर्मसम्बन्धी कार्य इन सबोंको नवम भावसे निश्चय करके कहे विशेष नवम भावसे गमनागमन और राज्यलाभका विचार भी किया जाता है ॥ ११ ॥ राज्यं मुद्रां पुरं पण्यं स्थानं पितृप्रयोजनम् ॥ वृष्टयादिव्योमवृत्तान्तंव्योमस्थानाद्विलोकयेत्५२ __सं०टी०-अथ दशमस्थाननिरीक्षणमाह-राज्यं पट्टाभिषेकादि । मुद्रां राज्यव्यापाररूपाम् । पुरं नगरम् । पण्यं कार्यम् । स्थानं निवसनादिभावि । पितृकार्य होमतर्पणादि । वृष्टयादि वर्षादिकं सर्व व्योमवृत्तान्तं व्योमकार्यम्. व्योम्नः दशमस्थानानिश्चित्य कीर्तयेत् ॥ ५२ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) भुवनदीपकः। अर्थ-राज्य अर्थात् राजाओंकी राजगादी, राजमुद्रा आदिका निर्माण, पुर (नगर), पण्यकार्य, निवासस्थान, पितृसम्बन्धी कार्य, वर्षा आदि आकाशसम्बन्धी वृत्तान्त इन सबोंको दशम स्थानसे निश्चय करना चाहिये ॥ १२ ॥ गजाश्वयानवस्त्राणि सस्यकाञ्चनकन्यकाः ॥ विद्वान्विद्यार्थयोलाभ लक्षयेल्लाभलग्नतः ॥ ५३ ॥ __ सं०टी०-अथैकादशस्थानविचारमाह-गजो हस्ती, अश्वः प्रसिद्धः, यानं सुखासनादि, वस्त्रं प्रसिद्ध, सस्यं धान्यं, काञ्चनं सुवर्ण, कन्यका, विद्या आकाशगमनेच्छादि, अर्थलाभो द्रव्यार्जनं, लाभलग्नतः एकादशस्थानात् एतत्सर्वं विद्वान् पण्डितो लक्षयेत् विचार्य कथयेत् ॥ ५३ ॥ ___ अर्थ-हाथी, घोडा, पालकी आदि, वस्त्र, धान्य, सोना, कन्या, विद्या और धनका लाभ इन सबोंको विद्वान् ग्यारहवें भावसे देखे ॥ ५३ ॥ त्यागभोगविवाहेषु दानेष्टकृषिकर्माण ॥ व्ययस्थानेषु सर्वेषु विद्धि विद्वन्व्ययं व्ययात् ५४ सं०टी०-अथ द्वादशस्थानविचारमाह-त्यागं भद्रादौ द्रव्यदानं, भोगः स्वार्थकुटुम्बाद्यर्थं च व्ययः । विवाहः प्रसिद्धः, "Aho Shrut Gyanam" Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (३९) दानं धर्मार्थं च व्ययम् । इष्टं वाञ्छितं, कृषिकर्म क्षेत्रादिकर्म, अन्यदापि व्ययकार्य हे विद्वन् पण्डित ! व्ययात् द्वादशस्थानसंज्ञकाद्विद्धि जानीहि । इति द्वादशवेश्मसु वीक्षेत ॥ ५४ ॥ इति भावविचारद्वारं सप्तमम् ॥ ७ ॥ अर्थ-हे विद्वन् ! त्याग अर्थात् मांगलिक कर्ममें इनाम आदि देना, भोग अर्थात् कुटुम्बादिकोंके लिये धनका व्यय, विवाह, दान, बांछित कार्य, खेती कर्म और अन्य भी खर्च करनेके कामोंमें बारहवें भावसे व्यय ( खर्च ) को जानो ॥ ५४ ॥ इति भावविचारद्वारम् ॥ ७ ॥ भागं वारिधिवारिराशिशशिषु(१४४) प्राहुर्मंगाये बुधाः पदके बाणकृपीटयोनिविधुषु ( १३५)स्यात् कर्कटाये पुनः॥ पादैः सप्तभि (७)रन्वितैः प्रथमकं मुक्त्वा दिनाये दले हित्वैकां घटिकां परे च सततं दत्त्वेष्टकालं वदेत् ॥५५॥ - सं०टी०-अथेष्टघटीज्ञानद्वारमाह-भागं प्राहुः कथयन्ति बुधाः कालज्ञाः । केषु वारिधिवारिराशिशशिषु, अङ्कानां "Aho Shrut Gyanam" Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) भुवनदीपकः। वामतो गतिः १४४ एवंरूपेषु ध्रुवांकेषु । कस्मिन्काले इत्याहमृगादिषट्के यदा मकरसंक्रान्तौ सूर्यः समायाति तस्मिन् दिवसे अयं ध्रुवाङ्कः । तथा कर्कटाये षट्के च पुनः बाणः कृपीटयोनिः वह्निः, विधुश्चन्द्रः । अत्रापि प्राग्वत् १३५ एवं ध्रुवाङ्केषु भागं प्राहुरित्यर्थः मकरसंक्रांतिदिनं समारभ्य मिथुनांत्यदिनं यावत् १४४ तावदयं ध्रुवांकः । तथा कर्कसंक्रांतिदिनं समारभ्य धनुरंत्यदिनं यावत् १३५ तावत् अयं ध्रुवांका । कैर्भागं प्राहुरित्याह-पादैरिति । चरणक्रमेण मापितच्छायापादैः अन्यैश्च सप्तपादान्वितैः । परन्तु मापितपादानां मध्ये एकः पादो न्यूनः क्रियते प्रथमदले प्रथममध्याह्नं यावत् एकां घटीम उनां च कृत्वा तथा द्वितीये अपराह्नदले ‘च एकां घटी दत्त्वा गताङ्कानुसारेण इष्टकालं वदेत् । दैवज्ञ इत्यर्थः । आम्नायो गुरुगम्यः । पाठान्तरेणेष्टकालमाह । “छायापादै रसोपेतैरेकशिशतं भजेत् । लब्धांके घटिका ज्ञेया एवं शेषे पलानि च ॥"इति । अन्यच्च छायापादा इति मुनि ७ संयुज्यान्नंदा ९ष्ट ८ बाहु २ ध्रुवराशिलब्धे । २८९ नयनविह्वलं द्वाभ्यां हीनं दलीकरणं तस्माच्छेषम् ॥ अर्धे दलीक्रियते दिवसो गम्यते इत्यादि ॥ ५५ ॥ इतीष्टघटीज्ञानद्वारमष्टमम् ॥ ८॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (४१) अर्थ-अब अष्टम द्वारमें इष्टघटी साधनके प्रकार कहते हैं-कि, दिनमें जिस समय इष्टघटी जाननी हो, उसी समय अपने शरीरकी छायाको अपने पाँवसे मापे, परन्तु जहां खडा हो उस पाँवको छोडके जो संख्या हो उसमें सात और मिलाकर भाजक कल्पना करे । अब इसी भाजकसे मकरादिसे मिथुनान्त पर्यन्त अर्थात् सौम्यायन जबतक रवि रहे तबतक एकसौ चौवालिस १४४ में भाग दे, और कर्कादि छ राशियोंमें रवि हो तो एकसौ पैंतीस १३५ में भाग दे जो लब्ध हो, उसमें दोपहरसे पहिलेकी इष्टवटी हो तो एक घटा देनेसे और दिनार्धसे ऊर्ध्व हो तो एक जोड देनेसे इष्टवटी होती है ॥ ५५॥ इतीष्टघटीज्ञानद्वारम् ॥ ८ ॥ इन्दुः सर्वत्र बीजाभो लग्नं तु कुसुमप्रभम् ॥ फलेन सदृशोऽशश्वभावःस्वादुसमः स्मृतः॥५६॥ ___ सं० टी०-अथ लग्नविचारद्वारम्-सर्वकार्येषु अतीतानागतवर्तमानरूपेषु चन्द्रमाः बीजतुल्यः, कोऽर्थः-यस्मिन् लग्ने वा स्थाने वा चन्द्रमा भवति तत्र विचारणीयम् । यच्च लग्नस्य बीजं यावन्तो विंशोपकाः लग्नं पश्यति चन्द्रस्तावदिशोपका लग्ने बीजमिति भावः । अर्थाच्चन्द्रबले सति बीजबलमित्यर्थः । तथा वर्तमानं विचार्य लग्नं कार्यलतायाः कुसुमतुल्यं, यादृशं "Aho Shrut Gyanam" Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) भुवनदीपकः। लग्नं स्वामियुतं दृष्टं वा तादृशं कार्य फलस्य पुष्पमित्यर्थः तथा, यादृशो लग्ननवांशकस्तादृशं तत्तुल्यं फलं विचार तथा लग्नस्य यादृशो भावः क्रूराक्रूरचरस्थिरास्तोदितादि तादृशः स्वादुरिति स्वबुद्धया स्वयमेवाप्यूह्यमिति । अथात्रै लग्नाधिकारे प्रच्छकः सत्यतया प्रष्टुमागत इति ज्ञानार्थ शास्त्रा न्तराणां श्लोकत्रयेण विशेष दर्शयति-' लग्ने चन्द्रशन कुंभे रविः सौम्यो विरश्मिकः । कौटिल्येनागतः प्रश्ने विज्ञा यैवं. ततो वदेत् ॥ १ ॥' अस्यार्थः-पृच्छालग्ने यदि चन्द्र शनी स्यातां, तथा कुंभे रविः, बुधोऽस्तमितश्च तदा ज्ञेयमर्य प्रच्छक कपटतया आगतोऽस्ति । अन्यथा सत्यतयेति ज्ञात्वाऽ विचारणीयम् । विचारणीयमेवाह-" रखौ सार्द्धत्रयो भागाः पंच चन्द्रे गुरौ त्रयम् । द्वौ शुक्र द्वौ बुधे चैव लग्नविंशोपकाः स्मृताः ॥ २ ॥ मंदे भौमे तथा राही प्रत्येकं सार्द्धमिष्यते । दुर्बलं बलवल्लग्नं विज्ञेयं ज्ञानवेदिभिः ॥३॥" अनयोरर्थः-रवौ लग्नस्थे उच्चस्थे वा सार्द्धत्रिभागविंशोपकं लग्नं बलवद् भवति । खौ नीचस्थे पश्यति सार्द्धत्रयो भागा लग्नमवलमिति सर्वग्रहानुसारेण बलाबलभावो विचार्यः । एवं चन्द्रे लग्नस्थे पश्यति वा पञ्च विंशोपकाः एवं गुरौ लग्ने त्रयो विंशोपकाः तथा शुक्रे बुधे च लग्नस्थे बलवति लग्नं पश्यति सति द्वौ द्वी "Aho Shrut Gyanam" Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका - भाषाटीकासमेतः । ( ४३ ) विंशोrat लग्नबलाचलम् । तथा शनौ राहौ मंगले बलवति लग्नं पश्यति प्रत्येकं सार्धं विंशोपकवलं ज्ञेयम् । यावतां ग्रहाणां लग्ने स्थितिर्वा लग्नं पश्यंति तावन्तो विंशोपकाः लग्नचल ज्ञेयम् इति भावार्थः ॥ ५६ ॥ अर्थ - अब नवम द्वारमें लग्नका विचार लिखते हैं-तहाँ चन्द्रादिकोंको बीजादि रूपसे वर्णन - समस्त कार्यमें अर्थात् भूत, भविष्य, वर्त्तमान सम्बन्धी सभी कार्यों में चन्द्रमा बीजसदृश है, लग्न पुष्पके सदृश है, नवमांश फलके सदृश है और द्वादशभाव उस फलका स्वादुसदृश कहा गया है । तात्पर्य यह है कि, चन्द्रमा जितने विंशोपकसे लग्नको देखे उतने ही लग्नमें बीज जानना अर्थात् चन्द्रमा बलिष्ठ होनेसे कार्यका बीज बलिष्ठ जानना । इसी प्रकार लग्न बलिष्ठ हो तो कार्यका पुष्प, नवमांश बलिष्ठ हो तो फल और भाव बलिष्ठ हो तो कार्यका स्वाद जाने ॥ ५६ ॥ उदितं चिन्तयेद्भावं भावि भूतं च चिन्तयेत् ॥ कार्यभावेन योगं च कार्यभावस्थितं ग्रहम् ॥ ५७॥ सं० - टी० - अथातीतानागतवर्तमान लग्नस्वरूपमाह-यदा यस्य लग्नस्योदयो भवति, तदा तस्य लग्नस्योदितो भावो ज्ञातव्यः । मीने मेषे त्रिघटिकाः ३ । वृषकुंभौ ४ । मिथुनमकरौ५ 1. कर्कसिंह कन्यातुलावृश्चिकधनुषां घटयः ६ । इति "Aho Shrut Gyanam" Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) भुवनदीपकः। द्वादशराशीनां लग्नस्य त्रिभागः कर्तव्यः । तस्य त्रिभागस्य भावलग्नमुदितं चिन्तयेत् विचारयेत् । विचारयेदित्यन्वये भावो ज्ञातव्यः। तथा यो गतः सोऽतीतो ज्ञेयः। अतीतो गतः तथा य एष्यति स भावी, एवं लग्नस्य वर्तमानस्यातीतानागत. भावं विचार्य कार्यस्यापि अतीतानागतवर्तमानत्वं चिन्तनीयम्, भावानुसारेण लग्नबलावले चिंत्ये । प्रश्ने कार्यस्थाने ग्रहं चिंतयेत् इति भावः । " राहुभौमांतरे चन्द्रः स्यात्तदा चन्द्रकर्तरी । शनिरांद्वतरे सूर्यों हायने सूर्यकर्तरी ॥ सौम्या. सौम्याश्च मिश्राधा पृच्छायां यतमे गृहे । तावत्याब्दफलं ताहर वाच्य जन्मगृहैरपि "॥ ५७॥ अर्थ-अब भूत भविष्य और वर्तमान लग्नका स्वरूप कहते हैंतहाँ लग्नभोग प्रमाण यथा-मेष और मीनकी तीन घटी भोग होता है, वृष और कुम्भकी चार घटी, मिथुन और मकरकी पाँच घटी और शेष ( कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धन ) की छः घटी भोग हैं, फिर बारहों राशिके बीचमें लग्नके तीन भाग करके प्रथम उदित लग्न भावको विचारे, फिर भूत और भविष्यत् भाव विचार कर कार्यका भी भूत भविष्यत् वर्तमान जाने तथा जिस भावसम्बन्धी कार्य हो उस भावद्वारा योग विचारे और कार्यभावस्थित ग्रहको भी विचारे ॥ १७ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका - भाषाटीकासमेतः । (४५) हृदितस्यादौ भावस्याधिपतिं चिन्तयेत्प्रयत्नेन ॥ तदनु च नाथो यस्मिन्नासीद्भावे विचार्य तत् ५८ ॥ लग्नस्याधिपतिस्वरूपमाह - आदौ सं०टी० - अथोदितस्य प्रथमे उदितस्य लग्नस्याधिपतिः उदितोऽस्तो नीच उच्चो वेति विचारणीयः । ततोऽनंतरं यस्मिन् स्थाने स लग्नपतिर्भवति यस्यां वावस्थायामासीत्तत्स्थानं विचार्यम् । " स्वामित्र १ नीचगो २ वऋः ३ स्वराशिस्थो ४ ऽरिवर्गगः ५ | लग्नावादशगः ६ षष्ठः ७ क्रूरयुक्तो ८ ऽथ वीक्षितः ९॥ याम्यो १० राहोस्तु पुच्छस्य ११ बालो १२ वृद्धो १३ ऽस्तगो १४ जितः । मुंथशीलो मुशरिफे पापैरित्यबलो ग्रहः || इति दोषविवर्जितः ॥ ५८ ॥ 77 अर्थ - प्रथम उदित भावस्वामीको यत्नपूर्वक विचारे अर्थात् उदितमाव स्वामीका उदित, अस्त, नीचगत, उच्चगत, वक्र शत्रुस्थानगत इत्यादि शुभाशुभ स्थानको विचारे, फिर लग्नस्वामी जिस स्थान में हो और जिस अवस्था आदिमें हो उसको विचारे ॥ ५८ ॥ भावोऽथ कार्यरूपो यस्तदधिपलग्नाधिपौ चिन्त्यौ । वीक्षणयोगी भावाधिष्ठातारौ पुनश्चिन्त्यौ ॥ ५९ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) भुवनदीपकः । सं० टी०-पृच्छालग्नाधिपोऽपि कीदृश इत्याह-भावः लग्न भावः, पृच्छायां कार्यरूपः कार्यभावः चिन्त्यौ चिंतनीयौ तदनंतरं लग्नाधिपतिकार्याधिपत्योः परस्परं स्वामिभावौ चिंत नीयौ । तयोमिथो दृष्टिश्चेति तदेव स्पष्टयति ॥ ५९॥ अर्थ-अब प्रश्नलग्नाधिपतिका विचार लिखते हैं-जिस भावसम्बन्धी कार्य है उस भावको तथा उस भावका स्वामी और लग्नस्वामी इन दोनोंकी परस्पर दृष्टि आदि सम्बन्ध विचारना चाहिये ॥ ५९॥ लग्नपतिर्यदि लग्नं कार्याधिपतिश्च वीक्षते कार्यम्॥ लग्नाधीशः कार्य कार्यशः पश्यति विलनम्॥६०॥ लग्नेशः कार्येशं विलोकते विलग्नपं तु कार्येशः॥ शीतगुदृष्टौ सत्यां परिपूर्णा कार्यनिष्पत्तिः॥६॥ सं० टी०-लग्नपतिर्यदि लग्नं पश्यति, तथा कार्याधिपश्व कार्य पश्यति, अथवा लग्नाधीशः कार्य पश्यति, कार्यशः विलग्नं पश्यति इति चतुर्भागिलग्नेशाः ॥६० ॥ तथा लग्नाधिपतिः कार्याधिपतिं पश्यति, स्वस्थानस्थः सन् शीतगुः पश्यति तथा कार्याधिपतिर्यदि स्वस्थानस्थ एव लग्नाधिपतिं विलोकते, तयोरेवं दृष्टिसद्भावेऽपि यदि तत्र चन्द्रदृष्टिः पूर्णा तदा पूर्णकार्यसिद्धि या इति भावः ॥ ६१॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (४७) अर्थ-यदि लग्नका स्वामी लग्नको और कार्यभावस्वामी कार्य भावको देखें, अथवा लग्नस्वामी कार्यभावको और कार्येश लग्नको देखें तथा लग्नेश कार्येशको और कार्येश लग्नेशको देखें तथा इनपर चन्द्रमाको दृष्टि भी हो तो पूर्णरीतिसे कार्यसिद्धि कहनी ॥६०॥६१॥ दशमतृतीये नवपञ्चमे चतुर्थाष्टमे कलत्रं च । पश्यन्ति पादवृद्धया फलानि चैवं प्रयच्छन्ति ॥ पूर्णपश्यतिरविजस्तृतीयदशमेत्रिकोणमपि जीवः । चतुरस्त्रं भूमिसुतः सितार्कबुधहिमकरा कलत्रं च॥ सं० टी०-अथ प्रस्तावान्नवग्रहाणां परस्पराष्टस्वरूपं शास्त्रांतरादाह-दशमतृतीयेति । यो ग्रहो यत्र भवति तदारभ्य लग्नं यावत्कार्य च, यद्वा तत्र दशमे १० तृतीये ३ स्थाने वर्तमानं ग्रह च पञ्च ५ विंशोपकान् पश्यति । नवमे पञ्चमे ९।५ वा स्थितं दशविंशोपकान्पश्यति । तथा चतुर्था ४ ष्टमे ८ पञ्चदश १५ विंशोपकान्पश्यति । कलत्रं सप्तमे स्थाने वर्तमानं ग्रहं विंशति २० विंशोपकान्पश्यति । तथाविधा यत्संख्या विशोपकास्तन्मानं फलं वदति । ग्रहाः सर्व एवं फलानि पादवृद्धया प्रयच्छति । एतदेव पुनर्विशेषमाह-पूर्ण पश्यति । इति । पूर्वस्मिन् श्लोक दशमतृतीय स्थाने वर्तमानं ग्रहादिकं रविसुतः शानिः पूर्ण पश्यति विंशतिविंशोपकान् पश्यतीति विशेषो ज्ञेयः । तथा नवपञ्चमे जीवो बृहस्पतिर्वर्तमानं विंशो "Aho Shrut.Gyanam" Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) भुवनदीपकः। पकान्, चतुर्थाष्टमं स्थानमाश्रितं भूमिसुतो मंगल: पूर्ण पश्यति । सित: शुक्रः, अर्कः सूर्यः, बुधः, हिमकरश्चन्द्रः एते चत्वारोऽपि ग्रहाः कलत्रं सप्तमस्थानं संपूर्ण पश्यति इतिश्लोक स्य ताजिकस्थस्य अर्थः । यदैकादशस्थाने वर्तमानाः सर्वे ग्रहाः पूर्णं पश्यति । सर्वेऽप्युपांते शुभा इत्युक्तत्वात् । “ज्ञार्केन्दुशुक्रास्त्रिदश ३ । १० त्रिकोणं ९ । ५ चतुर्थाष्टमं ४ । ८ द्यून ७ मथांशवृद्धया । पश्यंति सूर्यात्मजपूज्यभौमाः क्रमेण संपूर्णदृशो भवन्ति ॥ " पुन:-" त्र्याशं शनिर्देवगुरुस्त्रिकोणं तुर्याष्टमं भूमिसुतः प्रपूर्णम् ॥ ज्ञार्केन्दुशुक्राः क्रमपादवृद्धया पश्यन्ति चास्तं सकलाः प्रपूर्णम् ॥” अनयोरथैः प्राग्वदेव ॥ ६२॥ ___ अर्थ-ग्रहोंकी दृष्टि कहते हैं-शनैश्चर, तृतीय और दशमको पूर्ण दृष्टि से देखता है; बृहस्पति पञ्चम और नवमको पूर्ण दृष्टिसे देखता है, मंगल चतुर्थ और अष्टमको पूर्णदृष्टिसे देखता है, तथा रवि, बुध और चन्द्रमा सप्तमको पूर्णदृष्टि से देखते हैं और चकारसे पूर्व कहे ग्रह भी सतमको पूर्ण देखते हैं। पादादि दृष्टि आचार्य नहीं कहे तथापि पूर्व पञ्चीसवें श्लोककी टीका और चक्र देखकर ज्ञात कर लेना ॥ ६२ ॥ कथयन्ति पादयोगंपश्यतिसौम्योनलनपोलग्नम् । लग्नाधिपश्च पश्यति शुभग्रहो नार्धयोगं च ॥६३ "Aho Shrut Gyanam" Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (४९) सं०टी०-अथ लग्नपत्याददृष्टिविशषमाह-सौम्यः शुभग्रहों लग्नं पश्यति स लग्नाधिपो न पश्याति तदा पादयोगं कथयति । कोऽर्थः-पञ्च ५ विंशोपका कार्यसिद्धिर्भवति । तथा शुभग्रहो लग्नं न पश्याति, लग्नाधिपः पश्यति तदाऽधोगम् । कोऽर्थः दशविंशोपका कार्यसिद्धिः ॥ ६३ ॥ अर्थ-दृष्टिपरसे फल कहते हैं-यादे शुभग्रह लग्नको देखता हो और लग्नका स्वामी लग्नको न देखे तो पादयोग अर्थात् चतुर्थांश ५ विंशोपक कार्यसिद्धि जाननी तथा लग्नस्वामी लग्नको देखता हो और शुभग्रह नहीं देखे तो अर्धयोग अर्थात् आधा १० विंशोपक कायसिद्धि जाननी ॥ ६३ ॥ एकःशुभग्रहो यदि पश्यतिलग्नाधिपो विलोकयति। पादोनयोगमाहुस्तदा बुधाःकार्यसंसिद्धये ॥ ६॥ सं० टी०-लग्नपतिर्लग्नं पश्यति अपरोऽपि यदि सौम्यग्रहः कोऽपि पश्यति तदा पादोनयोगमाहुः कथयति बुधाः। कार्यसिद्धिविषयकोऽभिप्रायःपञ्चदविंशोपकाकार्यसिद्धिरिति ॥६४॥ अर्थ-यदि कोई एक शुभग्रह और लग्नका स्वामी ये दोनों लमको देखें तो कार्यकी सिद्धिके लिये चतुर्थाशोन योग पण्डितोंने कहे हैं अर्थात् कार्यसिद्धिकारक पन्दरह विंशोपक होता है॥ ६४ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) भुवनदीपकः । लमपतिदर्शने सति शुभग्रही द्वौ त्रयोऽथवा लग्नम् पश्यन्ति यदि तदानीमाहुर्योग विभागोनम्॥६५॥ सं० टी०-लग्नपतिदर्शने सति यदि अन्यौ द्वौ त्रयो वा शुभग्रहा लग्नं पश्यति तदानी विभागोनयोगमाहुः । त्रिभिभीगैन्यूँनं योगं सप्तदशविंशोपका कार्यासद्धिरित ॥ ६५ ॥ अर्थ-लग्नके ऊपर लग्नस्वामीकी दृष्टि होनेपर अन्य दो शुभग्रह अथवा तीन शुभग्रह यदि लग्नको देखें तो तीन अंश कमती योग कहा गया है अर्थात् सत्तरह विंशोपक कार्यसिद्धिकारक होते हैं ॥६५॥ क्रूरावेक्षणवाश्चत्वारः सौम्यखेचरा लग्नम् ॥ लग्नेशदर्शने सति पश्यंति पूर्णयोगकराः ॥ ६६॥ ___ सं० टी०-क्रूराणां ग्रहाणामवेक्षणं दर्शनं तेन वाः चत्वारः तेऽपि सौम्यग्रहाः लग्नं पश्यति लग्नाधिपतेर्दर्शने सति संपूर्णयोगकराः । विंशतिविंशोपका कार्यसिद्धिरिति ॥ ६६ ॥ इति लग्नविचारद्वारं नवमम् ॥ ९॥ अर्थ-पापग्रहोंकी दृष्टि से वर्जित होकर चारों शुभग्रह ( पूर्ण. चन्द्र, बुध, गुरु, शुक्र) लग्नको देखते हों और लग्नके ऊपर लग्नेशकी भी दृष्टि होवे तो पूर्णयोगकारक होते हैं अर्थात् कार्यसिद्धिके लिये बीस विंशोपक बल होता है ।। ६६ ॥ इति लग्नविचारद्वारम् ॥ ९॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः (५१) राक्रांतःक्रूरयुतः क्रूरदृष्टस्तु यो ग्रहः ॥ विरश्मितां प्रपन्नश्च स विनष्टो बुधैः स्मृतः॥६७॥ . सं० टी०-अथ विनष्टग्रह विचारद्वारमाह-क्रूराक्रांतः इति । रेणाक्रांतः पीडितः, क्रूरेण च युक्तः सहितः, क्रूरेण दृष्टः पूर्णदृष्टया, विरश्मितां प्रपन्नः अस्तंगत एवंभूतो यो ग्रहो भवति स चतुःप्रकारेण विनष्ट एवोच्यते ॥ ६७ ॥ __ अर्थ-अब दशवें द्वारमें विनष्टग्रहोंके लक्षण और विचार लिखते हैं पापग्रहोंसे आक्रान्त ( पीडित ) और पापग्रहोंसे युक्त तथा पापग्रहोंसे दृष्ट जो ग्रह और सूर्यसान्निध्यसे नष्ट होगया है किरण जिसका ऐसे जो ग्रह सो पण्डितोंसे विनष्ट कहे गये हैं अर्थात् पापयुक्त, पापदृष्टपापपीडित, और अस्त ये चार प्रकारसे ग्रह विनष्ट कहे जाते हैं।॥६॥ क्रूरेण जीयमानो यो राहुपार्श्वे यथारविः॥ क्रूराक्रांतःस विज्ञेयः क्रूरयुक्तः समेंऽशके ॥ ६८॥ ___ सं० टी०-क्रूरेण आक्रांत आच्छादितः यो ग्रहः क्रूरेण पराजीयमानो भवति स क्रूराक्रांतो विज्ञेयः विज्ञातव्यः । दृष्टांतमाह-राहोः पार्श्वे यथा रविः राहुणा हि रविजर्जीयते यस्मिन्नंशे ग्रहो भवति तस्मिन्नवांशे राशिभागे यदि क्रूरो भवति तदा क्रूरयुक्त उच्यते एकांशे स्थितत्वात् ॥६॥ "Aho Shrut Gyanam Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) भुवनदीपकः । अर्थ-पूर्वश्लोकमें क्रूराक्रान्त (पापपीडित ) जो कहा है, उसको दृष्टांत सहित दिखाते हैं-पापग्रहोंके साथ युद्धमें हारा हुआ ग्रहको क्रूराक्रान्त (पापपीडित ) जानना, जैसे राहुके समीप सूर्य अर्थात जैसे राहुके साथ सूर्य नष्टकिरण होते हैं, वैसेही पापग्रहोंसे पराजित ग्रह विनष्ट होजाता है ।। ६८ ॥ पूर्णया दृश्यते दृष्टया क्रूरदृष्टः स उच्यते ॥ प्रविविक्षुः प्रविष्टो वा सूर्यराशौ विरश्मिकः॥६९|| सं० टी०-पूर्णयेति । यो ग्रहः करग्रहेण संपूर्णदृष्टया दृश्यते स क्रूरदृष्ट उच्यते तथा सूर्यमंडले प्रवेष्ठुकामः प्रविष्टो वा भवति यो ग्रहः सोऽस्तत्वादिरश्मिक उच्यते ॥ ६९ ॥ अर्थ-जो ग्रह पापग्रहोंकी पूर्णदृष्टि से देखा जाता हो सो क्रूरदृष्ट कहाजाता है और सूर्य जिस राशिके हों उसराशिमें जानेवाला या उसमें प्रविष्ट जो ग्रह सो विरश्मि ( अस्त ) कहाजाता है ॥ ६९॥ लग्नाधिपे विनष्टे स्याद्विनष्टावयवः पुमान् ॥ विनष्टजातिवर्णश्च शुभाकारो विपर्यये ॥ ७० ॥ __ सं० टी०-अथ विनष्टग्रहवलम् । लग्नाधिपे इति । लग्नाधिप यदि चतुःप्रकाराणां प्रागुक्तानां मध्ये अन्यतरप्रकारेण विनष्ट भवति तदा प्रच्छकस्य शरीरं विनष्टं वाच्यम् । जन्मकाले व "Aho Shrut.Gyanam" Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भापाटीकासमेतः। (५३) तथा ग्रंहवर्णजातिवाद्यनुसारेण विनष्टं वर्णजात्यादिकं प्रच्छकस्य वाच्यम् । अस्माद्विपर्यये लग्नाधिपतावविनष्टे सति भाकारः अविनष्टत्वं प्रच्छकस्य शरीरादौ वाच्यामिति भावार्थः ॥ ७० ॥ अर्थ-अब विनष्टादि ग्रहके वशसे द्वादशभावोंका फलादेश लिखते हैं-चौरादिक प्रश्नकालमें अथवा जन्मकालमें यदि पूर्वकथित चारप्रकारोंमेंसे किसी प्रकारसे लग्नाधिप विनिष्ट हो तो वह पुरुष वर्ण तथा जाति आदिसे विनष्ट होता है अर्थात् जन्मकालमें समाधिप विनष्ट हो तो जन्मनेवाला मनुष्य विनष्टावयव ( कुरूप ) होता है और चौरादि सम्बन्धी प्रश्नमें भी चौरादिकोंकी जाति और वर्ण विनष्ट कहना और यदि विपर्यय हो अर्थात् लग्नाधिप पुष्ट हो तथा शुभ स्थानमें स्थित हो तो पूर्व कथित मनुष्योंका आकार शुभ (उत्तम) जानना ॥ ७० ॥ एवं धनादिस्थानेषु विनष्टेऽधिपतौ वदेत् ॥ धनभावभ्रातृभावप्रमुखान् प्रत्ययान सुधीः ७॥ सं० टी०-एवं धनादीति । एवं पूर्वोक्तप्रकारेण धनसहजादिस्थानेष्वपि यस्य । भावस्याधिपतिक्निष्टो भवति तस्य स्य कार्यस्य हानिर्भवति ॥ ७१ ॥ इति विनष्टग्रह विचारद्वारं बदामम् ॥ १० ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवनदीपकः। अर्थ-इसी प्रकार धनादि स्थानोंमेंसे जिन २ स्थानोंका स्वाम विनष्ट हो उसका भी फल पण्डित कहें अर्थात् धनभावमें धनसम्बन्धी, तृतीयसे भ्रातृसम्बन्धी इत्यादि सभी भावोंका फल विचारक कहें ॥ ७१ ॥ इति विनष्टग्रहविचारद्वारम् ॥ १० ॥ आयो लनपतिः कार्ये लग्ने कार्याधिपो यदि ॥ द्वितीयो लग्नपो लग्ने कार्य कार्याधिपो भवेत्॥७२ लग्नपः कार्यपश्चापि लग्ने यदि तृतीयकः ॥ चतुर्थः कार्यगौ स्यातां यदि लग्नपकार्यपौ ॥७३॥ चतुषु तूभयत्रापि चन्द्रग्दर्शन मिथः॥ कार्यसिद्धिस्तदाज्ञेया मित्रे चेदाधिकं शुभम् ।।७४ सं०टी०-अथ राजयोगद्वारमाह-आद्य इति । लग्नपतिः काय, कार्याधिपश्च लग्ने भवति तदा अयं प्रथमो राजयोगः । तथा लग्नस्वामी लग्ने, कार्यस्वामी च कार्ये भवति तदा द्वितीयो राजयोगः ॥ ७२ ॥ यदि लग्नाधिपतिः कार्याधिपतिश्च लग्ने स्यातां तदा तृतीयो राजयोगः । तथा यदि लग्नपकार्याधिपौ "Aho Shrut Gyanam Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (५५) कार्ये स्यातां तदा चतुर्थों राजयोगः ॥ ७३ ॥ अथ राजयोगे कार्यसिद्धिमाह-चतुर्विति । परं चतुर्वपि राजयोगेषु सत्सु लग्नपतिकार्याधिपतियोगविषये चन्द्रदृष्टिर्भवति, चन्द्रस्य विषये चानयोरेव मिथो दर्शनं यदि चन्द्रो मित्रक्षेत्रे भवति तदा वक्तव्यमधिकं किंचिच्छुभं भविष्यतीति ।। ७४ ।। अथ-अब एकादशद्वारमें राजयोग अर्थात् प्रधान योग कहते हैंजिस भावसम्बन्धी विषयका विचार करना हो उस भावका स्वामी कार्येश कहाता है और लग्नका स्वामी लग्नेश कहाता है । यहाँ लग्नेश और कार्येशपरसे चार योग कार्यसिद्धिदायक तीन श्लोकोंसे कहते हैंकि लग्नका स्वामी कार्यभावमें अर्थात् जिस भावसम्बन्धी प्रश्न हो उस भावमें हो और कार्येश लग्नमें हो तो यह पहला योग भया । और यदि लग्नका स्वामी लग्नहीमें हो और कार्यभावका स्वामी कार्य भावमें हो तो यह द्वितीय योग हुवा और यदि लग्नस्वामी तथा कार्यभावस्वामी दोनोंही लग्नमें हों तो यह तीसरा योग हुवा और यदि लग्नेश और कार्येश दोनों कार्यभावमें हों तो चौथा योग हुवा, इन चारों योगोंमें लग्नेश और कार्येश इन दोनोंपर चन्द्रमाकी दृष्टि हो और चन्द्रमाको भी लग्नेश कार्येश देखे तो कार्यकी सिद्धि जाननी चाहिये और यदि चन्द्रमा मित्रक्षेत्रमें हो तो और भी अधिक शुभ जानना ॥ ७२-७४ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) भुवनदीपकः । चन्द्रदृष्टिं विनाऽन्यस्य शुभस्य यदि दृग्भवेत् ॥ शुभं प्रयोजने किंचिदन्यदुत्पद्यते तदा ॥ ७५ ॥ सं० टी०-चन्द्रदृष्टिमिति । चन्द्रो लग्नपतिं न पश्यति परम् अन्यः कोपि सौम्यग्रहो लग्नं कार्य वा पश्यति तदा वक्तव्यं प्रारब्धस्य कार्यस्य सिद्धिमध्येऽन्यत् प्रयोजनांतरं नवीनं भवतीति वाच्यम् ॥ ७५ ॥ __अर्थ-पूर्व तीन श्लोकोंसे कहे हुए चारों योगोंमें यदि लग्नेश कार्येशके ऊपर चन्द्रमाकी दृष्टि न हो और अन्य किसी शुभग्रहकी दृष्टि हो तो प्रश्नसम्बन्धी कार्यसे भिन्न नवीन कोई शुभ प्रयोजन उत्पन्न हो ॥ ७५ ॥ राजयोगा अमी ख्याताश्चत्वारोऽपि महाबलाः ॥ अत्रैव दृष्टियोगेन सामान्येन फलं स्मृतम् ॥७६॥ सं० टी०-अमी चत्वारोऽपि राजयोगाः प्रसिद्धाः बलवन्तश्च अतीव । अत्रैव राजयोगे चन्द्रादिदृष्टिसद्भावे सति सामान्येनैव फलं भवेत् इति भावः ॥ ७६ ॥ __अर्थ-पूर्व कहे हुये चारों योग महाबलिष्ठ राजयोग विख्यात हैं इन्हीं चारों योगोंमें दृष्टियोगके साम्यसे फल कहा गया है अर्थात् शुभग्रहादिक दृष्टियोगसे शुभ, अशुभग्रहादिक दृष्टियोगसे अशुभ फल कहा गया है । ७६ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (५७) अर्द्धयोगो विनिर्दिष्टः परस्परदृशं विना ॥ चन्द्राष्टिं विना ज्ञेयं शुभं पादफलं बुधैः ।।७७॥ सं० टी०-यदि चतुण्ां राजयोगानां मध्ये एकोऽपि स्यात्, परं लग्नाधिपतिकार्याधिपयोः परस्परम् अदर्शनं स्यात् तदा अर्ध १० विंशोपका कार्यसिद्धिः । तथा तयोर्लग्नपकार्यपयोः परस्पर चन्द्रहाष्टन स्यात् तदा बुधः शुभ पादफल पश्चाक्शापका कार्यसिद्धि या ॥ ७७ ॥ _अर्थ-इन चारों योगोंमेंसे किसी योगमें यदि लग्नका स्वामी और कार्यभावस्वामीकी परस्पर दृष्टि नहीं हो तो वह अर्धयोग ( आधाफल देनेवाला) १० विंशोपक होता है और यदि लग्नस्वामी तथा कार्यभावस्वामीके ऊपर चन्द्रमाकी दृष्टि नहीं हो तो चतुर्थांश शुभफल ( पांच विंशोपक) पण्डितोंसे जानने योग्य है ॥ ७ ॥ परस्परं विषमता चन्द्रयोगो भवेद्यदि ॥ तदाऽर्धफलमादिष्टं प्रपञ्चोऽयं मतो मम ॥७८॥ सं० टी०-यदि लग्नपकार्यपयोः परस्परं दृष्टिर्न स्यात् परं चंद्रदृष्टिस्तयोर्विषये भवति तदाऽप्यर्धफलं दशविंशोपका कार्यसिद्धिः । अयं प्रपञ्चः राजयोगफलविस्तारो मतः कथितः, मम मतः परस्मिन् शास्त्रांतरे इति भावः । इति राजयोगद्वारमेकादशम् ॥ ७८ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) भुवनदीपकः। अर्थ-लग्नस्वामी और कार्यभावस्वामी इन दोनोंकी विषमता अर्थात् शत्रुता हो और यदि चन्द्रयोग अर्थात् चन्द्रमासे युक्त हो तो आधाफल कहा गया है, यह जो चारों योगोंका प्रपञ्च सो हमारा सम्मत है ।। ७८ ॥ __ इति राजयोगद्वारम् ॥ ११ ॥ लग्नेशो वीक्षते लग्नं कार्यशः कार्यमीक्षते ॥ कार्यसिद्धिर्भवेदिंदुः कार्यमेति परं यदा ॥ ७९ ॥ __ सं० टी०-अथ लाभालाभविचारद्वारमाह-लग्नपतिर्लग्नं पश्यति तथा कार्यशः कार्यं पश्यति परं कार्यसिद्धिस्तदा तस्मिनेव काले स्यात्, चंद्रः कार्यस्थानं समायाति तावत्कायें विलंब एवेति भावः ॥ ७९ ॥ ___ अर्थ-अब बारहवें द्वारमें लाभालाभविचार लिखते हैं-लग्नेश लग्नको देखता हो और कार्येश ( जिस भावसम्बन्धी कार्य हो, उस भावका स्वामी ) उसी भावको देखता हो तो कार्यसिद्धि होगी, ऐसा कहना । परन्तु कब होगी, इसके लिये यह विचार है कि, जब चन्द्रमा कार्यभावपर आवेगा, तब कार्यसिद्धि होगी ॥ ७९ ॥ लग्नाधिपतिलुब्धो लाभाधीशश्च दायको भवति॥ लग्राधिपस्य योगो लाभाधीशेन लाभकरः॥८०॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (५९) सं० टी०-अथ लाभकालमाह-लग्नाधिपतिलब्धो ग्राहकों लाभस्यैकादशस्याधिपतिर्दायको भवति परं यदि लग्नाधिपतेः संयोगो लाभाधीशेन भवति तदैव लाभः स्यादिति॥८॥ अर्थ-अब लाभ कब होगा, इसका विचार लिखते हैं-लग्नका स्वामी लेनेवाला होता है और ग्यारहवें स्थानका स्वामी देनेवाला होता है, अब इन दोनों लग्नेश और एकादशेशका जब योग हो, अर्थात् ये जब एक स्थानमें होजाँय तब लाभ करते हैं ॥ ८ ॥ भवति परं लाभकरस्तदैव यदि भवति चंद्रहग्लाभे। योगाः सर्वेऽप्यफलाश्चंद्रमृते व्यक्तमवेतत् ॥८१ ॥ ___ सं०टी०-विशेषमाह-पूर्वश्लोकोक्तयोर्लग्नाधिपतिलाभाधिपयोयोगे सति यदि तत्र चन्द्रदृष्टिर्न भवेत् तदा ते राजयोगादयोऽप्यफला भवंति निर्वीर्यत्वादिति ॥ ८१ ॥ ___ अर्थ-अब पूर्वकथित योगमें विशेष लिखते हैं-कि, लग्नेश और एकादशेशका योग लाभकारक तभी होता है जब कि, ग्यारहवें भावको चन्द्रमा देखता हो. कारण यह है कि, चन्द्रमा विना सभी राजयोगादिक विफल होजाते हैं, यह प्रसिद्ध है ॥ ८१ ॥ पण्याधीशेनैवं कर्मेशेनैव निवृत्त्यधीशेन ॥ मृत्युपतिना च योगो लग्नाधीशस्य वक्तव्यः ॥८२ "Aho Shrut Gyanam" Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) भुवनदीपकः । तत्तत्स्थानेक्षणतः पण्यविवृद्धिः कर्मवृद्धिश्च ॥ विबुधैस्तदा निवृत्तिमृत्य्वोर्भावः परेऽप्येवम् ॥८३ सं० टी०-मतांतरमाह-पण्यस्य क्रयाणकादेरधीशः पण्याधीशः कर्माधीशनिवृत्त्यधीशमृत्य्वधीशा एतेषां चतुर्णा मध्ये येन सह लग्नाधिपतेः संयोगो भवति यदा तदा वक्ष्यमाणप्रकारेण फलं वक्तव्यम् ॥ ८२ ॥ तदेवाह-तेषां पण्याधीशकर्माधीशादिस्थानाधिपतीनां तत्र तत्र विलोकनात् तदनुसारेण तादृशं तादृशं फलं वक्तव्यम् । बहुरूपतया अपरेऽपि लग्नकार्यादिभावा एवमेव विचारणीयाः ॥ ८३॥ इति लाभालाभविचारद्वारं द्वादशम् ॥ १२॥ अर्थ-इसी रीतिसे पण्याधीश अर्थात् एकादशेश, कर्मेश ( दशमेश), निवृत्यधीश (सप्तमेश), मृत्युपति ( अष्टमेश ) इन करके यदि लग्नाधीश युक्त हो और उस पण्यादि भावोंपर भावेशकी दृष्टि भी हो तो पण्यवृद्धि, कर्मवृद्धि, निवृत्ति और मृत्यु पंडित कहें अर्थात् पण्याधीश और लग्नेशका जब योग हो और पण्यभावपर पण्येशकी दृष्टि भी हो तो पण्यकी वृद्धि, एवं कर्मादि भावोंमें भी जाननी और इसी रीतिसे अन्य भावोंकाभी विचार करना चाहिये अर्थात् जिस कार्यभावका स्वामी लग्नेशसे युक्त होकर कार्यभावको देखें, उस भावकी वृद्धि होगी-ऐसा पंडितोंने कहा है ॥ ८२ ।। ८३ ॥ इति लामालामविचारद्वारम् ॥ १२ ॥ "Aho Shrut Gyanam' Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (६१) लग्नेशो यदि षष्ठे स्वयमेव रिपुस्तदा भवत्यात्मा। मृत्युकृदष्टमगोऽसौ व्ययगः सततं व्ययं कुरुते८४॥ ___ सं० टी०-अथ लग्नाधिपस्थितिफलद्वारमाह-लग्नाधिपो यदि षष्ठस्थाने स्यात्तदा स्वकार्यस्य स्वयमेव विनाशको भवति शत्रुत्वादिति । यथा यद्यष्टमस्थाने लग्नेशः स्यात् तदा प्रच्छकस्य वा कार्यस्य विनाशक एवमस्त्येव । तथा द्वादशे व्यये वर्तमानोऽसौ लग्नपतिः सततं निरन्तरं व्ययकर एव । तथाऽप्ययं विशेषः-याद करो भवति तदा पापस्थाने व्ययो भवति, सौम्ये तु रिपुस्थाने इति भावः ॥ ८४ ॥ ___ अर्थ-अब तेरहवें द्वारमें लग्नस्वामीकी स्थितिसे फल लिखते हैं। यदि लग्नेश छठे स्थान में हो तो स्वयं अर्थात् आपसे आपही कार्यका रिपु अर्थात् कार्यनाशक होता है और यदि लग्नेश आठवें भावमें हों तो कार्यकर्त्ताकी मृत्युके कारक होते हैं, यहाँ मृत्यु शब्दसे शरीरांतही नहीं समझना किन्तु इसके अतिरिक्त भी आठ प्रकारके मरण ग्रंथांतरमें हैं, यथा-"व्यथा दुःखं भयं लजा रोगः शोकस्तथैव च॥बंधनं चावमानं च मृत्युश्चाष्टविधः स्मृतः ॥ " यहाँ संस्कृत टीकाकारने मृत्यु शब्दसे कार्यनाश अर्थ किया है सो असंगत प्रतीत होता है. और यदि "Aho Shrut Gyanam" Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) भुवनदीपकः । लग्नेश बारहवें भाव में हो तो अनवरत खर्च करता है, परन्तु यहाँ विशेष यह है कि, यदि पापग्रह लग्नेश होकर बारहवें हो तो कुत्सित कर्म अर्थात् जूआ आदिमें व्यय होता है और यदि शुभग्रह लग्नेश होकर बारहवें हो तो सन्मार्गसे खर्च करता है ॥ ८४ ॥ लग्नस्थं चन्द्रजं चन्द्रः क्रूरो वा यदि पश्यति ॥ धनलाभो भवेदाशु किंत्वनर्थोऽपि दृश्यते ॥ ८५ ॥ सं०टी० - विशेषमाह - लग्नस्थं चन्द्रजमिति | लग्ने विद्यमानं बुधं यदि चन्द्रमा अन्यो वा क्रूरः कश्चित्पश्यति तदा धनस्य लाभो भवति आशु शीघ्रं परं पश्चादनथों भवतीति वाच्यम् ८५ अर्थ - अब विशेष लिखते हैं- यदि लग्नमें स्थित बुवको चन्द्रमा अथवा कोई पापग्रह देखता हो तो शीघ्र धनका लाभ हो, किंतु लाभके पीछे कुछ अनर्थ भी देखाजाय ॥ ८५ ॥ चंद्रा लग्नपतिर्वाऽपि यदि केन्द्रे शुभाः स्थिताः ॥ किंवदंती तदा सत्या स्यादसत्या विपर्यये ॥ ८६॥ सं०टी० - किंच चन्द्र इति । लग्ने वर्तमानश्चन्द्रो लग्नपतिर्वा यदि केन्द्रे प्रथम चतुर्थदश सप्तमरूपस्थानविशेषे स्थितो भवति प्रश्नकाले तदा लोके श्रूयमाणा किंवदंती सत्या वाच्या । "Aho Shrut Gyanam" Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत टीका-भाषाटीकासमेतः। (६३) एतदन्यथात्वेन असत्या इति भावः ॥ ८६ ॥ इति लग्नाधिपस्थितिफल द्वारं त्रयोदशम् ॥ १३ ॥ ___ अर्थ-किसीसे सुनीहुई यह बात सत्य है वा मिथ्या इस प्रश्नमें चन्द्रमा वा लग्नास्वामी अथवा शुभग्रह केन्द्र ( प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, दशम ) में स्थित हों तो वह किम्बदन्ती (किसीसे सुना हुआ वाक्य) सत्य है, ऐसा कहना और यदि विपरीत हो अर्थात् लग्नस्वामीके शत्रुग्रह या पापग्रह केन्द्रमें हों तो मिथ्या जाननी ॥ ८६ ।। __ इति लग्नाधिपतिस्थितिफलद्वारम् ॥ १३ ॥ क्षेमप्रश्ने च गर्भस्य गर्भ गर्भाधिपो भवेत् ॥ न पश्यति ग्रहःचरस्तव चास्ति च्युतिस्तदा ८७॥ __सं०टी०-अथ गर्भमाक्षेमदारमाह-गर्भस्य क्षेमप्रश्ने कृते सति गर्भ पञ्चमस्थानं तत् स्वामी न पश्यति क्रूरग्रहः पंचम पश्यति अथवा तत्रैव भवति तदा वाच्या अस्य गर्भस्य च्युतिः पतनं भविष्यति, विपर्यये विपर्ययः ॥ ८७ ॥ इति गर्भसमाक्षेमद्वारं चतुर्दशम् ॥ १४ ॥ अर्थ-अब चौदहवें द्वारमें गर्भका क्षेमप्रश्न लिखते हैं-यदि गर्भ क्षेमप्रश्नमें गर्माविष अर्थात् पञ्चमभाव का स्वामी पञ्चमभावको नहीं देखता हो और पापग्रह पंचम भावमें स्थित हो या पंचम भावको "Aho Shrut Gyanam" Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवनदीपकः। देखताहो तो गर्भपात होजायगा ऐसा कहना और इससे विपरीत या अन्य प्रकारकी ग्रहस्थिति हो तो गर्भकी पुष्टयादि कहना ॥ ८७ ॥ इति गर्भक्षेमद्वारम् ॥ १४ ॥ अविनष्टो यदा गांधिपो गर्भ निरीक्षते ॥ तदैव प्रसवोगुा नान्यथेति विनिश्चयः ॥ ८८॥ सं० टी०-अथ गुर्विणीप्रसवविचारद्वारम् । गर्भाधिपः पंचमस्थानस्वामी क्रूराक्रमणाद्यभावेन अविनष्टः गर्भं पंचमस्थानं यदि पश्यति तदा तस्मिन्नेव समये प्रत्यासनकाले तथा प्रसवो वाच्यः अन्यथा अन्यतरत्वमिति भावः ॥ ८८॥ इति गुर्विण्या: प्रसवद्वारं पञ्चदशम् ॥ १५ ॥ अर्थ-अब पन्द्रहवें द्वारमें गर्मिगीका प्रसव विचार लिखते हैंयदि गर्भाधिप ( पञ्चमभावका स्वामी ) अविनष्ट अर्थात् ग्यारहवें द्वारमें कहे हुये विनष्टग्रहोंके लक्षणसे रहित हो और पञ्चम भावको देखता हो तो प्रसव कहना और इससे अन्यथा हो अर्थात् विनष्टादि हो तो गर्भका भी नष्टादि कहना ॥ ८८ ॥ इति गुर्विणीप्रसवद्वारम् ॥ १५ ॥ पृच्छालग्ने च चत्वारि ग्रहयुग्मानि संति चेत् ॥ यत्र तत्रैव युग्मस्य प्रसवं ब्रुवते बुधाः॥८९॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः । सं० टी०-अथापत्ययुग्मप्रसवद्वारम्-गर्भिण्या कियन्तो बालका भविष्यन्ति, इति पृच्छालग्ने यदि चतुःस्थाने चत्वारि ग्रहयुगलानि भवंति तानि यदा स्वयमन्यत्र गमनेन विच्छुरितानि भवन्ति तदा काले युगलप्रसवो वाच्यः लग्नविचारेणेत्यर्थः। “तिथिं वारं च नक्षत्रं नामाक्षरसमन्वितम् । वह्निभिस्तु हरेद्भागं शेषो गर्भस्य कथ्यते ॥ समेन कन्या विषमण पुत्र: शून्ये च गर्भस्य भवेद्विनाशः।" ॥८९ ॥ इत्यपत्ययुगलप्रसवद्वारं षोडशम् ॥ १६ ॥ अर्थ-अब सोलहवें द्वारमें यमल (दो सन्तानोंका एक साथ) प्रसवज्ञान लिखते हैं-यदि प्रश्नकालमें जिस किसी चार स्थानोंमें दो दो ग्रह स्थित हों तो युग्म अर्थात् एक साथ दो सन्तानोंका प्रसव पण्डित लोग कहते हैं ।। ८९ ॥ इत्यपत्ययुग्मप्रसवद्वारम् ॥ १६ ॥ मासज्ञानस्य पृच्छायां गर्भिण्या भृगुनन्दनः॥ लग्नात्स्यायतमे स्थाने मासानाख्याति तावतः९० सं० टी०-अथ गर्भमाससंख्याज्ञानद्वारमाह-कियतो मासान् अयं गर्भस्थस्तत्र स्थितो भवति, इति पृच्छालग्ने सति तस्मा "Aho Shrut.Gyanam" Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) भुवनदीपकः। लग्नाद्यतमे स्थाने शुक्रो भवति तावतो मासान् गर्भस्थितः स्थास्यति चेति वाच्यम् । अथ यदा दशमे एकादशे स्थाने शुक्रो भवति तदा पञ्चमस्थानतो गणनीयमिति भावः ।। ९० ॥ इति गर्भमाससंख्याज्ञानद्वारं सप्तदशम् ॥ १७ ॥ अर्थ-अब सत्रहवें द्वारमें कितने महीने यह गर्भ और रहेगा, इसको जाननेके लिये लिखते हैं- प्रश्नलग्नसे शुक्र जितने संख्यक स्थानमें स्थित हो उतने महीनेपर्यन्त गर्भकी स्थिति कहनी और यदि शुक्र लग्नसे दशवें, ग्यारहवें और बारहवें स्थानमें हो तो पञ्चमभावसे लेकर शुक्रके स्भानतक गिनकर माससंख्या जाटनी ॥ ९० ॥ ___ इति गर्भमाससंख्याज्ञानद्वारम् ॥ १७ ॥ स्थाने चतुर्थे सौम्यत्वमापने ललना धृता ॥ सप्तमे सौम्यतां प्राप्ते प्रष्टुः कांता विवाहिता॥९१॥ सं०टी०-अथ स्त्रीप्राप्तिविचारद्वारमाह-लग्नाचतुर्थे सौम्यअहे सति दृष्टे वा इयं स्त्री धृता वाच्या, यादे लग्नात्सप्तमे सौम्यतां प्राप्ते विवाहितेयं भार्योत वाच्यम् ॥ ९१ ॥ १. अर्थ-अब अठारहवें द्वारमें स्त्रीलाभसम्बन्धी विचार लिखते हैंयदि प्रश्नलग्नसे चौथे स्थानमें शुभग्रह प्राप्त हो या चौथेपर शुभग्रहकी दृष्ट्यादि हो तो धरी हुई स्त्री मिलेगी और यदि सप्तम स्थानमें शुभग्रह "Aho Shrut Gyanam' Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (६७) हो या शुभग्रहकी दृष्टयादि हो तो प्रश्नकर्ताको विवाहिता स्त्री मिलेगी ऐसा कहना ॥ ९१ ॥ रिते च चतुर्थे स्यात्परिणीता नितंबिनी। सप्तमे कूरिते वा स्यातैव हि कुटुंबिनी ॥ ९२॥ ___ सं० टी०-अयात्रैव विशेषमाह-चतुर्थे स्थाने कूरिते क्रूरग्रहयुते दृष्टे वा भार्येयं परिणीतेति वाच्यम् । तथा सप्तमे स्थाने रिते क्रूरग्रहयुते दृष्टे वा धृता एवेति निर्णयो वाच्यः ॥ ९२॥ अर्थ-यदि प्रश्नलनसे चतुर्थस्थानमें पापग्रह स्थित हो या चतुर्थस्थानपर पापग्रह की दृष्टि आदि हो तो विवाहिता स्त्री मिले और यदि सप्तमस्थान करित अर्थात् पापग्रहकी दृष्टियोगादिसे युक्त होय तो घरी हुई स्त्री प्रश्नकत्तोको मिले ।। ९२ ।। उभयोः सौम्यतां प्राप्ते द्वे स्तो धृतविवाहिते ॥ उभयोः क्रूरतां प्राप्ते न धृता न विवाहिता ॥९३॥ सं० टी०-विशेषमाह-यदि चतुर्थे च सप्तमे स्थाने सौम्यग्रहो भवतः तदा वाच्यमेका धृता एका परिणीता, तथा चतुर्थे सप्तमे वा यदि क्रूरग्रहौ स्थातां तदा वाच्यं न धृता न परिणीता अस्य भार्या इति भावः ॥ ९३ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) भुवनदीपकः। अर्थ-यदि चतुर्थ और सप्तम इन दोनों स्थानोंमें शुभग्रहयुक्त या शुभग्रहकी दृष्ट्यादि हो तो एक घरेली और एक विवाहिता स्त्री प्राप्त हो और इन दोनों स्थानोंमें पापग्रहोंके योगादि हो तो धरेली और विवाहिता इन दोनोंमें कोई भी नहीं मिले ॥ ९३॥ न धृता परिणीता वा योगेऽत्र सुखदायिका ॥ परिणीता धृता वाऽपि पाश्चात्त्ये सुखदायिका९४॥ ___ सं०टी०-विशेषमाह-यदि चतुर्थे सप्तमे स्थाने क्रूरग्रहो भवति तदा धृता परिणीता वा भार्या सुखदायिका न, किंतु पाश्चात्त्ये शेषे काले सुखदायिकेति वाच्यम् । प्रकारांतरेणाह"लग्नस्थे सप्तमे पत्नी भर्तुरादेशकारिणी । लग्नेशे सप्तमस्थे तु भार्यादेशकरः पतिः” ॥ ९४ ॥ इति स्त्रीप्राप्तिविचारद्वारमष्टादशम् ॥ १८॥ ___ अर्थ- पूर्व चतुर्थस्थानमें पापग्रहोंके योगादिसे व्याही स्त्री और सप्तम स्थानमें पापग्रहोंके योगादिसे रखेली स्त्रीका लाभ जो लिखा है, उसमें विशेष लिखते हैं-कि, इन योगोंमें धरेली या विवाहित स्त्री पहिले सुख देनेवाली नहीं होती, किन्तु पीछे सुख देनेवाली होती है, यहां विशेष विचार है कि सप्तम स्थानका स्वामी यदि लग्नमें हो तो स्त्री स्वामीकी आज्ञा पालन करनेवाली होती है और लग्नेश यदि सप्तम स्थानमें हो तो स्वामी ही स्त्रीकी आज्ञा करनेवाला होता है ॥ ९४ ॥ इति स्त्रीप्राप्तिविचारद्वारम् ॥ १८ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका - भाषाटीकासमेतः । ( ६९ ) रिपुक्षेत्रस्थितौ द्वौ तु लग्नाद्यदि शुभग्रहौ ॥ क्रूरश्वकस्तत्र जाता भवेत्स्त्री विषकन्यका ॥ ९५ ॥ सं० टी० - अथ : विषकन्यानिर्णयद्वारमाह - पृच्छालग्नाजन्मलग्नाद्वा षष्ठे स्थाने द्वौ सौम्यग्रहौ स्यातां यदि एकश्च क्रूरो भवति तस्मिन् तत्र काले जाता स्त्री विषकन्यकेयमिति वाच्या । " लग्ने सौरी रविः प्रान्ते धर्मस्थे परिणीसुते । अत्र योगे यदा जाता भवेत्त्री विषकन्या ॥ क्रूरद्वयमध्यगते लग्ने चन्द्रे च कन्यका जाता । हरति स्वं पितृपक्षं स्वमपि कुलं घातयत्यखिलम् " || ९५ ॥ इति विपकन्या निर्णयद्वारमेकोनविंशम् १९ अर्थ - अब उन्नीसवें द्वारमें विषकन्यायोग लिखते हैं - प्रश्न लग्नसे या जन्मलग्नसे छटे स्थानमें दो शुभग्रह और एक पापग्रह स्थित हों तो इस योग में जन्मी हुई स्त्री विषकन्या होती है. अब यहाँ ग्रन्थांतरसे लिखे हुए टीकाकार के विषकन्यायोगोंके श्लोकोंका अर्थ लिखता हूँ:यदि लग्न में शनि, बारहवें रवि और नौवें स्थान में मंगल हों तो इस योग में जन्मी हुई स्त्री विषकन्या होती है। तथा दो पापग्रहों के बीचमें लग्न और चन्द्रमा हों तो विषकन्या होती है, विषकन्यायोगमें जन्मी स्त्री अपने पिताके कुल और अपने अर्थात् स्वामीके कुलका नाश करती है ॥ ९५ ॥ इति विषकन्या निर्णयद्वारम् ॥ १९ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) भुवनदीपकः । भावांतगतः खेटः परभावफलं ददाति पृच्छासु ॥ अंतघटीर्यावदसावासीनफलं विवाहादौ ॥ ९६॥ सं० टी०-अथ भावान्तगतग्रहफलद्वारमाह-पृच्छालग्ने यो ग्रहो यस्मिन् अंशके वर्तते स ग्रहस्तत्र स्थितोऽपि आयियासुराशिफलं ददाति सर्वत्र पृच्छासु, परं विवाहादी कार्ये प्रांतघटीवित् यत्र नवांशके भवति तस्यैव राशिफलं ददाति नान्यराशेरिति भावः ॥९६॥ इति भावांतग्रहफलद्वारं विंशम् ॥२०॥ अर्थ-अब बीसवें द्वारमें भावके अन्तमें स्थित ग्रहोंके फलदातृत्व लिखते हैं-समस्त प्रश्नोंमें भावके अन्तमें स्थित जो ग्रह सो अगले भावका फल देता है और विवाहादि कार्योंमें भावके अन्तघडी अर्थात् समाप्ति पर्यन्त जिस भावमें ग्रह है, उसी भावका फल देता है ॥ ९६॥ इति भावान्तग्रहद्वारम् ॥ २० ॥ अंबर(१०)गतं शुभग्रहयुग्मं वृष्टिर्भवेद्विवाहादौ ॥ लग्ने शुभत्रयस्य तु योगे महती भवेवृष्टिः॥९७॥ सं० टी०-अथ विवाहसम्बन्धिविचारद्वारमाह-अंबरगतमिति । विवाहलग्नसमये यचंबरगतं. शुभग्रहयुग्मं भवति यदि दशमस्थाने द्वौ शुभग्रही स्यातामित्यर्थः । तदा विवाहसमये "Aho Shrut Gyanam" Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (७१) वृष्टिर्भवेत् । अथवा लग्ने यदि शुभग्रहत्रयं भवति तदा महती वृष्टिर्भवति । अथवा अयमेवोत्तरार्धार्थः वृष्टिप्रश्ने वक्तव्य इति भावः ॥ ९७ ॥ । अर्थ-एकीसवें द्वारमें प्रथम विवाहादि समयोंमें वृष्टिज्ञान लिखते हैंयदि विवाहादि लग्नसे दशम स्थानमें दो शुभग्रह हों तो विवाहादि कार्य समयमें वर्षा हो और यदि लग्नमें तीन शुभग्रह हों तो बहुर वर्षा होवे । इसी प्रकार वर्षा होगी या नहीं ?-इस प्रश्नमें भी विवारना अर्थात् प्रश्नलग्नसे दशमस्थानमें दो शुभग्रह हों तो साधारण और तीन शुभग्रह लग्नमें हों तो महान् वर्षा होगी ऐस कहे ॥ १७ ॥ मूर्तावुच्चः खेटो जामित्रे दधाति येन दृशम् ॥ स नो हंति कलवं क्रूराश्चान्ये तु निनंति ॥ ९८॥ __ सं० टी०-अत्रैव च कलत्रजीवनमरणादिज्ञानमाह-मूर्ती लग्ने यदि कश्चिदुच्चग्रहो भवति विवाहसमये तदा कलत्रं नों हात स्त्रीविनाशं न कुरुते, च पुनः अन्ये क्रूरग्रहाः सप्तमस्थाने वर्तमानाः कलत्रं विनाशयंतीति भावः ॥ ९८॥ इति विवाहादिसम्बन्धिविचारद्वारमेकविंशम् ॥२१॥ अर्थ-अब यहीं स्त्रीका जीवन और मरणका ज्ञान लिखते हैंसप्तमस्थानमें पापग्रहके होनेसे स्त्रीकी मृत्यु होती है, वहाँ विशेष लिखते "Aho Shrut Gyanam" Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) भुवनदीपकः । हैं कि, अपने उच्चराशिमें बैठा हुआ ग्रह यदि लग्नमें हो तो जिस लिये सप्तमस्थानको पूर्णदृष्टि से देखता है, इसी लिये स्त्रीका मरण नहीं करता है और अन्य पापग्रह अर्थात् उच्चादिसे भिन्न स्थानस्थित ग्रह पदि लग्नमें हों तो स्त्रीकी मृत्यु करते हैं ॥ ९८ ॥ इति विवाहादिसम्बन्धिविचारद्वारम् ॥ २१ ॥ क्रूरः खेटोलग्ने विवादपृच्छासु जयति विवदंतम्॥ सर्वावस्था परं नीचास्ते जयति न द्विपितम् ९९ __ सं०टी०-अथ विवादविचारद्वारमाह-अहं वादे अमुकं वादिनं जेष्यामि न वेति प्रश्ने यदि काग्रहो मूर्ती तदा वक्तव्यं जयो भवति । तथा स एव मूर्तिस्थः क्रूरग्रहो नीचो वाऽस्तं गतो वा भवति तदा तस्य जयो न भवति इति वाच्यम् ॥ ९९॥ अर्थ--अब बाईसवें द्वारमें जय पराजय लिखते हैं-यदि विवाद सम्बन्धी अर्थात् अमुक जनसे विवाद हो रहा है उसमें जीतूंगा या हारूँगा? ऐसे प्रश्नमें पापग्रह लग्नमें बैठा हो तो वादीको जीते यदि और वही पापग्रह नीचराशिमें, सूर्यके सान्निध्यसे अस्त, या शत्रुग्रहके राशिमें हो तो वादीको नहीं जीते अर्थात् पराजय पावे ॥ ९९ ।। लग्ने छूने च यदा क्रूरः खेटो विवादिनोर्न तदा ॥ कलहनिवृत्तिः कालेन जयति बलवान्गतबलं तु ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (७३) सं० टी०-किंचिद्विशेषमाह-च पुनः लग्ने तथा छूने सप्तमस्थाने उभयोः क्रूरग्रही भवतः तदा बहुकालं यावत् विवादो भवति तथा तयोईयोर्मध्ये यदा यो ग्रहः सबलो भवति तदा च तस्य वादिनः प्रतिवादिनो वा जयो भवतीति वाच्यम् १००॥ __ अर्थ-यदि लग्न और सप्तम इन दोनों स्थानोंमें पापग्रह तुल्यबली हों तो वादी प्रतिवादी इन दोनोंमें कोई भी नहीं जीते. किन्तु बहुतसमय पीछे लडाईकी निवृत्ति हो और यदि वे पापग्रह न्यूनाधिक बलवाले हों तो अधिकबलवाला न्यूनबलवालेको जीतता है अर्थात् लग्नस्थित पापग्रह बली हो तो प्रश्नकर्ताकी जय हो और यदि सप्तमस्थित पापग्रह बलवान् हो तो शत्रुकी जय हो !! १०० ॥ लग्नं द्यूनं मुक्त्वा परस्परं क्रूरयोः सकलदृष्टौ । विवदाद्ववादियुगलं क्षुरिकाभ्यां प्रहरति तदेवम् ।। सं० टी०-तत्रैव विशेषमाह-लग्नं मुक्त्वा यूनं सप्तमस्थानं च मुक्त्वा अन्यत्र वर्तमानौ क्रूरग्रहौ यदि परस्परं पूर्णदृष्ट्या पश्यतः तदा वादं कुर्वाणं युगलं कर्तृ क्षुरिकाभ्यां यमदंशारूपाभ्यां तदा प्रहारं करोतीति । कोऽर्थः--कटारिकाभ्यां परस्पर प्रहारं कुरुत इत्यर्थः। अत्र वादिप्रतिवादिनौ प्रहारविषयौ "Aho Shrut Gyanam" Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) भुवनदीपकः । वाच्यौ,यतोऽग्रेऽपि विवादशत्रुहनने इत्यस्य विवादशब्देनोपात्त. त्वात् ॥ १०१॥ इति विवादविचारद्वारं द्वाविंशम् ॥ २२ ॥ ___ अर्थ-लग्न और सप्तम इन दोनों स्थानोंको छोडकर अन्य स्थान. स्थित दो पापग्रहोंकी परस्पर पूर्णदृष्टि हो तो दोनों वादीप्रतिवादियों में छुरिका अर्थात् तलवार आदिके प्रहारोंसे युद्ध हो ।। १०१ ॥ इति विवादविचारद्वारम् ॥ २२ ॥ व्रतदानपट्टारोपणप्रतिमास्थापनविधिःस्मृतोगुरुणा दशमस्थानं कार्य रविदृष्टिप्रभृतिभिर्बलवत् १०२ सं० टी०-अथ संकीर्णपदनिर्णयदारमाह-व्रतदानं दीक्षा पट्टारोपणं पट्टाभिषेकः, प्रतिमास्थापनं प्रतिष्ठा, एतेषां कार्याणां विधिषु इतिकर्तव्येषु प्रारब्धेषु गुरुणा कार्यकर्ता उपदेशिकेन वा दशमं कर्माख्यं स्थानं रविदृष्टिप्रभृतिभिर्ग्रहविलोकनैबलवत् बलाधिकं कर्तव्यं दशमे स्थाने बलवति कार्य कर्तव्यं नान्यथोत भावः ॥ १०२ ॥ अर्थ-दीक्षाग्रहण, राज्याभिषेक और प्रतिमास्थापन ये सब कार्य यदि लग्नसे दशमस्थान व्यादिग्रहोंकी दृष्टयादिसे बलवान् हो तो करने चाहिये, ऐसा गुरुजनोंने कहा है ॥ १०२ ॥ "Aho Shrut Gyanam Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका - भाषाटीकासमेतः । (७५) पत्रान्यलाभयोगोन भवतिनवमंचभवतिशुभदृष्टम् तत्राचिंतितलाभः प्रष्टुर्गणकेन निर्देश्यः ॥ १०३ ॥ सं० टी० - अत्रैव पुनर्विशेषमाह-यत्र लाभादिपुत्रवच्छायाम् अन्येषां शुभग्रहादीनां लाभयोगो न भवति सवलत्वाभावात् । अन्यच्च - नवमस्थानं शुभग्रहयुक्तं दृष्टं वा भवति, तदा गणकेन ज्योतिर्विदा वाच्यम्, तव प्रष्टुः प्रच्छकस्य अर्चितितलाभों भविष्यति इति ॥ १०३ ॥ अर्थ-यदि लाभप्रश्नमें अन्य कोई लाभकारक योग प्रबल नहीं हो और यदि नवमभाव शुभप्रहसे देखा जाता हो तो प्रश्नकर्त्ता के मनोवाञ्छितका लाभ होगा ऐसा ज्योतिषीलोग कहें ॥ १०३ ॥ रंध्रे लग्नाधिपतिर्भुनक्ति कार्य तदैव यदि तस्मात् ॥ शत्रौ यात्यथ मित्रे तस्मिन्काले तदा सिद्धिः १०४ 1 सं०टी० - अपरं किंचित्तत्रैवाह - रंध्रे अष्टमस्थाने प्रश्नकाले यदि लग्नाधिपतिः भवति तदा प्रारब्धकार्यं भुनक्ति न भवति । यदि तस्मात् अष्टमस्थानात् रिपुक्षेत्रे व्रजति तदैव कार्यभंग करोति । अथ एवं लग्नाधिपतिरष्टमस्थानात् मित्रक्षेत्रे याति तदा तस्मिन् काले तस्य कार्यस्य सिद्धिर्भवति इति वाच्यम् । इदमत्र तत्त्वम् - " पृच्छाकाले गृहपो यत्र गतस्तत्र तत्फलं ददते । अरिनीचास्ते विफलः स्वोर्च्च मित्रोच्चभे सफलः " ॥ १०४ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) भुवनदीपकः । .. अर्थ-यदि प्रश्नलग्नका स्वामी प्रश्नलग्नसे अष्टमस्थानमें हो प्रश्नसंबन्धी कार्यको भक्षण करजाता है अर्थात् नाश कर देता परन्तु यदि शत्रुके घरमें हो तो और यदि मित्रके गृहमें प्राप्त होय कार्यसिद्धि करता है । यहाँ सारांश यह है कि लग्नस्वामी जैसे स्थान हो, वैसाही फल करता है अर्थात् शत्रुगृहमें, नीचराशिमें और सूर सान्निध्य से हो अस्त हो तो प्रश्नसम्बन्धी कार्यको नाश करता है तो स्वगृह, स्वोच और मित्रके गृहमें हो तो कार्यको सिद्ध करता है १० बीक्षणयुग्भ्यां कौलग्नषडष्टसु च विद्ध इत्यबलः पुष्णाति कष्टभावं मृत्युमपि प्रश्नतश्चन्द्रः।।१०५ सं०टी०-प्रश्नकाले चन्द्रफलमाह—यदा प्रश्नकाले वाऽष्टमे षष्ठे वा वर्तमानश्चन्द्रः करैर्ग्रहवीक्षितो युतो वा भवा स विद्ध इत्युच्यतेऽवलास चन्द्रः कष्टभावं देगलं पुष्णा। किंतु मृत्युमाप करोति, प्रश्नलग्नादिति भावः ॥ १७५॥ . अर्थ-प्रश्नकालमें पापग्रहसे दृष्ट या युक्त चन्द्रमा प्रश्नलाट लग्न, छठे, आठवें स्थानमें स्थित होनेसे विद्ध और निर्बल कहाता यह चन्द्रमा प्रश्नकार्यसम्बन्धी दुःखहीको बढाता है और मृत्यु : करता है ॥ १०५ ॥ द्वादशे शोभनः खेटो विवाहादिषु सध्ययम्॥ क्रूरोऽप्यसद्ययं चोरराजाग्निप्रभ ग्रहः ॥१०६ "Aho Shrut Gyanam". Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (७७) सं० टी०-अथ प्रश्नकालाद्विशेषमाह-द्वादशे स्थाने यदि श्चित्सौम्यग्रहो भवति तदा शोभने.द्रव्यव्ययो भवति, यदि रग्रहस्तदा चोरराजाऽग्निप्रमुखेभ्योऽशोभनस्थाने द्रव्यव्ययो विति । “रवौ द्वादशे चन्द्रे वाऽवश्यं राजकुले व्ययम् । विचायेद् व्यवस्थैवमेवं सर्वत्र पंडितः॥"॥ १०६ ॥ इति संकीर्ण दनिर्णयद्वारं त्रयोविंशम् ॥ २३ ॥ अर्थ-यदि प्रश्नलग्नसे बारहवें स्थानमें शुभग्रह बैठा हो तो विवाह, ज्ञ आदि शुभ कार्यमें व्यय होता है और बारहवें स्थानमें पापग्रह. तो असद्व्यय (जूआ-वेश्या आदिमें ) तथा चोर, राजा, अग्निसे व्यका नाश होता है और रवि वा चन्द्रमा बारहवें स्थानमें हों तो जकुलसे ही अवश्य धनका व्यय होता है ॥ १०६ ॥ इति संकीर्गनिर्णयद्वारम् ॥ २३ ॥ गृहमागतो न यदसौ किं बद्धः किमथ हत इति प्रो सूतौ क्रूरो यदि तत्र हतो न बद्धोऽथवा पुरुषः १०७ | सं० टी०-अथ दीप्तपृच्छाद्वारमाह-कश्चिन्नरो देशांतरं गतो नाद्याप्यागत इति किं बद्धा हतो वेति प्रश्ने यदि मूर्ती दूरग्रहस्तदा न हतो' न बद्रः, किंतु कुशली वर्तते इति वाच्यम् ॥ १०७॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८) भुवनदीपकः । अर्थ - अब चौबीसवें द्वारमें विदेश गये हुए मनुष्य की स्थिति लिखते हैं-यदि कोई ऐसा प्रश्न करे कि, अमुक पुरुष विदेश गया सो घर नहीं आया है, क्या कहीं बँधा हुआ है या मर गया ? ऐसे प्रश्नमें यदि प्रश्न लग्न में पापग्रह हो तो वह मारा नहीं गया है और बन्धनमें भी नहीं है अर्थात् कुशलसे है, ऐसा कहना चाहिये ॥ १०७ ॥ सप्तमगोऽष्टमगो वा चेत्क्रूरस्तद्धतोऽथ बद्धो वा ॥ मूर्ती च सप्तमेऽपि च यद्वा लग्नेऽष्टमे च भवेत् १०८ क्रूरस्तदाऽसौ पुरुषोबद्धश्च हतश्च मुच्यते च परम् ॥ दीप्तत्वाद्विहितमिदं व्याख्यानं क्रूरविषयमिह १०९ सं० टी० - अत्रैव विशेषमाह - सप्तमेऽष्टमे वा स्थाने यदि क्रूर ग्रहो भवति तदा बद्धो हतो वा मृत इति वाच्यम् । तथा मूर्ती वा सप्तमेऽपि च स्थाने यदि क्रूरस्तदा वाच्यं मारितो बद्धो वेति । लग्नेऽष्टमे क्रूर ग्रहो भवति मृतो बद्धश्च भवेत् । अथ मूर्ती अष्टमस्थाने यदि क्रूर ग्रहो भवति तदाऽप्येवम् ॥ १०८ ॥ ॥ १०९ ॥ इति दीप्तपृच्छाद्वारं चतुर्विंशम् ॥ २४ ॥ अथ - इसी प्रश्न में विशेष लिखते हैं- कि, प्रश्नलग्न से सप्तम या अष्टम स्थान में यदि पापग्रह हो तो मरण वा बन्धन कहना, अथवा लग्न और सप्तम इन दोनों में पापग्रह हों या लग्न और अष्टम इन दोनों स्थानों में पापग्रह हों तो वर्तमान कालमें बन्धन या "Aho Shrut Gyanam" Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका - भाषाटीकासमेतः । ( ७९ ) प्रेरण प्राप्त है परन्तु आगे निर्मुक्त हो जायगा । यह पापग्रहका विवरण दीप्तत्व होनेके कारणसे कहा है ॥ १०८ ॥ १०९ ॥ इति दीप्तपृच्छाद्वारम् ॥ २४ ॥ चतुर्थे दशमे वापि यदि सौम्यग्रहो भवेत् ॥ तदा न गमनं क्रूरैस्तत्रैव गमनं भवेत् ॥ ११० ॥ f सं० टी० - अथ पथिकगमनागमनद्वारमाह- गमागमनपृच्छायां यदि लग्नाच्चतुर्थे वा दशमे स्थाने सौम्यग्रहे सति गमनं भवति । यदि तत्रैव क्ररग्रहः स्यात्तदा गमनं न भविष्यतीति वाच्यम् ॥ ११० ॥ अर्थ - अब पचीसवें द्वारमें पथिकका गमनागमन लिखते हैं- यदि कोई पूछे कि, मुझको कहीं जानकी इच्छा है सो वहाँ जाना होगा या नहीं ? ऐसे प्रश्नमें प्रश्न लग्नसे चौथे या दशवें स्थानमें यदि शुभग्रह हो तो जाना नहीं हो और यदि वही चौथे, दशवें स्थान में पापग्रह हों तो अवश्य वहाँ जाना हो ॥ ११० ॥ द्वितीये केंद्रतोऽभ्येति यदा खेटस्तदागमः || आयियासुं ग्रहं दृष्ट्वा ब्रूयादिदमशंकितः ॥ १११ ॥ १ यहां मरणशब्दसे आठ प्रकारका मरण है: यथा- "व्यथा दुःखं भयं लज्जा रोग: : शोकस्तथैव च । बन्धनं चावमानं च मृत्युश्वाष्टविधः स्मृतः ॥" येही आठ हैं । मुच्यते परम्" इसकी व्यर्थता होगी ॥ अन्यथा "Aho Shrut Gyanam" Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) भुवनदीपकः। सं० टी०-अत्रैव विशेषमाह-"प्रयाति सहजस्थानमसौ यस्यां शुभग्रहः । आयाति पथिकस्तत्र तस्यामेव नरो गृहम् ॥ प्रयातीति आक्षेपः । आगमनपृच्छालग्नाद्यादि केंद्रतश्चतुर्थस्थानाद्वा द्वितीयेवा पञ्चमे चैकादशे वा स्थाने सौम्यग्रहोऽभ्येति तदा गमनं न भवेत्, यस्यां वा घटिकायां खेटःकुरो वा शुभो वा अभ्येति प्राप्नोति तदा तस्यां घटिकायां तदागमस्तस्य पथिकस्यागमनं वाच्यम्। आयियासुम् आगमनशीलं ग्रहं दृष्ट्वा निःशंकमेतद्वाच्यामिति भावः ॥ १११ ॥ अर्थ-विदेश गयाहुआ पुरुषका आगमन लिखते हैं-प्रश्नकालमें केन्द्रसे द्वितीय स्थानोंमें अर्थात् दूसरे, पांचवें, आठवें और ग्यारहवें स्थानोंमें यदि ग्रह प्राप्त हों तो उसी समयमें विदेश गयाहुआ पुरुषका आगमन कहना । अथवा केन्द्रप्राप्त ग्रहको केन्द्रसे द्वितीय (२-५-८-११) स्थानोंमें प्राप्त होनेका समय देखकर निःसन्देह आनेका समय कहना अर्थात् यदि (२-५-८-११ ) इन स्थानोंमें ग्रह प्राप्त हों तो शीघ्रही विदेशगत पुरुषका आगमन कहना और यदि केन्द्रही (१-४-७-१० ) में ग्रह हों परन्तु ( २-५-८-११ ) इन स्थानोंमें आनेवाले हों तो जितने दिनोंमें वे ग्रह इन स्थानोंमें आवेंगे उतनही दिनोंमें विदेश गयाहुआ पुरुषकाभी आना होगा ऐसा कहना चाहिये ॥ १११॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (८१) द्वितीयमायियासुश्च चंद्रे केंद्राद्विशेषतः॥ पथिकागमनं ब्रूते मुक्त्वा सप्तमकेन्द्रकम्॥१२॥ ___ सं०टी०-पुनरत्रैव पथिको ग्रामांतरात्कदा समायाति इति पृच्छालग्ने यदि केंद्राद्वितीयस्थानं चन्द्रमा यस्यां वेलायामायाति तदैव पथिकस्थागमनं विशेषतो वक्तव्यम् । परं यदि सप्तमकेन्द्रादष्टमं याति वक्तव्यं मृतमिति विशेषः ॥ ११२ ॥ __ अर्थ-पूर्व कहेहुएमें विशेष लिखते हैं-कि, सातवें केन्द्रको छोडकर अन्य केन्द्र (१-४-१० ) से द्वितीय स्थान (२-५-११)में चंद्रमा हो तो विशेषरूपसे आगमन कहना. सप्तम केन्द्रको छोडनेका अभिप्राय यह है कि, सप्तमस्थानसे अष्टमस्थानमें चन्द्रमा जानेवाला हो तो ग्रामान्तर गये हुए पुरुषको मरण या मरणतुल्य कष्ट आदि कहना ॥ ११२ ॥ इन्दुः सप्तमगो लग्नात्पथिकं वक्ति मार्गगम् ॥ मार्गाधिपश्च राश्यर्धात्परभागे व्यवस्थितः ११३ सं०टी०-पुनरत्रैव विशेषमाह-चन्द्रो लग्नाद्यदि सप्तमें स्थाने भवति तदा पथिकं मार्गस्थं कथयति, तथा सप्तमस्थान मार्गस्तस्याधिपो नवमराश्यधिपो वा राश्य परभागस्थिता "Aho Shrut Gyanam" Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२) भुवनदीपकः । सप्तमराशेर्नवमराशेर्वा प्रथमांशपंचदशादपरे लब्धांशे चतुर्थ स्थितः पथिकं मार्गगं वक्ति, (धर्मश्च मार्गश्च अधिपश्च मार्गाधिपाः ) ॥ ११३ ॥ ___ अर्थ-इसमें भी विशेष यह कि, यदि नवम भावका स्वामी जिस किसी राशिमें पन्दरह अंशसे अधिक हो और चन्द्रमा प्रश्नलग्नसे सातवें स्थानमें हो तो वह पथिक रास्तेमें आरहा है ऐसा कहना ११३ चरलग्ने चरांशे च चतुर्थे चन्द्रमाःस्थितः।। ब्रूते प्रवासिनं व्यक्तं समायातं स्ववेश्मनि।।११४॥ __ सं०टी०-किंचिद्विशेषमाह-आगमनप्रश्ने चरलग्ने मेषादिलग्ने तस्यैव च नवांशकोऽपि चरः स्यात्तस्मिन्सति यदि चतुर्थचरस्थाने चन्द्रो भवति तदा स्पष्टं यथा भवति तथा वक्तव्यम् । प्रवामिनं वैदशिक स्वकीयगृहमागतं बते चन्द्र इत्युपचारश्चंदं दृष्ट्वा पुरुष इति वाच्यम् । तथा पाठांतरेणाह* दूरगतस्यागमनं सुतधनसहजस्थितैर्ग्रहर्लनात् । सौम्यैनष्टप्राप्तिर्लध्यागमनं गुरुसिताभ्याञ्च ॥ १ ॥ अष्टमस्थे निशानाथे कंटकैः १।४।७। १० पापवर्जितैः । प्रवासी शीघ्रमायाति सौम्यैर्लाभसमन्वितैः ॥२॥अत्रागमनयोगानाह-"चरलग्ने स्थिरे चन्द्रे समेति परचक्रकम् । चरेचन्द्रे स्थिर लग्ने नैति तदद "Aho Shrut Gyanam Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (८३) रिपोर्बलम् ॥ ३ ॥ वृषमेवधनु:सिंहा मूर्ती तुर्ये यदि स्थिताः । अग्रहाः सग्रहावाऽपि शत्रुह्यावर्तयति यत्॥४॥लग्नाभ्रचन्द्रधर्मेशन स्थिरस्थैनागमो रिपोः । सूर्येन्दू वा सुखस्यौ च चरे शे स्थिरगेक्षिते ॥ ५ ॥ लगपुण्यपती द्वौ तु युतौ दृष्टौ परस्परम् ।। परागमनकर्ताऽसौ ह्यन्यथाऽप्यन्यथा फलम् ॥ ६ ॥” इत्यन्यप्रन्यात् ॥ ११४ ॥ इति पथिकगमनागमनदारं पञ्चविंशम् ॥ २५ ॥ अर्थ-यदि प्रश्नकालमें चरराशि' अर्थात् मेष, कर्क, तुला और मकर इनमेंसे कोई राशि लग्न हो तथा चरराशिहीका नवांशभी लग्नमें हो और लग्नसे चौथे स्थानमें चन्द्रमा बैठा हो तो वह विदेशी अपने घर पहुँच गया ऐसा स्पष्ट कहना चाहिये ॥ ११४ ॥ इति पथिकगमनागमनद्वारम् ॥ २५ ॥ स्मरे व्यये धने क्रूरे लग्ने मृत्यौ रिपौ शशी ॥ सद्यो मृत्युकरो योगः क्रूरे वा चन्द्रपार्श्वगे।।११५॥ सं० टी०-अथ मृत्युयोगद्वारमाह-रोगिणो जीवनमरणपृच्छायां यदि स्मरे सप्तमे, व्यये द्वादशे, धने द्वितीये, एतेषु स्थानेषु यदि क्रूरो ग्रहो भवति तदपेक्षया लग्ने, मूर्ती, अष्टमे रिपौ, षष्ठे, एतेषु स्थानेषु यदि शशी चन्द्रो भवति तदा शीघ्र "Aho Shrut.Gyanam" Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४) भुवनदीपकः । मृत्युकारको योगो भवति अथवा चन्द्रसमीपस्थे क्रूरग्रहे सति तदा मृत्युयोगोभवति ॥ ११५ ॥ - अर्थ-अब छव्वीसवें द्वारमें रोगीके जीवन मरणका विचार लिखते हैं-यदि प्रश्नलग्नसे सातवें, बरहवें, दूसरे स्थानमें पापग्रह हों और लग्न, आठवें, छठे स्थानमें चन्द्रमा हो तो शीघ्र मृत्यु करनेवाला योग होता है अथवा चन्द्रमाके दोनों तरफ यदि पापग्रह हों तो भी शीघ्र मृत्युकारक योग होता है ॥ ११५ ।। लग्ने रविः स्मरे चन्द्रो भवेद्योगोऽयमेव हि ॥ एतेषु रोगिणो मृत्युः सधस्त्वन्यस्य चापदः११६ सं० टी०-तथा यदि लग्ने रविर्भवति, स्मरे सप्तमे चन्द्रो भवति तदाऽप्ययमेव योगो भवति । एतेषु प्रागुक्तेषु मृत्युयोगेषु रोगिणः पृच्छायां मरणं वक्तव्यम् । तथा अन्यस्य लाभादिप्रच्छकस्य चापदो वक्तव्या इति ॥ ११६ ॥ इति मृत्युयोगद्वारं षड्विंशम् ॥२६॥ अर्थ-लग्नमें रवि और सातवें स्थानमें चन्द्रमा हो तो भी मृत्युयोग होता है। इन योगोंमें :रोगीका प्रश्न किया गया हो तो शीघ्र मरण होता है, अन्य विषयका प्रश्न हो तो आपद ( विपत्ति ) होती है ॥ ११६ ॥ इति मृत्युयोगद्वारम् ॥ २६ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (८५) पृच्छायां मूर्तिगे क्रूरे दुर्गभंगो न जायते ॥ बलहीनेऽपि वक्तव्यं किं पुनर्बलशालिनि ।।११७॥ __ सं०टी०-अथ दुर्गभंगद्वारमाह-दुर्गादिभंगप्रश्ने यदि मूर्ती क्रूरग्रहो भवति तदा न भवत्येव दुर्गभंगः। कदापि से करः मूर्तिस्थोऽपि बलहीनो भवति तदाऽपि दुर्गभंगो न भवति । बलशालिनि बलाधिके ग्रहे किमुच्यते इति ।। ११७॥ - अर्थ-अब सत्ताईसवें द्वारमें दुर्गभंगका विचार लिखते हैं-कोई प्रश्न करे कि, शत्रु युद्ध करनेको आता है उसले मेरा किला टूटेगा या नहीं ? वहां यदि प्रश्नलग्नमें कोई पापग्रह हो तो दुर्ग ( किला) नहीं टूटेगा, ऐसा निबलभी पापग्रह हो तो भी कहना फिर बलवान् पापग्रह लग्नमें बैठा हो तो कहना ही क्या है अर्थात् कथमपि किला भंग नहीं होगा ॥ ११७॥ क्षितिपुत्रो विशेषेण राहुर्यदि विलनगः ।। शकेणापि तदा दुर्गभङ्गं कर्तुं न शक्यते ॥१८॥ ___ सं० -टी०-क्षितिपुत्रो मंगलः तथा विशेषेण राहुयदि लग्ने भवति तदा शक्रेग इंद्रेणापि दुर्गभंग कर्तुं न शक्यते । आस्तामन्येनेत्यर्थः ॥ ११८ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) भुवनदीपकः । अर्थ - विशेषकरके मंगल या राहु लग्नमें हो तो इन्द्र भी युद्ध करनेवाला हो तो भी किला नहीं टूट सकता है फिर इतर मनुष्यकी तो बातही क्या है ॥ ११८ ॥ सप्तमो यदि राहुः स्याद्दुर्गे झटिति भज्यते ॥ मूत क्रूरः शुभोऽमुष्मिन क्रूरदृष्टिर्न शोभना ११९ सं०टी० - यदि पृच्छालग्नात्सप्तमो राहुभवति तदा दुर्गभंगं झटिति शीघ्रं भवतीति वाच्यम् । अत्र कारणमाह - यतः कारणादमुष्मिन् दुर्गभंगप्रश्ने क्रूरो ग्रहो मूर्ती च वर्तमानः शुभो भवति । यद्यपि परो ग्रहः सप्तमस्थानत्वात्संपूर्ण दृष्टिभवत्यतः क्रूरदृष्टिर्न शोभनेति भावः ॥ ११९ ॥ इति दुर्गभंगद्वारं सप्तविंशम् ॥ २७ ॥ अर्थ-यदि प्रश्न लग्नसे सातवें स्थानमें राहु हो तो शीघ्र किला टूट जायगा, कारण यह है कि, ऐसे प्रश्नमें लग्न में पापग्रह शुभ होते हैं और पापग्रहकी दृष्टि शुभ नहीं होती अर्थात् सप्तमस्थान में पापग्रहके रहने से लग्नपर पूर्ण दृष्टि होती है, अतः किलाभंग कहना ॥ ११९ ॥ इति दुर्गभंगद्वारम् ॥ २७ ॥ एवं चौर्याय यामीति मूर्तों क्रूरः शुभावहः ॥ दृष्टिः शुभावहाऽत्रापि न क्रूरस्य कदाचन १२० ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (८७) सं०टी०-अथ चौर्यादिस्थानद्वारमाह-एवं पूर्वोक्तप्रकारेण इहःचौर्याय गच्छामीति प्रश्ने अत्रापि मूर्ती वर्तमानः क्रूरग्रहः शुभावहः शोभनकर्ता तथा प्राग्वत् अपि प्रश्ने क्रूरग्रहस्य दृष्टिः शुभावहा कदापि न भवतीत्यर्थः ॥ १२० ॥ अर्थ-अब अट्ठाईसवें द्वारमें चौरादिकोंका प्रश्न विचार लिखते हैं, यदि कोई ऐसा प्रश्न करे कि, मैं चोरी करनेको जाऊँगा लाभ होगा या नहीं ? ऐसे प्रश्नमें लग्नमें पापग्रह हो तो शुभ ( लाभादि ) होता है परन्तु यहाँपर भी लग्नपर पापग्रहकी दृष्टि कदापि शुभ देनेवाली नहीं होती ॥ १२० ॥ विवादे शत्रुहनने रणे संकटके तथा ॥ क्रूरे मूतों जयो ज्ञेयः क्रूरदृष्टया पराजयः।१२१॥ ___ सं० टी०-विवादे, शत्रुहनने, रणे युद्धे, संकटके एतेषु सर्वेषु प्रश्नेषु यदि मूर्ती क्रूरग्रहो भवति तदा जयो वाच्यः । क्रूरदृष्टया पराजयो वक्तव्य इति ॥ १२१॥ अर्थ-विवादमें, शत्रुको मारनेमें, युद्धमें, संकट ( आवश्यक विवाहयात्रादि ) में भी पापग्रह लग्नमें हो तो जय होती है और प्रश्नलग्नपर पापग्रहकी दृष्टि होय तो पराजय होती है ।। १२१ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८८ ) भुवनदीपकः । मूर्तिसप्तमयोः क्रूराभावे लग्नपतिव्र्व्यये ॥ षष्ठेऽष्टमे द्वितीये वा तदा दुर्गे न भज्यते ॥ १२२ ॥ सं० टी० - मूर्तिसप्तमयोः स्थाने यदि क्रूरग्रहो न भवति, लग्नपतिर्व्यये द्वादशे भवति, अथवा षष्ठेऽष्टमे द्वितीये भवति तदा दुर्गभंगो न भवतीति ॥ १२२ ॥ अर्थ - यदि लग्न और सप्तम इन दोनों स्थानोंमें से किसीमें पापग्रह न हो और लग्नका स्वामी बारहवें, छठे, आठवें या दूसरे स्थानमें हो तो किलाभंग नहीं हो ॥ १२२ ॥ अपरेष्वपि चौर्यादियोगेष्वेवं विना ग्रहम् ॥ मूर्ती सर्वत्र वक्तव्यं चौर्यप्रश्ने शुभग्रहे ॥ १२३ ॥ मूर्ती सति न चौर्य स्यात्सफलं केवलं भवेत् ॥ शरीरे मुख्यकुशलं शुभयोगप्रभावतः || १२४ || सं०- टी० - विशेषमाह - अपरेषु विवादशत्रुहननादिषु कार्येषु मूर्ती क्रूरग्रहः विलोकनीयः, जयदायी भवति न परः सौम्यः । तथा चौर्यप्रश्ने यदि क्रूराऽभावेन मूर्ती शुभग्रहो भवति तदा वक्तव्यं चौर्यस्य लाभो न भविष्यति । किंतु मध्येऽपरो लाभो भविष्यतीति । तथा अस्य चोरस्य शरीरे कुशलं शोभनं ग्रहप्रभावात् ॥ १२३ ॥ १२४ ॥ " "Aho Shrut Gyanam" Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका - भाषाटीकासमेतः । ( ८९ ) अर्थ - इसी प्रकार अन्य जो चोरी करना, विवाद करना, शत्रुको मारना, युद्ध करना इत्यादि योग में भी लग्नमें पापग्रहके नहीं रहने से विचारकर कहना चाहिये और चौरप्रश्न में यदि लग्नमें शुभग्रह हो तो चोरीसे धन नहीं मिले किन्तु केवल अन्य कोई शुभ फल प्राप्त हो, और लग्न में शुभयोग प्रभावसे शरीर में कुशलता रहे || १२३ ॥ १२४ ॥ रणे चौर्यादिहनने धातुवादादिकर्मसु ॥ क्रूराक्रूर समायोगान्मूर्तावेव विचार्यते ॥ १२५ ॥ सं०टी० - एतेषु रणचौर्यादिकार्येषु मूर्तिरेव विचारणीया । यदि प्रश्नकाले मूर्ती क्रूरग्रहः स्यात्तदा शोभनः । यदा सौम्य - स्तदा न शोभनः । क्रूराक्रूर विचारेण तादृशमेव फलं वक्तव्यमित्यर्थः ॥ १२५ ॥ अर्थ-युद्ध में, चोरी में, शत्रुको दमन करनेमें और धातुवादादि कर्ममें लग्न में पापग्रह और शुभ ग्रहके योगसे फलका विचार किय जाता है अर्थात् पूर्वोक्त कार्यों में लग्नमें पापग्रह शुभदायक होता है और शुभग्रह अशुभ करता है ॥ १२५ ॥ i मूत क्रूरग्रहः श्रेया छ्रेयसी क्रूरह न हि ॥ शुभो न शोभनो मूर्ती शुभदृष्टिस्तु शोभना १२६ "Aho Shrut Gyanam" Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९०) भुवनदीपकः । सं० टी०-एतेषु पूर्वोक्तेषु विवादचौर्यदुर्गभंगादिषु मूर्ती वर्तमानः श्रेयान्कार्यसाधक इत्यर्थः क्रूरस्य दृष्टिर्न श्रेयसी न शोभना कार्यभंगकरत्वात् । तथा च शुभग्रहो मूतौ न शोभन: कार्यासाधकत्वात् । तु पुनः शुभग्रहस्य दृष्टिः सर्वत्र शोभना इति भावः ॥ १२६ ॥ इति चौर्यादिस्थानद्वारमष्टाविंशम्॥२८॥ ___ अर्थ-इन पूर्वोक्त कार्योंमें लग्नमें पापग्रह श्रेष्ठ होताहै किन्तु पापग्रहोंकी दृष्टि शुभ नहीं होती तथा लग्नमें शुभग्रह शुभ नहीं होता किन्तु शुभग्रहकी दृष्टि शुभ होतीहै ॥ १२६ ॥ इति चौर्यादिस्थानद्वारम् ॥ २८ ॥ क्रेता लनपतिज्ञेयो विक्रेताऽऽयपतिःस्मृतः॥ गृह्णाम्यहामिदं वस्तु सति प्रश्ने अमूदृशे ॥ १२७॥ सं० टी०-अथ क्रयणार्घद्वारम्-केता ग्राहकोत्र लग्नपतिज्ञातव्यः । विक्रेता तु आयस्यैकादश ११ स्थानस्य पतिः । अत्र कश्चिद्वदति इदं अमुकं वस्तु गृह्णामि मम लाभो भविष्यति? इति प्रश्ने सात ॥ १२७॥ ___ अर्थ-अब उनतीसवें द्वारमें क्रय विक्रय और अर्घविचार लिखते हैं-यदि कोई पूछे कि, हम अमुक वस्तु मोल लेंगे लाभ होगा या नहीं? "Aho Shrut Gyanam" Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SANN संस्कृतटाका-भाषाटीकासमेतः (९१) ऐसे प्रश्नलग्नका स्वामी क्रेता ( खरीदनेवाला) और ग्यारहवें भावका स्वामी विक्रेता ('बेचनेवाला ) कहा गया है ॥ १२७॥ बलशालि विलग्नं चेद्गृह्यते यत्क्रयाणकम् ॥ तस्मात्तयाणकाल्लाभःप्रष्टुर्भवति निश्चितम् १२८ ___ सं० टी०-तस्मिल्लग्नाधिपतियदि लग्नं पूर्णया दृष्टया पश्यति यल्लग्नमिति हेतोरुच्यते । त्वया पृष्टं वस्तुं ग्राह्यं तस्मात्क्रयाणकात्पष्टुलाभो निश्चयेन भविष्यति अत्र यादृशो लग्नाधिपतिरुच्यते उदितो मित्रक्षेत्री वर्गोत्तमश्च यावतीः विंशोपका लग्न पश्यात तावविंशोपकालाभो भविष्यति इति भावार्थः ॥ १२८॥ ___ अर्थ-यदि लग्नका स्वामी लग्नको पूंण दृष्टिसे देखता हो तो उस वस्तुको खरीदनेसे प्रश्नकर्ताको निश्चय लाभ होता है परन्तु यहाँ विशेष यह है कि लग्नका स्वामी यादृश उदित, स्वक्षेत्र, मित्रक्षेत्र, वर्गोत्तम आदिमें स्थित होकर लग्नको जितनी दृष्टि से देखता हो उतना ही लाभ होता है अर्थात् एक चरण दृष्टिसे देखता हो तो सवाया लाभ, दो चरण दृष्टि से देखता हो तो ड्योढा इत्यादि ॥ १२८ ॥ विक्रीणाम्यमुकं वस्तु प्रश्श्रेऽप्येवंविधे सति ॥ आयस्थाने बलवति विक्रेतव्यं क्रयाणकम् १२९ "Aho Shrut Gyanam" Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९२) भुवनदीपकः। स्वक्षेत्रे तु बलं पूर्ण पादोनं मित्रभे रहे ।। अर्थ समगृहे ज्ञेयं पादं शत्रुगृहे स्थिते ॥ १३० ॥ . सं०. टी०-कश्चित्पृच्छति अहममुकं वस्तु विक्रीणामीति प्रश्ने सति यदि यस्यैकादशस्थानस्य स्वामी स्वस्थाने भवति पश्यति वा स्वस्थानं तदा वक्तव्यं तव वस्तुविक्रयणे लाभो भविष्यतीति ॥ १२९ ॥ १३० ॥ अर्थ-यदि कोई पूछे कि, मैं अमुक वस्तुको बेचूंगा लाभ होगा या नहीं? ऐसे प्रश्नमें प्रश्नलग्नसे ग्यारहवें स्थान बलवान् हो तो खरीदी हुई वस्तु बेचनेसे लाभ कहना अर्थात् ग्यारहवें स्थानका स्वामी ग्यारहवें भावमें हो या पूर्ण दृष्टिसे देखता हो तो लाभ होता है. यहाँ बल जाननेके लिये स्थानपरत्वसे बल कहते हैं-अपने गृहमें पूर्ण बल होता है, मित्रके गृहमें तीन चरण, समके गृहमें आधा, शत्रुके घरमें एक चरण ( चौथाभाग ) बल होता है ॥ १२९ ॥ १३० ॥ समर्थे वा महर्ष वा वस्तु मे कथयामुकम् ॥ पृच्छायां येन खेटेन शुभत्वं प्रतिपाद्यते ॥ ३३१॥ खेटोऽसौ यावतोमासान् याति लग्नस्य सौम्यताम्। विधत्ते तावतो मासान्तमब्रुवते बुधाः ।।१३२॥ - "Aho Shrut Gyanam" Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका - भापाटीकासमेतः । ( ९३ ) सं० टी० - पुनरत्रैव विशेषमाह - अमुकं वस्तु सम मह वा भविष्यति मम कथय इति प्रश्ने तस्मिँलने येन खेटेन ग्रहेण शुभभावः प्रतिपाद्यते स्वयमुदितत्वेन सवलत्वं क्रियते ॥ १३१ ॥ असौ खेटो ग्रहः यावत्संख्यान्मासान् अस्य पृच्छालग्नस्य सौम्यभावं विधत्ते तावतो मासान् ऋयाणकं समर्थ भवतरित वाच्यम् ।। १३२ ॥ अर्थ - यदि कोई ऐसा प्रश्न करे कि, अमुक वस्तु सस्ती रहेगी या महँगी होगी ? ऐसे प्रश्नमें जिस ग्रहसे लग्न बलयुक्त होता हो वह ग्रह जितने मासतक उस प्रश्न लग्नसे अशुभ दायक नहीं हो तबतक वह वस्तु समर्व ( सस्ती ) रहती है, ऐसा पण्डित लोग कहते हैं ।। १३१ ॥ १३२ ॥ अथासावशुभचिंत्यः कियद्भिर्वासरैरयम् ॥ सौम्यभावं विलग्नस्य विधास्यति विनिश्चितम् १३३ सं० टी० - अथ व्यतिरेकमाह- अथेति प्रकारांतरेण । अथ raat लग्नपो लग्नस्थो वा सौम्यग्रहावेतौ न क्रूरः स्यात्तदा तादृशं विचित्यम् | असावशुभग्रहः कियद्भिर्दिवसैरस्य सौम्य - भाव सबलत्वं विधास्यतीति विचिंत्यम् ॥ १३३ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९४ ) भुवनदीपकः । अर्थ - इसी प्रकार अशुभभी विचारना अर्थात् प्रश्न लग्न यदि पापग्रहकी दृष्टियोगादिसे दूषित हो, स्वामी शुभग्रहसे दृष्ट युक्त न हो तो उस वस्तुकी महर्व ( महँगी ) होती है परन्तु कबतक महँगी रहेगी ? इसके लिये ऐसा विचार है कि जितने दिनमें वह प्रश्न लग्न शुभत्वको प्राप्त हो, उतने दिनादिमें उस वस्तुकी सस्ती निश्चय होती है ॥ १३३ ॥ ज्ञातव्या दिवसैर्मासा मासैस्तावद्भिरस्य हि || समर्थता वस्तुनो हि प्रतिपाद्या विचक्षणैः ॥१३४॥ सं० टी०-अत्र गुरुणा ग्रहस्य दिवससंख्यायां मासाः कल्पनीयास्ततस्तावद्भिर्मासैः अस्य वस्तुनः समर्थता भवि ष्यतीति विचक्षणैः ज्योतिर्विद्भिः प्रतिपाद्यं प्रष्टुर्वक्तव्यमिति यावत् ॥ १३४ ॥ अर्ध-यदि मह समर्थ ज्ञानमें पूर्व प्रकार से दिन आवे तो उतने मासमें वह वस्तु महर्घ समर्थ होगी, ऐसा विद्वान् कहे ॥ १३४ ॥ अधिष्ठातुर्बलं ज्ञेयं लग्ने स्वामिविवर्जिते ॥ बलहीने त्वधिष्ठातुः प्राहुः स्वामिबले बलम् १३५ ॥ सं०टी० - अत्र विशेषमाह-यस्य वस्तुनो योऽविष्ठाताऽधिदेवता भवति तस्य बलं सम्पूर्ण द्रष्टव्यं विलोकनीयं ज्ञेयम् । "Aho Shrut Gyanam" Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका - भाषाटीकासमेतः । ( ९५ ) वेत्याह-स्वामियुक्तदृष्ट्यादिहीने लग्ने । कुत इत्याह-बलेति । तु पुनः बलहीने अधिष्ठातार लग्ने सति वस्तुनः स्वामिनो बले बलमा हुदैवज्ञा इति शेषः । यत्र लग्नापत्यादिवलं न भवति तत्र वस्तुनः स्वामिनो बले लग्नस्यापि चलमिति भावः । अत्र तु केषां वस्तूनां कः स्वामीति : निर्णेतुं ग्रन्थान्तरस्थश्लोकानाह" रसानां तु प्रभुः सोमः सस्यानां च बृहस्पतिः । आधाता च विधाता च भूतानां भार्गवः स्मृतः ॥ ९ ॥ कंमुकोद्रवमाषाणां तिलानां लवणस्य च । सर्वषां कृष्णवस्तूनां प्रभुरेव शनैश्वरः ॥ २ ॥ वर्णादेः पीतधान्यस्य यवगोधूमसर्पिषाम् । शालीक्षूणां च सर्वेषां प्रभुरेषां बृहस्पतिः ॥ ३ ॥ शुक्रस्तु सर्वसस्यानां द्विदलानां बुधः स्मृतः । स्नेहानां च रसानां च गंधादीनां दिवाकरः ॥ ४ ॥ कोशधान्यस्य सर्वस्य तण्डुलानां च मङ्गलः । इत्येवं ते ग्रहाः सर्वे स्वामिनः सर्ववस्तुषु ॥ ५ ॥ ' इति ग्रन्थान्तराज्ज्ञातव्याः ॥ १३५ ॥ अर्थ - यदि क्रय विक्रय प्रइनमें लग्न अपने स्वामीकी दृष्टि योगादिसे वर्जित हो तो उस वस्तुका जो स्वामी है उसका भी बल देखना चाहिये और यदि वस्तुका स्वामी निर्बल हो तो, लग्नस्वामीका बल देखना चाहिये अर्थात् प्रश्न लग्न स्वामी और उस वस्तुका स्वामी इन दोनों में से कोईभी बलवान् हो तो उस वस्तुकी सस्ती कहनी चाहिन "Aho Shrut Gyanam" Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९६) भुवनदीपकः। ऐसा पण्डितलोग कहते हैं । यहां किस वस्तुका कौन स्वामी है, इसको जाननेके लिये संस्कृतटीकाके श्लोकार्थ लिखते हैं-रसोंके स्वामी चन्द्रमा है, सस्यका स्वामी बृहस्पति, प्राणियोंके स्वामी शुक्र, काउनि, कोदो, उडद, तिल, नमक और जितनी कृष्ण वस्तु हैं उन सभीका स्वामी शनैश्चर है। सोना, पीला धान्य, जौ, गेहूँ, घृत, शालिधान्य, ऊख इन सभीका स्वामी बृहस्पति है, सस्योंके शुक्र, दलिहन (दाल) का बुध, तेल, रस और सुगन्धयुक्त पदार्थका स्वामी रवि है और भण्डारमें रखा हुआ धान्य तथा चावलका स्वामी मंगल है ॥ १३५ ॥ क्रयाणकानां पृच्छायां सौम्या ज्ञेया महात्मभिः॥ समर्ष सबले लग्ने महर्षमबले पुनः ॥ १३६॥ सं० टी०-अथोपसंहरन्नाह-क्रयाणकानां वस्तूनाम् इयं पृच्छा सौम्या ज्ञेया । कथमित्याह-महात्मभिः समर्धं सबले लग्ने, महर्घमबले, पुनः सम्यक् विनिश्चित्य वाच्यामिति भावः ॥ १३६ ॥ . अर्थ-क्रय विक्रय प्रश्नमें प्रश्नलग्न बलवान् हो तो उस वस्तुकी सस्ती और लग्न निर्बल हो तो महँगी होती है, ऐसा महात्मा लोगोंसे कहा गया है ॥ १३६ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (९७) सौम्यदृष्टं स्वामिदृष्टं सौम्यकेन्द्रे युतं शुभैः॥ सबलं ब्रुवते लग्नमबलं त्वन्यथा बुधाः ॥ १३७॥ __ सं० टी०-एतदेवोपदिशति-सौम्यग्रहदृष्टं भवति अथवा लग्नादिस्वामिना च दृष्टम् अथवा सौम्यग्रहाः केन्द्रे भवंति अथवा शुभग्रहैर्युक्तं भवति यल्लग्नं चैवंभूतं भवति तदेव लग्नं सबलं वते कथयति दैवज्ञा इति शेषः । तु पुनः एतस्मादन्यथाभूतं लग्नम् अबलं वदन्तीत्यर्थः ॥ १३७ ॥ इति ऋयाणकार्घद्वार. मेकोनत्रिंशम् ॥ २९ ॥ अर्थ-लग्नका बलाबल इस प्रकार जानना चाहिये कि, लग्न शुभ ग्रह और स्वामीसे देखा जाता हो तथा केन्द्र (१-४-७-१०) में शुभग्रह स्थित हों तो लग्नं बलवान होती है इससे विपरीत अर्थात् पापग्रहसे दृष्ट, केन्द्रमें पापग्रह हों तो निर्बल कहाती है, ऐसा पण्डितलोग कहते हैं ॥ १३७ ॥ इति क्रयाणकार्घद्वारम् ॥ २९ ॥ मृत्युर्धरणकं नौश्च फलेन सदृशं त्रयम् ॥ म्रियते येन योगेन तेन योगेन मुच्यते ॥ १३८॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९८) भुवनदीपकः । क्षेमेण नौः समायाति मृत्युयोगे समागते ॥ आमयावी सम्रियते बद्धः शीघ्रेण मुच्यते १३९ सं०टी० - अथ नौमृत्युबन्धद्वारमाह - ' यस्मिन् लग्ने स्मरे व्यये' इत्यादिश्लोकोक्को मृत्युयोगो भवति तदा वाच्यं धरणकं बद्धं मुक्तं भविष्यति तथा नावागमनप्रश्नेऽपि प्राग्वत् मृत्युयोगो भवति तदा क्षेमेण नौका समाजात इति वाच्यम् । परन्तु आमयाविनो रोगिणः पृच्छायां तु मरणमेवेति । बद्धप्रश्नेऽपि मृत्युयोगे सति बद्धः शीघ्रं मुक्तो भविष्यतीति श्लोकद्वयार्थः ॥ १३८ ॥ १३९ ॥ अर्थ - अब तीसवें द्वारमें मरण, बन्धन और नौकाके प्रश्नमें विचार लिखते हैं-मृत्यु, बन्धन, नौकाका आगमनादि ये तीनों फलसे समान हैं क्योंकि, छब्बीसवें द्वारमें रोगप्रश्न में जिन योगों से मरण कहा है, वेही योग बन्धन प्रश्न में हों तो बन्धन से छूटता है और नौका प्रश्न में हों तो नौका कुशलपूर्वक आती है परन्तु पूर्वोक्त मृत्युयोगोंमें रोगीका प्रश्न हो तो मरणही होता है ॥ १३८॥१३९॥ क्षेमायातं वहित्रस्य बुडनं पुवनं जले ॥ पण्यव्यवहृतौ लब्धिर्नाविप्रश्नचतुष्टयम् ॥ १४० ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (९९) सं० टी०-वहित्रस्य प्रवहणस्यागमनं क्षेमायातम् १ जले बुडनम् २ जले प्लवनम् ३ जलमध्ये वस्तुलंघनं पण्यानां प्रवइणागतयाणकानां व्यवहारे लब्धिभिः ४ इति नौविषये प्रश्नचतुष्टयं भवतीति ।। १४० ॥ अर्थ-नौकाके सम्बन्धसे चार प्रकारके प्रश्न होते हैं-एक तो नावका कुशलपूर्वक आगमन, दूसरा जलमें डूब जाना, तीसरा वायु आदिसे इधर उधर जल में घूमते रहना, चौथा नावमें आईहुई वस्तुसे लाभ होना ये चार प्रकारके प्रश्न हैं ॥ १४ ॥ क्षेमागमनपृच्छायां मृत्युयोगोऽस्ति चेत्तदा ॥ क्षेमेणायाति नौः पण्यलाभो व्यवहृतो भवेत् १४१ सं० टी०-आद्यन्तप्रश्ने' फलमाह-प्रवहणस्य क्षेमागमनप्रश्ने यदि पृच्छालग्ने प्रामुक्तमृत्युयोगो भवेत् तदा वाच्यं नौः मेणायाति । तथा पण्यव्यवहारे लाभप्रश्ने प्राग्वदेव मृत्युयोगः स्यात्तदानीं तव वस्तुव्यवहारे महालाभ एवेति ॥ १४॥ । अर्थ नाव आनेके प्रश्नमें तथा नावमें आयीहुई वस्तुसे लाभप्रश्नमें पूर्वोक्त (छब्बीसमें द्वारमें कहेहुये ) योग हों तो कुशलएक नावका आना और नावमें आई हुई वस्तुका व्यवहार करनेसे लाभ होता है ॥ १४१ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०० ) भुवनदीपकः । नेक्षते लमपो लग्नं मृतिपो नेक्षते मृतिम् ॥ यानपात्रस्य वक्तव्यं निश्चितं बुडनं तदा ॥ १४२॥ सं० टी० - अथ नौबुडनमाह - यस्मिँल्लग्ने लग्नाधिपतिः लग्नं नेक्षते न पश्यति तथा मृत्युपोऽष्टमस्थानपतिर्मृत्युम् अष्टमस्थानं न पश्यति तदा वक्तव्यं निश्चयेन पोतस्य बुडनमेवेोते । अत्र व्यतिरेकश्लोकः । " लग्नं पश्यति लग्नेश शिछद्रं मृत्युपतियदि । बुडति तदा पोतो लाभो भवति निश्चितम् " ॥ १४२ ॥ अर्थ - नौका डूबगई या आती है ऐसे प्रश्न में प्रश्नलग्नका स्वामी प्रश्नलग्नको नहीं देखता हो और प्रश्नलग्न से आठवें भावका स्वामी आठवें भावको नहीं देखता हो तो निश्चय नौका डूब गई ऐसा कहना चाहिये ॥ १४२ ॥ लग्नपाष्टमस्थानाधिपतिर्वा भवेद्यदि ॥ सप्तमे कथयत्यंतर्जले वापनिकं तदा || १४३ ॥ सं० टी०-अथ जलवापनिकामाह - प्रश्नसमये लग्नपोऽष्टमस्थानपतिर्वा यदि सप्तमे स्थाने भवेत्तदा वक्तव्यं जलमध्ये वस्तुवापनिचैव भविष्यति ॥ १४३ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतीका - भाषाटीकासमेतः । ( १०१ ) अर्थ - यदि प्रश्न लग्नस्वामी या प्रश्नलग्नसे अष्टमभावका स्वामी सप्तमस्थान में हो तो जलके बीच में नौका भ्रमण कर रही है ऐसा कहना चाहिये ॥ १४३ ॥ नीचस्थोऽस्तमितो वा मृत्युपतिर्नवमगो रिपुक्षेत्रे || नीचोवा भवतियदा व्यवहृतलाभो भवेन्न तदा १४४ सं० टी० - अत्रैव प्रश्ने यदि मृत्युपतिनचक्षेत्रेषु गतस्तथाऽस्तं गतो वा सन् नवमे स्थाने रिपुक्षेत्रे भवति इति प्रकार - त्रयेण मृत्युपतिसम्बन्धिना न लाभः अथवा यत्र कुत्रापि वर्तमानो मृत्युपतिः स्वयं नीचो भवति एक एव तदा वक्तव्यं नावागतवस्तुव्यवहारे लाभो न भविष्यतीति ॥ १४४ ॥ इति नौमृतिवन्धनत्रयद्वारं त्रिंशम् ॥ ३० ॥ अर्थ-यदि अष्टमस्थानका स्वामी नीचराशिमें या सूर्यके साथ होकर प्रश्नलनसे नवम स्थानमें हो अथवा केवल शत्रुगृह या अपने नीचराशिमें होकर जिस किसी स्थानमें हो तो उस वस्तुसे लाभ नहीं होय ॥ १४४ ॥ इति नौमृतिबन्धनद्वारम् ॥ ३० ॥ लग्रे यदिह विचारो भवति नवांशकगतैर्य हैस्तत्र | बीजं गुरूपदेशो लग्ग्रनवांशोऽन्यथायुक्तम् ॥ १४५॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) भुवनदीपकः । | सं० टी० - अथातीतदिनलाभादिविचारद्वारमाह-" शुक्रो वा चन्द्रमा वापि नेक्षते यदि पञ्चमम् । तदा पुत्रस्य पृच्छायां पुमान् नास्तीति कथ्यते ॥ यदीन्दुः शुक्रभौमाभ्यां गर्भो वा वीक्ष्यते यदा । तदाऽसौ जायते पुत्रो नात्र कार्या विचारणा ॥ " इहेति । अतीतदिन फलप्रश्ने यो विचारो लग्ने भवति सर्वोऽपि तत्काल पृच्छालग्ने नवभागीकृते वर्तमानमंशं गृहीत्वा तत्र स्वांशस्थ ग्रहैर्विचार्य तदनुसारेणातीतदिनफलं वाच्यम् । न ह्यत्र ग्रन्थकारेण नवांशकानयनं तत्फलादि चोक्तमित्याहबीजं गोप्यं बीजाक्षररूपम् इति यावत् । गुरूपदेशादेवावगन्तव्यम् । अन्यथा गुरूपदेशं विनाऽयुक्तमेवाम्नायाभा वात् ॥ १४५ ॥ --- अर्थ - यहाँ एकतीसवें द्वारमें बीतेहुए समय में लाभालाभादि कैसा हुवा है इसका विचार लिखते हैं - कोई पूछे कि, हमको गत समयमें क्या सब फल हुवा है? वहां लग्नपरसे जो कुछ विचार अन्यप्रश्नोंमें पूर्व कहे हैं सो सब जिस नवांश में ग्रह हों उसीसे विचारना चाहिये परन्तु नवशिघर से फलादेश कहनेके लिये गुरुका उपदेशही बीज है इसलिये बिना गुरुके उपदेश से नवांशफल कहना अयुक्त है ॥ १४९ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमतः। (१०३) तत्तनवांशकगतान्खेचरान्न्यस्य तद्दिने लग्ने ॥ प्रष्टुरवधार्यगणकैर्वाच्यमतिकांतदिनवृत्तम् १४६॥ सं० टी०-लग्ने प्रागुक्तेऽपि बीजाक्षररूपाम्नाय इति यावत् वक्ष्यमाणो वा विचारो भवति स नवांशकगतैहैस्तथा हि"नवांशोऽर्कसितज्ञानां सत्रिभागमहस्त्रयम् । नाडयः पञ्चदशैवेन्दोभौमे पञ्च दिनानि च । मासो जीवे सत्रिभागस्त्रयोदश च वासराः। शनेर्मासत्रयं त्र्यंशो राहोर्मासद्वयं पुनः ॥” इति मार्गः । स्वं नवांशरीत्या इति. संक्रांतिदिनगतलाभादिविचारमाप्तकग्रहैर्विवक्षुराह-अतीतदिनस्य नवांशकैर्दैवज्ञैरतीतस्य गतस्य दिवसस्यातिगतार्थाद्वर्तमाना ये खेचरा ग्रहास्तान् तद्दिनलग्ने पृच्छालग्ने विन्यस्य कुंडलिकायां विलेख्या इत्यर्थः । गणकैदैवज्ञैरतीतस्य गतस्य दिवसस्यातिक्रांतं वृत्तं तवैतल्लाभहान्यादिकं यातमित्यादिरूपम् अवधाय, प्रष्टुर्वाच्यम् ॥ १४६ ॥ इत्यतीतदिनलाभादिद्वारम् ॥ ३१॥ अर्थ-प्रश्नकालमें जो ग्रह जिस नवांशमें हों उन सबको यथावत् लिखकर बीतेहुये फलादेश गणितको जाननेवाले ज्योतिषी प्रश्नकर्ताको कहें । यहाँ ग्रहोंके नवांशभोगकी दिनादि संख्या लिखते हैं-वहाँ रवि, शुक्र और बुध ये तीनों ग्रह तीन दिन और बीस घडी "Aho Shrut Gyanam Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) भुवनदीपकः । ।३।२० में एक नवांशखण्डको भोगते हैं, चन्द्रमा पन्दरह१५ घडीमें, मंगल ५ दिनमें, बृहस्पति एक मास तेरह दिन, बीस घडीमें १।१३।२०, शनि तीन मास दश दिन ३ । १० में,राहु दो मासमें एक नवांशखण्डको भोगता है, इसी अनुसारसे फलादेशमें विचार करना चाहिये ।। १४६ ॥ इत्यतीतदिनलामादिद्वारम् ॥ ३१ ॥ लग्नपतिर्यत्रांशे पृच्छालग्ने तमंशमालोक्य ॥ लग्नाधिपांशलग्नांशनाथयोईग्युतिसुहृत्त्वम् १४७॥ ___ सं० टी०-अथ लग्नेशांशलाभद्वारमाह-पृच्छालग्ने लग्नपतियस्मिन्नवांशे भवति तमंशं सम्यगवलोक्य :ततो लग्नाधिपतिलग्ननवांशकनाथयोदृष्टियुक्तत्वं सुहत्त्वं चेति विचारणीयमिति ॥ १४७ ॥ अर्थ-अब बत्तीसवें द्वारमें लग्नेशपरसे लग्नादि भावकी वृद्धि आदिके विचार लिखतेहैं-प्रश्नकालिक लग्नके स्वामी जिस नवांशकमें हो उस नवांशको अच्छी रीतिसे देखकर लग्नस्वामी जिस नवांशमें हो उस नवांशके स्वामी और लग्न जिस नवांशमें हो उसके स्वामी इन दोनोंकी परस्पर दृष्टि योग और मित्रताको विचारना चाहिये ॥१४७॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (१०५) यत्र स्यात्तत्र भवेत्सुंदरता तनुधनादिभावेषु ॥ यावल्लग्नाधिपतेरंशकालः स कालश्च ॥ १४८॥ __ सं० टी०-ततः किमित्याह-यत्र 'तनुधनादिषु लग्नांशेशाधिपतिर्वा भवति तत्र तन्वादिस्थानेषु सुंदरता भवतीत्याहयावदिति । लग्नपतेर्यावदवस्थितिकालः अंशाधिपतेश्चावधिकाल इति ॥ १४८॥ __अर्थ-जिस लग्नादि भावोंमें लग्नस्वामीके अंशस्वामीकी और लग्न. नवांशस्वामीकी दृष्टि, योग और मित्रता हो उस भावकी वृद्धि होती है । परन्तु कितने कालतक उस भावकी वृद्धि रहेगी ? इसके लिये विचार है कि, लग्नपतिका जो नवांश है उस नवांशतुल्य कालपर्यन्त वृद्धि कहनी चाहिये ॥ १४८॥ संचार्योऽसौ तावद्यावत् पूर्णा भवन्ति ते भावाः ॥ मासफलं संपूर्ण जातं लग्नाधिपात्तदिदम् ॥१४९॥ ___ सं० टी०-ततोऽपि किमित्याह-संचार्य इति । स लग्नपति. रंशाधिपतिश्च तावद्धनादिस्थानेषु संचार्यों यावद्धनादयो भावाः पूर्णा भवन्ति । यत्र स्थाने लग्नांशाधिपयोदृष्टिः संपूर्णा युक्तत्वं मित्रत्वं वा स्यात् तदा तस्य स्थानस्य संख्यया माससंख्यया "Aho Shrut Gyanam Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) भुवनदीपकः। वक्तव्यति द्वितीयफलम् ॥ १४९ ॥ इति लग्नेशांशलाभदारं द्वात्रिंशम् ॥ ३२ ॥ अर्थ-लग्नस्वामी और लग्नांशस्वामीको तब तक उन धनादि भावोंमें चलना चाहिये जबतक कि वे धनादिभाव पूर्ण हों और जिस स्थानपर लग्नेश और अंशेशकी दृष्टि आदि हो उस स्थानतुल्य संख्याके मासमें कार्यसिद्धि आदि कहना चाहिये ॥ १४९ ॥ इति लग्नेशांशलाभद्वारम् ॥ ३२॥ द्रेष्काणे यत्र लग्नं स्याद्वाविंशतितमे ततः॥ द्रेष्काणे यदि लग्नेशःपृच्छायां तन्मृतिध्रुवम् १५० सं० टी०-अत्र द्रेष्काणादिद्वारमाह-द्रेष्काणेति । यत्र द्रेष्काणे लग्नत्रिभागरूपे लग्नं भवति तस्माल्लग्नावाविंशतितमे अष्टमे स्थाने द्रेष्काणे याद लग्नाधिपतिर्भवति तदा रोगिणः पृच्छायां द्रेष्काणानुसारेण मृतिर्मरणं वाच्यम् ॥ १५० ॥ अर्थ-अब तेंतीसवें द्वारमें द्रेष्काणादि फल लिखते हैं यदि प्रश्न. लग्नके द्रेष्काणसे बाईसवें द्रेष्काणमें प्रश्नलग्नस्वामी हो तो रोगप्रश्नमें मरण कहना चाहिये ॥ १५० ॥ लनपो मृत्युपश्चापि लग्ने स्यातामुभौ यदि ॥ स्थितौ द्रेष्काण एकस्मिस्तदा मूर्तिनिरामया ५१ "Aho Shrut Gyanam" Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका - भाषाटीकासमेतः । ( १०७ ) सं० टी० - लग्नपतिस्तथाऽष्टमस्थानाधिपतिर्याद उभावपि लग्ने स्यातां कथंभूतौ एकस्मिन्नेव द्रेष्काणे स्थितौ तदा रोगिणः पृच्छायां मूर्तिनीरोगेति वाच्यम् ॥ १५१ ॥ अर्थ - लग्नस्वामी और अष्टम भावके स्वामी ये द्रेष्काण में हों तो रोगप्रश्न में शरीर निरोग चाहिये ॥ १५१ ॥ दोनों लग्न में एकही होगा ऐसा कहना लग्नपो मृत्युपश्चापि मृत्यौ स्यातामुभौ यदि || स्थितोंद्रेष्काण एकस्मिस्तदामृत्युर्न संशयः १५२ सं० टी० - लग्नप इति | लग्नपो लग्नेशः मृत्युपोऽष्टमस्थानाधिपः एतावुभौ प्रश्नलग्नादष्टमस्थानगतौ एकद्रेष्काणस्थितौं यदि भवतस्तदा रोगिणो मृत्युर्वाच्यः अत्र संशयो न, बुधैरिति शेषः ॥ १५२ ॥ अर्थ - यदि लग्नस्वामी और अष्टम भावके स्वामी ये दोनों अष्टमभावमें स्थित हों और एकही द्रेष्काण में हों तो अवश्य मृत्यु होती है इसमें सन्देह नहीं ॥ १५२ ॥ लग्नपो लाभपश्चापि लाभे स्यातामुभौ यदि || स्थितौद्रेष्काणएकस्मिन्प्रष्टुभस्तदाध्रुवम् १५३ "Aho Shrut Gyanam" Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८ ) भुवनदीपकः । सं०टी० - लग्नास्वामी एकादशस्थानस्वामी लाभे एकादशे उभौ द्वौ यदि स्याताम् एकस्मिन्द्रेष्काणे स्थितौ तदा प्रष्टुधुवं निश्चयेन लाभ स्यात् ॥ १५३ ॥ अर्थ-लाभप्रश्न में यदि लग्नेश और ग्यारहवें भावका स्वामी ये दोनों लग्नसे ११ वें स्थानमें एक ही द्रेष्काणमें हों तो प्रश्नकर्त्ताको निश्चय लाभ होता है ॥ १५३ ॥ लग्नपः पुत्रपश्चापि पुत्रे स्यातामुभौ यदि । स्थितौ द्रेष्काण एकस्मिन्पुत्रप्राप्तिस्तदा भवेत् ॥ ९ सं० टी० - लग्नास्वामी पुत्रस्थानस्वामी उभौ तौ द्वौ यदि सुतस्थाने स्याताम् एकस्मिन्द्रेष्काणे स्थितौ तदा पुत्रप्राप्तिभवेत् ॥ १५४ ॥ अर्थ-यदि सन्तान प्रश्न में लग्नस्वामी और पञ्चम भावके स्वामी ये दोनों पञ्चम भाव में एकही द्रेष्काण में हों तो पुत्रप्राप्ति होती है ॥ १५४ ॥ एवं द्वादशभावेषु द्रेष्काणैरेव केवलैः ॥ बुधो विनिश्चितं ब्रूयाद्भावेष्वन्येषु निस्पृहः १५५ ॥ सं०टी० - एवं पूर्वोक्तप्रकारेण द्वादशभावेषु केवलैर्देष्काणैरेवं निश्वयं ब्रूयाद्बुधः पंडितः, अन्येष्वपि पृच्छार्थे विचारणीयमित्यर्थः ॥ १५५ ॥ "Aho Shrut Gyanam" • Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका - भाषाटीकासमेतः । ( १०९) अर्थ - इसी रीति से बारहों भावोंमें केवल द्रेष्काणसे फलादेश निश्चयसे पण्डित कहे ॥ १५५ ॥ प्रश्नकाले सौम्यवर्गो यदि लग्नेऽधिको भवेत् ॥ ग्रहभावानपेक्षेण तदाऽऽख्येयं शुभं फलम् १५६ ॥ सं० टी० - यस्मिन्प्रश्नकाले सौम्यवर्गो लग्नेऽधिको भवेत् । कोऽर्थः ? यस्मिलग्ने सौम्यग्रहाणां द्रेष्काणनवांशादयो वर्गा एक बलवत्त्वेनाधिकभावं भजते इत्यर्थः । तदा शुभं फलमाख्येयं कथनीयमित्यर्थः ॥ १५६ ॥ अर्थ-यदि प्रश्नकालिक लग्न में शुभग्रहों के वर्ग अधिक हों तो ग्रह और भावादि विचार विनाही शुभ फल जानना चाहिये ॥ १५६ ॥ प्रश्नकाले क्रूरवर्गो लग्ने यद्यधिको भवेत् ॥ अशुभं फलमाख्येयं ग्रहापेक्षां विना तदा ॥ १५७ ॥ सं० टी० - यस्मिन्प्रने क्रूरवर्गोऽधिको भवेत् क्रूरा एव लग्ने बहवो भवतीत्यर्थः । तदापि ग्रहभावाद्यपेक्षां विनाऽप्यशुभमेव फलं वक्तव्यमिति ॥ १५७ ॥ इति द्रेष्काणादिद्वारं त्रयस्त्रिंशम् ॥ ३३ ॥ अर्थ-यदि प्रश्नकालिक लग्नमें पापग्रहोंके वर्ग अधिक हों तो ग्रहादि विचार विनाही अशुभ फल कहना चाहिये ॥ १५७ ॥ इति द्रेष्काणादिद्वारम् ॥ ३३ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) भुवनदीपकः । मूर्ती छिद्रे द्वादशेऽर्को व्यये कर्मणि भूसुतः ॥ षष्ठत्याद्याष्टमश्चंद्रो व्ययास्ते शेषखेचराः १५८॥ क्षेत्राधिपाकाशदेवीशाकिन्याद्याश्च देवताः ॥ देवदोषां बुदेवात्मव्यंतरामिहरादयः ॥ १५९ ॥ सं० टी० - अथ दोषज्ञानद्वारमाह-मूर्ती लग्ने छिद्रेऽष्टमस्थाने द्वादशे वाऽर्कः सूर्यो भवति, तथा द्वादशे कर्मणि दशमे स्थाने भूसुतो मंगलो भवति, तथा षष्ठे, अंत्ये द्वादशे, आद्ये मूर्ती, अष्टमे च एतेषु स्थानेषु यदि चन्द्रो भवति, तथा व्यये द्वादशे अस्ते सप्तमे शेषखेचरा अपरे ग्रहा भवंति । किं तत् इत्याहक्षेत्राधिपेति । यदि १ । ८ । १२ स्थाने रविर्भवति तदा क्षेत्रपालस्य दोषः । यदि १ । ६ । ८ । १२ चन्द्रो भवति तदाऽऽकाशदेवतादोषः । यदि १० | १२ मंगलो भवति तदा शाकिनीदोषः । यदि १२ । ७ बुधो भवति तदा वनदेवतादोषः । यदि १२ । ७ गुरुर्भवति तदा देवदोषः । यदि १२ १७ शुक्रो भवति तदा जलदेवतादोषः । यदि १२। ७ शनिभवति तदा आत्मदोषो वृष्ट्यादि । यदि १२ । ७ राहुर्भवति तदा तांतिकादिस्वकीयगृह देवतादिदोषो वाच्यः । पाठांतरेनाह - " वह ३ के ९ द्वादशे १२ षष्ठे ६ लग्नात्पापग्रहो "Aho Shrut Gyanam" Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (१११) __ यदि । हतो गदे जले शस्त्रे तस्य दोषः कुलोद्भवः ॥ १ ॥ चंद्रे देव्यो रवौ देवान्भौमे स्वकुलगोत्रजान् । बुधे विचित्रजनितो दोषः स्यात्कर्मसंभवः ॥ " इत्यादि ॥ १५८॥१५९ ॥ इति दोषज्ञानदारं चतुस्त्रिंशम् ॥ ३४ ॥ __ अर्थ-अब चौतीसवें द्वारमें दोषज्ञान लिखते हैं-यदि लग्न आठवें, बारहवें स्थानमें रवि, बारहवें और दशवेंमें मङ्गल, छठे, बारहवें. लग्न और आठवें भावमें चन्द्रमा. और शेष ( बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु ) ग्रह हों तो क्रमसे क्षेत्रपाल, आकाशदेवी, शाकिनी आदि वनदेवता, देवता जलदेवता, आत्म ( स्वकीय ) और प्रेतादिकोंका दोष क्रमसे जानना चाहिये । अर्थात् १-८-१२ में रवि हो तो क्षेत्रपालका दोष, १२-१० में मङ्गल हो तो आकाशदेवीका दोष, ६-१२-१-८ में चन्द्रमा हो तो शाकिनीदोष, १२-७ में बुध हो तो वनदेवता और इसी १२-७ में बृहस्पति हो तो देवता, शुक्र हो तो जलदेवता, शनि हो तो आत्मदोष, राहु हो तो प्रेतदोष जानना चाहिये ॥ १५८ ॥ ११९ ॥ __ इति दोषज्ञानद्वारम् ॥ ३४ ॥ यदीदुर्दिनचर्यायां शुभः स्यादुदयास्तयोः ॥ श्रेयास्तदाऽवगंतव्यं सकलोऽपि हि वासरः१६०॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११२) भुवनदीपकः। सं० टी०-अथ दिनचर्याद्वारमाह-नृपादीनां दिनचर्या प्रश्न कोऽर्थः ? राजादिः कश्चिन्नरः पृच्छति अद्य दिनमध्ये मम शोभनमशोभनं वा भविष्यतीति तदा यदि चंद्र: उदयास्तयोः अर्थादुदयकालेऽस्तकाले च शुभो भवति तदा स सर्वोऽपि वासरः श्रेयान् कल्याणमय एव ज्ञेयः ॥ १६० ॥ अर्थ-अब पतीसवें द्वारमें दिनचर्या ( राजा आदिकोंके प्रतिदिनमें शुभाशुभ फलका ज्ञान) लिखते हैं यदि कोई पूछे कि, आज हमको शुभ फल होगा या अशुभ ? तहां यदि उदय और अस्त इन दोनों समयमें चन्द्रमा शुभ हो तो सम्पूर्ण दिवस शुभ जानना चाहिये ॥ १६० ॥ राहो वाथ कुजे क्रूरे परस्मिन्नपि खेचरे ॥ अष्टभे स्वगृहे चैव दिने चन्द्रेऽसिना वधः ॥१६१ ___ सं० टी०-कुशलतादिपृच्छालग्नाद्यद्यष्टमस्थाने राहुमंगलो वाऽन्यो का ऋरः स्वक्षेत्रगतो भवति तस्मिन्नेव च दिने तत्रैवाष्टमस्थाने चन्द्रो भवति तदा वाच्यं तस्मिन् दिने खङ्गादिना वधो भविष्यति ॥ १६१ ॥ अर्थ- यदि कोई पूछे कि मैं आज कुशलसे रहूँगा या नहीं ? तहां राहु या मङ्गल अथवा अन्यभी कोई पापग्रह अष्टमस्थानमें स्वराशिका हो और चन्द्रमा भी अष्टम हो तो खड्ग ( तलवार आदिसे मृत्यु कहना चाहिये ॥ १६१ ॥ "Aho Shrut.Gyanam" Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (११३) दंतुरवदनः कृष्णो विज्ञेयो राहुदर्शने प्राणी ॥ षष्ठेऽष्टमे च जीव-कथयति च सन्निपातरुजम् १६२ ___ सं० टी०-अत्रैव च जन्मकालस्वरूपमाह-जन्मराशौ वर्तमानो राहुर्यदि पूर्णदृष्टया जन्मलग्नं पश्यति वा प्रश्नकाले प्रश्नलग्नं पश्यति तदा वक्तव्यम् अयं बालको वा जनः दंतुरः प्रलंबदतः स तथा कृष्णवर्णश्च वर्तत इति । तथा जन्मकाललग्नात्प्रश्नकाललग्नाद्वा षष्ठेऽष्टमे वा स्थाने जीवो भवति राहुर्वाऽथ दिनचर्यायामष्टमे स्थाने स्वगृहे मेष मेषांशे, वृषे वृषांशे शुक्रो, मिथुने मिथुनांशे बुधः एवं योगे द्वितीयो राहुभीमो वा एवं सति यदि दिनचर्यायां चन्द्रस्तत्रास्ति तदा पंचदशघटीमध्ये खड्गप्रहाराम्रियते चन्द्रं विनाऽप्यत्र योगे खङ्गाहारो न तु चन्द्रं विना मृत्युः अपरखेचरः स्वक्षेत्रे तदंशे चन्द्रो राहुभौमयोरन्यतरेणारियुक्तः कार्यकारीत रहस्यम् ॥ १६२॥ इति दिनचर्याद्वारं पञ्चविंशम् ॥ ३५ ॥ ___ अर्थ-अब जन्मलग्न तथा प्रश्नलग्नपरसे स्वरूप लिखते हैं यदि लग्नपर राहुकी दृष्टि हो तो मनुष्य बडेबडे दांतवाला कृष्णवर्ण होता है और छठे या आठवें स्थानमें बृहस्पति हो तो वह मनुष्य सन्निपातसे युक्त होता है ॥ १६२ ॥ इति दिनचर्याद्वारम् ॥ ३५ ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११४) भुवनदीपकः । पृच्छंत्याः पितृमन्दिरे पितृगृहाभिज्ञाक्षरं गुर्विणी पत्युश्चापि तदीयमंदिरगतं गुा अभिज्ञाक्षरम् ॥ शुजारब्धदिनव्यवस्थिततिथीन्दत्त्वाउनश्चिधुवान् भागवह्निभिरेककेनतनयोदाभ्यां सुता खेन खम्॥ ___ सं०टी०-अथ गर्भादिप्रश्नदारमाह-तत्र पितृमन्दिरे पितुगुहे स्थिताया गुाः गर्भिण्याः प्रश्ने पितृधृतनापाक्षरसंख्यायास्तथा पत्युः स्वामिनो नामाक्षरसंख्यायाश्चैक्यं कार्यम् । अथ पत्युमैदिरे गुास्तद्गृहना पाक्षरसंख्यापतिनामाक्षरसंख्ययोरैक्यं कार्य, पुनः तस्मिन् ' शुक्लारब्धति शुक्लपतिपदमारभ्यामावास्यांत · यावदर्तमानतिथ्यंकसंख्यां दत्त्वा मुनीश्च ध्रुवान् सप्तध्रुवकान् दत्त्वा वाहिभि ३ र्भागं दत्त्वा एकशेषश्चेत्तनयो, द्वाभ्यां शेषाभ्यां सुता, खेन शून्येन खं शून्यं, गों गलति जातो वा विनश्यति । तथा-"विषमस्थितेष्वेकाकी पुत्रजन्मप्रदः शनिः । राहुयुक्तस्तु तत्कालं विद्धः कालेन मृत्युदः ॥ १ ॥ पञ्चमांकप्रमाणेन पञ्चमाधिपतोऽथवा । मासज्ञानं तदा वाच्यं ग्रहयुग्दृष्टितो वशात् ॥२॥ यदीदुर्भामशुक्राभ्यां गर्भो वा वीक्षितः शुभैः । तदाऽसौ जनयेत् पुत्र नात्र कार्या विचारणा ॥३॥ शुक्रो वा चन्द्रमा वाऽपि नेक्षते "Aho Shrut.Gyanam" Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (११५) यदि पञ्चमम् । तदा पुत्रस्य पृच्छायां न पुत्रोऽस्तीति कथ्यते ॥ ४॥" ॥ १६३ ॥ ___ अर्थ-अब छत्तीसवें द्वारमें गर्भप्रश्नादि लिखते हैं-यदि गर्भिणी स्त्री पिताके गृहमें हो तो पितासे धारित नाम और स्वामीके गृहमें हो तो सशुरालका नाम ग्रहणकरके जो अक्षर संख्या हो उसमें स्वामीकी भी नामाक्षरसंख्या मिलावे किर शुक्लपक्षकी प्रतिपदासे लेकर पूछनेके दिनमें जो तिथि हो वहां तक गिनकर जोड दे फिर सात ध्रुवाभी जोड दे योगाङ्कमें तीनका भाग दे, एक शेष बचे तो पुत्र, दो बचें तो कन्या, शून्य शेष बचे तो गर्भ शून्य कहना अर्थात् गर्भ गिरजायगा अथवा उत्पन्न होने परभी उस गर्भकी सन्ततिका नाश होगा ऐसा कहना चाहिये ॥ १६३ ॥ एकस्मिन्प्रकृतिः शुभेनसहितेसौख्यातिरेक-क्षपा. नाथेन श्रुतिरद्भुता प्रसरति क्रूरेण पीडोद्भवः॥ शुक्र सप्तमगे स्त्रियाः पतिगतं पुत्रादिकं वा पदं पृच्छंत्याःसुरतस्थितावनुभवोवाच्योऽष्टमस्थेपिच ___ सं० टी०-अथ पतिगतं पुत्रादिकम् अर्थात् पुत्रादिकविषयं, वा पदं स्थानादिकं पृच्छंत्याः स्त्रियाः प्रश्नकाले एकस्मिन् शुक्र सप्तमगे तदा प्रकृतिः स्वभावो न विशेषः कश्चिदपि वाच्यः, शुभेन गुरुणा बुधेन वा सहिते शके "Aho Shrut Gyanam" Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११६) भुवनदीपकः । सौख्यातिरेकः सुखाधिकत्वं, क्षपानाथेन सहिते शुक्रे सात अद्भुता श्रुतिः ख्यातिः प्रसरति विस्तारतां याति । करेण मंगलराहुशनीनामन्यतमेनापि सहिने पीडोद्भवः सौख्याभावः, एवं सुरतस्थितौ मप्तमस्थे शुक्रे योऽनुभवो विचारः कृतः सोऽष्टमस्थऽपि विचार्य इत्यर्थः ॥ अथ कियतो विशेषान् दर्शयति-" लग्नाधिपे ह्यविनष्टे न बुभुक्षा मंगले सूर्ये । असृच्छिद्रे चंद्रसतो चेत्महजोऽतिसार आख्यातः ॥ १ ॥ छिद्र भौमास चेदधिरोद्रेकश्च पित्तजोदेकः । सितभौमौ बलहीनो सक्रशनिधिोगः ॥ २॥ सन्निपातरुनं कुर्यात्स ऋरश्चेबृहस्पतिः । स्त्रीप्रश्ने छिदगे भौमे विनष्टं योनिदूषणम् ॥ ३ ॥ शत्रुप्रश्ने तु षष्ठेशो मूर्ती वाऽस्तिविधुस्तथा । यद्यन्य: षष्ठगः खेटः शत्रोः पक्षकरः स तु ॥ ४ ॥ अत्र भाटकपृच्छायां लग्नेशो भाटकप्रदः । सप्तगो भाटकग्राही भाटकोत्पत्तिकृनभः ॥५॥ चतुर्थमवसानं स्यादेषु सौम्यग्रहः शुभम् । व्यस्ते व्यस्त सुहृच्छत्रुमवस्थित्याद्यसर्वतः ॥६॥" ॥ १६४ ॥ अर्थ-यदि कोई स्त्री स्वामीसम्बन्धी या पुत्रसम्बन्धी या स्थान. प्राप्ति सम्बन्धी प्रश्न करे तो प्रश्नलग्नसे सप्तमस्थानमें एक ही शुक्र हो तो जैसा है वैसाही रहेगा अर्थात् कोई स्थान आदि नहीं प्राप्त कर सकेगा और यदि शुभग्रह बृहस्पति बुधसे युक्त शुक्र सप्तममें हो तो सुखका आधिक्य होता है और चन्द्रमासे युक्त हो तो संसारमें बहुत "Aho Shrut Gyanam" Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (११७ ) कीर्ति फैले तथा पापग्रहसे युक्त हो तो पीडा ( क्लेश ) से युक्त जीविका मिले, यहां जैसे सप्तम स्थानपर से विचार किया है वैसाही अष्टम स्थानपरसे भी विचार करना चाहिये ॥ १६४ ॥ तुर्थ पश्यति तुर्यपोऽस्ति निहितं करेऽपि तस्मिन्भवेन्नप्राप्तिःखलु खेचरे च सदधिष्ठानं तदिदौ स्थिते॥ स्वामिप्रेक्षणवनितेऽपि च तदस्तित्वं न तद्वार्षिके लाभश्चन्द्रयुगीक्षणेन रहितं पूर्ण च चंद्रेक्षणम् १६५ __सं० टी०-एकैकाकिन्यपि तुर्येपि चतुर्थाधिपती तुर्य चतुर्थ स्थानं पश्यति निहितमस्ति निधानमस्तीति वाच्यम् । क्रूरे च तस्मिन् चतुर्थाधिपे क्रूरे तुर्थ पश्यति स्थिते वाऽस्ति निहितं परं तस्य न प्राप्तिनं भवेदित्यर्थः। खेचरेऽन्यस्मिन्सूर्यप्रभृतिकग्रहे तत्र स्थिते वा निहितं निधानं सदधिष्ठानं साधिष्ठायकमस्ति तथा स्वामिप्रेक्षणवर्जितेऽपि तुर्थे नापि दृष्टे चतुर्थे इन्दौ चन्द्रमसि तत्र वा स्थिते वीक्षिते वा नीचे वाऽस्तमिते वा तदस्तित्वम् तस्य निहितस्यास्तित वाच्यम् । परं चन्द्रयुगीक्षणेन रहिते तुर्थस्थाने लाभस्थाने वा इति विशेषः । चन्द्रयोगपूर्णेक्षणेन विना तद्वार्षिके न लाभः पूर्ण च चन्द्रेक्षणं निधानप्राप्तौ ॥ १६५ ॥ ___अर्थ-कोई पूछे कि, अमुक स्थानमें गाडा द्रव्य है या नहीं ? वहाँ चतुर्थभावका स्वामी चौथे स्थानको देखता हो तो द्रव्य है ऐसा कहना और यदि चतुर्थ स्थानपर पापग्रहकी भी दृष्टि आदि हो तो द्रव्य है "Aho Shrut Gyanam" Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) भुवनदीपकः । परन्तु प्राप्ति नहीं होगी ऐसा कहना, तथा चतुर्थ स्थानमें कोई भी ग्रह हो तो द्रव्य उत्तम पात्रादिकमें कहना और यदि चौथा स्थान अपने स्वामीकी दृष्टिसे वर्जित हो तो भी यदि चन्द्रमा चौथे स्थानमें हो तो द्रव्य कहना और चन्द्रकी दृष्टि योग आदि नहीं हो तो एक वर्षके पीछे लाभ कहना, कारण कि, चन्द्रमाकी दृष्टि पूर्ण विचार करना चाहिये ॥ १६५ ॥ योगेस्तित्वविधायकेहिमरुचिनचे विनष्टोऽपिवाडमावास्यानिकटस्थितोपिकथितः प्राज्ञैः प्रमाणंतथा । लाभे चन्द्रयुगीक्षणेन भवतः सौम्यस्यते स्तस्तदा वर्षेन्यत्रनिधिग्रहाय सुधिया कार्यः प्रयत्नोमहान् ॥ सं० टी० - चन्द्रदृष्टिः पूर्णा वाच्या अत एवाह-योगेस्तित्वविधायके निधानास्तित्वदर्शके प्रागुक्तेपि योगे हिमरुचिर्विनष्टोऽथवाऽमावास्यानिकटस्थोपीति स्पष्टम् । तदा प्राज्ञः प्रमाणं निधिप्राप्तये उद्यमो न कार्यः सृतं सम्पूर्ण जातमिति कथितं भणितं, तथा लाभे एकादशभवने चन्द्रयुगीक्षणे न, चन्द्रसंयोगदृष्टी न भवतः । एवं सौम्यस्यान्यस्यः ग्रहस्य ते संयोगदृष्टी भवतः तदा वर्षेऽन्यत्र प्रश्नवर्षानंतरे वर्षे निधिग्रहणाय प्रयत्नः कार्यः ॥ १६६ ॥ " अर्थ - यदि पूर्व कहे अनुसार द्रव्य होनेका योग हो और चंद्रमा नीचमें हो, नष्ट हो अथवा अमावास्याके निकटमें हो तो द्रव्य निका "Aho Shrut Gyanam" Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (११९) लनेके लिये उद्यम नहीं करना चाहिये, इसी तरह ग्यारहवें स्थानमें चंद्रमा युक्त न हो और देखता भी नहीं हो और अन्य शुभग्रहोंकायोग दृष्टि हों तो एक वर्षके पीछे द्रव्य निकालनेका यत्न करे ॥ १६६॥ जायास्थानस्य भावा न भृगुसुतमृते नो शनि धर्मभावा ९ नो सूर्य कर्म १० भावा न बुधहिमकरौ लाभ ११ भावा भवंति ॥ विद्यास्थानस्य भावा ५ न गुरु ६ मवनिजं ७ तातनिस्थानभावा नेंदुं मृत्युन सर्वे १२ न च तनथपदं ५ भार्गवं श्वेतरश्मिम् ॥ १६७॥ __ सं० टी०-भृगुजम् ऋते विना जायास्थानस्य भावा इत्यादिपदत्रयस्य इन्दु विना न मृत्युस्तच प्रागुक्तमेव न केवलं मृत्युरपरे सर्वेपि वा इन्दं विना न स्युः। शुक्रः भागः। श्वेतरश्मि चंद्रं विना न च तनयपदं संतानं स्यादिति । एतच्च काव्योक्तग्रहपरिविज्ञानं न स्यादिति तेषां परिज्ञानाय कारणमाह । "दिवसःभुक्तनाड्यो धिष्ण्यहता भुक्तिभाजिता लब्धम् । भुक्तःयुतं सांप्रतधिष्ण्यं शेषांशका ग्रहभाग्याः ॥ १ ॥" व्याख्या-यदा नक्षत्रं लगति तदा दिवसःभुक्तघटिकाः धिष्ण्यहताः सप्तविंशति २७ गुणाः, भुक्तनक्षत्रस्य समस्तभुक्त्य षष्टिहीनयाऽधिकया वा विभाजिता विभागे यल्लब्धं तद्भुक्तयुतम् । आदित्यचन्द्रकुजादिभिः यान्यश्विन्यादीनि नक्षत्राणि "Aho Shrut Gyanam" Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२०) भुवनदीपकः । भुक्तानि तैर्भुक्तक्षैः संगतं सांप्रतधिष्ण्यमश्विन्यादिपुनर्गणनायां वर्तमानिकं नक्षत्रं स्यात् । शेषांशा भोग्याः, यल्लब्धं तदतीतनक्षत्रं शेषांशा भुज्यमाननक्षत्रभोग्यांशाः । उदाहरणम्-अद्याश्विनीनक्षत्रस्य गतघटी ४ सप्तविंशतिगुणनया १०८ षष्टि६० भागे लब्धं १ शेषांशाः ४८ ततोऽश्विन्यादिरविभुक्तः द्वादशसंयुता १२ ऐक्ये जाता १३ इति त्रयोदशाश्चिन्यादिऋक्षाणि चतुर्दशचित्राधिष्ण्यस्यांशाः ४८ वर्तते । एवं चंद्रभुक्त्याऽश्विन्यादधिष्ण्यं २७ युत ऐक्ये जातं २८ ततः सप्तविंशतिगता अश्विनीनक्षत्रमपि भुक्तं भुज्यमानभरण्यंशा ४८ वर्तते । एवमन्येष्वपि ग्रहेषु ज्ञेयम् । एते नक्षत्रस्य षष्टिषु घटिषु भुक्तौ नक्षत्रं प्रांते घटी ३ नव.९ पलानि भागः एतत्परिज्ञाय नवांशकल्पनया ग्रहान्परिज्ञाय जायास्थानस्य भावा इत्यादि विचारणीयम् । एतच ग्रहाणां विषादहर्षस्थाने परिज्ञानं विना न स्यादिति वृत्तिकारस्तम्ज्ञानार्थं श्लोकानाह-" सषष्ठं द्वादर्श लग्नाद्वक्रितोस्तमितोभ्रगाकराक्रांतादिना नष्टो नीचस्यो मित्रनीचगः ॥ १॥ सूर्यस्याग्रमवात्राहोर्मुखे पुच्छेऽय वा स्थितः। स्वगृहात्सप्तराशिस्थो ग्रहः कार्यकरो नहि ॥ २ ॥" युग्मम् । "एकराशौ सिते पक्षे चन्द्रो नेष्टः कुजेक्षितः । कृष्ण पक्षे शशी मन्दयुक्तः श्रेष्ठश्च नष्टदः॥ ३ ॥" अथ चतुर्धा ग्रहाणां हर्षस्थानान्याह-लग्ने बुधः शशी वह्नौ ३ षष्ठे भौमः६ कलत्रगः । शुक्रो नवमगः सूर्यों ९ लाभे जीवः ११ शनिळये १२"॥ १६७ ॥ "Aho Shrut Gyanam". Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका - भाषाटीकासमेतः । ( १२१ ) अर्थ- स्त्री भाव ( सप्तम ) का विचार शुक्र विना नहीं होता है और शनैश्वर विना धर्म ( नवम ) भावका विचार नहीं होता है सूर्यके बिना कर्म ( दशम) भावका विचार नहीं होता है, बुध और चन्द्रमा विना लाभ ( एकादश ) भावका विचार नहीं होता है, बृहस्पति के विना विद्याभाव ( पञ्चमस्थान ) का विचार नहीं होता है, मङ्गलके विना पितृस्थानका विचार नहीं होता है, चन्द्रमाके विना मृत्यु और अन्यभी सभी भावोंका विचार नहीं है अर्थात् चन्द्रबल सभी भावों में देखना मुख्य और शुक्र तथा चन्द्रमा विना पुत्र ( पञ्चम ) भावका विचार नहीं होता है अर्थात् जो ग्रह जिस स्थानका कहा है उसका योग दृष्टिसे उस भावकी वृद्धि अन्यथा हानि होती है ॥ १६७ ॥ लग्नं १ चन्द्रोऽस्ति यस्मि २ स्तदथ दिनमणियंत्र ३ तद्यत्र जीवस्तन्नीचोऽस्तंगतो वा न यदि सुरगुरुर्वतश्चेत्तदाद्यम् ४ ॥ वित् १ काव्य २ क्ष्मांगजानां ३ भवति किल बली यस्त्रयाणां तदीयं दौर्बल्यं यत्र मन्दस्तदपि च न बली शिष्टयोर्यस्तदीयम् ॥ १६८ ॥ सं० टी० - प्रच्छकस्य वेलायां तात्कालिकमुदितं लग्नं निरीक्षणीयम् १, द्वितीये प्रश्ने यस्मिन्भावे चन्द्रोऽस्ति तं भावमादौ कृत्वा निरीक्ष्यम् २, तथा तृतीयप्रश्ने यत्र स्थाने सूर्यस्तमाद। "Aho Shrut Gyanam" Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२) भुवनदीपकः। विधाय दृश्यम् ३, तच्चतुर्थप्रश्नवेलायां यत्र बृहस्पतिः स्यातदाद्यम् आदौ करणीयम् ४, परं स नीचास्तंगतो वक्रितोपि न स्यात्तदा, तदनंतरं पञ्चमे प्रश्ने विकाव्यक्ष्मांगजानां भवति किल बली यस्तदीयं क्रमेण, बुधशुक्रमंगलानां मध्ये बलवान् यो यत्र स्थाने तदीयमाद्यं करणीयम् ५, षष्ठे प्रश्न शनिः स शनिः निर्बलश्चेत्तदा शिष्टयोः प्रागुक्तयोर्बुधशुक्रयोः शुक्रबंगलयोर्बुधभौमयोर्मध्ये यो बली बलवांस्तदीयस्थानमायं करणी. यम् । एवं षट् प्रश्नलग्नानि ॥ १६८ ॥ अर्थ-अब एक समयमें अनेक प्रश्नोंका उत्तर करनेका प्रकार लिखते हैं-प्रथम प्रश्नमें लग्नपरसे विचार करना चाहिये, द्वितीय प्रश्नमें जिस राशिपर चन्द्रमा हो उस राशिको लग्न कल्पना करे, तीसरे प्रश्यमें रवि जिस राशिमें हो उसीको लग्न कल्पना करे, चौथे प्रश्नमें गुरु जिस राशिमें हो उसी राशिको लग्न कल्पना करे परन्तु यदि गुरु नीच, अस्त और वक्री न हो तो । इसके अनन्तर पञ्चम प्रश्नमें बुध, शुक्र मंगल इनमें जो बली हो उस ग्रहके स्थानको लग्न कल्पना करे, छठे प्रश्नमें शनैश्चर जिस राशिमें हो उसी राशिको लग्न माने परन्तु यदि शनि निर्बल हो तो पूर्व कहे ( शुक्र, बुध, मंगल) मेंसे जो दो अवशिष्ट हैं उनमेंसे जो बली हो उसकी राशिको लग्न कल्पना करे ॥ १६८ ॥ एवं षट्प्रश्नलग्नान्यथच षडपराण्येवमेषां द्वितीयान्येतेनैवक्रमेण स्फुटमिदमुदितंद्वादशप्रश्नलग्नम् ॥ "Aho Shrut Gyanam" Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीका - भाषाटीकासमेतः । ( १२३ ) एतेषां द्वादशानामपि च धनपदेर्द्वादशद्वादशैवंतातयस्तथान्यैरपि सकलमिदं पूर्णमब्ध्यग्धिचंद्वैः । ग्रहभावप्रकाशाख्यं शास्त्रमेतत्प्रकाशितम् ॥ लोकानामुपकाराय श्री पद्मनभु पूरिभिः ॥ १७० ॥ सं० टी० - अथर्वेषां प्रागुक्तानां पग्णां स्थानानि अराणि प्रश्नलग्नानि स्युः एतेनैव क्रमेण स्फुटमिदमुदितं द्वादशश्नलनमेतेषां द्वादशानामपि धनपदैर्द्वादशभिः द्वादशश्नलनानि स्युः । एवमेषां द्वादशानां तार्तीयकैस्तृतीयस्थानद्वैदेिशश्न उशानि स्युः । एवमन्यैरपि एतेषां प्रागुकानां द्वादशानां चतुर्थस्थानेंद्रदशप्रश्नलग्नानि । एवं निष्पद्यमानद्वादश पइनल भैरब्ध्यब्धिचन्द्रैश्चतुश्चत्वारिंशदधिकशतसंख्यैः प्रश्न लग्नैरिदं जगत्सर्वमपि पूर्ण, चन्द्रशब्दो मंगलस्यो यद्वा बहुजनपृच्छायां केंद्रचतुष्काच्च, पणफरचतुष्कम् | आपोक्लिमवतुष्कं निर्दिष्टं, जिनचरेन्द्रेण ताजिकेन च चन्द्रो ग्रहाणामुपरि भ्रामयेत् । अयमर्थःपूर्वमुदितलग्नेन निर्णयः १ पशुपस्य ग्रहस्य चन्द्रो मिलात तस्माद्भावात्तृतीयनिर्णयः । इत्यादि ज्ञेयम् । अस्मिन् शास्त्रे मुन्यशिलादियोगचतुष्टयस्य प्रामुक्तस्य व्याख्यानाय श्लोकानाह - " तिथे १५ सूर्ये १२ गजैः ८ सप्त ७ नव ९ पर्वत ७ ९ शकैः ॥ सूर्याादिरेकरा शिस्यः शीघ्रप्रश्ने स्थिरे ग्रहे ॥ १ ॥ परस्य मन्दवेटस्य दीप्तैर्मुयशिलः स्मृतः । शीघ्रोऽल्पांशै ● "Aho Shrut Gyanam" Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ १२४) भुवनदीपकः । धनैर्मन्दैदृष्टः सेवेत्थशालकः ॥ युग्मं पश्चात्पुरः शीघ्रमेकराशी तथा दृशि । प्राग्वज्जाते भवेद्योगो मध्यगो मुसरिःफकः ॥ मिथो दृशं विना खेटावयांतः शीघ्रगो ग्रहः " ॥ १६९ ॥ १० ॥ इति गर्भादिप्रश्नद्वारं षत्रिंशम् ॥३६॥ पर्य-इसी गतिसे (पूर्वश्लोकमें कहे अनुसार) छः लग्न कल्पना करनी, फिर इससे भी अधिक प्रश्न विचारमें पूर्व कहे हुये छः स्थानोंसे अन्य जो छः हैं उनमें क्रमसे बलाबल विचारकर कल्पना करनी, इसी प्रकार एक लापरसे बारह प्रकारोंके प्रश्नलग्न कल्पित होते हैं, इसी प्रकार धनस्थानसे बारह, फिर तृतीय स्थानसे बारह, एवम् एकसौ चौवालिस लग्न कल्पित हो सकते हैं ॥ १६९ ॥ श्रीपद्मप्रभुसूरि नामक आचार्यद्वारा लोकोंके उपकारके लिये यह ग्रहभाव प्रकाशनामक ( भुवनदीपक ) शास्त्र प्रकाशित किया गया है ॥ १७ ॥ इत मिथिलादेशांतर्गतकनिगामग्रामनिवासिश्रीबबुयेशर्मात्मज श्रीबच्चूशर्मकृतभाषाटीका समाप्ता । समाप्तोऽ५ ग्रन्थः। पुस्तक मिलनेका ठिकानागङ्गाविष्णु श्रीकृष्णदास, खेमराज श्रीकृष्णदास, "लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर" स्टीम्-प्रेस, “श्रीवेङ्कटेश्वर" स्टीम्-प्रेस. कल्याण-बम्बई. | खेतवाडी-बम्बई. "Aho Shrut Gyanam" Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી જિનશાસના જય હો !!! II શ્રી ગૌતમસ્વામીન નમઃ | | શ્રી સુધમસ્વિામીને નમ: || જિનશાસનના અણગાર, કલિકાલના શણગારા પૂજ્ય ભગવંતો અને જ્ઞાની પંડિતોએ શ્રુતભક્તિથી પ્રેરાઈને વિવિધ હરતલિખિત ગ્રંથો પરથી સંશોધન-સંપાદન કરીને અપૂર્વજહેમતથી ઘણા ગ્રંથોનું વર્ષો પૂર્વેસર્જનકરેલછે અને પોતાની શક્તિ, સમય અને દ્રવ્યનો સવ્યય કરીને પુણ્યાનુબંધી પુણ્ય ઉપાર્જન કરેલ છે. કાળના પ્રભાવે જીણ અને લુપ્ત થઈ રહેલા અને અલભ્ય બની જતા મુદ્રિત ગ્રંથો પૈકી પૂજ્ય ગુરુદેવોની પ્રેરણા અને આશીર્વાદિથી સ.૨૦૦૫માં 54 ગ્રંથોનો સેટ નં-૧ તથા .૨૦૦૬માં 36 ગ્રંથોનો સેટ ની 2 સ્કેન કરાવીને મર્યાદિત નકલ પ્રીન્ટ કરાવી હતી. જેથી આપણો શ્રુતવારસો બીજા અનેક વર્ષો સુધી ટકી રહે અને અભ્યાસુ મહાત્માઓને ઉપયોગી ગ્રંથો સરળતાથી ઉપલબ્ધ થાય, પૂજ્યા સાધુ-સાધ્વીજી ભગવંતોની પ્રેરણાથી જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી તૈયાર કરવામાં આવેલ પુસ્તકોનો સેટ ભિન્ન-ભિન્ન શહેરોમાં આવેલા વિશિષ્ટ ઉત્તમ જ્ઞાનભંડારોની ભેટ મોકલવામાં આવ્યા હતા. આ બધાજપુસ્તકો પૂજ્ય ગુરુભગવંતોને વિશિષ્ટ અભ્યાસ-સંશોધના માટે ખુબજરુરી છે અને પ્રાયઃ અપ્રાપ્ય છે. અભ્યાસ-સંશોધના જરૂરી પુસ્તકો સહેલાઈથી ઉપલળળની તીમજ પ્રાચીન મુદ્રિત પુસ્તકોનો શ્રુત વારસો જળવાઈ રહે તો શુભ આશયથી આ થોનો જીર્ણોદ્ધાર કરેલ છે. જુદા જુદા વિષયોના વિશિષ્ટ કક્ષાના પુસ્તકોનો જીર્ણોદ્ધાર પૂજ્ય ગુરૂભગવતીની પ્રેરણા અને આશીર્વાદિથી અમો કરી રહ્યા છીએ. લો અભાઈ તથા સંશોધના માટે વધુમાં વઘુઉપયોગ કરીને શ્રુતભક્તિના કાર્યની પ્રોત્સાહન આપશી. લી.શાહ બાબુલાલ સરેમા જોડાવાળાની વંદના મંદિરો જીર્ણ થતાં આજકાલના સોમપુરા દ્વારા પણ ઊભા કરી શકાશે...! = પણ એકાદ ગ્રંથ નષ્ટ થતા બીજા કલિકાલસર્વજ્ઞ કે મહોપાધ્યાય શ્રી યશોવિજયજી ક્યાંથી લાવીશું...???