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संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (५५) कार्ये स्यातां तदा चतुर्थों राजयोगः ॥ ७३ ॥ अथ राजयोगे कार्यसिद्धिमाह-चतुर्विति । परं चतुर्वपि राजयोगेषु सत्सु लग्नपतिकार्याधिपतियोगविषये चन्द्रदृष्टिर्भवति, चन्द्रस्य विषये चानयोरेव मिथो दर्शनं यदि चन्द्रो मित्रक्षेत्रे भवति तदा वक्तव्यमधिकं किंचिच्छुभं भविष्यतीति ।। ७४ ।।
अथ-अब एकादशद्वारमें राजयोग अर्थात् प्रधान योग कहते हैंजिस भावसम्बन्धी विषयका विचार करना हो उस भावका स्वामी कार्येश कहाता है और लग्नका स्वामी लग्नेश कहाता है । यहाँ लग्नेश और कार्येशपरसे चार योग कार्यसिद्धिदायक तीन श्लोकोंसे कहते हैंकि लग्नका स्वामी कार्यभावमें अर्थात् जिस भावसम्बन्धी प्रश्न हो उस भावमें हो और कार्येश लग्नमें हो तो यह पहला योग भया ।
और यदि लग्नका स्वामी लग्नहीमें हो और कार्यभावका स्वामी कार्य भावमें हो तो यह द्वितीय योग हुवा और यदि लग्नस्वामी तथा कार्यभावस्वामी दोनोंही लग्नमें हों तो यह तीसरा योग हुवा और यदि लग्नेश और कार्येश दोनों कार्यभावमें हों तो चौथा योग हुवा, इन चारों योगोंमें लग्नेश और कार्येश इन दोनोंपर चन्द्रमाकी दृष्टि हो और चन्द्रमाको भी लग्नेश कार्येश देखे तो कार्यकी सिद्धि जाननी चाहिये और यदि चन्द्रमा मित्रक्षेत्रमें हो तो और भी अधिक शुभ जानना ॥ ७२-७४ ॥
"Aho Shrut Gyanam"