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________________ ( ९४ ) भुवनदीपकः । अर्थ - इसी प्रकार अशुभभी विचारना अर्थात् प्रश्न लग्न यदि पापग्रहकी दृष्टियोगादिसे दूषित हो, स्वामी शुभग्रहसे दृष्ट युक्त न हो तो उस वस्तुकी महर्व ( महँगी ) होती है परन्तु कबतक महँगी रहेगी ? इसके लिये ऐसा विचार है कि जितने दिनमें वह प्रश्न लग्न शुभत्वको प्राप्त हो, उतने दिनादिमें उस वस्तुकी सस्ती निश्चय होती है ॥ १३३ ॥ ज्ञातव्या दिवसैर्मासा मासैस्तावद्भिरस्य हि || समर्थता वस्तुनो हि प्रतिपाद्या विचक्षणैः ॥१३४॥ सं० टी०-अत्र गुरुणा ग्रहस्य दिवससंख्यायां मासाः कल्पनीयास्ततस्तावद्भिर्मासैः अस्य वस्तुनः समर्थता भवि ष्यतीति विचक्षणैः ज्योतिर्विद्भिः प्रतिपाद्यं प्रष्टुर्वक्तव्यमिति यावत् ॥ १३४ ॥ अर्ध-यदि मह समर्थ ज्ञानमें पूर्व प्रकार से दिन आवे तो उतने मासमें वह वस्तु महर्घ समर्थ होगी, ऐसा विद्वान् कहे ॥ १३४ ॥ अधिष्ठातुर्बलं ज्ञेयं लग्ने स्वामिविवर्जिते ॥ बलहीने त्वधिष्ठातुः प्राहुः स्वामिबले बलम् १३५ ॥ सं०टी० - अत्र विशेषमाह-यस्य वस्तुनो योऽविष्ठाताऽधिदेवता भवति तस्य बलं सम्पूर्ण द्रष्टव्यं विलोकनीयं ज्ञेयम् । "Aho Shrut Gyanam"
SR No.009670
Book TitleBhuvandipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBacchu Sharm
PublisherGangavishnu Shrikrushnadas
Publication Year1940
Total Pages138
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size4 MB
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