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________________ ( ११८ ) भुवनदीपकः । परन्तु प्राप्ति नहीं होगी ऐसा कहना, तथा चतुर्थ स्थानमें कोई भी ग्रह हो तो द्रव्य उत्तम पात्रादिकमें कहना और यदि चौथा स्थान अपने स्वामीकी दृष्टिसे वर्जित हो तो भी यदि चन्द्रमा चौथे स्थानमें हो तो द्रव्य कहना और चन्द्रकी दृष्टि योग आदि नहीं हो तो एक वर्षके पीछे लाभ कहना, कारण कि, चन्द्रमाकी दृष्टि पूर्ण विचार करना चाहिये ॥ १६५ ॥ योगेस्तित्वविधायकेहिमरुचिनचे विनष्टोऽपिवाडमावास्यानिकटस्थितोपिकथितः प्राज्ञैः प्रमाणंतथा । लाभे चन्द्रयुगीक्षणेन भवतः सौम्यस्यते स्तस्तदा वर्षेन्यत्रनिधिग्रहाय सुधिया कार्यः प्रयत्नोमहान् ॥ सं० टी० - चन्द्रदृष्टिः पूर्णा वाच्या अत एवाह-योगेस्तित्वविधायके निधानास्तित्वदर्शके प्रागुक्तेपि योगे हिमरुचिर्विनष्टोऽथवाऽमावास्यानिकटस्थोपीति स्पष्टम् । तदा प्राज्ञः प्रमाणं निधिप्राप्तये उद्यमो न कार्यः सृतं सम्पूर्ण जातमिति कथितं भणितं, तथा लाभे एकादशभवने चन्द्रयुगीक्षणे न, चन्द्रसंयोगदृष्टी न भवतः । एवं सौम्यस्यान्यस्यः ग्रहस्य ते संयोगदृष्टी भवतः तदा वर्षेऽन्यत्र प्रश्नवर्षानंतरे वर्षे निधिग्रहणाय प्रयत्नः कार्यः ॥ १६६ ॥ " अर्थ - यदि पूर्व कहे अनुसार द्रव्य होनेका योग हो और चंद्रमा नीचमें हो, नष्ट हो अथवा अमावास्याके निकटमें हो तो द्रव्य निका "Aho Shrut Gyanam"
SR No.009670
Book TitleBhuvandipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBacchu Sharm
PublisherGangavishnu Shrikrushnadas
Publication Year1940
Total Pages138
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size4 MB
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