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(५०) भुवनदीपकः । लमपतिदर्शने सति शुभग्रही द्वौ त्रयोऽथवा लग्नम् पश्यन्ति यदि तदानीमाहुर्योग विभागोनम्॥६५॥
सं० टी०-लग्नपतिदर्शने सति यदि अन्यौ द्वौ त्रयो वा शुभग्रहा लग्नं पश्यति तदानी विभागोनयोगमाहुः । त्रिभिभीगैन्यूँनं योगं सप्तदशविंशोपका कार्यासद्धिरित ॥ ६५ ॥
अर्थ-लग्नके ऊपर लग्नस्वामीकी दृष्टि होनेपर अन्य दो शुभग्रह अथवा तीन शुभग्रह यदि लग्नको देखें तो तीन अंश कमती योग कहा गया है अर्थात् सत्तरह विंशोपक कार्यसिद्धिकारक होते हैं ॥६५॥ क्रूरावेक्षणवाश्चत्वारः सौम्यखेचरा लग्नम् ॥
लग्नेशदर्शने सति पश्यंति पूर्णयोगकराः ॥ ६६॥ ___ सं० टी०-क्रूराणां ग्रहाणामवेक्षणं दर्शनं तेन वाः चत्वारः तेऽपि सौम्यग्रहाः लग्नं पश्यति लग्नाधिपतेर्दर्शने सति संपूर्णयोगकराः । विंशतिविंशोपका कार्यसिद्धिरिति ॥ ६६ ॥
इति लग्नविचारद्वारं नवमम् ॥ ९॥ अर्थ-पापग्रहोंकी दृष्टि से वर्जित होकर चारों शुभग्रह ( पूर्ण. चन्द्र, बुध, गुरु, शुक्र) लग्नको देखते हों और लग्नके ऊपर लग्नेशकी भी दृष्टि होवे तो पूर्णयोगकारक होते हैं अर्थात् कार्यसिद्धिके लिये बीस विंशोपक बल होता है ।। ६६ ॥
इति लग्नविचारद्वारम् ॥ ९॥
"Aho Shrut Gyanam"