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________________ (१०६) भुवनदीपकः। वक्तव्यति द्वितीयफलम् ॥ १४९ ॥ इति लग्नेशांशलाभदारं द्वात्रिंशम् ॥ ३२ ॥ अर्थ-लग्नस्वामी और लग्नांशस्वामीको तब तक उन धनादि भावोंमें चलना चाहिये जबतक कि वे धनादिभाव पूर्ण हों और जिस स्थानपर लग्नेश और अंशेशकी दृष्टि आदि हो उस स्थानतुल्य संख्याके मासमें कार्यसिद्धि आदि कहना चाहिये ॥ १४९ ॥ इति लग्नेशांशलाभद्वारम् ॥ ३२॥ द्रेष्काणे यत्र लग्नं स्याद्वाविंशतितमे ततः॥ द्रेष्काणे यदि लग्नेशःपृच्छायां तन्मृतिध्रुवम् १५० सं० टी०-अत्र द्रेष्काणादिद्वारमाह-द्रेष्काणेति । यत्र द्रेष्काणे लग्नत्रिभागरूपे लग्नं भवति तस्माल्लग्नावाविंशतितमे अष्टमे स्थाने द्रेष्काणे याद लग्नाधिपतिर्भवति तदा रोगिणः पृच्छायां द्रेष्काणानुसारेण मृतिर्मरणं वाच्यम् ॥ १५० ॥ अर्थ-अब तेंतीसवें द्वारमें द्रेष्काणादि फल लिखते हैं यदि प्रश्न. लग्नके द्रेष्काणसे बाईसवें द्रेष्काणमें प्रश्नलग्नस्वामी हो तो रोगप्रश्नमें मरण कहना चाहिये ॥ १५० ॥ लनपो मृत्युपश्चापि लग्ने स्यातामुभौ यदि ॥ स्थितौ द्रेष्काण एकस्मिस्तदा मूर्तिनिरामया ५१ "Aho Shrut Gyanam"
SR No.009670
Book TitleBhuvandipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBacchu Sharm
PublisherGangavishnu Shrikrushnadas
Publication Year1940
Total Pages138
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size4 MB
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