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________________ (७६) भुवनदीपकः । .. अर्थ-यदि प्रश्नलग्नका स्वामी प्रश्नलग्नसे अष्टमस्थानमें हो प्रश्नसंबन्धी कार्यको भक्षण करजाता है अर्थात् नाश कर देता परन्तु यदि शत्रुके घरमें हो तो और यदि मित्रके गृहमें प्राप्त होय कार्यसिद्धि करता है । यहाँ सारांश यह है कि लग्नस्वामी जैसे स्थान हो, वैसाही फल करता है अर्थात् शत्रुगृहमें, नीचराशिमें और सूर सान्निध्य से हो अस्त हो तो प्रश्नसम्बन्धी कार्यको नाश करता है तो स्वगृह, स्वोच और मित्रके गृहमें हो तो कार्यको सिद्ध करता है १० बीक्षणयुग्भ्यां कौलग्नषडष्टसु च विद्ध इत्यबलः पुष्णाति कष्टभावं मृत्युमपि प्रश्नतश्चन्द्रः।।१०५ सं०टी०-प्रश्नकाले चन्द्रफलमाह—यदा प्रश्नकाले वाऽष्टमे षष्ठे वा वर्तमानश्चन्द्रः करैर्ग्रहवीक्षितो युतो वा भवा स विद्ध इत्युच्यतेऽवलास चन्द्रः कष्टभावं देगलं पुष्णा। किंतु मृत्युमाप करोति, प्रश्नलग्नादिति भावः ॥ १७५॥ . अर्थ-प्रश्नकालमें पापग्रहसे दृष्ट या युक्त चन्द्रमा प्रश्नलाट लग्न, छठे, आठवें स्थानमें स्थित होनेसे विद्ध और निर्बल कहाता यह चन्द्रमा प्रश्नकार्यसम्बन्धी दुःखहीको बढाता है और मृत्यु : करता है ॥ १०५ ॥ द्वादशे शोभनः खेटो विवाहादिषु सध्ययम्॥ क्रूरोऽप्यसद्ययं चोरराजाग्निप्रभ ग्रहः ॥१०६ "Aho Shrut Gyanam".
SR No.009670
Book TitleBhuvandipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBacchu Sharm
PublisherGangavishnu Shrikrushnadas
Publication Year1940
Total Pages138
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size4 MB
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