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________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (६१) लग्नेशो यदि षष्ठे स्वयमेव रिपुस्तदा भवत्यात्मा। मृत्युकृदष्टमगोऽसौ व्ययगः सततं व्ययं कुरुते८४॥ ___ सं० टी०-अथ लग्नाधिपस्थितिफलद्वारमाह-लग्नाधिपो यदि षष्ठस्थाने स्यात्तदा स्वकार्यस्य स्वयमेव विनाशको भवति शत्रुत्वादिति । यथा यद्यष्टमस्थाने लग्नेशः स्यात् तदा प्रच्छकस्य वा कार्यस्य विनाशक एवमस्त्येव । तथा द्वादशे व्यये वर्तमानोऽसौ लग्नपतिः सततं निरन्तरं व्ययकर एव । तथाऽप्ययं विशेषः-याद करो भवति तदा पापस्थाने व्ययो भवति, सौम्ये तु रिपुस्थाने इति भावः ॥ ८४ ॥ ___ अर्थ-अब तेरहवें द्वारमें लग्नस्वामीकी स्थितिसे फल लिखते हैं। यदि लग्नेश छठे स्थान में हो तो स्वयं अर्थात् आपसे आपही कार्यका रिपु अर्थात् कार्यनाशक होता है और यदि लग्नेश आठवें भावमें हों तो कार्यकर्त्ताकी मृत्युके कारक होते हैं, यहाँ मृत्यु शब्दसे शरीरांतही नहीं समझना किन्तु इसके अतिरिक्त भी आठ प्रकारके मरण ग्रंथांतरमें हैं, यथा-"व्यथा दुःखं भयं लजा रोगः शोकस्तथैव च॥बंधनं चावमानं च मृत्युश्चाष्टविधः स्मृतः ॥ " यहाँ संस्कृत टीकाकारने मृत्यु शब्दसे कार्यनाश अर्थ किया है सो असंगत प्रतीत होता है. और यदि "Aho Shrut Gyanam"
SR No.009670
Book TitleBhuvandipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBacchu Sharm
PublisherGangavishnu Shrikrushnadas
Publication Year1940
Total Pages138
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size4 MB
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