SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (९२) भुवनदीपकः। स्वक्षेत्रे तु बलं पूर्ण पादोनं मित्रभे रहे ।। अर्थ समगृहे ज्ञेयं पादं शत्रुगृहे स्थिते ॥ १३० ॥ . सं०. टी०-कश्चित्पृच्छति अहममुकं वस्तु विक्रीणामीति प्रश्ने सति यदि यस्यैकादशस्थानस्य स्वामी स्वस्थाने भवति पश्यति वा स्वस्थानं तदा वक्तव्यं तव वस्तुविक्रयणे लाभो भविष्यतीति ॥ १२९ ॥ १३० ॥ अर्थ-यदि कोई पूछे कि, मैं अमुक वस्तुको बेचूंगा लाभ होगा या नहीं? ऐसे प्रश्नमें प्रश्नलग्नसे ग्यारहवें स्थान बलवान् हो तो खरीदी हुई वस्तु बेचनेसे लाभ कहना अर्थात् ग्यारहवें स्थानका स्वामी ग्यारहवें भावमें हो या पूर्ण दृष्टिसे देखता हो तो लाभ होता है. यहाँ बल जाननेके लिये स्थानपरत्वसे बल कहते हैं-अपने गृहमें पूर्ण बल होता है, मित्रके गृहमें तीन चरण, समके गृहमें आधा, शत्रुके घरमें एक चरण ( चौथाभाग ) बल होता है ॥ १२९ ॥ १३० ॥ समर्थे वा महर्ष वा वस्तु मे कथयामुकम् ॥ पृच्छायां येन खेटेन शुभत्वं प्रतिपाद्यते ॥ ३३१॥ खेटोऽसौ यावतोमासान् याति लग्नस्य सौम्यताम्। विधत्ते तावतो मासान्तमब्रुवते बुधाः ।।१३२॥ - "Aho Shrut Gyanam"
SR No.009670
Book TitleBhuvandipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBacchu Sharm
PublisherGangavishnu Shrikrushnadas
Publication Year1940
Total Pages138
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy