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भुवनदीपकः। वृद्धया फलानि चैवं प्रयच्छन्ति॥' तथा च-" तृतीय३कादशे. ११ पादं दलं व्योम १० चतुर्थ ४ के। त्रिकोणे अधिमूर्त्यस्ते पूर्ण पश्यन्ति खेचराः ॥"एतदेव पुनर्विशेषमाह-" पूर्ण पश्यति रविजस्तृतीय ३, १० दशमे त्रिकोणमपि जीवः५, ९ । चतुरनं ४, ८ भूमिसुतः सितार्कबुधहिमकराः कलत्रं च ॥" ताजिके-"एकादशेऽपि भवने सर्वे पश्यन्ति खेचराः । षट्स्वान्त्या १२ नि न पश्यन्ति दीपान्धा इव खेचराः " ॥ २५ ॥ __अर्थ-यहां नष्टादि वस्तुओंके स्थान जाननेके लिये ग्रहोंकी तियगादि दृष्टि वर्णन करते हैं-बुध और शुक्र तिरछी दृष्टिवाले हैं, मंगल और रवि आकाशके तरफ ऊर्ध्व दृष्टिवाले हैं, बृहस्पति और चन्द्रमा समदर्शी हैं, शनि और राहु नीचेकी तरफ दृष्टिवाले हैं। इसका तात्पर्य यह है कि, जो ग्रह बलवान् होकर लग्नको देखे, उस ग्रहकी दृष्टिके समान स्थान सम्बन्धी वस्तु कहना । यथा-रवि या मंगल बलवान् होकर देखें तो आकाश स्थित, बुध या शुक्र देखें तो भित्ति (दीवाल) आदिमें खोदे हुए स्थानमें, बृहस्पति या चन्द्रमा देखें तो समान भूमिमें, शनि या राहु बलयुक्त होकर लग्नको देखें तो भूमिमें खात आदि सम्बन्धी वस्तु जानना । यहां दृष्टिके संबन्धसे जिस २ स्थानपर जितनी २ दृष्टि ग्रहोंकी होती है, उसको लिखता हूँ-शनिवर्जित सब ग्रह स्वाधिष्टित स्थानसे तृतीय और दशमको एकपाद दृष्टिसे देखते हैं, परन्तु शनि इन दोनों स्थानोंको पूर्ण दृष्टिसे देखता है। तथा गुरु
"Aho Shrut Gyanam"