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________________ संस्कृतटीका-भापाटीकासमेतः। (५३) तथा ग्रंहवर्णजातिवाद्यनुसारेण विनष्टं वर्णजात्यादिकं प्रच्छकस्य वाच्यम् । अस्माद्विपर्यये लग्नाधिपतावविनष्टे सति भाकारः अविनष्टत्वं प्रच्छकस्य शरीरादौ वाच्यामिति भावार्थः ॥ ७० ॥ अर्थ-अब विनष्टादि ग्रहके वशसे द्वादशभावोंका फलादेश लिखते हैं-चौरादिक प्रश्नकालमें अथवा जन्मकालमें यदि पूर्वकथित चारप्रकारोंमेंसे किसी प्रकारसे लग्नाधिप विनिष्ट हो तो वह पुरुष वर्ण तथा जाति आदिसे विनष्ट होता है अर्थात् जन्मकालमें समाधिप विनष्ट हो तो जन्मनेवाला मनुष्य विनष्टावयव ( कुरूप ) होता है और चौरादि सम्बन्धी प्रश्नमें भी चौरादिकोंकी जाति और वर्ण विनष्ट कहना और यदि विपर्यय हो अर्थात् लग्नाधिप पुष्ट हो तथा शुभ स्थानमें स्थित हो तो पूर्व कथित मनुष्योंका आकार शुभ (उत्तम) जानना ॥ ७० ॥ एवं धनादिस्थानेषु विनष्टेऽधिपतौ वदेत् ॥ धनभावभ्रातृभावप्रमुखान् प्रत्ययान सुधीः ७॥ सं० टी०-एवं धनादीति । एवं पूर्वोक्तप्रकारेण धनसहजादिस्थानेष्वपि यस्य । भावस्याधिपतिक्निष्टो भवति तस्य स्य कार्यस्य हानिर्भवति ॥ ७१ ॥ इति विनष्टग्रह विचारद्वारं बदामम् ॥ १० ॥ "Aho Shrut Gyanam"
SR No.009670
Book TitleBhuvandipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBacchu Sharm
PublisherGangavishnu Shrikrushnadas
Publication Year1940
Total Pages138
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size4 MB
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