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भुवनदीपकः। अर्थ-यदि चतुर्थ और सप्तम इन दोनों स्थानोंमें शुभग्रहयुक्त या शुभग्रहकी दृष्ट्यादि हो तो एक घरेली और एक विवाहिता स्त्री प्राप्त हो और इन दोनों स्थानोंमें पापग्रहोंके योगादि हो तो धरेली और विवाहिता इन दोनोंमें कोई भी नहीं मिले ॥ ९३॥ न धृता परिणीता वा योगेऽत्र सुखदायिका ॥ परिणीता धृता वाऽपि पाश्चात्त्ये सुखदायिका९४॥ ___ सं०टी०-विशेषमाह-यदि चतुर्थे सप्तमे स्थाने क्रूरग्रहो भवति तदा धृता परिणीता वा भार्या सुखदायिका न, किंतु पाश्चात्त्ये शेषे काले सुखदायिकेति वाच्यम् । प्रकारांतरेणाह"लग्नस्थे सप्तमे पत्नी भर्तुरादेशकारिणी । लग्नेशे सप्तमस्थे तु भार्यादेशकरः पतिः” ॥ ९४ ॥ इति स्त्रीप्राप्तिविचारद्वारमष्टादशम् ॥ १८॥ ___ अर्थ- पूर्व चतुर्थस्थानमें पापग्रहोंके योगादिसे व्याही स्त्री और सप्तम स्थानमें पापग्रहोंके योगादिसे रखेली स्त्रीका लाभ जो लिखा है, उसमें विशेष लिखते हैं-कि, इन योगोंमें धरेली या विवाहित स्त्री पहिले सुख देनेवाली नहीं होती, किन्तु पीछे सुख देनेवाली होती है, यहां विशेष विचार है कि सप्तम स्थानका स्वामी यदि लग्नमें हो तो स्त्री स्वामीकी आज्ञा पालन करनेवाली होती है और लग्नेश यदि सप्तम स्थानमें हो तो स्वामी ही स्त्रीकी आज्ञा करनेवाला होता है ॥ ९४ ॥
इति स्त्रीप्राप्तिविचारद्वारम् ॥ १८ ॥
"Aho Shrut Gyanam"