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(३६) भुवनदीपकः । विवादं कलहादि, गमनागमनादि । कलत्रं स्वीकार्यम् । प्राज्ञः पण्डितः । कलत्रात्सप्तमभवनात्पश्येत् ॥ ४९ ॥ __ अर्थ-वाणिज्य अर्थात् क्रय विक्रय, व्यवहार अर्थात् व्याजपर द्रव्य लगाना, शत्रुओंके साथ विवाद, गमागम ( परदेश जाना और आना ), स्त्री इन सबोंको पंडितजन सप्तम भावसे देखें ॥ ४९ ॥ नद्युत्तारेऽध्ववैषम्ये दुर्गे शात्रवसंकटे । नष्टे दष्टे रणे व्याधौ छिद्रे छिद्रं निरीक्षयेत्॥५०॥ ___ सं० टी०-अथाष्टमभावनिरीक्षणमाह-नद्युत्तरणे, अध्वनो मार्गस्य कुशलादि तस्य वैषम्ये, जलस्थलोभयभेदात्रिविधो दुर्गस्तस्य भङ्गग्रहणादि, शात्रवसंकटे वैरिभिर्गृहीते बन्धमोक्षादि, नष्टे स्वयमेव गते वस्तुनि चोरगृहीते वा, दष्टे सर्पादिना, रणे संग्रामे, व्याधौ शारीरके, छिद्रे शाकिन्यादिदोषगृहीते; एतेषु छिद्रमष्टमस्थानं निरीक्षयेत् ॥ ५० ॥
अर्थ-नदीपार होनेमें, मार्गकी विषमतामें, दुर्ग ( किलोंका ) भंग या अपने वशमें करने आदिमें, शत्रुसम्बन्धी संकट अर्थात् शत्रुओंद्वारा बंधनादिको प्राप्त करने और छूटनेमें, द्रव्यादिके नष्ट अर्थात् चोरी आदि होनेमें, सर्पादिद्वारा काटे जानेमें, युद्धमें, व्याधिमें, छिद्र ( शाकिनी आदि दोष ) में पंडितजन अष्टम भावको देखें ॥ १०॥
"Aho Shrut Gyanam"