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(५८) भुवनदीपकः।
अर्थ-लग्नस्वामी और कार्यभावस्वामी इन दोनोंकी विषमता अर्थात् शत्रुता हो और यदि चन्द्रयोग अर्थात् चन्द्रमासे युक्त हो तो आधाफल कहा गया है, यह जो चारों योगोंका प्रपञ्च सो हमारा सम्मत है ।। ७८ ॥
__ इति राजयोगद्वारम् ॥ ११ ॥ लग्नेशो वीक्षते लग्नं कार्यशः कार्यमीक्षते ॥ कार्यसिद्धिर्भवेदिंदुः कार्यमेति परं यदा ॥ ७९ ॥ __ सं० टी०-अथ लाभालाभविचारद्वारमाह-लग्नपतिर्लग्नं पश्यति तथा कार्यशः कार्यं पश्यति परं कार्यसिद्धिस्तदा तस्मिनेव काले स्यात्, चंद्रः कार्यस्थानं समायाति तावत्कायें विलंब एवेति भावः ॥ ७९ ॥ ___ अर्थ-अब बारहवें द्वारमें लाभालाभविचार लिखते हैं-लग्नेश लग्नको देखता हो और कार्येश ( जिस भावसम्बन्धी कार्य हो, उस भावका स्वामी ) उसी भावको देखता हो तो कार्यसिद्धि होगी, ऐसा कहना । परन्तु कब होगी, इसके लिये यह विचार है कि, जब चन्द्रमा कार्यभावपर आवेगा, तब कार्यसिद्धि होगी ॥ ७९ ॥ लग्नाधिपतिलुब्धो लाभाधीशश्च दायको भवति॥ लग्राधिपस्य योगो लाभाधीशेन लाभकरः॥८०॥
"Aho Shrut Gyanam"