Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
अ. भा. साधुमार्गी जन संस्कृति-रक्षक संघ साहित्य रत्नमाला का ५६ वौ रत्न
श्री उपासकदशांग
अनुवादक---- थी. पीसुलालजी पितलिया
प्रकाशक
श्री अखिल भारतीय साधुमार्गी जैन सस्कृति-रक्षक संघ
सैलाना (म.प्र.)
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री उपासकदशांग सूत्र के संपादन में
प्रयुक्त सामग्री
श्री उपासकदशाग-अनुवादिका-साध्वी विनमामी..-श्री हिदी नागम प्रकाशक सुम
कार्यालय, जैन प्रेस कोटा से प्रकाशित, टीका, टीकानवाद माहित । २ अभिधान राजेंद्र कोष मातों भाग। ३ अंगसुसाणि-नवासगवसायो-संपादक-मुनि नथमलजी प्रकाशक-जन विश्व भार
लाइy (राजस्थान) ४ उपासकदशांग मूत्र-अनुवादक-शास्त्रांडारक पूज्यश्री अमोलकषिजी म. मा. । मा · सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी, हैदराबाद द्वारा प्रकाशित । ५ उपामकदशा अर्थ---श्री बाढीलाल मोतीलान्ट साह, अहमदाबाद । ६ मभपं-समाधान भाग १, । ७ मोक्षमार्ग---लेखक श्रीमान् रतनलालजी डोशी मैलाना, प्रकाशक- अखिल भार
माधुमार्गी जन संस्कृति रक्षक संघ, सलाना । द्वितीयावृत्ति । ८ जैन प्रकाशा--पूज्यश्री अमोलफपिजी म. मा । ९ जयध्वज-(पूज्यश्री जयमलजी म. मा. का जीवन दन)। १० आवश्यक सूत्र भार्थ-पाथर्डी । ११ 'जिनवाणी' श्रावधर्म विशेषांक में 'धावक प्रतिमाएं चरा परिचा' नामक प. २
४१ तक का लेख । लेखक-पं. श्री पारसमनिजी म. मा. । जनवरी ७० । १२ मुत्तागमे भाग १-श्रीपुष्फ भिक्षुजी सम्पादित । १३ मुत्तागमे भाग २- श्री पुप्फ भिक्खुजी मम्पादित्त । इत्यादि ।
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान के आदर्श श्रमणोपासक
जिनोपदिष्ट द्वादशागी का भातवो अंग 'उपासकदशांग मूत्र' है । इसमें श्रमण भगवान महावीर स्वामी के अनेक गृहस्थ-उपासकों में से दस उपामको का चरित्र वर्णन है. ! भगवान के आनन्द-कामदेव मावि उपासकों का चरित्र हम उपासकों के लिए पहले भी आदर्श (दर्पण) रूप पा, आज भी है और मागे भी रहेगा । हम इस आदर्श को मम्मुख रख कर अपनी आत्मा, अपनी दशा और परिणति देखें और यथाशक्य अपनी त्रुटियों दोषों और कमजोरियों को निकाल कर वास्तविक श्रमणोपासा बनने का प्रयत्न करें, तो हमारा यह भव और परभव मुधर सकता है और हम एक भवावतारी भी हो सकते है। यदि अधिक भव करें, और भम्यक्त्व का साथ नहीं छोड़े, तो पन्द्रह भव--देव बऔर मनुष्य के कर के मित्र भगवान् बन सकते हैं।
वे श्रमणोपासक धन-वैभव, मान-प्रतिष्ठा और अन्य सभी प्रकार की पोद्गलिक मापदा से भरपूर गवं मुखी थे । परन्तु जब भगवान महावीर प्रभु का पावन उपदेषा मुना, तो उमकी दिशा और ...दमा दोनों पलट गई । मवाभिनन्दी और प्द्गलानन्दी मिट कर आत्मानन्दी बन गए। उनकी रूचि निवृत्ति की और बढ़ गई । भगवान् के प्रथम दर्शन में ही उन्होंने अपने व्यापार-व्यवसाय, आमा-तृष्णा
और भोग-बिलाम पर अणुव्रत का ऐसा अंकुश लगाया कि वे वर्तमान स्थिति में ही संवरित रहे। माप ही उनका लक्ष्य प्रवृत्ति पटा कर. निवृत्ति बढाने का भी रहा ही। इसीसे वे नौदह वर्ष तक व्यापारव्यवसाय और मह परिवार में रह कर अणुवतादि का पालन करते रहे । तत्पश्चात् म्यवसायादि से निवृत्त हो कर उपासक-प्रतिमाओं की आराधना करने के लिए पौषधमाला में पले गये और विशेष रूप में धर्म की आराधना करने लगे।
बन्यों की मंगति से बचे
हम उन आदमं श्रमणोपासकों के माधना जीवन पर दृष्टिपात करें, तो हमें उनकी भगवान्, श्रमम-निग्रंथ और जिनधर्म के प्रति अगाध एवं अटूट धद्धा के दर्शन स्पष्ट रूप से होते हैं । ये एकान्न कम से जिन-धर्म मे ही उपासक थे । प्रतिमाराधना तो गाद की बात है । जिस दिन उन्होंने भगवान् के प्रथम वर्णन किय, प्रथम उपदेश सुना और मम्यग्दृष्टि तथा देशविरत धरणोपासक बने, उसी दिन, मी ममय उन्होंने 'भगवान् के सम्मुख यह प्रतिज्ञा कर ली कि-" में अब अन्यधिक देव अमायूष के माध्वादि और जिनधर्म को छोड़ कर अन्ययथ में गये-सम्यक्त्व एवं जिनधर्म से पवित हुए
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
येणधारियों को कुन्दन नहीं कहंगा, उनसे सम्पर्क भी नहीं रखूगा, अपने पूर्व के देव-ग और साधर्मो मेजिन से उस दिन के पूर्व तक उसका सम्बन्ध रहा-हेव जानकर उन्होंने त्याग दिया।
आज के लौकिक दृष्टि वाले कई अनी अपना मागं भूल गये हैं। उन्होंने राजनैतिक एवं सामापिक-लौकिक प्रचारकों से प्रभावित हो कर 'सर्वधर्म समभाव' का उनका घोष अपना लिया और सपना आवशं छोड़ दिया। इस लौकिक प्रचार ने जन उपदेशकों और लेखकों को भी प्रभावित किया । उन्होंने इस प्रचार को धर्म एवं शास्त्रसम्मत प्रमाणित करने के लिये 'अनेकान्त ' का Hठा महारा ले कर मिथ्यावाद चलाया और धर्मश्रदा की जड़ें ही काटने लगे । यदि उपासक-वर्ग उनके बहकावे में नहीं झावे और इन आदर्ण उपासकों के साधनामय जीवन पर ध्यान दे, नो अपने धर्म में स्थिर रह सकते हैं ।
समन्वय नहीं
अनेकान्त को रक्षक के बदले भक्षक बनाने वालों को चाल मे बचने के लिये श्रमणोपासक आनन्द की इस प्रतिज्ञा पर ध्यान देना चाहिये कि-"में अन्ययधिकादि को मान-सम्मान नहीं दूंगा, बिना बोलाये बोलूगा भी नहीं और उन्हें आहारादि का निमन्त्रण भी नहीं दूंगा।" कुछ दिन पूर्व सक जिन का उपासक था, भक्त था, परम श्रद्धा से एक मात्र उन्हें ही उपास्य एवं आराध्य मानता धा, उन गोमालक के अपने घर आने पर भी जिसने आदर नहीं दिया, और इतना भी नहीं कहा कि-"आइयें, ठिये ।" एक बराबरी के गृहस्थ के आने पर भी हम-"आइयं. पधाग्यि. विराजिय," आदि शब्दों से आगत का स्वागत करते हैं. तब जिन्हें वर्षों तक परम आराध्य मान कर वन्दनादि करते रहेसर्वोत्कृष्ट सम्मान देते रहे, उसी के आगमन पर मुख फेर कर उपेक्षा करना कितना खटकने वाला होगा- आज की दृष्टि में 7 आज के एमे लोगों की दृष्टि में यह मभ्यना के विरुद्ध व्यवहार है। ऐसे मभ्यतावादी लोग सद्दालपुत्र को ' कट्टरपंथी ' या 'सम्प्रदायवादी फह भकते हैं । किन्नु ऐसी बात नहीं है। ऐसा वही मोच मकता है जिसकी दृष्टि में चोर और माहूकार, कलटा और मनी. विष और अमृत में, एक बालक अथवा भोंदू के समान समादर हो । ओ कांच और रत्न में ममभावी हो । उम सुधायक ने ममम लिया कि ये लोगों को उन्मार्ग में ले जाने वाले हितभव है जीवों को भवावटवी में भटका कर दुखी करने वाले हैं, विष में भी अधिक भयानक हैं । इनकी तो छाया में भी बचना चाहिये । हम जब तक अनजान होते है, तबतक मित्र कार में प्रिय लगने वाले ठग से घनिष्ठला रखते हैं, परन्तु ज्योंही उसकी असलियत जान हो जाती है. त्योंही उममे मर कर दूर रहने लगते हैं । यही बात कुप्रावधनिकों के विषय में समझनी चाहिये । इस प्रकार श्रमणोपासक थीआनन्दजी की प्रतिज्ञा और सफडालजी का गोगालक का आदर नहीं करना सर्वथा उचित है । ऐसा ही दूसरा उदाहरण ज्ञानाधर्मकयांग मूत्र अ. ५ का श्रमणोपासक सुदर्शनजी का है, जिन्होंने अपने पूर्व के धर्म गुरु परिव्राजकाचार्य शुकजी का आदर नहीं किया था । परिबाजकार्य मरल थे, सत्यान्वेषी यं ।
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुर्शनी का परिवर्तन और अनादर उनके लिये भी लाभदायक हुआ और वे अपने शिष्यों के साथ निग्रंथ-धर्म में दीक्षित होकर महात्मा यावन्यापुत्र अनगार के शिष्य बन गए और आराधक हो कर मुक्त होगए।
अन्यपूर्थिक देव और उसके गुरुवर्ग एवं अपने से निकल कर अन्ययुथ में मिले हुए के प्रति ही श्रमणोपासक का यह अनादर पूर्ण अबहार है, परन्तु अपमान करने का नहीं। गृहस्थ के साथ ऐसा व्यवहार नहीं होता, क्यों कि गृहस्थ से सम्बन्ध या तो पारिवारिक होता है, या सामाजिक एवं व्यावसायिक, विधर्मी से धार्मिक नहीं होता। अतएव उसका जो योचित आदर होता है, वह लौकिक आधार पर होता है और अन्यतीर्थी साधु तो मात्र धर्म से ही सम्बन्धित होते हैं।
माजकल अनेकान्त का मिथ्या महारा ले कर अन्यों से समन्वय कर के उन्हें भी सच्चे मान कर आदर देने की नथाकथित जैन विद्वानों ने ओ कुप्रवृत्ति अपनाई है, वह उपादेय नहीं है । यदि इस प्रकार का समन्वय श्रमण भगवान महावीर प्रभु को मान्य होता, तो सद्दालपुत्र के नियतिवाद का खण्डन कर पुरुषार्थवाद का मण्डन नहीं करते और कुण्डकोलिक के नियनिदाद के खण्डन की सराहना नहीं करते, जबकि गम्यक नियति को तो स्वीकार किया ही है और अन्य कारणों को भी स्वीकार करते हुए नियति मान्य की है । इससे स्पष्ट है कि स्पावाद एवं अनेकान्स मम्यक हो और मित्रांत के अनुकूल हो, तभी मान्य हो सकता है, अन्यथा वह मिथ्या होता है और अमान्य रहता है । जहाँ जिनेश्वर भगवत के धर्मादेश से किञ्चित् भी असहमति हो, वहाँ उपेक्षा ही रहती है । जमाली आदि निन्दा एफ को छोड़ कर सभी बातों में सहमत थे । केवल एक विषय की असहमति एव विरोध के कारण के मिथ्या दृष्टि एवं संघवाह्य ही मान गए । सुचना के अभाव में विशुद्ध चर्या और आचार-धर्म का प्रतिपालन भी असम्यक् तथा ससार का ही कारण मानने वाला जैन दर्शन, गुड़ और गोबर को एकमेक करने वाले असम्यक समन्वय को स्वीकार नहीं करता। अतएव आगमोफत श्रमणोपासकों के चरित्र का ही अनुसरण करना हमारे लिये हितकारी होगा।
पारिहंत खेडयाई मक्षित है?
बानन्दाध्ययन का "अरिहंत चेझ्याई' गन्द भी विवाद का कारण बना है। मनुष्य का अहं उसे आन-बूझ कर अभिनिवेशी (ठाग्रही) पना कर कुकृत्य करवाता है । 'अरिहंत चत्य' शब्द भी मताग्रह के बल से मूलपाठ में जा बैठा । सब से पहले 'चेझ्याई घुमा और उसके बाद 'अरिहंत' पहुंच कर जुड़ गया । टीका के शब्दों से भी लगता है कि 'अरिहंत' शब्द टीकाकार द्वारा बताये हुए लक्षण के सहारे में मूलपाठ में घुस गया हो । सम्बन्धित पाठ का संस्कृत रूप टीका में इन अक्षरों
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
66
'अन्ययूधिक परिगृहीतानि वा चैत्यानि "
इन अक्षरों के बाद टीकाकार ने “ अर्हत्प्रतिमा लक्षणानि "अक्षरों से अत्यधिक परिगृहीत के लक्षण के रूप में ये शब्द लिखे हैं । यदि टीकाकार के समक्ष मूल में अरिहंत श्याई' शब्द होता, तो संस्कृत रूप अन्ययूमिक परिगृहीतानि अहंतु त्यानि " होता । इतना होने पर भी वह पक्ष जिस अभाव की पूर्ति करना चाहता था. वह नहीं हो सकी । यह अभाव तो वैसा ही रहा । आनन्दजी के साधना के मतों और भगवान् के बताये हुए अतिचारों में ऐसा एक भी शब्द नहीं है, जो मूर्ति की वन्दना - पूजा आदि का किञ्चित् भी सकेत देता हो । उनकी ऋद्धि-सम्पत्ति का वर्णन है, भगवान् को वन्दना करने जाने, व्रत ग्रहण करने, प्रतिमा जाराधन आदि का जो वर्णन है, उनमें कहीं भी उनके आदि (जाज धर्मसाधना का प्रमुख अंग माना जाता है) उल्लेख बिलकुल नहीं है । इसमें स्पष्ट होता है कि उस समय जिन प्रतिमा की पूजनादि प्रथा जैन संघ में थी ही नहीं । न किसी वाचक के वर्णन में है और न के चरित्र में धर्म के विधि-विधानों में भी नहीं है. फिर एक-दो शब्द प्रक्षेप करने से क्या
जाने
( १० )
किसी साधु होता है ?
चरित्र हमारा मार्ग दर्शक है
भगवान् के आदर्श उपासकों क. चरित्र हमारे लिए उतम मार्गदर्शक है। उनकी धीरता गंभीरना, धर्मा अटूट आस्था और देवान के घर उसकी गालि आत्मसमभ्यं हमारे सब के लिए अनुकरणीय है ।
मन करने का
कुण्ड
श्रीजी की वादिना, कामदेवजी की दृढ़ता, अडिगना और कोलिजी को संद्धांतिकपटना, मकालपुत्री की कुप्रवचनीक पूर्व गुरु के प्रति अबहेलना झूठी मन साहत का अभाव आदि गुण अनुमोदनीय ही नहीं, अनुकरणीय है ।
प्रवन् शक्तिशाली भयानक दैत्य एवं पियाच जैसे देव से भयभीत न होकर तीनों परीक्षा में उत्तीर्ण होने का श्रेय नो एकमात्र कामदेवजी को ही मिला है। उनके समक्ष देव भी पराजित हुआ । देव की सीमातीत क्रूरता भी हार गई। किंतु अन्य श्रमणोपासक दिने । श्री कुलपिताजी ने पुत्रों की हत्या का घोरतम आधान सहन कर लिया, परन्तु माता की हत्या का प्रसंग आने पर वहां गए. इसी प्रकार मुरादेवजी अपने नन में भयानक रोगों की उत्पत्ति होना जान कर चलती धन- विना में मकड़ालपुवजी धर्ममहायिका, धर्मरक्षिका सुख-दुख की साधिन पत्नी की हत्या के भय में विचलित हुए। परन्तु निर्धारित हो कर भी उन्होंने उस देव की माँग के अनुसार धर्म छोड़ने का तो विचार ही नहीं किया, न प्रार्थना की नगिड़गिड़ायेउन माहन के साथ उस पर आक्रमण
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
(११)
का दिया । वे उसे देव नहीं, क्रूर मानव ही समझ रहे थे।
गृहस्थ प्रत्याख्यानावरण कपाय के उदय से युक्त होता है। उदयमाव की न्यूनाधिकता तो मनायों में होती ही है । किमी का पुत्र पर अधिक स्नेह होता है, तो किसी का भाता अपवा पली पर । मुरादेवजी ने सोचा होगा कि भयंकर रोगों के उत्पन्न होने में शरीर की को दुर्दशा होगी और आत्मा में अशांति उत्पन्न हो कर दुर्ध्यान होगा, बह साधना में पतित कर देगा। इस आशंका के मन में उत्पन्न होते ही वे विचलित हो गए, चूलशतकजी पुत्र हत्या से नहीं, परन्तु धन-विनाश से डिगे । उन्हें धनविनाश से प्रतिष्ठा का विनाश लगा होगा और दारिट्रय जन्य दुःखों ने डराया होगा ।
श्री आनन्दजी तो घर छोड़ भार अन्य स्थान की पौषधशाला में चले गये थे, कदाचित् कामदेवजी भी अन्यस्थ पौषधशाला में गये हों, शेष चुलगीपिताजी आदि अपने भवन के किसी भाग में नियन्त की हुई पोषधणाला में ही आराधना करते रहे । यह बात उपमर्ग के ममय उनकी लमकार माता एवं पत्नी के सुनने और उनके ममीप आ कर अम मिटाने और शुद्धिकरण करवाने की घटना में ज्ञात होगी है।
दम ही क्यों
भगवान महावीर प्रभ के लाखों श्रमणोपामकों में बंबल दम ही एग उपासक हो और अन्य ग श्रणी के नही हो. एमी बात नहीं है । अंतगडसूत्र के मुदगंन श्रमणापामगर, भगवती वणित तुंगिका के. श्रावक एवं शंख-पुष्पानि वि कई कं, जिनमें प्रपना प्रान्म-प्रदंदा में धर्म का रंग अन्यन गाकगाइनम चढ़ा हुआ था । इम पग को छुड़ाने की पविन किमी देव दानव में भी नहीं थी।
यह सूत्र 'दशाग' डोने के कारण दा अझायन · दम उपागकों के ग्नि-तन ही मीमित है। यं दम ही थमणोपासना बीम वर्ष की श्रावकपर्याय, प्रतिमा आगधफ, अवधिजान प्राप्त प्रथम म्बर्ग में उत्पाद, चार पल्पोपम की स्थिति और बाद के मनुष्यभव में महाविदह क्षेत्र में मकिन पाने वाले दए । इस प्रकार की साम्यता वाले दस धमणोगामकों के चरित्र को ही इम सूत्र में म्यान देना था, अतएन आगमकार ने दस चरित्र ले कर शेप छोड़ दिये ।
देवेन्द्र और जिनेन्द्र से प्रशंसित
व आवां श्रणोपासक देवेन्द्र और जिनन्द्र में प्रसाशिम । कामदेव श्रावजी की अमंदता आदि की प्रशंमा सौधमं स्वर्ग के अधिपति, असंख्य देव-देवियों के म्वामी शकेन्द्र ने की पी । एक अविश्वासी देव उन्हें बलायमान करने आया । उसने पिशाच, गजराज और नागराज का रूप बना कर कामदेवजी को घोगनिधार उपसर्ग दिये किन्तु वह उन्हें धर्म से व्युत नहीं कर सका । यह निष्फल हुआ, पराजित
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
-
-
-
-
हमा । उसे कामदेवजी के चरणों में गिर कर क्षमा मांगनी पड़ी । श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने श्रमणोपामक कामदेवजी की प्रशंसा की और श्रमण-निम्रन्थों को उनका अनुकरण करने का उपदेश दिया। और कुण्डकोलिक धमणोपासक को उसकी सिद्धांत-रक्षिणी विमल बुद्धि पर धन्यवाद दिया। -"धण्णेसि णं तुम कुण्डकोलिया!" (अ. ६) और मद्रुक श्रमणोपासक को कहा-"मुटु पं मददुया । साहुर्ण मद्या ।" (भग. १८-७) ।
ऐसे थे वे महामना आदर्श श्रमणोपासक । धर्म में पूर्ण निष्ठा. दुद्ध आस्था और प्राणों की बाजी लगा कर भी स्थिर रहने की दृढ़ता होना परम आवश्यक है । इससे भव-वन्धन कट कर मुक्ति सनिकट होती है।
प्रतिमाओं का स्वरूप और श्रमणोपासक चरित्र
प्रतिमाओं का नाम और आगम-णित स्वरूप पर विचार करसे लगता है कि अंत की दो-तीन प्रतिमाओं के पूर्व की प्रतिमाएं ऐसी नहीं कि जिसमें गृह-त्याग कर उपाश्रय मैं रहते हुए साधना करना आवश्यक ही हो जाय, जैसे- दर्शन प्रतिमा है। इसमें सम्यकच का निरतिचार गुपालन करना अनिवार्य है । इसके अतिरिक्त अन्य साधना जो प्रतिमाधारण करने के पूर्व की जानी थी और जिन ग्रों का पालन होता था, वह पालन होता रहे । इस प्रतिमा के लिए धन्बार, कुटुम्ब परिवार आदि छोड़ना आवश्यक नहीं लगता।
२ दूसरी प्रतिमा में प्रथम प्रतिमा के दर्शनाचार के मिवाय पांच अणुनन और तीन गुणवान का पालन करना आवश्यक है।
तीमरी में सामायिक और दशावकासिक दत का पालन करने की अधिकता है।
: चौथी में अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या फो प्रनिपूर्ण पोपध करना विशेष रूप में पढ़ जाता है।
५ पाँचदी में दिन को ब्रह्मचर्य का पालन करना और रात में परिमाण कार के मर्यादित रहना होता है, स्नान और रात्रिभोजन का मी श्याग होता है ।
पांचवीं प्रतिभा सक ब्रह्मचर्य का सर्वथा न्याम करना और पोथी तब म्नान और रात्रि-भोजन या त्याग आवश्यक नहीं माना गया।
६ छठी ब्रह्मचर्य प्रतिमा है, ७ वीं में सचित्त वस्तु के आहार का त्याग होता है, परन्तु आवश्यक कार्य में आरम्भ करने का त्याग नहीं होता ! आठवीं में स्वतः आरंभ करने का, ६ वी में दूसरी से आरंभ करवाने का त्याग होता है और १० वी में उसके लिय बनाये हुए भोजन का त्याग होता है।
यहां तक अथवा आठवी प्रतिमा तक की पालना तो गह-त्याग के विना ही विवेकपूर्वक
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१३)
धर्मसाधना करते रहने से हो सकती है । परंतु भगवान् के उपासकों का चरित्र देखते हुए बोर उनकी साधना पर विचार करते हुए लगता है कि वे विशेष साधक थे । सम्पनत्व युक्त अणुव्रत गुशव्रत और farari का पालन तो वे चौदह वर्ष तक करते ही रहते थे । पन्द्रहवें वर्ष में उनकी भावना बढ़ी, परंतु सर्वत्यागी निर्ग्रन्थ होने जितना सामर्थ्य अपने में नहीं पाया. फिर भी उन्हें त्याग तो विशेष करना हो
1 श्रमणोपासक के लिए प्रतिमा का आराधन करने के सिवाय विशेष साधना उनके सामने नहीं थी। इसलिये उन्होंने धरवार का त्याग करने के बाद ही प्रतिमा का पालन करना चालू किया और तपस्या भी चालू कर दी । दर्शन-प्रतिमा का पालन करते समय भी वे जन्य व्रतों के पालक, ब्रह्मचारी और रात्रि भोजन के त्यागी रहे थे । गृह त्याग कर उपाश्रय में ले जाने के पश्चात् भी वे चौधी प्रतिमा तक अपचारी या रात्रि - भौजी रहे हों, ऐसा मानने में नहीं आता । अतएव यही उचित प्रतीत होता है कि वे विशेष साधक में श्रमणभूत जाराधक थे ।
वैसे श्रमणोपासक नाम भी हो सकते हैं
1
जब आनन्द-कामदेवजी मोर अरहस्रक श्रमणोपासक का वर्णन आता है, तो कई लोग यह कह कर बचाव करते है कि. 'यह तो चौथं आर की बात है। आज न तो वैसा परीरसंहनन है और न मात्मसामभ्यं । इस युग में उनकी बराबरी नहीं हो सकती। अभी पांचवा जरा है। शरीर ढीलेखाले हैं, शक्ति कम है. परिस्थिति प्रतिकूल है। इसलिये समय के अनुसार चलना चाहिये । "
यह ठीक है कि यह पांचवां आरा है, संहनन संस्थान वैसे नहीं है और धन-सम्पत्ति भी उतनी नहीं है । परन्तु आत्म-सामध्यं से सम्म पुरुषायं उतना नहीं हो सके, ऐसा मानना उचित नहीं है । आज भी श्रमणोपासक उन जैसी साधना और तपस्या कर सकते हैं और उनसे अधिक भी। कई मासखमण, कोई दो मास, तीन मास तक की तपस्या करने वाले और संचारा कर के देह त्यागने वाले आज भी हैं ।
इस पंचमकाल में भी अपनी टेक पर मर मिटने वाले दृढ़ मनोबल है । राजनैतिक उद्देश्य से स्वयं मौत के मुंह में जाने वाले कान्तिकारी हुए । धेयंपूर्वक फांसी पर लटकने वाले हुए और जोतोजामती स्वयं अग्निकुण्ड में कूद कर जल भरने वाली वीरांगनाएं हुई। कोष, शाक या हताश हो कर आत्मधात करने घटनाएँ तो होती ही रहती है हमारे अपने ही युग में कई मनोवली बिना मोरोफार्म से बड़ा आपरेशन करवा लेते हैं। फिर धर्म के लिए ही साहस का अमाव कसे माना जाय ? क्या इस युग में एक सवावतारी नहीं हो सकते ?
'
में तो सोचता हूँ कि कोई निष्ठापूर्वक अपनी सामथ्यं के अनुसार सम्यक् साधना करें, तो उन श्रमणोपासको के समान साधना हो सकना असंभव नहीं है ।
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
इस सूत्र का मननपूर्वक स्वाध्याय करना विशेष लाभकारी होगा। इससे हमें मार्गदर्शन मिलेगा, साथ ही धर्म-आराधना में असमर होने की प्रेरणा मिलेगी।
उपासकवचाांग का यह प्रकाशन
बहुत दिनों से मेरी भावना प्रज्ञापना मूत्र का प्रकाशन करने की थी. परन्तु कोई अनुवाद करने वाला नहीं मिल रहा था। एक महाशय में अनुवाद करवाया था, परन्तु यह उपयुक्त नहीं लगा। फिर मैने यह काम प्रारम्भ किया, तो अन्य अधुरे पड़े कार्यों के समान यह कार्य भी रुक गया । में प्रथम-पद का एकेन्द्रिय जीवों का अधिकार भी पूर्ण नहीं कर सका । तत्पश्चात् यहाँ पं. म. श्री उदयचंदजी म. पधारे । मैने आपसे यह कार्य करने का निवेदन किया । आपने महर्ष स्वीकार किया और कार्य चालू कर दिया ! यदि यह कार्य सतत चालू रहता, तो अब तक कम से कम प्रथम भाग तो प्रकाशित हो ही जाता, परन्तु वे बिहार और व्याझ्यानादि में व्यस्त रहने के कारण प्रथम भाग जितना अंश भी नही बना सके।
प्रशापना के पश्चात् मेरा विचार जीवाजीवाभिगम मृत्र के प्रकाशन का भी था। परन्तु अब यह असम्भय लग रहा है । में यह भी चाहता था कि अपने माधर्मी-बन्धओं के उपयोग के लिए उपामकदशांग का प्रकाशन भी होना चाहिए । परन्तु करे कौन ?
गत कार्तिक शुक्लपक्ष में मैं दर्शनार्थ पाली-जोधपुर आदि गया था। यहाँ मृधर्मप्रचार मंडल के अग्रगण्य महानुभावों-धर्ममूर्ति श्रीमान् सेठ किसनलालजी सा. माल, धार्मिक-शिक्षा के प्रेमी एवं सक्रिय प्रसारक तत्त्वज्ञ श्रीमान् धींगडमलजी साहब, संयोजक श्री घीसूलालजी पिनलिया आदि मे विचार-विनिमय चलते मैने श्री धीमूलालजी पितलिया से कहा-" आप उपासकदशांग मूत्र का अनुवाद कीजिये । यह सूत्र सरल है। फिर भी में देख लूंगा और संघ से प्रकाशित हो जायगा।" श्री पिसलिगाजी ने स्वीकार कर लिया। फिर साधनों और गैनी के विषय में गत हुई । पत्र-व्यवहार भी होता रहा । परिणाम स्वरूप यह मूत्र प्रकाश में आया ।
श्री धीमूलालजी नवयुवक है, शिक्षित हैं, धर्मप्रिय है, जिज्ञासु हैं और तस्वस्तिक है। उनका धर्मात्साह देख कर प्रसन्नता होती है । सीधा-मादा साधनामय जीवन है । ' अंतकृत विवेचन' इनकी प्रथम कृति है । इसे देख कर ही मैंने श्री पितनियाजी मे उपामकरणांग सूत्र का अनुवाद करने का कहा था । परिणाम पाठकों के सामने है।
इसके प्रकाशन का ध्यय धर्ममूर्ति सुश्रावक श्रीमान सेठ किसनलालजी पृथ्वीराजजी गणेशमानजी
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
सा. मात्र प्रति १०००, श्रीमान् मेठ पीराजी छगनलालजी सा, झाब प्रति ११.० और मुनाविका श्रीमती कमलाबाई बोहरा धर्मपत्नी श्रीमान् सेठ Firvी सा. 'डा, निवासी ने प्रति .. का दिया है।
परिशिष्ट में भगवतीसूत्र स्थित तुंगिका नगरी के श्रापकों की भव्यता का वर्णन है। यह भी पाठकों के जानने योग्य ममझ कर मैने लिग्य कर परिशिष्ठ में जोड़ दिया है और श्री कामदेवजी की समाय भी जो भायोल्लास बढ़ाने वाली है, इसमें स्थान दिया है । आशा है कि पाठक इनसे लाभान्वित होंगे।
इसमें मुझे आनन्दजी के प्रतों और कर्मादानादि विषय में भी लिखना था, परन्तु उतना वकास नहीं होने के कारपा छोड़ दिया । । आशा है कि.मंत्रिय पाठक इसका मननपूर्वक म्वाध्याय कर भ० महावीर प्रभु के सन आदर्श मिणोपासकों की धर्मश्रद्धा, धर्मसाधना और धर्म में अट आग्या के गुणों को धारण बार अपनी आत्मा को उन्नत करेंगे । उनकी ऋद्धि-सम्पत्नि की ओर देखने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि बिनधमं प्राप्ति के पश्चात उन गहस्य माधकों ने पौद्गनिक सम्पत्ति और इन्द्रिय-भोग पर अंकुश लगा दिया था और १४ वर्ष पश्चात् तो मर्वथा त्याग कर के साधनामय जीवन व्यतीत किया था। इसीसे के एक भवावतारी हुए थे । हमारा ध्येय तो होना चाहियं सर्वत्यागी निमंन्थ बनने का, परन्तु उतनी शक्ति नहीं हो, नो वेंगविरत श्रमणोपासक हो कर अधिकाधिक धर्मसाधना अवश्य ही करें ।
___ सर्वप्रथम यह सावधानी तो रखनी ही चाहिये कि लौकिक प्रचारकों के दूषित प्रचार के प्रभाव से अपने को बचाये रखें। जब भी वैसे विचार मन में उदित हों, तो इस मूत्र में वर्णित आनन्द-कामदेवादि उपासकों के आदर्श का अवलम्बन ले कर लौकिक विचारों को नष्ट कर दें, तभी मुरक्षित रह कर मुक्ति के निकट हो सकेंगे।
___ मैलाना वंशाव शु. १ विक्रम सं. २०३४
रतनलाल गेधी वीर संवत् २५०३ दि. २६-४-७७
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषयानुक्रमणिका
क्रमांक विषय
पृष्ठ | ऋाक विषय प्रथम अध्ययन
अध्ययन १ आनन्द घमणोपासक
१ | १९ श्रमणोपासक चुल्लशतक २ वन प्रतिज्ञा
ठा अध्ययन ३ असिंचार
१४ | २० श्रमणोपासक कुण्डकौलिक ४ मानन्दजी का अभिग्रह
२५ | २१ नियतिवाद पर देव से चर्चा ५ आनन्दजी ने संथारा किया
३५ / २२ देव पराजित हो गया। ६ बानन्दजी को सबधिन्नान
३६ ] २३ कुण्डकीलिक नुम धन्य हो ७ गौतम स्वामी का रामागम
सप्तम अध्ययन ८ मा सत्य का भी प्रायश्चित्त होता है ? ४०
२४ श्रमणोपासक सकढालपुत्र द्वितीय अध्ययन
२५ सकडालपुत्र को देव-सन्देवा ९ श्रमणोपासक मामदेव
२६ भगवान् और मानाडालगुत्र के प्रश्नोत्तर ८८ १० देव उपसर्ग-पिशाच रूप
२७ सफडालपुत्र ममन्ना और श्रमणोपासक बना ९६ ११ " हस्ती रूप से घोर उपसर्ग २८ अग्निमित्रा श्रमणोपामिका हुई ९२ १२ " सर्प रूप
२९ सकडासपुत्र को पुनः प्राप्त करने १३ कामदेव तुम धन्य हो । इन्द्र से प्रांगित ५५
गांशालक आया १४ कामदेव का आदर्श
३. मकडालपुत्र ने गोणारलाफ का आदर नहीं तृतीय अध्ययन
दिया १५ चूलनीपिता श्रमणोपासक
| स्वार्थी गौशालक भगवान की प्रशंसा १६ ठूलनीपिता देव पर झपटता है
करता है १५ वन-भंग हुआ प्रायश्चित्त लो
| मै भगवान् से विवाद नहीं कर सकता ५९ चतुर्थ अध्ययन
३३ में तुम्हें धर्म के उद्देश्य से स्थान नहीं देता १०० १८ श्रमणोपासक सुरादेव
६. | ३४ देवोपसर्ग
१०१
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्रमांक विषय
मष्टम अध्ययन ३५ श्रमणोपासक महाशतक ३६ फामासक्त रेवती की नृशंस योजना ३७ रेवती ने सपलियों की हत्या कर दी २८ अमारियोपण : ३९ रेवती पति को मोहित करने गई ४० तू दुखी हो कर नरक में जाएगी। ४१ भगवान् गौतम स्वामी को प्रेजते हैं ४२ महाशतक तुम प्रायश्चित्त लो
पृष्ठ । कमरेक विषय
नवम अध्ययन [४३ श्रमणोपासफ नन्दिनीपिता १०६
बशम अध्ययन | ४४ श्रमणोपासक सालिहिपिता ७ ४५ उपसंहार
१२. १०८ | ४६ उपासकदशांग का संक्षेप में परिषय ।
परिशिष्ठ ११२ | १७ तुगिका के श्रमणोपासक
१२४ ११३ ' ४८ कामदेवजी की सहाय
१२८
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ णमोरयणं समणस भगवओ महावीरस ॥
गणधर महाराज श्रीसुधर्मस्वामी प्रणीत
श्री उपासकदशांग सूत्र
प्रथम अध्ययन
आनन्द श्रमणोपासक
तेणं काले ण ते णं समपूर्ण चंपा णाम णयरी होत्था, षण्णओ, पुण्यभद्दे धेइए, वण्णओ ॥१॥ ते णं काले णं ते णं समएणं अज्जमुहम्मे समोसरिए जाप जंतू पझुवासमाणे एवं बयासी-जड़ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तणं छट्टरस अंगस्स णायाधम्मकहाणं अयमढे पपणत्ते, सत्तमस्स णं भंते ! अंगरस उवासगदमाणं समजेणं जाव संपत्तेणं के अद्वे पण्णते ? एवं खलु जन् ! समणेणं जाव संपत्तणं सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं वस अजमयणा पणत्ता, तं जहा
आणंदे कामदेवे य, गाहण्इ 'चुलापिया । मुरादेवे चुल्लसया, गाहावइ कुंडकोलिए।
सहालपुत्त महासयए मंदिणीपिया सालिहीपिया ।। सू.२॥ जइ णं मत ! समणेणं जाव संपत्तेणं सत्तमरस अंगरस उवामगदसाणं
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री पासकदशांग पूत्र
दस अजमायणा पण्पत्ता, पड़मस्स णं मंते ! समणेणं जाष संपत्तेणं के अट्टे पपणते ?
भावार्थ-- उस काल उस समय में जब अमण-मगवान् महावीर स्वामी विवर रहे थे, चंपा नामक नगरी थी, पूर्णभद्र नामक उद्यान था। किसी समय मायं सुधर्म-स्वामी वहाँ पधारे । आर्य जम्बूस्वामी ने वन्दना-नमस्कार कर प्रश्न किया-'हे भगवन ! छठे अंग ज्ञाताधर्मकयांग के भाव मैने आप से सुने । हे भगवन् ! सातवें अंग उपासकदशांग में श्रमण-भगवान महावीर स्वामी ने ज्या माव फरम्गए हैं ?' सुधर्मा स्वामी उत्तर देते हैं'हे जंबू ! श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने उपासकदशांग के इस अध्ययन फरमाए हैं यथा--१ मानंद २ कामदेव ३ चूलणीपिता ४ सुरादेव ५ चुल्लशतक ६ कुणकोलिक ७ सकतालपुन ८ महातक ९ मंघिनौपिता और १० सालिहोपिता ।' अंबूस्वामी ने पूछा'हे भगवन् ! उपासकदशांग के प्रथम अध्ययन में भगवान क्या माव फरमाए हैं ?'
एवं खलु जंबू ! ते णं काले णं ते णं समपणं पाणियगामे णाम णयर होत्या, घण्णाओ, तस्स णं वाणियगामस्स णयरस्स पहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए इ. पलासा णाम चेहए, लत्थ णं वाणियगामे परे जियमत्तु राया होत्या, वण्णओ । तत्थ णं वाणियगामे आणंदे णाम गाहावह परिषसई अड्डे जाव अपरिभ्रए। तरस णं आणंदस्स गाहावइस्स चत्तारि हिरपणकोडीओ निहाणपउत्ताओ पत्तारि हिरणकोडीओ वुनिपउत्ताओ चत्तारि हिरणकोडीओ पवित्थरपउत्ताओ घसारि वया दसगोसाहरिसरणं चाणं होत्था । से णं आणंदे गाहावा पहणं राइसर जाव सत्यवाहाणं बहसु कज्जेस य कारणे सु य मंतेमु य कुटुंबे सु य गुझंसु य रहस्से स य णिच्छएम य ववहारेसु धापुच्छणिज्जे, पडिपुच्छणिज्जे, मयस्सवि पणं कुर्बुयस्म मेदी पमाणं आहारे आलंयणं चक्ख मेढीभू" जाव सञ्चालवाहावए यावि होत्था । तरस णं आणंदस्म गाहावड़स्म सिवाणंदा णाम भारिया होत्या, अहीण जाव सुरूवा आणंदम गाहावइस्स इट्टा, आणंदेणं माहावइणा मद्धिं अणुरत्ता अविरत्ता इट्टा सच जाव पंचविहे माणुस्सए कामभोग पच्चणुभवमाणी विहरह।
भावार्थ--प्रथम अध्ययन प्रारम्भ करते हुए सुधास्वामी फरमाते है--'हे जम्बू ! उस समय 'वाणिज्यग्राम' नामक नगर था । यतिपलाक नामक उद्यान था। वह जितशत्रु
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
पामग्य अमणोपासक
राजा राज्य करता था। उस नगर में 'आनन्द' नामक सेठ रहता था, जो बहुत धनवान पावत् अपराभूत था । आनन्द के पास चार करोड़ का धन भण्डार में था, चार करोड़ व्यापार में और चार करोड़ की घर-बिसरी थी। चालीस हजार गायों का पशुधन था। बह बहुत-से राज, राजेश्वर, सेठ, सेनापति आदि द्वारा अमेक कार्यों में पूछा जाता था, उससे परामर्श (सलाह) लिया जाता था। अपने कुटुम्ब के लिए भी वह आधारभूत था तथा रामेश्वर मावि दूसरों के लिए भी आधारभूत था एवं सभी कार्य करने वाला था। उसकी पत्नी का नाम 'शिवानन्या' था जो रूपगुण सम्पन्न यो।
विवेचन- विपुल ऋखि समृद्धि वाले को 'गायापति' कहा जाता है । 'अढे नाप अपरिभूप' म 'बाय' पाब्द से इस पाठ का ग्रहण हुमा है--
'अब पिले बिते विछिपणविउलमवणसपणाप्तणणाणवाहणे बहुधणजायस्वरयए आओगपयोग. संपवते विडियपरमत्तपाणे बहवासीदासगीमहिसगोलगप्पभूए मानणस अपरिमूए ।'
(भगवती सूष श. २ ३. ५) अर्प-'पानन्द धनधान्यादि से परिपूर्ण, तेजस्वी, विख्यात, विपुल भवन, शयन, आसन, यान काले, स्वर्ण-रजत आदि प्रचुर धन वाले पोर प्रथलाम के लिए धनादि देने वाले थे। सब के द्वारा भोजन किए जाने पर भी प्रचुर आहार-पानी बचता था। गाय-भैस आदि दुधार जानवर तया नौकर-चाकरों की प्रचुरता थी । बहुत-से लोग मिल कर भी उनका पराभव नहीं कर सकते थे।
'चत्तारि हिरणकोजीओ'--उस समय की प्रचलित स्वर्णमुद्रामों से है । महार में सुरक्षित निधि के रूप में पार करोड़ स्वर्ण मुद्राएं अथवा उत्तने मूल्य के हीरे-जवाहरात आदि रहा करते थे। चार करोड़ स्वर्ण मुद्राओं के मूल्य का धन व्यापार में लगा हुआ था। चार करोड़ का मवशेष परिग्रह पर-बितरी के रूप में फैला हुमा पा।
सरसणं वाणिपगामस्म पहिया उत्तरपुरछिमे दिसीभाए एत्थ कोल्साए णाम सण्णिवेसे होत्था, रिस्थिमिय जाय पासाइए दरिसणिज्जे अभिस्वे पढिरूवे । सत्य णं कोल्लाए सपिणवेसे आणपस्स गाहावइस्स पहुए मित्तणाइणियगसपणसंबंधिपरिजणे परिवसइ, अढे जाप अपरिभूए।
अर्थ- उस वाणिज्यग्राम नगर के ईशान कोण में 'कोल्लाक' नामक उपनगर
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री मासकदाग सूत्र
था। यहां आनन्द गायापति के परिवार पाले तमा सर्ग:सम्बन्धी रहा करते थे, जो धनाढ्य यावत् अपरिभूत थे।
ते णं काले णं ते णं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव समोसरिए परिमा णिग्गया, कोणिए राया जाहा तहा जियसत्त णिग्गच्छइ, णिग्गम्छिता जाव पज्जुपासइ । तए णं से आणंदे गाहावइ इमीसे कहाए लढे समाणे एवं खलु समणे जाव विहरइ, तं महाफलं जाप गच्छामि णं जाव पज्जुवासामि एवं संपेहेहसंपेहिसा पहाए सुद्धप्पावेसाइं जाव अप्पमहग्याभरणालं कियसरीरे सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमह पडिणिक्वमित्ता सकोरंटमल्लदामेणं छत्तणं धरिज्जमाणेणं मणुस्स घरगुरा परिक्खित्ते पापविहारचारेण बाणियगाम गाय माहोणं शिरगच्छा णिग्गच्छित्ता जेषामेव दुइपलासग चेहए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छड उवागच्छित्ता तिक्खुप्तो आयाहिण पयाहिणं फरह करिता चंदइ नमंसद जाव पज्जुवासइ ॥३॥
अर्थ- उस काल उस समय में धमण-मगवान महावीर स्वामी वाणिज्यप्राम नगर के धुतिपलाशक उद्यान में पधारे। कोणिक की मासि जितशत्रु राजा भी पर्युपासना करने लगा। परिषद आई । मानन्द गाथापति को भगवान के पधारने का समाचार मिला तो अपने मित्र-बुंद के साथ भगवान् की सेवा में उपस्थित हमा तथा बन्दनानमस्कार कर पर्युपासना करने लगा।
विषेचन-'तं महाफलं जाव गच्छामि' में निम्न भूषांण का ग्रहण हुआ है...' महाफ मल मो देवाणपिया ! तहाकवाणं अरिहंतागं भगवंताणं णामगोयस्सवि सवल्याए किमंग पुण अभिगमण-बणणमसणं-परिपुन्छण पज्जयासणयाए ? एगस्स वि आरियस्स धम्मियस्स सुक्यणस्स सपणयाए, किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए ?'
पर्ष-हो देवानप्रिय ! तयारूप के मरिहंत भगवंतों के महावीर पादि)नाम और (काश्यप मादि) गौत्र मुनने का भी महान् फल है, फिर उनकी सेवा में जाने, वंदना-नमस्कार करने, मुख-साता पूछने एवं पर्युपासना करने के फल का तो कहना ही क्या ? उनसे एक धार्मिक वचन सुनने का भी महान्-महान् लाभ है, फिर प्रवचन सुन कर विपुल श्रुत प्राप्त करने का तो कहना ही क्या ?
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानन्द अमणोपासक
मानन्द गाथााति ने स्नान किया मोर सभा में जाने पोग्य वस्त्राभूषण धारण किए । यह लौकिक-व्यवहार है। स्तान का धर्म के साप कोई सम्बन्ध नहीं है।
'सकोरंटमल्लयामेणं खणं' का अर्थ-'कोरंट वृक्ष के फूलों की माला को छत्र पर धारण किया' समझना चाहिए । कई जगह 'कोरंट वृक्ष के फूलों का छत्र धारण किया'-अर्थ भी देखा जाता है, पर शब्दों का अर्थ इस प्रकार है-कोरंट यक्ष की मासामों के समूह सहित छत्र धारण किया। 'स' शब्द पहा सहित का द्योतक है ।
_ 'आमाहिणं पयाहिणं' का अर्थ कोई 'भगवान् के चारों ओर प्रदक्षिणा' करते हैं, पर स्थानकवासी भाम्नाय 'हाथ जोड़ कर अपने बंजलिपुट से सिरमा आवर्तन' इस अर्थ को ठीक मानती है । वैसे भी भगवान् की परिक्रमा का कोई कारण ध्यान में नहीं भाता है।
'मन्मं मोणं' का अर्थ अनेक स्थानों पर बीचोबीच, 'मध्यभाग से देखा जाता है. पर वह उचित नहीं है । 'म मज्झणं' का वहश्रुत-सम्मत अर्ष तो है-'राजमार्ग से गमन' । गली-चों से जाना मज्झं मझणं नहीं है।'
तप णं समणे भगवं महावीर आणपमानावरस सोस य महह महालियाए जाव धम्मकहा, परिसा पडिगया, राया य गए ॥ सू. ३॥
अर्थ- प्रगवान् महावीर स्वामी ने भानंद पायापति तथा विशाल परिषद् को धर्मकथा कही । परिषद और राजा धर्म सुन कर चले गए।
विवेचन- धर्मदेशना का विस्तृत वर्णम उववाई सूत्र में है। धर्म सुनने का सब से बड़ा लाभ मर्वपिरति अंगीकार करना है । संसार से विमुख कर मोक्षामिमल करने वाले व्यायान ही 'धर्मकथा' है । श्रावक-वत वही स्वीकार करता है जो संयम धारण न कर सके 1 जिसकी जिनवाणी पर श्रद्धा प्रतीति एवं कचि नहीं है, वह न तो संयमी-जीवन के योग्य है, न धावक-यतों के।
नए णं से आणंदे गाहावा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म मोच्चा णिसम्म हट्टतुह जाय एवं वयासी-"सदहामि पं भंते ! णिग्गयं पावपणं, पत्तियामि णं भंते ! णिग्गंथं पाषयण, रोगमि गं भंते ! णिग्गंथं पाषषणं एवमेयं भने ! नहमेयं भंते, अषितहमेयं भंते ! इच्छियौयं भंते ! पहिच्छियमेयं भंते ! इच्छियपहिच्थ्यिमेयं मंते ! से जहेयं तुन्भे वयह त्ति कटु । जहा णं देवाणु
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री उपासकदयांग सूत्र
+
+
+
++
+
+
प्पियाणं अंलिए बहवे राईसरतलबरमाईवियकोटुंबियसेडिसेगावहमस्थवाहप्पमिडओ मुगहे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पपइया णो खलु अहं तहा संचा. एमि मुण्डे जाव पब्बइत्तए। अहं णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुब्वइयं सत्तसिक्खावइयं धुवालसविहं गिहिधम्म पडिजिमस्सामि । अहासुई नेवाणुप्पिया ! मा पडिचंध करेह ॥ ४॥
अर्थ-आनन्द धर्मोपदेश सुन कर हृष्ट-तुष्ट हए । उनका चित्त आनन्दित हमा। वे वंदना-नमस्कार कर कहने लगे-'हे भगवन् ! मैं निय-प्रवचन पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि करता हैं । आपने जो भाव फरमाए, वे वास्तव में से ही हैं, उनमें अन्यथा कुछ भी नहीं है । अतः पह निग्रंय-प्रवचन मुझे रचा है, आपका कथन ययार्य है। आपके समीप बहुत-से राजा, सेठ, सेनापति आदि संयम धारण करते हैं, परन्तु मेरी सामर्थ्य नहीं कि गृहस्यावस्था छोड़ कर मुनि बन सकूँ। मैं तो आपको साक्षी से पांच अणुव्रत और सात शिक्षावत रूप श्रावक के बारह व्रत धारण करूंगा। भगवान् ने फरमाया--" हे देवान. प्रिय 1 जैसे तुम्हें सुख हो वैसा करो, परन्तु धर्म-कार्य में प्रमाव मत करो।"
तएणं से आणंदे गाहावाइ समणस्स भगवओमहावीरस्स अंतिए तप्पदमपाए पूलगं पाणाइवाय पच्चक्खाइ जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं न फरेमि न कारवेमि मणसा पयसा कायसा।
अर्य--- आनन्दजी भावक के प्रथम व्रत में स्थूल प्राणासिपात का प्रत्याख्यान करते हैं--"में यावज्जीवन मन, वचन, काया से स्थल प्राणातिपात का सेवन नहीं करूंगा और न करपाउँगा।
विवेचन- संसारी बीवों के मुख्य दो भेद है-त्रा और स्थावर । स्थूल प्राणातिपात विरम में श्रावक निरपराधी नम जोत्रों को जान-बुझ कर संकल्पपूर्वक हिमा का त्याग करता है।
... तयाणंतरं च ण धूलगं मुसावार्य पच्चक्खाइ जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं न फरेमि न कारवेमि मणसा वयसा कायसा।
अर्थ-- श्रावक के दूसरे व्रत में आनन्यजी स्थूल मृषावाद का प्रत्याख्यान करते है-'मैं वो करण और तीनों योग से स्थूल मायाव का सेवन नहीं करूंगा और न कराउँगा,
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रानन्व श्रमणोपासक
मन वचन और काया से।'
विवेचन-- मावश्यक सूत्र में - कन्यालोक ( वर-कव्या आदि के सम्बन्ध में मिच्या भाषण ) गवालीक (गाय प्रादि पशुओं के सम्बन्ध में मिथ्या भाषण ), भूमालिक ( भूमि के सम्बन्ध में मलत्य भाषण ), न्यासापहार ( धरोहर दबाने के लिए झूठ बोलना ) एवं कूटसाक्ष्य (झूठी गवाही) ये पाँच मुरूप भूषावाद बताए गए हैं। श्रावक इस व्रत में इन बड़े झूटों का प्रत्याख्यान करता है ।
तयानंतरं चणं धूलगं अदिष्णादाणं पञ्चखाइ जावज्जीवा? दुबि हूं तिविण न करेमि न कारवैमि मणसा वयसा कापसा ।
अर्थ -- तत्पश्चात् आनन्दजी श्रावक के तीसरे व्रत में स्थूल अदत्तादान का प्रत्याख्यान करते हैं-' में जीवन पर्यंत दो करण और तीन योग से स्थूल अवसावान का सेवन नहीं करूँगा न करवाउंगा, मन वचन और काया से ।'
विवेचन – ' सेंध लगा कर, गाँठ खोल कर बन्द ताले को कुंची द्वारा खोल कर (भ्रयवा तोड़कर) और यह वस्तु अमुक को है' जानकर भी सोयाक सूत्र में बड़ी चोरी ' माना गया है।
तयाणंतरं च णं सवारसंनोसिए परिमाणं करेह, णण्णत्थ एक्काप सिवाणंदाग भारियाए अब सेसं सत्र मेहुणविहि पच्चक्खामि मणला वयसा कापसा ।
अर्थ- चौथे व्रत में आनन्वजी 'स्ववार- संतोष परिमाण' करते हैं- -" में अपनी भार्या सिवाना के अतिरिक्त शेष सभी के साथ मैथुन-विधि का मन वचन और काया से प्रत्याख्यान करता हूँ ।"
त्यानंतरं
णं इच्छाविहिपरिमाणं करेमागे हिरण्ण-सुवण्णविहिपरिमाणं करेs, ruणत्थ चउहि हिरण्णक्रोडीह निहाणपउत्ताहि चहि बुढिपत्ताहि उहि पवित्रपउत्ताहि अवसे सर्व हिरण्ण- सुवण्णविहि पच्चखामि ३ । तयातरं चणं च उत्पद्यविदिपरिमाणं करेंt, route चउहि हदसमोसाहरिगुणं वणं अवसेस सयं उप्पयविहि पच्चक्खामि ३ ।
अर्थ - पाँचवें परिग्रह-परिमाण व्रत में आनन्दनो हिरण्य. स्वर्ण-विधि का परिमाण
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री उपासकदाग सूत्र १
करते हैं-'चार करोड़ स्वर्णमुद्राएँ मजार में, चार करोड़ व्यापार में, चार करोड़ की घर-बिखरी । इसके अतिरिक्त शेष हिरण्य-स्वर्ण-विधि का प्रत्याख्यान करता हूँ।' इसके बाद चतुष्पद-विधि का परिमाण करते है-'वस हजार गार्यों का एक बज, ऐसे चार बज के अतिरिक्त शेष पशु-धन का प्रत्याख्यान करता हूँ।
तयाणतर घणं खेत्तपत्थुविहिपरिमाणं करेह, णपणत्य पंचहि हलसहि नियत्तणसइएणं हलेणं, अबसेसं सब्बखेतवत्थुधिहि पच्चक्खामि ३ ।
सपाणतरं च णं सगडविहिपरिमाणं करेइ. णपणत्य पंचहि मगठसहि दिसा. यत्तिपहिं, पंचहि सगइसराह संवाहणिएहिं अवसेस सञ्चं सगइवि पध्यक्खामि ३१
तयाणतरं च ण वाठणविहिंपरिमाणं करेइ, पणत्य चउर्षि वाहणा दिमायतिपहिं च वाहणेहि संवाहणिपाहें, अवलेस सर्व वाहणविहि पच्चक्खामि ।
अर्थ-तवनन्तर आनन्दजी क्षेत्र-वास्तु विधि का परिमाण करते हैं--'सो निवर्तन : का एक हल, ऐसे पांच सौ हल उपरान्त अवशेष सभी क्षेत्र-वस्तु विधि का प्रत्याख्यान करता हूँ।' तदनन्तर शफट-विधि का परिमाण करते हैं--पांच सौ छकई {गाड़े। यात्रार्थ गमना.
* थी धागोलाम मातीमाल शाह अहमदाबाद दाग प्रकाशिन उपागकदशा के अर्थ की प्रति हमारे गाम है। सं. १८४ जे के आधार से नियतण'-निवत्तंन का परिमाण । शास्त्रीद्वारा पूज्य श्री अमानक रिमोम. ने अपने उपासकदशा प...पर पावटिप्पणी में एक संत श्लोमा व उसका अर्थ यस प्रकार दिया है
__ " दगाकर भवन बंमा, वंशवीमें नियतन।
निवर्तम शन मान, हनं क्षेत्र समने Jई" " अति-दन हाथ का एक धाग, वीम बाँस का एक निवर्तन, मी नियतन का एफ इल, गला सीनावनों में है। अब हम पात्र मी हल का नाप निकाल सकते है.. दम हान एक बाम । बोम बास-दो मौ हाय-फ निवतन । मो निवतंग-२२०. बांस-२०.०० हार-एक हल ।
चार हाचक धनुष, दो हजार घनुष-एक कोम, यानि ... हाथ का एक काम, नो बोम हमार हाथ की लम्बाई दाई कोस हुई । एक शाम में काई कोस मी गांच मो हाल में साई बारह गो काम जर्मान हुई। उपरोका श्लोक का शुद्ध रूप यह है-दणफर भवन चंग, विराय मो भिवन्तम् । नियतन शनानम्, हलवे म्मन उधः ।
['निवनन ' शव का अर्प ' मम्क्रन शर्थ कौतुम' पृ... में इस प्रकार दिया है-" मी ग पमि अथवा २० गाम लम्बी मसह "-डोगी]
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानव श्रमणीपरसक प्रत-प्रतिज्ञा
गमन के लिए तथा पांच सौ .छकई अण-काष्ठ-धान्यादि ढोने के लिए। अवशेष सब शकट-विधि का प्रत्याख्यान करता है। तदनन्तर जलयान (जहाज) विधि का परिमाण करते हैं-'में चार जहाज यात्रा के लिए तथा चार जहाज माल ढोने के लिए रख कर अवशेष यानविधि का प्रत्याख्यान करता हूँ।'
तयाणंतरं च णं उवभोगपरिभोगविहिं पच्चक्खायमाणे उल्लणियाधिहि. परिमाणं करेड़, णपणत्थ पगाए गंधकासाईप, अवसेसं सवं उल्लणियाविहिं पच्चक्खामि ।
अर्थ -सातवें व्रत में सर्वप्रथम आननयनिका विधि का परिमाण करते हैं-सुचित काषाविक वस्त्र के सिवाय अवशष आननिकाविधि का प्रत्यारपान करता है।
विवेचन - जल मे भीगे शरीर को पोंछने के काम में भाने वाले मंगोछे आदि की मर्यादा 'उल्लगियायिहि परिमाण' कहा जाता है ।
नगाणंतरं घणं दंतवणविहिपरिमाणं करेइ, णण्णस्थ एगेणं अल्ललट्ठीमहुगणं अवसेसं पंतवणविहि पच्चक्खामि ३ ।
अर्थ-वातुन विधि का परिमाण करते हैं-में मावलष्ठिमधुक के सिवाय शेष बातुन विधि का प्रत्याख्या करता है।
विवेचन-पा---गीली, लष्टि--लकड़ी, मधुक- मुलेठी या जेठी । हरी मुलेठी की लकड़ी के सिवाय शा वस्तुओं से दातुन करने का प्रानंदजो ने त्याग किया।
नयाणंतरं च णं फलविहिपरिमाणं करेह, अण्णस्य पगेणं खीरामलपणं, अब लेसं फलविहि पञ्चक्खामि |
अर्थ-फलविधि का परिमाण करते हैं-क्षीर-आमलक के अतिरिक्त शेष फल विधि का प्रत्याख्यान करता हूँ।
विवेचन - दूध के समान मीठे भावलों को 'सौरामलक' कहा जाता है। नपाणंतरचणं अन् गणविहिपरिमाणं करेह, णण्णस्थ सयपागसहस्सपागेहि
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री उपासकदशीप सूत्र-१
तेल्लेहि अवसेसं सव्वं अन्भंगणविहिं पच्चक्खामि ३ । नयाणंसरं च णं उवणविहिपरिमाणं करेइ, गण्णत्व एगेणं सुरहिणा गंधपणं, अक्सेस उवणबिहिं पच्च. क्खामि ३।
अप-तबन्तर आभ्यंगन विधि का परिमाण करते हैं-'मैं शतपाक-सहस्रपाक सेल के सिवाय अवशेष अभ्यंगन विधि का प्रत्याख्यान करता हूँ।
तवन्तर उद्वर्तन विधि का परिमाण करते हैं-मैं गंधाष्टक चूर्ण के सिवाय अवशेष उद्वर्तन विधि का त्याग करता हूँ।
विवेचन-अभ्यंगन का अर्थ है 'मालिश, मसपाक के तीन अर्थ उपलब्ध होते है-सौ पार जो पन्य औषधियों सहित पकाया गया हो २ सो वस्तुएं जिनमें मिलो हो । जिसके निर्माण में सौ स्वर्ण-मुद्राएं व्यय की गई हों । शरीर के मल को दूर कर निर्मल बनाने वाले द्रव्य पीठो आदि जिनमें सेलादि स्निग्ध पदार्थों का मिश्रण होता है, उसे 'उद्वर्तन विधि' कहते हैं। आठ सुगंधित वस्तुओं को मिला कर बनाई गई वस्तु 'सुगन्धित गन्वाष्टक' कही जाती।
तपाणंतरं च ण मज्जणविहिपरिमाणं फरेइ, गण्णन्य अट्टाहं उटिएई उदगस्स घडहि अवसेसं मज्जणधिहि पच्चक्खामि ३ ।
अयं-इसके बाव स्नानविधि का परिमाण करते हैं--'मैं प्रमाणोपेत भाठ घड़ों से अधिक जल का स्नान में प्रयोग नहीं करूंगा।
विशेधन- उट्टिएहि उवगस्त घडएहि-ऊंट के चमड़े से बनी कृपी जिसमें घी तेल भरा जाता था, वैसे माफार का मिट्टी का घड़ा तथा जिसका माप उचित सरकार के घर में समाए जितने जलप्रमाण होता था, ऐसे आठ घड़े प्रमाण जल से अधिक का पानन्दजी ने त्याग कर दिया । सामान्य स्नान में तो वे इमसे भी कम जल का प्रयोग करते थे।
तयाणंतरं ष णं चत्वविहिपरिमाणं करेग, गपणत्य एगेण खोमजुयलेणं अषसेसं पत्थविहिं पच्चक्खामि ।
अर्थ-~-आनन्दजी वस्त्रविधि का परिमाण करते है-'सूती कपड़े का जोड़ाभोपयगल' रखकर शेष पस्त्रविधि का प्रत्याख्यान करना।
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानाम्दामगोपासक-पत-प्रतिज्ञा
तयाणतरं च णं विलेखणविहिपरिमाणं करेइ, पापणत्य अगरुकुंकुमचंदणमाइहि अबसेसं विलेयणधिहि पच्चक्खामि ३ ।
मर्थ-आनन्धमी पिलेपन विधि का परिमाण करते हैं अगर, कुंकुम मोर बन्दन आवि के अतिरिक्त शेष विलेपन विधि का प्रत्याख्यान करता हूँ।
तयाणंतरं च णं पुष्फविहिपरिमाणं करेइ, गण्णत्व एगेणं सुद्धपउमेण मालाकुसुमदामेणं वा, अवलेस पुष्फविदि एच्चक्खामि ३।
मर्थ-तवन्सर वे पुष्पविधि का परिमाण करते है --कमल छ मालती के फूलों के सिवाय शेष फूलों का त्याग करता हूँ।
नयागंतरं च णं आमरणविहिपरिमाणं करेइ, पण्णय महकपणेज्जएहि णाममुदाप य, अव सेस आभरणविहिं पथक्खामि ३ ।
अर्थ--भामरणविधि का परिमाण करते है--में कानों के कुण्डल एवं नामांकित मुनिका (अंगूठो) के अतिरिग्त शेष आभूषण पहनने का त्याग करता हूँ।
तयाणतरं च णं धूवणविहिपरिमाणं करेड, णण्णस्थ अगरुतुरुक्कधूषमाइपहि, अव सेसं धूवणविहिं पच्चक्खामि ३ ।
अर्थ--वे धूपन विधि का परिमाण करते हैं--प्रगक, तुमक (संभवतः लोबान) भाषि के सिवाय शेष धूपन विधि का प्रत्यारपान करता हूँ।
तयाणतरं च णं भोयणविहिपरिमाणं करेमाणे
(अ) पेज्जविहिपरिमाणं करेइ, गण्णत्व एगाए कहपज्जाए भबसेसं पेजविहि पच्चक्खामि ३।
(आ) तयाणंतरं च णं भक्खणविहिपरिमाणं करेइ, णण्णत्व एगेहि पपपुणेहि खंडखजहि था, अक्सेसं भक्षणविहिं पच्चक्लामि ३ ।
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री उपासकदणांग सूत्र १
() नयाणतरं च णं ओदणविहिपरिमाणं करे, णण्णत्य कलमसालिओवणेणं, अवसेसं ओदणविहि पच्चक्खामि।
(ई) नयाणतरं च णं सूवविहिपरिमाणं करेइ, णण्णस्य कलायसूत्रेण वा मुग्गमाससूवेण वा, अक्सेसं सूचविहि पञ्चपखामि ३ ।
(उ) तयाणतरं च णं घयविहिपरिमाणं करेइ, णपणत्थ मारहपणं गोधय. मंडेणं, अवलेसं घयविपि पच्चक्यामि ।।
(ऊ) तयाणंसरं च णं सागविहिपरिमाण करेइ, णण्णस्थ वत्थुसाएण था, सुत्थियसापण वा मंडुक्कियमारण पा, अब सेसं सागविहि पच्चक्खामि ३।।
(ए) तयाणसरं च ममारविहिपरिमाणं करेइ, णपणत्य एगेणं पालंगा. माहरगण अबसेसं माहरयविहिंपच्चक्खामि ३।
(गे) तयाणंतरं ष णं जेमणविष्ट्रिपरिमाणं करेग, णण्णस्थ सेहंपदालियं. बेहि, अवसेस जेमणविहि पच्चस्वामि ३ ।
(ओ) तयाणंतरं च ण पाणियचिहिपरिमाणं करेह, णण्णस्थ एगेणं अंतलिक्खोदएण, अवसेस पाणियविहि पच्चक्खामि ३ ।
(ओ) नपाणसर च ण मुहवासविहिपरिमाणं करेइ, णपणत्य पंचसोगंधिएण संधोलेणं, अब सेमं मुहवासविहि पच्चक्खामि ३ ।
अर्थ--इसके बाद आनन्दजी मोजनविधि का परिमाण करते हए---
(अपेयधिधि का परिमाण करते हैं--में उबाले हए मंग का अस (पानी) और घी में तले चावलों के पेय के अतिरिक्त शेष पेय विधि का प्रत्याख्यान करता हैं।
(आ) भक्षणविधि का परिमाण करते हैं-मैं घेवर व मीठे खाजों के अतिरिक्त शेष (मिष्ठान्न पक्षणविधि का प्रत्याख्यान करता है।
(इ) ओदविधि का परिमाण करते है--में कलमशालि (चामल विशेष के अतिरिक्त शेष ओवणविधि का प्रत्यासान करता हूं।
(६)सुपविधि का परिमाण करते हैं--में बने, मंग और उाद की दाल के सिवाय घोष चिधि का प्रत्याख्यान करता हूँ।
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
आनन्द श्रमणोपासक-- व्रत-प्रतिज्ञा
(उ) घृतविधि का परिमाण करते हैं--'शारदीय गो-घृतप्तार' के अतिरिक्त शेष घतविधि का प्रत्याख्यान करता है।
(क) साग-विधि का परिमाण करते हैं-बयुआ, सौवस्तिक (चंवलाई) और मंडुको { सागविशेष ) के अतिरिक्त शेष सागविधि का प्रत्याख्यान करता है।
(ए) माधुरकविधि का परिमाण करते हैं- 'पालंका' के अतिरिक्त शेष माधुरकविधि का प्रत्याख्यान करता हूँ।
(ऐ) जीमणविधि का परिमाण करते हैं घोलबड़े व दाल के बड़ों के अतिरिक्त शेष मणविधि का प्रत्याख्यान करता हूँ।
(मओ) पानी का परिमाण करते हैं..-'आकाश से गिरे पानी के अतिरिक्त शेष पानी का त्याग करता हूँ।
औ) मुखवासविधि का परिमाण करते हैं- मैं (इलायची, लोंग, कपूर, कंकोल और जायफल ) पांवों सौगंधिक तंबोल के अतिरिक्त शेष मुलवास विधि का प्रत्याश्यान करता हूँ।
विवेचन-भोजनविधि के परिमाण में दस बोलों की मर्यादा करते हैं । 'सारदए' के दो अर्थ मिलते हैं- १ शरद ऋतु में निष्पन्न २ प्रातः उषाकाल में बनाया हुप्रा । गोषयमहेणं का मर्य है स्वस्य उत्तम नस्ल की गायों के दही से शुद्धतापूर्वक बनाया हुपा धी । 'पालंका' के लिए इतनी ही जानकारी मिलती है कि यह महाराष्ट्र देश का प्रसिद्ध मीठा फल है ।' आकाश से बरसे पानी को सम्भवत: बड़े-बड़े टॉकों में झल लिया जाता था। जमीन पर नहीं पड़ने के कारण उसे 'प्रतरिमोदक' कहा गया है।
तयाणतरं च ण चउध्विह अणट्ठादई पञ्चवखाइ-तं जहा- अबज्माणा. यरियं, पमायायरियं हिसप्पयाण पावकम्मोवासे ३ स. ॥५॥
अर्थ-तदन्तर आठवें व्रत में चार प्रकार के अनर्यदण्ड का प्रत्याख्यान करते हैं१ अपध्यानाचारण-आतं-रोत आदि बुरे ध्यान का आचरण नहीं करूंगा। २ प्रमावावरण-प्रमाद का सेवन नहीं करूंगा। ३ हिनप्रदान-हिसा में प्रयुक्त होने वाले उपकरण प्रदान नहीं करूंगा।
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री उपासकवा
४ पापकर्मोपदेश--पाप-कर्म का उपवेश नहीं दूंगा।
विवेचन – भिक्षाप्रतों के लिए धावक का यह मनोरय रहता है कि 'ऐसी मेरी श्रद्धा प्रापणा तो है, फरसना करूं तन पद्ध हो।' सामायिक कभी कम बने, ज्यादा बने, नहीं बने, चौदह नियम आदि कभी चितारे, कभी याद नहीं रहे, दया-पोषध का अवसर कभी हो, कभी न हो तथा अनिधिसंविभाग व्रत की स्पांना मी साधु-साध्वी का योग मिलने पर संभव है। अतः संभवत: आनन्दजो के चारों शिक्षा-व्रतों का उल्लेख यहाँ नहीं हो पाया हो । वैसे तो उन्होंने अमुक प्रकार से शिक्षा-व्रत भी पण शिए ही होंगें, तभी उन्हें 'बारह व्रतधारी' कहा गया है।
बानन्दजी की व्रत-प्रतिज्ञाओं के बाद भगवान् अम्हें प्रतों के मतिचार बतलाते है।
अतिचार
इस खस्तु आणदाइ ! समणे भगषं महावीरे आणंदं समणोवासगं एवं बयासी एवं खलु आणंदा! समणोवासपणं अभिगयजीचाजीवेणं जाव अणइक्कमणिज्जेणं सम्मत्तस्स पंच अश्यारा पेयाला जाणियब्वा ण समायरिपब्वा, तं जहा-संका, कंखा, बिगिच्छा, परपासंहपसमा, परपासंहसंघवे ।
अर्थ--आनन्द श्रमणोपासक को सम्बोधित करते हुए श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने फरमाया-“हे आनन्द | नीव-अजीव आदि नव तत्त्व के प्राता एवं देव-दानवादि से मी समकित-यत नहीं किए जा सकने योग्य श्रमणोपासक को सम्पवस्व के प्रधान पांच अतिचार जानने योग्य तो है, परंतु आचरण करने योग्य नहीं हैं। यया-१शंका २कांक्षा ३ विचिकित्सा ४ परपासं प्रशंसा ५ परपाप्त संस्तव ।
विवेचन-अतिचार-प्रभिधान राजेन्द्र भाग १ पृ. ८ पर अतिचार थन्द के कुछ प्रय इस प्रकार दिये हैं--प्रण किए हुए प्रत का प्रतिकमण, उल्लंघन, चारित्र में स्खलना, व्रत में देश-मंग के हेतु प्रात्मा के अशुभ परिणाम विशेष ।
१ शंका---जिनेन्द्र-मपित निग्रंथ-प्रवचन के विषय में संशय-दक्षित रखना'गह पेमा है या वैसा 'प्रादि ।
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
भ्रानन्द श्रमणोपासक -- प्रतिचार
१५
२ का कांक्षा -- मिध्यात्वमोहनीय के उदय से अन्य दर्शनों को ग्रहण करने की इच्छा
-
'कंवा अन्नान्नणग्गाहो' ।
३ विच्छिा - विचिकित्सा - धर्मकृत्यों के फल में संदेह करना । साधु के मलीन वस्त्रादि उपधि देख कर घृणा करना ।
४ पापसंसा यहाँ पासंद शब्द का प्रथं 'व्रत' से है । सज्ञयं प्रणीत महंतु दर्शन से बाहर परदर्शनियों की स्तुति गुण-कीर्तन आदि करना ।
५ परपासंसंथ -- परपासंडियों के साथ आलाप संलाप, शयन, मासन, भोजन भादि परिचय करना परपासंसंस्तव कहलाता है ।
तपाणंतरं चणं थूलगस्स पाणावायवेरमणस्स समणोषासरणं पंच अइयारा पेघाला जाणिव्वा ण समायरियच्चा, तं जहा-पंधे, वहे, छविच्छेए, अहभारे, भत्तपाणचोच्छेए ॥
अर्थ--तवन्तर (प्रथम अणुव्रत स्थूल प्रकाशित विरमण के पांच प्रधान अतिचार धावक को जानने योग्य हैं, किंतु समाचरण योग्य नहीं। वे ये हैं--१ बंध २ वध ३ छविच्छेद ४ अतिभार और ५ भक्त पान विच्छेद |
विवेचन- १ बंधे - मनुष्य, पशु आदि को साँस लेने में, रक्त संचालन में अवयव संकोचविस्तार में, या बाहार पानी करने में बाधा पड़े, इस प्रकार के गाढ़े रस्सी आदि के बंधन से बांधना । तोता-मैना को पिंजरे में बंद करना, बंदी बनाना भादि इस प्रतिचार के अन्तर्गत है ।
२ वहे - वध - अंग भंग करना, ममन्तिक प्रहार करना, हड्डी बादि तोड़ देना, ऐसी पोट जो तत्काल या कालान्तर में मृत्यु अथवा भयंकर दुःख का कारण बने ।
३ छविच्छेद- शरीर की चमड़ी, नाक, कान, हाथ, पाँच आदि काटना, नासिका सेवन कर 'नाथ बालना, सींग-पूंछ मादि काटना, कान चीरना, बधिया करना आदि ।
४ अतिभारारोपण पशु, तांगा, छकड़ा गाड़ी, हमाल, ठेला, हाथ-रिक्शा, भादि पर उनकी सामयं से अधिक भार वहन करवाना अतिभार' है ।
५ भोजन-पानी विच्छेद - पशु, प्रथवा मनुष्य आदि को अपराध वश अथवा अन्य कारणों से भोजन पानी समय पर न देना अथवा बिल्कुल बंद कर देना भोजन करते हुए को काम में लगा कर अंतराय देना आदि 'भक्तपान विच्छेद' है ।
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री उपासकदांग सूत्र-१
तयाणंतरं च णं धूलगस्स मुमावायरमणरस पंच अश्यारा जाणियम्वा ण समायरियचा, तं जहा-सहसाअभक्खागे रहमामखागे सदारमंतभेए मोसायरसे कृडलेहकरणे।
अर्थ- सवन्तर श्रावक के दूसरे प्रत स्थूल-मषावाद-विरमण' के पांच अतिचार श्रावक को जानने योग्य हैं परंतु आचरण करने योग्य नहीं है । यया--१ सहसास्यास्पान, २ रहस्याभ्याख्यान, ३ स्वार-मंत्र-भेव, ४ मृषोपवेश और ५ कूट-लेख करण ।
विवेचन- १ सहसाभ्याख्यान-बिना विचारे किसी पर झुठा कलंक लगाना, २ रहमाभ्या. स्यान--एकान्त में बातचीत करने वाले को दोष देना, अथवा किसी को गुप्त बात प्रकट करना । ३ स्वदारमंत्रभेद--अपनी स्त्री की (प्रथवा किसी विश्वस्त जन द्वारा कही गई) गुप्त बात प्रकट करना, ४ मृषोपदेश -प्रहार, रोगनिवारण मावि में सहायक मंत्र, औषधि, विष मादि के प्रयोग का उपदेश जीव-विराधना का कारण होने से इस प्रकार के वचन-प्रयोग को 'मषोपदेश' कहते हैं। यदि कोई यह सोचे कि 'मैं झु तो बं.ला ही नहीं' किन्तु वह हिसाकारी सलाह है । इसके परिहार के लिए मियोपडेश को शानियों ने झूठ माना है। यह साक्षात् (परलोक पुनजन्म मादि विषयों में) मिथ्या उपदेश का विषय नहीं है, यदि वैसा होता तो मनाघार समझा जाता । ५ फूटलेख करण-- 'मेरे तो झूठ बोलने का त्याग है, लिखने का नहीं, ऐसा समझ कर कोई (असद्भूत--झुठा) लेखन कारे, जालो हस्ताक्षर करना, जाली दस्तावेज तैयार करना आदि तब तक मतिचार है, जब तक प्रमाद या अदिवेक हो, विचारपूर्वक जानते हुए लिखना सी मनाचार है।
मयाणंतरं च ण थूलगरस दिण्णादाणवेरमणस्म पंच अइयारा जाणियव्वा ण समापरियधा, नं जहा--तेगाह हे, सक्करप्पओगे विरुदरज्जाइकम्मे कूडनुलकूडमाणे तप्पविरुवगववहारे ॥
अर्थ-तदन्तर धावक के तीसरे व्रत स्थल अदत्तादान विरमण के पांच अतिचार जानने योग्य है, आचरने योग्य नहीं हैं-स्तेनाहृत, तस्करप्रयोग, विरुद्धराज्यातिकम, कूटतुलाकूट मान, तस्प्रतिरूपक व्यवहार ।
विवेचन-१ नाहृत --- चोर द्वारा अपहृत वस्तु लेना । २ तस्कर प्रयोग --चोरी करने का परामर्श देना ३ विरुवराज्यातिकम - राज्याज्ञा के विरुद्ध सोमा उल्लंघन, निषिद्ध वस्तुओं का व्यापार, मुंगी आदि कर का उल्लंघन । ४ कूटनुलाकरमान -खोटे तोल माप रम्नना, कम देना, ज्यादा लेना आदि । ५ तप्प्रतिरूपक व्यवहार--प्रच्छा वस्तु के समान दिखने वालो बुरी वस्नु देना, सौदे या नमुने में
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
आनन्द श्रमणोपासफ अतिचार
बताए पनुसार माल नहीं देना, मिलावट करना प्रादि । ये पापों कृत्य लोमा किए जाने पर 'पना वार' की परिधि में चले जाते हैं। बिना लोभ के किसी को माज्ञा के मधीन होकर, उदासीन भाव से या वसे मन्य कारणों से ही प्रसिचार रहते हैं (मोक्षमार्ग पु. १७१)।
तयाणनरं च णं सदारसंतोसिए पंच अइयारा जाणियध्या ण समायरियम्वा, से जहा-इत्तरियपरिग्गहियागमणे अपरिग्गहियागमणे अणंगकीडा, परविवाहफरणे कामभोगति म्यामिलासे।
अर्थ-तवन्तर श्रावक के चौथे वत 'स्वदार-संतोष' के पांच अतिचार जानने योग्य है, सेवन करने योग्य नहीं है--१ इत्वरिकापरिगृहीतागमन २ अपरिगहीतागमन ३ अनंगक्रीड़ा ४ परविवाहकरण ५ कामभोग-तीवाभिलाष ।
विवेचन-१ इत्वरिका परिगृहीसागमन-विवाह हो जाने के बाद भी उम्र, शारीरिक विकास प्रादि नहीं होने के कारण, मासिक-धर्म में नहीं माने प्रादि अनेक कारणों से वो मोग अवस्था को अप्राप्त है, ऐसी स्वस्त्री से गमन करना 'इत्वरिफा परिगृहीलागमन' है।
२ अपरिगही तागमन--जिसके साथ सगाई तो हई है, परंतु विवाह नहीं होने से जो अब तक अपरिगृहीता है, ऐसी स्ववाग्दत्ता कन्या से गमन करना अपरिगृहीता गगन है।
३ मनंगक्रीड़ा--कामभोग के अंग योनि पोर मेहन है। इनके अतिरिक्त अन्य धंग काम के मंग नहीं माने गए हैं, उनसे कोड़ा करना 'अनंगक्रीड़ा' है।
___४ पर विवाहकरण--जिनकी सगाई, विवाह अपने जिम्मे नहीं हो, उनकी सगाई करने की प्रेरणा करना, सहयोग देना, विवाह करवाना मादि को परविचाहकरण में गिना गया है।
५ कामभोग तोवाभिलाषा-गौण रूप से पांचों इंद्रियविषयों और मस्य रूप से मंषन में अत्यंत दि--मूर्छा भाव रख कर उन्ही मध्यवसायों से युवत रह कर व्रत की अपेक्षा करना, भोग-साधनों को बढ़ाना, 'काममोगतीव्राभिलाघ' है । 'वेद जनित बाधा' को शान्त करने की भावना के अतिरिक्त शंष सभी कार्यों के लिए यह अतिचार है । पया-बाजीकरण करना, कामबद्धक पौष्टिक भस्में, रमायने गोषधियाँ मादि लेना, वासना वर्द्धक पठन, कामवर्द्धक चित्रादि अवलोकन, पन्योन्य भासन, सौन्दर्य प्रसाधक सामग्री का प्रयोग आदि।
तयाणंतरं च णे इच्छापरिमाणस्स समणोवासपणं पंचअइयारा जाणियमा ण समायरियव्वा, तं जहा-खेत्तवत्धुपमाणाइक्कमे, हिरण्ण सुवण्णपमाणाइफमे,
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
घी उपासक माग सूप-१
दुपपचउपयपमाणाहक्कमे, धणधपणपमाणाइफम्मे, कुवियप्पमाणाइकम्मे ।
अर्थ-तवन्तर श्रावक के पांच व्रत 'इच्छापरिमाण' के पांच अतिचार श्रमणोपातक को नानने योग्य हैं, समाचरण योग्य नहीं-१ खुली या ढकी भूमि के परिमाण का अतिक्रमण (उल्लंघन) करना २ सोने-चांदी को मर्यादा का अतिक्रमण ३ द्विपद-दास-दासी आदि, चतुष्पद- गाय-भैस आदि के परिमाण का अतिक्रमण ४ मुद्रा आदि धन और गेहूं आदि मामा के परिमाग का अतिक्रमण करना और ५ कुविय के परिमाण का अतिक्रमण करना।
तयाणंसरं च णं दिसिक्यस्म पंच अइयारा जाणियश्या ण समापरियव्या, तं जहा-उड्दादि सिपमाणाइक्कमे, आहोदिसिपमाणाइक्कमे, तिरिपदि सिपमाणाइक्कमे, खेत्तवुड्ढी, सइअंतरद्धा ।
अर्थ-तदन्तर 'विशावत' के पांच अतिचार जानने योग्य है, आचरण योग्य नहीं है-- ऊंची दिशा में जाने की मर्यादा का अतिक्रमण २ नीची विशा के परिमाण का अतिक्रमण ३ चारों ओर की तिरछी दिशा के परिमाण का अतिक्रमण करना ४ क्षेत्र. वृद्धि-मर्यादित क्षेत्र को बढ़ाना ५ किए हुए भूमि परिमाण को विस्मृति से आगे जाना ।
तयाणंतरं च णं उवभोगपरिभोगे दुधिहे पण्णत्ते, तं जहा-भोयणाओ य कम्मओ य, तत्थ णं भोयणाओ समणोषासपणं पंच अइयारा जाणिपन्या ण समायरियम्वा, तं जहा~सचित्ताहारे. सचित्तपडिपद्धाहारे, अप्पलिओसाहिमकस. णया, दुप्पउलिओसहिमवखणया, तुच्छोसहिभव खणया, कम्मओ णं समपो. वासरणं पणरस कम्मादाणाई जाणियब्वाई ण समायरियव्वाई, तं जहा-इंगालकम्मे, वणकम्मे, साडीकम्मे, भाडीकम्मे, फोडीकम्मे, दंतवाणिज्जे, लवखवाणिज्जे, रसवाणिज्जे, विसवाणिज्जे, केसवाणिज्जे, जैतपीलणकम्मे, जिल्लंउणकम्मे, दग्गि-दाषणया, सर-वह-तलावसोसणया, असइजणपोसणया।
अर्थ-(सातवा) उपमोगपरिभोग दो प्रकार का है--भोजन विषयक और कर्म विषयक । भोजन को अपेक्षा श्रावक के पांच अतिचार कहे गए नो जानने योग्य है आचरण योग्य नहीं है--
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानव बमणोपासक-अतिचार
-
--
-
--
१ सचित्त वस्तु का आहार-जिसने सचित्त का त्याग कर दिया है, वह अनाभोग से सविस का आहार कर ले अथवा जिसने मर्यादा की है, उसके उपरांत सचित्ताहार करे तो यह अतिचार लगता है।
१ सचित्तप्रतिबद्धाहार--सचित्त से अड़े हए, संघट्टित आहार का प्रयोग।
३ अपक्वौषधि-भक्षणता-अग्नि आदि द्वारा नहीं पकाई गई, अशास्त्रपरिणत, तत्काल पीती, मदन की गई चटनी आदि का भोजन ।
४ दुष्पक्वीषधि-भक्षणता-अधकच्चे भट्टे, सोठे आदि खाना ।
५ सुच्छौषधि-भक्षणता--फेंकने योग्य अंश अधिक और खाने योग्य कम हो, ऐसे सुच्छ आहार का सेवन । यथा---ईस, सीताफल मादि ।
___ कर्म को अपेक्षा धावक को पन्द्रह कर्मादान जानने योग्य है, समाधरण करने योग्य नहीं-१ अंगारकर्म २ वनकर्म ३ शकटकर्म ४ माडीकर्म ५ स्फोटकर्म ६ दन्त-वाणिज्य ७ लाक्षा-वाणिज्य ८ रस-वाणिज्य विष-वाणिज्य १० देश-वाणिज्य ११ यंत्रपोसन-कर्म १२ निलांछन-कर्म १३ वमग्निवापनसा १४ सर बह-सालान-शोषणता और १६ असतीजनपोषणता।
विवेचन-१ अंगार कर्म--कोयले बनाना, कुंभकार का धंधा, चूने के भट्ट, सीमेंट कारखाने, सुनार, लहार, महजे, हलवाई, रंगरेज, घोबी आदि सभी के वे धं जिनमें मग्नि के आरम्भ की प्रधानता रहा करती है।
२ वनकर्म-वनस्पति के इस भेद है-मल, कन्द, स्कन्ध, छाल, प्रवाल (कोमल पते पर) पत्र, पुष्प, फल एवं मोज । इन सब के लिए जो प्रारम्भ होता है, उस वन विषयक कर्म को 'वनकम' कहा जाता है । यपा-बड़ के लिए धतूरे मादि की खेती, चाय, काफी, मेंहदी, फलों के बाग, फूलों के बगीचे, रज के, सरसों, धान प्रादि की खेती । हरे वृक्ष कटवाना, मुम्हाना, चंचना या ठेके पर लेना यह सब वनकर्म है । यानि कृषि का बनस्पतिजन्य एवं उरलसण से अन्य छ:फाप का बारम्भ वनकर्म है । अभिधान राजेन्द्र कोष भाग E प. ८०२ पर लिखा है फि
" बनविय कर्म धनकर्म । वना छेदनविपापे । यछिनामविनानाम् च ताखण्डाना पाणी पुष्पाणां फलानां च विक्रमणे तिकृतेन । हिनाहिन्न पत्रपुष्पफल-कंवमूलतणकाएठक वा वंशाधिविकरः।
३ शकटकर्म-सवारी या माल ढोने के सभी तरह के वाहन व उसके पूर्व बनाने का कार्य
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०
श्री उपासकदशांग सूत्र-१
'शम्ट कर्म' है 1 यथा-रेल, मोटर, सूमर साइजित मानिनो कारखाने । लुहार, सुथार, आदि द्वारा गाडियो बनाना आदि।
४ माटी कर्म-बैल, घोहे ऊंट, मोटर आदि को मारे पर घलाना भाटी कम है।
५ स्फोटक कर्म-पृथ्वी, वनस्पति पादि फोड़ना फोहीकर्म है । यथा--सान, कुमा, बावड़ी, तालाब आदि खोदना, पत्थर निकालना, खेती के लिए जमीन की जुताई, धान का आटा या मूंग, उड़त, चने भादि की दाल बनाना, शालि से मूसा उतार कर चावल बनाना आदि कार्यों को मुख्य रूप से कोसीकर्म में गिना गया है। यहां गंभीरता से समझने की बात यह है कि खेती की पूर्ववर्ती क्रियाएँपृथ्वी पर हल जोतना भाति सथा पश्चाद्वर्ती किमाएं गेंह आदि का आटा या मग मादि की दाल बना कर देना या बेच कर मार्जीविका चलाना स्फोटक कर्म के मन्तगंत है । जुताई के बाद निष्पत्ति की मध्यवर्ती क्रियाए वनकर्म में मानी गई है। अतः खेती केवल स्फोटक फर्म ही नहीं, धनकर्म भी है। यह बात पूर्वाचार्यों ने स्पष्ट बतलाई है।
६ वंत-वाणिज्य---मुख्य प्रषं में हाथी दांत का व्यापार, उपलक्षण से ऊँट, बकरी, मेड प्रादि की जट ऊन, गाय-भंसादि का चमड़ा, हड्डियो, नाखून आदि स जीवों के अवयव का व्यापार' दंतवाणिज्य' में गिना गया है।
लाक्षा-वाणिज्य---लाल का व्यापार मुख्य प्रर्थ में लिया गया है, मेनशील, घातकी, नील, साबुन, सज्जी, सोडा, नमक, रंग आदि का व्यापार भी 'अभिधान रामेंद्र कोष' भाग ६ पृ. ५९६-९७ पर साक्षा-वाणिज्य में लिए गए हैं ।
८ रसवाणिस्य--'अभिधान राजेन्द्र ' भाग ६ पृ. ४९३ " मधम द्यांसभक्षणवसामम्मादुग्नदधिचततेमादिविक्रय 1 शहछ, शराब, मांस, चर्वी, मक्खन, दूध, दही, घी, तेल बादि का व्यापार करना रस-वाणिज्य में गिना गया है। कोई कोई गड़, शक्कर के व्यापार को भी इसमें मानते हैं।
९ के वाणिज्य--दास-पासी का क्रय-विक्रय एवं गाय, भैंस, बकरी, भेड़, ऊंट, घोड़े आदि को खरीदने बेचने का घंधा केशवाणिज्य में लिया गया है। अभि. भाग ३ पृ. ६६८ ।
१० विषवाणिज्य-सोमल आदि मासि भाति के जहर, बंदूक, कटार, आदि मात्र गस्त्र, हरताल, प्राणनाशक इन्जेक्सन, गोलियां, चूहे मारने की गोलिया, खेत में दिए जाने वाले रासायनिक खाद, पाउडर, छिड़रने की हो. डी. टी. आदि पाठार, तथा वे समस्त वस्तुएं जिनसे प्राणान्त सम्भव है, पटाखे, बारुद आदि भी बंचना विषवाणिज्य में गिना गया है। साथ ही कुदाली, हल, फावड़े, र्गेतिमा, तगारिया, सेंबल, जूलिए आदि का व्यापार भी विषवाणिज्य में गिना है (अभि. भाग १ पृ. १२५८) ।
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानन्द पाक- अंतिमार
२१
११ पीक मूंगफली, एरण्डी, तिल, सरसों, राई, आदि का तेल निकालने की घाणियों, । वैसे तो घाणे, गन्ने पेरने की धाणी, कुएं से पानी निकालने के यंत्र बादि इसमें गिने जाते यंत्र ( मशीन) द्वारा जीवों का जितना पोलन होता है, वे सभी छोटी-बड़ी मिलें, फेक्ट रिथो, बारा-मशीन, कारखाने सभी इस यंत्र पीलनकर्म के ही भेद हैं ।
१२ निर्लाञ्छनकर्म --- बकरी, भेड़ आदि के कान चीरना, घोड़े, बैल आदि को नपुंसक बनाना, नाक में नाथ डालना, ऊँट के नकेल डालना प्रादि कार्य । घोड़े के पथि में खुड़ताल लगाना पोर डाम देना भी इसमें लिया जाता है ।
१३ दवग्निदापनता - बन में सप्रयोजन या निष्प्रयोजन आग लगा कर जलाना । इससे श्रम और स्थावर प्राणियों का महासंहार होता है ।
१४ सर-ब्रहृ-तालाभमोषणता -- चावल, चने आदि की खेती के लिए बचथा अलादाय को खाली करने के लिये तालाब, तलया आदि का पानी बाहर निकाल देना, जिससे त्रस स्थावर प्राणियों की घात होती है ।
१५ असतिजन पोषणता – बाज, कुते भादि पालना, सुरासुन्दरी वाले होटल चलना, गुण्ड पालना, फिल्मों पथवा सिनेमागृहों को पार्थिक सहकार प्रादि में सभी कार्य जिनसे दुःशील एवं दुष्टों का पोषण हो ।
तयाणंतरं चणं अणट्ठादण्डवेरमणस्स समणो वासएणं पंच अश्यारा जाणिवाण समापरियन्या, तं जहा—कंदप्ये, कुक्कुइए, मोहरिए, संजुत्ताहिगरणे, उपभोगपरि भोगाइरिते ।
अर्थ धावक के आठवें व्रत अनर्थदण्डविरमण के पाँच अतिचार जानने योग्य हं, आचरण योग्य नहीं हैं --१ कंदर्प- कामविकार वर्द्धक हास्यावि से ओतप्रोत वचन बोलना २ कौत्कुच्च - हाथ, अक्षि, मुंह आदि की ऐसी चेष्टाएँ, जिनसे लोगों का मनोरंजन हो ३ मोषर्य -- अनर्गल, असंबद्ध, क्लेशवक एवं बहुत बोलना आदि ४ संयुक्ताधिकरण - ऊखल, मूसल, हल, कुदाल, कुल्हाड़ी, फावड़े तो आदि के भिन्न अवयवों को संयुक्त कर रखना (यदि ये वस्तुएं असंयुक्त और पृथक्-पृथक् रखो जाय, तो काम में नहीं आ सकती। अतः संयुक्त नहीं रखनी चाहिए, ताकि मना न करना पड़े) ५ उपभोगपरिभोगातिरिक्त बिना आवश्यकता के उपभोगपरिभोग की सामग्री का अतिरिक्त संचय ।
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२
.. -श्री उपासवान राम-१
तपाणतरं ष णं सामाझ्यस्स समणोषासरणं पंच अइयारा जाणियल्याण समायरियल्या, तं जहा–मणप्पणिहाणे, वयदुप्पणिहाणे, कायदुष्पणिहाणे, सामाझ्यस्स सइअकरणया, सामाश्यस्स अणवष्ट्रियस्स करणया।
अर्थ--तवन्तर श्रमणोपासक को श्रावक के नववे व्रत सामायिक के पांच अतिचार जानने योग्य हैं, आचरण योग्य नहीं है। यथा;
५ प्रणिपान-मननयोग की दुष्प्रसि । मन के बस दोष लगाना । २ वचनदुष्प्रणिधान--वचनयोग की दुष्प्रवृत्ति । वचन के दस दोष लगाना। ३ कायदुष्प्रणिधान--काययोग को दुष्प्रवृत्ति । काया के बारह दोष लगाना।
४ सामायिक की स्मति नहीं रखना--'मैने सामायिक कर लो पी'इस प्रकार सामायिक के समय का ज्ञान नहीं रहना । सामायिक को भूल कर सापध-प्रवृत्तियों करने लग जाना।
५ सामायिक का अनवस्थितकरण-अव्यवस्थित रीति से सामायिक करना और सामायिक का काल-मान पूर्ण एए बिना ही सामायिक पार लेना आदि ।
सयाणंतरं च णं देसाचगासियस्स समणोवासपूर्ण पंच अइयारा जाणियन्या ण समायरियब्वा, सं जहा-आणवणपओगे,पेसवणप्पओगे,सदाणुवाय,रुवाणुवाए, पहियापोग्गलपखवे ।
अर्थ-दसवें व्रत-देशावकाशिक के पांच अतिचार जाने, परंतु आचरण नहीं करे । यथा--१ आनयन-प्रयोग २ प्रेष्य-प्रयोग ३ शब्दानुपात ४ रूपानुपात ५ बहिर्मुद्गल प्रक्षेप।
विवेचन-१ देसावगासियं-"विग्वतगहीतरय विपरिणामस्य प्रतिविनं संक्षेपकरणलक्षणे सर्व पतसंक्षेपकरण लक्षणे वा।" भभि. भाग ४ पृ. २६३२ । अर्थ-छठे प्रत दिशा-परिमाण को प्रतिदिन पंक्षिप्त करना तपा सभी व्रतों के परिमाण को संक्षिप्त करना 'वेशावकाशिक' कहलाता है।
दिशा-मर्यादा करने से वह स्वयं तो मर्यादितभूमि से बाहर नहीं जा सकता, परन्तु दूसरों को भेजकर कोई वस्तु मंगवाना 'मनयन-प्रयोग है। कोई वस्तू भिमवाना 'प्रेष्य-प्रयोग है। (संबर मादि में मकान से बाहर रहै व्यक्ति बादि को) बुलाने या भेजने के लिए शब्दादि से संकेत, आकृति से ईशारा कर के अथवा कंकर आदि फेंक कर अपनी उपस्थिति बताना अथवा कार्य का संकेत देना महः 'शब्दानुपास, रूपानुपात और बहिदिगल-प्रक्षेप' है।
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
आनन्द अमलीपासमा अतिधार
-
-
तयाणंसरं ष णं पोसहोषवासस्स समणोषासपणं पंच अइयारा जाणियच्या, ण समायरियब्वा, तं जहा-अप्पडिलेदिय-दुप्पडिस्लेहिय-सिज्जासंधार, अप्पमज्जियलुगणमाजिय-विजांभारे, महिला दुप्पडिलेहिय-उच्चार-पासव भूमी अप्प. मज्जिय-दुप्पमज्जिय-उच्चारपासवणभूमी, पांसहोचवासस्स सम्म अणणुपालणया।
___ अर्थ-पौषधोपवास नामक ग्यारहवें व्रत के पांच अतिचार जानने योग्य हैं आमरण योग्य नहीं हैं
१ अप्रत्युपेक्षित-दुष्प्रत्युपेक्षित शय्या-संस्तारक--बिछौने, ओढ़ने तथा आसनादि को प्रतिलेखना नहीं करना, तमा ध्यानपूर्वक प्रतिलेखन न कर बेगार टालना।
२ अप्रमामित-दुष्प्रमाजिस शय्या-संस्तारक--बिछौने आदि की विधिवत् प्रमाना महीं करना और उपेक्षापूर्वक प्रमार्जना करना।
३ अप्रत्युपेक्षित-दुष्प्रत्युपेक्षित उच्चार-प्रवण भूमि-माल-मूत्र आदि परठने के स्थान की प्रतिलेखना नहीं करना अथवा अविधि से उपेक्षा पूर्वक करना ।
४ अप्रमाजित-दुष्प्रमाणित उच्चार-प्रस्रवण भूमि-मल-मूत्र परठने से पूर्व उस भूमि को नहीं पूंजना अथवा पूर्ण विधि से पूरा स्थान नहीं पूंजमा।
५ पौषधोपवास का सम्यक् अप्रपालन-पोषध का विधिपूर्वक पालन नहीं करना । इसमें घोष सारे बोषों का समावेश
विवेधन-१ पौषध - "पुष्टि धर्मस्प दधातीति पौषधः"-धर्म को पुष्ट करने वाली किया विशेष। २ उववास- उपवास--"यामाष्टकम् अमोमनम् उपवास स विज्ञयः। उपायप्तस्य दोषेभ्यः, सम्यावासो गुणः सह उपवासास वितयः सर्व भोगविजितः' -सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक के लिए थाहार का प्रतिषेध उपवास है । पापों व दोषों से दूर रह कर सम्यग् गुणों एवं धर्म के समीप रहना, सभी भोगों का वर्जन करना उपवास है। प्रात्मा के समीप वास करना उपवास है। ३ सिज्जाघय्या-पौषध करने का स्थान । ४ संथार-संस्तार--दर्भादि को पय्या (बिछोना) जिस पर सोया जाय।
नयाणंतरं च णं अतिहिसंविभागस्स समणोपासपणं पंच अइयारा जाणिपन्या ण समायरियव्वा तं जहा-सचित्तनिक्खेवणया, सचित्तपिहणपा, काला. एक्कमे, परववदेसे, मछरिया।
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री उपासकदर्शाग सूत्र-१
अपं-बाधक के बारहवें व्रत 'अतिथिस विभाग के पांच अतिचार जाने परन्तु आचरण नहीं करे । यथा
१ सचित्त निक्षेप--अचित्त निर्दोष वस्तु को नहीं देने को बुद्धि से सचित्त पर रख देना।
२ सचित्त पिधान--कुबुद्धि पूर्वक अचित्त वस्तु को सचित्त से ढक देना।
३ कालातिकम-पोचरी का समय चुका कर शिष्टाचार के लिए बाद में दान देने की तैयारी दिलाना।
४ परग्यपदेशन- नहीं देने की बुद्धि से अपने आहार को दुमरों का बताना। ५ मत्सरिता-ईयां वश दान देना अथवा वूसरे वाताओं पर ईपर्याभाव लाना आदि ।
भयाणंतरं ष णं अपच्छिममारणांतिय संलेहणा-सणा-आराहणाए पंच अपारा जाणियध्या ण समायरियव्वा, तं जहा-इहलोगासंसप्पओगे, परलोगा. संसपओगे जीवियासंसप्पओगे मरणासंसप्पआंगे कामभोगासंसप्पआगे ॥स.॥
____ अर्थ-तवन्तर अपश्चिम (जीवन के अंत में की जाने वाली) मारणांतिक (मरण के साथ ही जिसकी समाप्ति होगी) संलेखना (कषाय और शरीर को क्षीण करना) असणा आराधना (आसेवना) के पाँच अतिचार कहे गए जो जानने योग्य है, आचरण घोग्य महीं है--
१ इहलौकाशंसा प्रयोग--आगामी मनुष्यभव में राजा-चक्रवर्ती आदि बनने की इच्छा करना।
२ परलोकाशंसा प्रयोग-देवादि में इंद्र महमित्र, लोकपाल आदि बनने की इच्छा करना।
३ जीविताशंसा प्रयोग--'शरीर स्वस्थ है, लोगों में संपारे के समाचार से कीति फल रही है, अतः लम्बे काल तक जीवित रहूँ, ऐसी इच्छा करना।
४ मरणाशंता प्रयोग -बिमारी व कमजोरी ज्यावा होने से शीघ्र मरने की इच्छा करना।
५कामभोगासा प्रयोग- मेरे संयम तप के फलस्वरूप मुझे उत्सम वैविक और
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनिन्दवी अभियह
२५
मानवीय भोगों की प्राप्ति हो, ऐसी इच्छा करना।
आनन्दजी का अभिग्रह
तए णं से आणंद गाहावई समणरस भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचा. गुब्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुबालसाविहं सावधम्म परिषज्जा परिवज्जित्ता समणं भगवं महावीर पंवइ णमंसह वित्ताणमंसित्ता एवं वयासी-"णो खरल मे भंते ! कप्पइ अज्जप्पमिई अण्णाउथिए वा अपणउत्थियदेवयाणि वा अपणउस्थियपरिग्गहियाणि वा वंदित्तए वा णमंसित्ताए वा, पुब्धि अणालत्तण आलवित्तए षा संलपित्तए वा, सेसिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं या दाउं पा अणुप्पदाउं घा, णण्णस्य रायामिओगेण, गणाभिओगेणं, बलामिओगेणं, देवपाभिओगेणं, गुरुणिग्गहेणं, विसितारेणं ।
*धानन्दजी की प्रतिज्ञा के इस पाठ में प्रक्षेप भी इभा है। प्राचीन प्रतियों में न तो 'बेरमाई' रब्द मा और न 'बरिहंत पेश्याई । मध्यान् महावीर प्रभु के प्रमुख उपासकों के चरित्र में मूर्तिपूजा का उल्लेख नहीं होना, उस पल के लिये अत्यन्त खटकने वासो बात थी । इजिये प्रप्त कमी को दूर करने के लिए किसी सत-प्रेमी ने पहने ' पेश्याई' शब्द मिनाया । कालान्तर में किसी को यह नौ अपर्याप्त लगा, तो उसने अपनी ओर से एक शब्द और बढ़ा कर' अरिहंसपेयर कर दिया। किन्तु यह प्रक्षेप भी व्यर्थ रहा। मोंकि इससे भी उन उपासकों को माघमा और बारापना पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । वह तो तब होता कि उनके सम्परत्व, व्रत या प्रतिमा आराधना में, भूति के नियनित्त दर्शन करने, पूजन-महापूजन पारने और सीर्थयात्रा का स्लेख होता । ऐसा तो बुछ भी नहीं है, फिर इस माह से होना भी क्या है।
स पाठ के विषय में जो योग हुई है, उसका विवरण ' श्री अगरचन्द मदान सरिया जैम पारमाक्षिक संस्था बीकानेर' से प्रकाशित 'जैन सिद्धांत बोन संग्रह ' भाग ३ के परिशिष्ठ से साभार उद्धृत करते है
उपासकवभाग के मानन्दाध्ययन में मी लिवा पाठ आया है-"नो पल मे मते कापा मम्जप्पमिदं अनथिए वा, अस्थिय देवपाणि चा, अन्तस्पिपरिगहियाणि वा वित्तएबा ममंसित्तए पा इत्यादि।
अर्थात हे भगवान् ! मुझे माज से लेकर अन्य अधिक, अन्मयूथिक के देव अथवा अन्य पूधिक के सारा सम्मानित पा गृहीत को वन्दना नमस्कार करना नहीं कल्पता । इस जगह तीन प्रकार के पाठ उपलब्ध होते हैं
(क) मन जरिषम परिहियाणि । (ब) अन्न चरिणयपरिग्गाहयाणि घेइंया। (ग) अन्न उत्मिपरि गहियाणि अरिहंत धेईयाई।
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
• श्री मायांग सूत्र-१
विधाद का विषम होने के कारण इस विषय में प्रति तथा पाठों का खुलासा मीचे निरी अनुमार है
[क] अन्न उत्थियपरिगाह्याणि ' यह पाठ बिलोयिका इण्डिया, कलकत्ता द्वारा सन् १. में प्रकाशित अंग्रेजी अनुवाद सहित उपासवादशांग मूत्र में है। इसका अनुसाद और संगोपन सोफ्टर ए. एफ. सहरफ हार्गले पी. एच. डी. ट्यूप्रिजन फेसो माफ कलकत्ता युनिवगिटो, आनरेरी फाइलोलोजिकाल से केंट्री द दो एसिमाटिक सोसाइटी बाफ बंगास ने किया है। उन्होंने टिप्पणी में पांच प्रतियों का उल्लेख किया है, जिनका नाम A. B.C. D. और E. रखा है। A. B. और D. में (1) पाठ है। C. और E. में (ग)
हार्नम माहेन ने 'चेश्याई' और 'मरिहंतड्याई' दोनों.प्रकार के पाठ सो प्रक्षित माना है । उनका कहना हैवयाणि ' और 'परिमाहिपाणि ' पयों में मूषकार ने द्वितीया के बहुवचन में 'णि' प्रस्गय लगाया है। 'वेश्याई' में 'ई' होने से मालूम पड़ता है कि पह शन्द बाद में किसी दूसरे का दाना हुआ है । हार्नले साहेब ने पांचों प्रतिप का परिचय इस प्रकार दिया है।
(A) यह प्रसि इणिया माफिम माजरी कमाने में है 1 इसमें ४० पन्ने हैं, प्रध्येयः पन्ले में १. पंक्तियां और प्रत्येक पंक्ति में ३८ अक्षर हैं। इस पर सम्बत् १५६४, सावन सुदी १४ का समय दिया हुआ है । प्रति प्रायः शुद्ध है।
(B) यह दिल माहित नाही ? ने • नीकानेर महाराजा के महार में किसी हुई पुरानी प्रति की पहचान है। यह नमन मोमाइटी ने गवर्नमेंट आफ इण्डिया के बीच में पड़ने पर को थी। सोसाइटी जिस कति की मकल करना चाहती थो, भारत सरकार द्वारा प्रकाशित बीकानेर मण्डार की मूधी में बम का १५.३ नम्बर है । गूची में उममा समय ११९७ तथा उसके मात्र उपासकदपार विमरण नाम की टीका का होना भी बनाया गया है। सोसाइटी की प्रति पर फागुग मुनी गुरुवार सं. ११४ दिया हुआ है। इसमें कोई टीका भी बड़े हैं 1 सेवस गुजराती रस्ता अर्थ है । उस प्रति का प्रथम और अंतिम पत्र बीच नो पुस्तक के गाच मेल नहीं खाता है। अंतिम पृष्ठ टोमा वारी प्रति का है। सूची में दिया गया विवरष्य इन पृष्ठों से मिलता है। इससे मालूम पड़ता है कि भोमाइटो के लिये किसी दूसरी प्रसि की नकस हुई। । १११७ सम्रन उस प्रति के लिखने का नहीं किन्तु टीका के बनाने का मासूम पड़ता है । यह मति बहुत सुन्दर सिधी हुई है। इसमें । पन्ने है । प्रत्येक पन्ने में छः पातयों और प्रत्येक पंक्ति में २८ बसर है। साप में टम्बा है।
(C) यह प्रति कसकने में एक यती के पास है । इसमें पन्ने हैं । मम पाठ बीच में मिया हम्मा है और संस्कृत रीका कार तथा नीधे । इस सम्वर १९१६ फागुन मुदी ४ दिया हुआ है । यह प्रति शुभ और किसी विद्वान बारा लिसी ईमाम पड़ती है, अन्त में बताया गया है कि इसमें १२ लोक मल के और रीमा के
(D) यह भी उन्ही ताजी के पार है। इसमें ३३ पले है। पंक्ति और ४८ मतर है। इस पर मिगमर बदी १, शुक्रवार सम्वत् १७४५ दिया हुआ है। इसमें टन्ना है । यह श्री मा नगर में लिखी गई है।
(E), प्रसि मुशिधाबाद काले राय पना तिमिहणी द्वारा प्रकाशित है।
इनके सिवाय मी अनुप मरमृत घाबरी बीकानेर (बीकानेर का प्राचीन पुतक भवार को शि पुराने किले में है ) में उपासकदरतांग की दो प्रतियां हैं। उन दोनों में 'अनस्थिपरिग्गहियामि चोमाई' पाठ पुस्तकों का परिषय F. और G.के नाम ये भी दिया जाता है।
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
...मामन्व का अभिग्रह ।
२७
अर्थ-व्रतों के अतिधार सुमने के बाद मानन्दलो ने पांच अणुवत तथा सात शिक्षावत रूप बारह प्रकार का प्रावधर्म स्वीकार किया तथा वंदना-नमस्कार कर कहने लगे--"हे भगवन् | आज से मुझे अन्यतीथियों के साधुओं को, अन्यतीपियों के प्रवत्तंकों एवं अन्यतीथि प्रगृहीत जैन साधुओं को वंदन-नमस्कार करना नहीं कल्पता है। उनसे बोलाए बिना आलाप-संलाप करना नहीं कल्पता है। उन्हें पूज्य मार कर माहार-पानी बहराना नहीं कल्पता है। परन्तु राजा को आज़ा से, संघ-समूह के दबाव से, बलपान के मय से, वेव के भय से, माता-पिता आदि ज्येष्ठजनों की आज्ञा से और अटवी में भटक जाने पर अथवा आजीविका के कारण कठिन परिस्थिति को पार करने के लिए, किन्हीं मिथ्यावृष्टि देवादि को वनादि करनी पड़े, तो आगार (छुट) है।
विवेचन-'अप्णस्थियागि' का अर्थ है-अभ्यतीथिक साधु । यद्यपि इसमें सामान्य गहस्थ का भी समावेश हो सकता है, परन्तु सामान्यतया उनका सम्पर्क मिथ्यात्व का कारण नहीं बनता, उत्तरा. प. १० गाथा. १८ में भी 'कुतिस्यो' शब्द से अन्यदर्शनी साघुपों का ही ग्रह्ण हुमा है। 'अण्णास्पियदेवमाणि' का अर्थ है- प्रत्यतीपियों के देव । वे पुरुष जो अमुक धर्म के प्रवर्तक संस्थापक प्रणया माचार्य रूप हो । जमे आनन्दजी के युग में-गौतमबुद्ध बौद्धधर्म के प्रवर्तक थे । मखलिपुत्र गोशालक भी आजीवक मत के देव रूप थे। दिव्यावदान 'नामकरोड ग्रंथ में ऐसे छ: व्यक्तियों का नामोल्लेख है१ पूरण काश्यप २ मललिपुत्र गौशालक ३ संजय वैरट्ठीपुत्र ४ अजित पेश कम्बल ५ कुकुद कात्यायन प्रोर ६ निग्रंथ ज्ञातपुत्र ।
"सेन स समयेन रामगृहे नगरे पर पूर्णाद्याः शास्तरोऽसवंज्ञाः सर्वज्ञमानिनः प्रतिवसतिस्य । तद्यथा-पूरणः काश्यपो मरकरी गोशालिपुत्रः संजमी वेरट्टीपुत्री अजित केश कम्बलः कुकुवः कात्यापनो निग्यो मातपुत्रः।"
(F) सारी पुरतमा नं. ६६७ (उदागप मूत्र) पन्ने २४ एक पृह में १३ पंक्तियां, एक पंक्ति में ४२ अक्षर, सहमदाचार आनन गम्छ थी गुगापार्श्वनाथ की गति, पुस्तक में सम्बत नहीं। बोधे पत्र में नीचे सिखा पाठ'अरिपयपशिगहियाई वा बाया'पत्र में बांई तरफ शुद्ध किया हुआ है-अमाउपियाई वा अमउत्वियदेवपावा' पुस्तक अश्किटर अगुद्ध है । वार में शुद्ध की गई है, लोक संगपा ११२ दी है।
(G) मारी पुःतचा नं. ६४६४ ( उपासकदमावृत्ति पंच पाट मह ) पत्र ३३ सोक ... का प्रयाA E.., मश्यक पृष्ठ पर १६ पंक्तियाँ मोर प्रलोक पंक्ति में ३२ असर हैं । पत्र आठ पंक्ति पहली में नोचे निरा पाठ है
'अन्न उस्थियपरिग्गहियाई वा चेहयाई'। यह पुस्तक पडिमात्रा में लिखी गई है और अधिक प्राचीन सनम पाली । पुस्तक पर सम्बत नहीं है।
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री उपासकदशांग सूत्र है
इस प्रकार के अन्यतीर्थिक देवों की वंदना नमस्कार मादि नहीं करने का आनन्दजी ने अभिग्रह लिया था ।
२८
·
'अण्णउस्थियाणि परिगहियाणि - यहां पाठ-भेद है और विवादजनक है, साथ ही टीकाकार का किया हुमा प्रर्थं तो प्रपने समय में पूर्णरूप से प्रसरी मौर जमी हुई मूर्तिपूजा से प्रभावित है ।
और 'बेइय' चैश्य शब्द का अर्थ मात्र प्रतिमा ही नहीं होता। प्रसिद्ध जंनाचार्य पूज्य श्री १००८ श्री जयमलजी म. सा. ने 'चेश्य' शब्द के एक सौ बारह प्रर्यो को खोज की। 'जयध्वज' लिखा हैपू. ५७३ से ५७६ तक वे देखें जा सकते हैं। वहीं मंत
" इति अलंकरणे बोधं ब्रह्माण्डं सुरेश्वर वार्तिके प्रोक्तम् प्रतिमा घेदय शब्वे नाम १० मो छ । चेइय ज्ञान नाम पाँचमो छे। चेहय शब्दे पति = साधु माम सास छे । पछे यथायोग्य ठामे से नाम हु से जावो । सर्व चेत्य शब्द मा अकि ५७ अने वेश्य शब्दे ५५ सब ११२ लिखितं ।"
"पू. भूधरजो शिष्य ऋषि जयमल नागौर मझे सं. १५०० घेत सुदी १० दिने ।" आनन्दजी के अभिग्रह वर्जन में तथाकथित 'चेइपाई' का प्रासंगिक अर्थ यह है कि
" में अन्यतिथियों द्वारा प्रगृहीत साधुओं को वंदना-नमस्कार नहीं करूंगा।" यदि हम कुछ क्षणों के लिए मानलें कि अन्यतीर्थियों द्वारा प्रगृहीत परिहंत प्रतिमा को वंदना नमस्कार नहीं करने का नियम लिया, किंतु वंदना-नमस्कार के बाद जो 'बिना बोलाए नहीं बोलना' तथा ' बाहार पानी देने' की बात है, उसको संगति कैसे होगी ? वंदना-नमस्कार तो प्रतिमा को भी किया जा सकता है, परन्तु बिना बोलाए बालाप-संला और चारों प्रकार के माहार देने का व्यवहार प्रतिमा से तो हो ही नहीं सकता। यह कैसे संगत होगा ? पहले जी मलिगी या साधर्मी साधु या, बाद में वह अभ्यतिथियों में चला गया है, तो वह व्यापन एवं कुशील है। उसे वंदना नमस्कार नहीं करने का नियम सभ्यस्व की मूलभूमिका है । इसी उपासकदशा में मागे पाठ पाया है कि कडालपुत्र पहले गोचालक का श्रावक था, बाद में भगवान् के उपदेश से जैन श्रावक बना, फिर गोमालक ने उसे अपना बनाना चाहा। ज्ञाताकांग सूत्रांग, निरावलिका पंचक, भगवती आदि में पनेको वर्णन मिलते हैं, नही स्वमत से मन में तथा परमत से स्वमत में भाने के उल्लेख है । अतः परमतगृहंत जैन साधुओं को 'पण्ण उत्थिया हियाणि' अर्थ मानना उचित लगता है ।
कम्प मे समणे णिग्गंधे फासुएणं एस णिज्जेणं असण-पाण खाइम- साइमेणं चत्थ-पडिम्गह-कंपल- पापपुंछणेणं पढ-फल- सिज्जा संधारणं ओसह मेसज्जेण प
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
शिवादेवी भी प्राधिक बनी
पडिलाभेमाणस्स विहरित्तए ति कटु इमं पपारूवं अभिग्गई अभिगिहा, अभिगिहित्ता पसिणाई पुच्छह, पुच्छित्ता अट्ठाई आदिय, आदिइसा ममणं भगवं महावीर लिखुत्तो चंदड़, बंदित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिमाओ इ. पलासाओ चेहयाओ पडिणिक्षमह, पद्धिणिक्षमित्ता जेणेव वाणियगामे जयरे जेगेष सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उत्रागछित्ता सिवाणंदं भारियं एवं वयासी'एवं खलु देवाणुप्पिए ! मए समणस्स भगवओ महावीरस्म अंतिए धम्म णिसंते सेऽवि य धम्मे में इतिर डितिर अनिकाह, , गगां तुम देवाणप्पिए ! समणं भगवं महावीरं वदाहि जाव पज्जुबासाह, समणस्स भगवओ महावीरम अंतिए पंचाणुब्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुधालसविहं गिहिधम्म पडिवजाहि ॥७॥
अर्थ-श्रमण-निग्रंथों को प्रासुक-एषणीयशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, पाठ, बाजोट, उपाधय और घास आदिका संस्तारक, बीयधि, मेषज, ये चौदह प्रकार की सामग्री महराना मुझे कल्पता है। ऐसा अभिग्रह धारण कर और प्रश्नावि पूछ कर, अर्थ धारण कर भगवान् को तीन बार वंचना कर के ध्रुतिपलाश उद्यान से अपने घर आए एव अपनी पत्नी शिवानंवा से इस प्रकार कहने लगे-“हे देवान प्रिय ! मैने अमण भगवान महावीर स्वामी के समीप धर्म सुना । वह धर्म मुझे अच्छा लगा। उस पर मेरी गाढ़ी कचि हुई है। हे प्रिये ! तुम भी श्रमण भगवान महावीर स्वामी को सेवा में जा कर, वंवना-नमस्कार कर, पर्यपासना करो तथा पांच अणुव्रत और सात शिक्षादत रूप धाधक-धर्म स्वीकार करो।"
नएणं सा सिवाणंदा भारिया आणंदेणं समणोवामपणं एवं बुत्ता समाणा हतुहा कोटुंबियपुरिसे सहावे, सहावेत्ता एवं पयासी-खिप्पामेव लहुकरण जाव पज्जुबासह । तएणं ममणे भगवं महावीरे मिवानंदापतीसे य महइ जाव धम्म कहे, ना पंसा सिवानंदा समपास्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा णिसम्म हट्ट आव गिहिधम्म पहिवज्जड़, पडिज्जित्ता तमेव धम्मियं जाणप्पवर दुरूहइ दुहिता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया ॥सू. ८॥
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री उपासकवशाग मूत्र-१
अर्ष-- आनन्द अमणोपासक से भगवान् को धर्मदेशमा एवं प्रताधारणको बाल मुन कर शिवानन्या नुत प्रसन्न हुई। उसने अपने कोम्बिक पुरुषों को बुला कर कहा-'हे देवानुप्रियो ! जिसके उपकरणमुकुमार एवं शीघ्न गति युक्त है ऐसा अतीव शोभनीय रय उपस्थित करो।' रथ लाया जाने पर उसमें बैठ कर भगवान की सेवा में गई। भगवान ने उसे तया अन्य परिषद को धर्मदेशना फरमाई । आनन्य श्रमणोपासक की भांति शिवानन्वा ने भो माविका के बारह बस धारण किए । भगवान को धन्वना नमस्कार कर, रथ में बैठ कर अपने घर मा गई।
__ 'ते' ति भगवं गोयमे समणं भगर्ष महावीर वंदद नममइ मंदिसा ममंसित्ता एवं व्यासी-पडणं भंते ! आगंदै समगोपालपदेशशुपियाणं लिए मुंडे जाव पव्यहत्तप? 'णो इणडे समहे, गोयमा ! आदेणं समणोधासा पहर वासाई समणोवासगपरियागं पाउणिहित पाउणिहिता जाव सोहम्मे कप्पे अरुणे बिमाणे देवताए उपज्जिहिए। सत्य णं अत्यगायाणं दवाणं पसारि पलिओवमाई लिई पण्णता, सत्य णं आणवस्सऽवि समणोबासगस्स अत्तारि पलिओवमाई ठिई पण्णता । तप णं समणे भगवं महावीरे भण्णया कयाइ पहिया आव विहर।
___ अर्थ- भगवान् गौतमस्वामी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को धम्बनानमस्कार कर पूछा-'हे भगवन् | क्या आनन्द श्रमणोपासक आपके पास वीक्षित होंगे' ? भगवान् ने फरमाया-'हे गौतम ! यह अभं समर्थ नहीं। आनन्द श्रमणोपासक बहुत वर्षों तक श्रावक-पर्याप का पालन कर प्रथम देवलोक सौधर्म-कल्प के अक्षण नामक विमान में उत्पन्न होगा । वहाँ अनेक देवों को स्थिति चार पल्पोपम की कही गई है, तदनुसार आमन्द की भी चार पस्योपम की देव-स्थिति होगी। किसी दिन विहार कर भगवान् अन्यत्र पधार गए।
नए णं से आणंदे समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाच पडिलामेमागे विरघइ । नए णं सा सिवाणंदा भारिया ममणोवासिया जाया जार पतिलामेमाणी विहरह ॥ सू.९॥
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
आनन्दजी का अभिप्रह
१
अर्थ - आनन्द गाथापति अब आनन्द श्रमणोपासक हो गए, वे जीव- अजीव आदि लय तत्वों के ज्ञाता यावत् साधु-साध्वियों को प्रतिक्रामित करते हुए काल यापन करने लगे । शिवानन्वा भी श्रमणोपासका बन गई ।
रूप की पहल भार्गव रामगोवासगस्स उच्चाषएहिं सीलन्वयगुणवेरमणपाणपोहोचवा सेहिं अप्पाणं भावेमाणस्स चोइस संचच्छराई चइकताई, पण्णरसमस्स संयच्छरस्त अंतरावहमाणस्स अपणया कपाइ गुरुवरत्तावर त्तकाल - समयसि धम्मजागरियं जागरभाणस्स इमेयारूबे अस्थिर चितिए पत्थिए मणोग संकपे समुप्पज्जित्था – एवं खलु अहं वाणियगामे णयरे पट्टणं राइसर जाब सयस्सवि य णं कुटुम्बस्स जान आधारे, तं एएणं विक्खेवेणं अहं णो संचारमि समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपण्णत्तिं उवसंपज्जित्ताणं विहरितः । तं सेयं खलु ममं कल्लं जावजलते विउलं असणं जहा पूरणो जाव जेट्टपुतं कुत्रे ठत्ता, तं मित्तं जाव जेट्ठपुत्तं च आपुच्छित्ता कोल्लाए साण्णवेसे णायकुलंसि पोसहसा पढिलेहिता समणस्स भगवओ महावीरस्म अंतियं धम्मपण्णतिं उवसंपत्तिाणं बिहरिस्तए ।
अर्थ -- आनन्द श्रमणोपासक को शीलव्रत, गुणद्रन, विरमणव्रत तथा पौषधोपवास आदि उत्तम व्रतों का निर्दोष रीति से पालन करते चौदह वर्ष बीत गए । पन्द्रहवें वर्ष के किसी दिन रात्रि के चौथे प्रहर में धर्मजागरण करते हुए उन्हें विचार आया कि "मैं बहुत-से राजा, ईश्वर, आदि लोगों तथा अपने कुटुम्ब के लिए आधारभूत आदि हूँ। वे अनेक विषयों में मुझ से परामर्श करते हैं। अतः इससे भगवान् द्वारा बताई गई धर्म-साधना में विक्षेप होता है। अतः मेरे लिए यह उचित होगा कि सूर्योदय होने पर पूरण गाथापति की मति विपुल आहार पानी बना कर मित्र जाति जनों को आमंत्रित कर उन्हें जिमाऊं, तथा उनकी साक्षी से बड़े पुत्र को मेरे स्थान नियुक्त करूं, तथा उसे पूछ कर कोल्लाक सनिवेश में जो ज्ञातकुल की पौषशाला है, वहाँ रह कर भगवान् महावीर स्वामी द्वारा फरमाई गई धर्म-आराधना कर 1
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री उपासनदशांग मूत्र-१
एवं संपेहेइ संपेहित्ता कल्लं विउलं तहेच जिमियभुत्तुत्तरागए तं मित्त जाय घिउलेणं असण-पाण-खाइम-माइमेणं चत्ध-गंध-मल्लालंकारेणं सरकारे सम्माणेइ, मक्कारिता सम्माणित्ता तसंच मित्त झाच पुरको अष्टपुस माहात्र, सदावित्ता एवं बयासी-एवं खलु पुत्ता ! अहं वाणियगामे यहणं राईमर जाय चिनिय जाव विहरितग, तं सेयं खलु मम इणि तुम मयस्स कुडुम्बस्स मेादें पमाणं आहारं आलंपणं उवेत्ता जाध विहरित्तए। तए णं जेट्टपुत्ते आणेवरस समणो. वासगस्स तत्ति एयमह विणणं पडिमुणेइ ।
___ अर्थ-इस प्रकार विचार कर के प्रातःकाल होने पर विपुल अशन-पान-खादिमस्वादिम बनाया और मित्रों तमा स्वजन-सम्बन्धियों को आमंत्रित किया। आहार, पानी, वस्त्र, गन्ध, माला, अलंकार आदि से उन्हें सस्कार-सम्मान देकर ज्येष्ठ पुत्र से कहा-'हे पुत्र में बाणिज्य ग्राम नगर में बहुत-से राजेश्वर आदि लोगों द्वारा माननीय यावत् विचार-विमर्श योग्य हूं : अब यह श्रेयस्कर है कि लुम यह मार सम्मालो । अपने कुटुम्ब एवं दूसरों के लिए मेढ़ी भूत प्रमाणभूत एवं सहायक बनो।' ज्येष्ठ पुत्र ने विनयपूर्वक स्वीकार किया।
तपणं से आणंद ममणोबासए तस्सेव मित्त जात्र पुरओ जेहात कुटुंये व्येह ठवित्ता एवं बयासी-" मा णं देवाशुप्पिया ! तुम्भे अज्जप्पभिई केइ मम बहुसु कज्जेसु जाव आपुच्छउ वा पछि पुच्छउ वा ममं अट्ठाण असणं वा ४ उवक्खडेड वा उवकरेउ वा। तए णं से आपदे समणोचासग जट्टएत्तं मित्तणाई आपुच्छर आपुत्तिा मयाओ गिहाओ पडिणिक्खमह पहिणिक्वामित्ता वाणियगाम मझ मज्झेण णिग्गछह, णिग्गच्छत्ता जेणेव कोल्लाए सणिवेसे जेणेव णायकुले जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छद उवागचिमत्ता पोसहमालं पमज्जड़, पमज्जित्ता उच्चारपासवणभूमि पडिलहेइ, पडिलेंहिता दन्भसंधारयं संघरइ, धम्मसंधारयं दुरूइ दुरूवत्ता पोसहमालाग पोसहिए दन्मसंधागेवगण समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपण्णत्तिं उपसंपज्जिता णं विहरइ ।१०/
अर्थ-तदन्तर आनन्द श्रमणोपासक ने सभी के सामने ज्येष्ठ पुत्र को कुटम्म का मखिया नियक्त किया और कहा--" हे देशप्रियो ! आज से आप लोग मुम-से किसी
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
आनन्द का गृहत्याग और प्रतिमा आराधन
-
-.
मी सांसारिक कार्य के लिए मत पूछना, मेरे लिए आहारादि भी मत बनाना।" इस प्रकार ज्येष्ठ पुत्र और मित्र-परिजन आदि को पूछ कर मानन्दजी अपने घर से निकले और राजमार्ग से होते हुए कोल्लाक सनिवेशस्थ पौषधशाला में पाए और पौषधशाला का प्रमार्जन किया । फिर लघुनीत बहीनीत परठने योग्य स्थान की प्रतिलेखना को, वर्म का संस्तारक बिछाया
और उस पर बैठ कर श्रमण भगवान महावीर स्वामी द्वारा उपविष्ट धर्मप्रशस्ति को ग्रहण कर रहने लगे।
तए णं से आणंदे समणोवासए उवामगपद्धिमाओ उपसंपज्जिता णं विहरह, पहम उवासगपडिम अहामुत्तं अहाफप्पं अहामग्गं अहाता सम्मं कारण फासेइ पाले सोहेइ सीरेइ कित्तेह आराहेइ । तए णं से आणंदे समणोवासए दोच्चं उपासगपष्टिमं एवं तच्चं चउत्थं पंचमं छठं सत्तमं अट्ठमं णवमं दसम एक्कारसम जाव आराहे ॥ सू. १३॥
अर्थ--आनन्द श्रमणोपासक ने श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं को ग्रहण किया। प्रथम प्रतिमा की सूत्रानुसार, कल्पानुसार, मार्गानुसार, तथ्यानुसार सम्यक् रूप से काया से स्पर्शना की, पालन किया, शोषन किया, कीर्तन किया, माराधना की। प्रपम प्रतिमा की स्पर्शना यावत् आराधना के बाद दूसरी यावत् तीसरी, चौथो, पांचवों, छठी, सातवीं आठवीं, नौवी, वसवों, और ग्यारहवी प्रतिमा की आराधना की।
विवेचन-प्रतिमा का अर्थ है-'अभिग्रह विशेष, नियम विशेष ।' श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं कही गई है--
(1) दर्शन प्रतिमा---इसमें श्रावक का सम्यग्दर्शन विशेष पाद्ध होता है। निर्दोष-निरतिचार और मागार-रहित पालन किया जाता है । वह लौकिक देव पोर पो की माराधना नहीं करता और निग्रंथ-प्रवचन को ही अर्थ-परमायं मान कर शेष को अनर्थ स्वीकार करता है।
(२) प्रत प्रतिमा--इसमें पांव अणुव्रत व तीन गुणनों का नियमा पासान होता है । मागार भौर अतिचार कम तथा भाव-शुद्धि अधिक होती है।
(३) सामायिक प्रतिमा-तीसरी प्रतिमा में सामायिक एवं देशावगामिक प्रत धारण किये हो जाते है । सामायिक ब्रत अधिक समय और विशुद्ध किये जाते हैं।
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री उपासकदशांग सूत्र
(४) पौषध प्रतिमा-इसमें प्रष्टमी, चतुर्दशी तथा अमावस्या-पूर्णिमा को पौषध करमा अनिवार्य होता है । वह पौषध में दिन में नींद नहीं ले सकता, प्रतिलेखन-प्रमार्जन, ईपिषिक प्रतिक्रमणादि में प्रमाव नहीं करता। यह प्रतिमा चार मास की है।
(५) कायोत्सर्ग शामिना- तिका बाजा पोषय की रमि को कायोत्सगं न करे, तो भी कल्प्य है, परन्तु इसमें खड़े-खड़े, या बैठे-बैठे या मशक्ति हो तो सोए-सोए कायोत्सगं करना पावश्यक है। दूसरी विशिष्टता यह है कि इसके धारक का विवा-ब्रह्मचारी होना आवश्यक है । रात्रि-मर्यादा मी होनी आवश्यक है। इसी कारण इस प्रतिमा का समवायांग में 'दिया बंभयारी रति परिमाणको नाम दिया है । इस प्रतिमा को पाराधना जघन्य एक, पो, दिन तथा उत्कृष्ट पाँच मास तक होती है। इसमें धोती की लांग खुली रखनी होती है तथा रानि-मोजन का त्याग भी आवश्यक है।
(६) ब्रह्मचर्य प्रतिमा-इसका धारक शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करता है । शेष पूर्व प्रतिमानों के नियम तो अगली प्रतिमा में अनिवार्य है ही। यह उत्कृष्ट छह मासिकी है।
(७) सचित्ताहार त्याग प्रतिमा-वैसे तो सचिसाहार करना धावक के लिए उचित नहीं है, परन्तु प्रत्येक श्रावक सचित्त का त्यागी नहीं होता । इस प्रतिमा का धारक पूर्ण रूप से सचित्त, पर्द्धसचित्त या सचित्त-प्रतिबद्ध का त्यागी होता है। यह उस्कृष्ट सात मास तक की जाती है।
(८) मारम्भ त्याग प्रतिमा-इसका धारक स्वयं एक करण एक योग भयवा एक करण तीन योग आवि से प्रारम्भ करने का त्यागी होता है । आरम्भ करमे करने वाले को स्वस्तिको व माज्ञापनो धोनों क्रियाएँ लगती है, जबकि स्वयं प्रारम्भ नहीं करने वाले को 'स्वस्तिको ' त्रिमा नहीं लगती। इस प्रतिमा का उत्कृष्ट कालमान पाठ मास है।
(९) प्रेष्यारम्भ वर्जन प्रतिमा-इसका धारक भारम्भ करवाने का भी त्यागी होता है । कराने रूप आज्ञापनी क्रिया भी टल जाती है। सामान्य नयानुसार करने, कराने जैसा पाप मात्र अनुमोदना में नहीं होता, क्योंकि उस कार्य में अपना स्वामित्व नहीं होता । इसमें मात्र अनुमोदना खुली रहसी है। वह भाधाकम माहारादि का त्यागी नहीं होता । इसका उत्कृष्ट कालमान नौ मास है।
(१०) उद्दिदष्ट भक्त-वर्जन प्रतिमा-इसका धारक अपने लिए बनाए गए आहारादि का सेवन भी नहीं करता । इसमें उस्तरे से या तो पूरा मस्तक भुपिडत होता है, या पोटी के केश रस्त कर शेष मस्तक । यद्यपि इस प्रतिमा में अपनी भोर से किसी सायय विषय में स्वतः कुछ भी नहीं कहा जाता, पर एकवार या बारबार पूछने पर भात विषय में 'जानता हूँ' सपा प्रशात विषय में 'नहीं जानता,' इस प्रकार की दो भाषाएं बोलना फल्पता है। यद्यपि यह विरक्त होता है, तथापि इस कथन से मस्किचित अनुमोदन तो लगता ही है, क्योंकि जो सर्वथा अनुमोदन-रहित हो, उसे पूछने
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
आनन्दजी ने संथारा किया
पर इन बातों के विषय में फहना भी बज्य है। जैसे कि सर्वषा अनुमोदन-रहित साघु को एक मात्र मोक्षमार्ग के अतिरिक्त राजनैतिक, सामाजिक या आर्थिक मादि किसी भी विषय में एक शाब्द का भी उच्चारण करना निषिद्ध है। इसका उत्कृष्ट कालमान दस मास का है।
(११) श्रमणभूत प्रतिमा--इसमें उस्सरे से मस्तका मुण्ठित होता है, शक्ति हो तो लोच भी कर सकता है । इसमें अनुमोदन का सर्वथा त्याग होता है । साघु-साध्वी तो जनेसरों के यहाँ भी गोचरी जाते हैं, पर श्रमणभूत प्रतिमा वाला अपनी जाति वालों के यहाँ से ही प्राहार-पानी लेता है. षयोंकि 'ये मेरे ज्ञाति वाले है '-इस स्नेह-सम्बन्ध का मभाव नहीं हना । इस पर भी वह पाहार. पानी लेने में साधु के समान विधेकी व बियक्षण होता है। घर में जाने से पूर्व दाल बनी हो, चावल बाद में बने, तो वह दाल ले सकता है, चावल नहीं । इसी प्रकार को पूर्व निष्पन्न हो, वही वस्तु लेता है। इसमें वह तीन करण तीन योग से पाप का त्याग करता है। किसी के घर भिक्षापं जाने पर-- 'मुझ सपासक प्रतिमा संपन्न को पाहार वो'-ऐसा काहना कल्पता है। किसी के पूछने पर वह कह सकता है कि मैं 'प्रतिमाप्रतिपन घमणोपासक हूँ ।' इस प्रतिमा का उत्कृष्ट कालमान ग्यारह मास है।
शंका- क्या प्रथम प्रतिमा के नियम म्यारहवीं प्रतिमा में भी मावश्यक है ? समाधान-जी हां, पहले के सारे नियम अगली प्रतिमा के लिए भी अनिवार्य है।
श्री समवायांग सूत्र के ग्यारहवें समवाय में ग्यारह प्रतिमानों के नाम बताए गए हैं। श्री दशाश्रुतस्कंध सूत्र की छठी दशा में उपासक प्रतिमाओं का स्वरूप विस्तार से बताया गया है।
आनन्दजी ने संथारा किया
तए णं से आणंदे समणोपासए इमेणं एपारवेणं उरालेणं विउलेणं पयसणं पग्गहियेणं सवोकम्मेणं मुक्के जाव किसे धमणिसंतए जाए। नए णं तस्स आणंदस्स समणोवासगस्स अपणया कयाइ पुरवरत्ता जाव धम्मजागरमाणस्स अयं अज्झस्थिर चिंतिए पत्थिर मणोगए संकप्पे समुपज्जत्या-एवं खलु अहं इमेणं जाव धमणिसंतए जाए, तं अस्थि ता मे उहाणे कम्मे पले पीरिए परिसक्कारपरक्कमें महाधिइसंवेगे, ने जाव ता मे अस्थि उहाणे सद्वाघिसंवेगे जाप य मे धम्मागरिए धम्मोषएसप समणे भगवं महाधीरे जिणे सुहन्धी विहरह, तार ता में से कल्लं जाप जलंते अपच्छिममारणंतिपसलेहणायूसणाझूसियस्स भत्तपाणपडि.
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
. श्री उपासकदर्शाग सूत्र-१
याइक्खियस्स काल अणवफखमाणस्स विहरित्तए, एवं संपेहेह संपेहित्ता करलं जाय अपच्छिम मारणतिय जाय कालं अणवकखमाणे विहरइ ।
अर्थ--श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं के साथ-साथ उग्र उदार और विपुल मात्रा में, उस्कृष्ट तप-कर्म करने के कारण आनंव श्रमणोपासक शरीर से बहत कृश रक्त-मांस से रहित एवं शुष्क होगए । हड्डी और त्वचा मिल जाने से अस्थि-पिंजर के समान हो गए । एकबार रात्रि के चौथे प्रहर में धर्म-जागरणा करते हुए उन्हें विचार आया कि 'जब तक मेरे शरीर में उत्थान, बल, वीर्य, पुरुषार्थ, पराक्रम, श्रद्धा, धृति और संवेग है, तथा मेरे धर्माचार्य-धर्मोपदेशक श्रमण-मगवान् महावीर स्वामी-गंधहस्ती के समान विचर रहे है, तबतक सूर्योवय होने पर मेरे लिए मारणांतिकी संलेखना कर लेना उचित है।' ऐसा विचार कर दूसरे दिन संथारा कर लिया, तथा मृत्यु की चाहना न करते हुए धर्माराधना करने लगे।
आनन्द को अवधिज्ञान
ताणं तस्स आणंवरस समणोवासगस्स अण्णया कयाइ सुभेणं अजावसाणेणं सुभेणं परिणामेण लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं सदावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ओहिणाणे समुप्पण्णे, पुरथिमेणं लषणसमुहे पंच जोयणसइयं खेत्तं जाणइ पासइ, एवं दक्षिणेणं पच्चस्थिमेण य, उत्तरेणं जाव चुल्लाहिमवनं वास. हरपवर्ष जाणइ पासद, उई जाव सोहम्म कप्पं जाणइ पासइ, अहे जाव इमीसे रयणप्पभार पुढवाए लोलुयञ्चुर्य गरयं चउरासीदवाससहस्मद्वियं आणइ पासड् ॥
___ अर्थ-अन्यथा किसी दिन शुम अध्यवसायों से, शुम मन-परिणामों से, लेण्याओं की विशुद्धि होने से तया अवधिज्ञानावरणीय कर्म के अयोपशम होने से (रूपी पदार्थों को विषय करने वाला) अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ । उससे वे पूर्व, पश्चिम और दक्षिण दिशा में पाँचसो-पांचसो पोजन तक का लवणसमुद्र का क्षेत्र, उत्तर-दिशा में घुलहिमवंत वर्षधर पर्वत तक का क्षेत्र, ऊर्व-दिशा में पहला देवलोक तथा अधो-दिशा में प्रथम नरक में चौरासी हजार की स्थिति वाले लोलयच्चय नरकावास तक का क्षेत्र जानने देखने लगे।
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
गौतम स्वामी का समागम
७
-
--
-
गौतम स्वामी का समागम
तेणं काले णं तेणं समए णं समणे भगवं महावीरे समोसरिए, परिसा णिग्गया, जाव पहिगया, तेणं काले णं तेणं समरणं समणस्म भगवमो महावीरस्स जै? अंतवासी इंदई णामं अणगारे गोयमगोत्तेणं सत्तुस्सहे समचउरंससंठाणसंठिए वज्जरिसहणारायसंघयणे कणगपुलगणिघसपम्हगोरे उग्गतवे दित्त. तवे तत्ततये घोरत महातवे उराले घोरगुणे घोरतवस्सी घोरपम्मचेरवासी उच्छूट सरीरे संखित्तविउलतेउलेसे छह छद्रेणं अणिविखणं तचोकम्मेणं संजमेणं नवसा अप्पाणं भाबेमाणे विहारह ।
अर्थ-उस काल उस समय में(जब आनन्दजी का संथारा चल रहा था)प्रमण भगवान् महाबीन दानी वाणिजमाम नगर मारे परिवार सेवा में गई। धर्मोपदेश सुन कर लौट गई। तब धमण-भगवान महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य इंद्रमतिनी (गौतम गोत्र के कारण 'गौतम' के नाम से अधिक प्रख्यात थे) सात हाय अंधे, समचतुरस्र संस्थान वाले, धनऋषभनाराच संहनन वाले, कसौटी पर कसे शुद्ध सोने और पनपराग के समान गौरवर्ण के थे। उनका तप-उग्र, दीप्त, (कायरों के लिए लोहे के तपे गोले के समान ) सप्त, घोर, महान् और उवार था, हीन सत्त्व वाले उनके गुण सुन कर ही कांपते थे, अतः वे घोर गुणी थे। निरन्तर बैले-वेले का तप करने के कारण वे घोरतपस्वी थे। उनका ब्रह्मचर्य भी बहन निग्रह प्रधान था । वे शरीर की विभषा आदि नहीं करते थे, देह-मोहातीत थे। यद्यपि उन्हें विपुल तेमोलेरपा प्राप्त पी, परन्तु उसे वे शरीर में ही संक्षिप्त कर रखते थे, कमी प्रकट करने की इच्छा भी नहीं होती थी। वे निरन्तर वेलेबले का तप करते हुए अपनी आत्मा को संयम-तप से भावित करते हुए विचरते थे।
मए से भगवं गोयमे छट्टक्खमणगारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ विड्याए पोरिसीए झाणं झायइ, सझ्याए पोरिसीए अतुरियं अचवलं असंभंते मुहपत्ति पडिलेहेइ पग्लेिहिता भायणवत्थाई पग्लेिहेह पडिलेहिता भायणवत्याई
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री उपासकदशांग सूत्र - १
पमाह पमजित्ता भायणाईउग्गाहेड़ उग्गाहिता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेच उधागच्छ्ह उजागच्छित्ता समण भगवं महावीरं बंद णमंसह वंदित्ता णर्मसिस्ता एवं वयासी - इच्छामि णं भंते ! तुम्भेहिं अन्भणुष्णाए खट्ठक्खमणपारणगंसि वाणियगामें परे उच्चणीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स मिक्खायरियार अत्तिए । 'अहासहं देवाणुपिया ! मा परिबंध करेह ।”
*L
३८
अर्थ- बेले के पारण के दिन भगवान् गौतम स्वामी ने प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया, दूसरे प्रहर में ध्यान किया, तीसरे प्रहर में चपलता एवं त्वरा रहित, असंभ्रान्त रीति से मुखस्त्रिका की प्रतिलेखना की, पात्रों और वस्त्रों की प्रतिलेखना की, पात्रों का प्रमार्जन कर के ग्रहण किया और जहाँ भगवान् महावीर स्वामी बिराज रहे थे, वहाँ आकर के धन्वना नमस्कार कर बोले— 'हे भगवन् ! यदि आपको आज्ञा हो तो वाणिज्यग्राम नगर में समुदानिकी मिक्षाचर्या के लिए जाऊँ ?' भगवान् महावीर स्वामी ने फरमाया-'हे देवानुप्रिय ! तुम्हें सुख हो, वैसा करो ।'
तर णं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेण अग्भणुष्णार समाणे ममणस्म भगवओ महावीरस्स अंतियाओ दृपलासाओ बेहयाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतरपरिलो यणार दिहीष पुरओ ईरियं सोहेमाणे जेणेव वाणियगामे णयरे तेणेव उवागच्छ उवागच्छित्ता वाणियगामे यरे उच्चणीयमज्झिमाएं कुलाई घरसमुद्राणस्स भिक्खायरिया अ ।
अर्थ - भगवान् की आज्ञा प्राप्त हो जाने पर गौतम स्वामी द्युतिपलाश उद्यान से निकल कर अस्वरित, अचपल एवं असंत्रांत गति से चार हाथ प्रमाण आगे का क्षेत्र देखते हुए समिति पूर्वक बाणिज्यग्राम नगर में सामुदानिकी मिक्षा के लिए भ्रमण करने लगे ।
तर णं से भगवं गोयमें वाणिपगामे णयरे जहा पण्णत्तीए तहा जाव भिक्खायरियाए अडमाणे अहापज्जन्तं मत्तपाणं सम्म पडिग्गाहे पश्चिग्गाहिता वाणियगामाओ पडिणिग्गच्छ पडिणिग्गच्छित्ता कोल्लायरस मणिबेसस्स अनूरसामंतेणं बीइवयमाणे बहुजणसद्दं णिसामेह, बहुजणो अण्णमण्णस्स ग्रवमाइक्वाइ
J
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
गौतमस्वामी का समागम
एवं भासह एवं पण्णवे एवं परवेइ-एवं खल देवाणुपिया! समणस्म भगवओ महावीरस्स अंतेवासी आणंदे णामं समणोवासए पोसहसालाए अपच्छिम जाष अणवकंखमाणे विहरत | तरण तस्स गोयमस्स बहुजणस्म अंतिए एयमझें सोच्चा णिसम्म अयमेयाहवे अज्झथिए चिंतिए मणोग संकप्पे समुप्पमित्या-तं गच्छमि णं आणंदं समणोवासयं पासामि, एवं संपेहेइ संपेहित्ता जेणेच कोल्लाए सण्णिवेसे जेणेव आणंदे समणोवासए जेणेव पोसहसाला तेणेव उपागच्छह ।
अर्थ-भगवती में कहे अनुसार भगवान गौतम स्वामी ने भिक्षाचर्या के लिए भ्रमण कर आहार-पानी ग्रहण किया तथा लौटते समय कोल्लाक सनिवेश से न अधिक दूर न अधिक निकट पधारते हुए बहुत-से लोगों से यह बात सुनी कि घमण मगवान महावीर स्वामी के अंतेवासी आनंद श्रमणोपासक अपश्चिममारणतिको संलेखना कर मत्य की चाहना न करते हुए यहां रह रहे हैं। यह बात सुन कर गौतमस्वामी ने विचार किया कि मुझे मी आनन्द को देखना चाहिए । तब वे जहाँ पौषधशाला थी, वहां आए।
सरणं से आणंदे समणोवासए भगवं गोयम एज्जमाणं पासइ पासित्ता हह जाव हियए, भगवं गोयम वंदइ णमंसह वंदित्ता णमंसित्ता एवं पयासी-एवं खलु भंते ! अहं इमेणं उरालेणं जाव धमणिसंतए जाए, ण संचाएमि देवाणुप्पियरस अंतियं पाउम्भवित्ता ण तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाए अभिवंदिस्सए । तुम्भे गं भंते ! इच्छाकारेणं अणमिओपणे इओष एह, जाणं देवाणुप्पियाणं तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाएसु चंदामि णमंसामि । तए णं से भगर्व गोयमे जेणेव आणंदे समणोवासए तेणेव उवागच्छह ॥ सू.१५॥
अर्थ-भगवान गौतम स्वामी को पौषधशाला में पधारते देख कर आनन्द अमणो. पासक बहुत प्रसन्न एवं हषित हुए, वंदना नमस्कार किया और कहा-'हे भगवन् ! में कठोर तपस्या करने के कारण अत्यंत दुर्बल एवं कृश हो गया है। आपके समीप आकर आपश्री के चरण-स्पर्श कर सक, ऐसी तामय मुझ में नहीं रही । अतएव यदि आप मेरे सन्निकट पधारने की कृपा करें, तो चरण-रज का स्पर्श कर वंदना नमस्कार कई। तब गौतम स्वामी आनन्द के निकट पधारे।
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०
...........................श्री उपासकदांग सूत्र-...
क्या सत्य का भी प्रायश्चित्त होता है ?
तए णं से आणंदे समर्णावासए भगवओ गोयमस्स तिक्खुत्तो मुद्घाणेणं पाएम चंदह णमंसह वंदित्ता णमंसित्ता एवं षयासी-"अत्थि णं भंते ! गिहिणो गिहिमलावसंतस्स ओहिणणे समुप्पज्जह?" "हंताअस्थि।" "अइण भंते ! गिहिणो जाव समुप्पज्जा, पर्व खलु मंते ! मम वि गिहिणो मिहिमज्झायसंतस्स ओहिणाणे समुप्पपणे-पुरस्थिमेणं लवणसमुद्दे पंच जोयण-सयाई जाव लोलुपन्यं णरयं आणामि पासामि ।" तए णं से भगवं गोयमे आणंदं ममणोधासयं एवं षयासी"अस्थि णं आणंदा ! गिहिणो जाव समुप्पज्जइ, णो चेत्र णं एमहालए, न णं तुमं आणंदा ! एयरस ठाणस्स आलोएहि जाच तवोकम्मं पढिवज्जाहि ।
अर्थ-गौतम स्वामी के निकट पधारने पर आनन्द धमणोपासक ने उनके चरणों में मस्तक लगा कर तीन बार बंदना-नमस्कार कर कहा-"हे भगवन् ! क्या गृहस्य अव. स्था में रहे हुए गृहस्य को अवधिज्ञान हो सकता है ?" गौतमस्वामी ने उत्तर दिया-"हाँ आनन्द ! हो सकता है।" तब मानन्द ने कहा-“हे भगवन 1 मुझे भी अवधिनान हुआ है, जिससे में यहाँ रहा हुआ पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण में लवण-समुद्र के पांचसो-पांचसी योजन तक का क्षेत्र, उत्तर दिशा में चुल्ल-हिमवंत पर्वत तल का क्षेत्र, अर्ध्व-दिशा में प्रथम देवलोक एवं नोची-विशा में लोलुपच्चय नरकाधास तक का क्षेत्र बेल रहा हूं । तब गौतम स्वामी ने फरमाया-"हे आनंद 1 गृहस्थ को अवधिज्ञान तो होता है, परंतु इतना विशाल नहीं हो सकता । अतः तुम आलोचना कर प्रायश्चित्त ग्रहण करो।"
तए पं से आणंदे समणोवासए भगवं गोयम एवं वयासी-"अस्थि णभंत ! जिणवपणे संताणं तच्चाणं तहियाणं सम्भूयाणं भावाणं आलोइज्जइ जाय पद्धि. ज्जिज्जइ ?" "णो इणठे समझे।" "जड़ ण भंते जिणवयणे संताण जाच भावाणं णो आलोहज्जइ जाव तवोकम्मं णो पशिवज्जिज्जइ त ण भंत ! तुभ चेय पयस्म ठाणस आलोपह जाव पशिवजह।"
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्या सत्य का भी प्रायश्चित्त होता है ?
भर्ष- आनन्द श्रमणोपासफ ने भगवान् गौतम स्वामी से निवेदन किया-- "हे भगवन् | क्या जिनशासन में सत्य, तथ्य, सद्भुत भावों की मी आलोचना प्रायश्चित्त है? मैंने जैसा देखा है, वैसा ही निवेदन किया है, तो क्या सस्प बात कहने वाले को मालोचना करनी चाहिए ?" भगवान् गौतम स्वामी ने फरमाया--'नहीं, ऐसी बात नहीं है । सत्पभाषी को आलोचना-प्रायश्चित्त नहीं आता।" तब आनन्द धमणोपासक बोले--"हे भगवन् ! गनि जिनशासन में ऐगी यमस्या है तो आपको इस मृषा-स्थान को आलोचना कर के प्रायश्चित्त लेना चाहिए।"
तए णं से भगवं गोयमे आणदेणं समणोवासपणं एवं वुत्ते समाणे संकिए कंखिए विइगिच्छासमावणे आणंदरस अंतिपाओ पडिणिक्खमइ पडिणिवस्वमित्ता जेणेय दूइपलासे चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्यइ उवाच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते गमणागमणाए पडिकम्मइ पदिक्कमित्ता एसणमणेसणं आलोपड आलोहत्ता भत्तपाणं परिदंसेइ पडिसित्ता समणं भगवं महावीरं बदइ णमंसइ बंदित्ता गमंसित्ता एवं वघासी-" एवं खलु भंते ! अहं तुम्भेहिं अन्भYण्णाए तं व सव्वं कहेइ जाप तग णं आहं संकिए कंखिए बिहगिच्छासमावण्णे आणंवस्स समणोवासगस्स अंतियाओ परिणिक्षमामि पडिणिक्षमामित्ता जेणेव इहं तेणेव हब्वमागए।
___अर्थ-आनन्द श्रमणोपासक के ये वचन सुन कर गौतमस्वामी को अपने कपन के विषय में शंका, कांक्षा, विचिकित्सा हुई । वे वहाँ से चल कर तिपलाश उद्यान में श्रमणभगवान महावीर स्वामी के समीप पधारे । गमनागमन का ईतिथिको प्रतिक्रमण किया और एषणा की आलोचना कर आहार-पानी दिखाया और वंदना-नमस्कार कर कहा-- "हे भगवन् । आपकी मात्रा से में गोचरी गया था, यावत मानन्दजी से हमा वार्तालाप कहा।
" ण मंते : किं आणंदेणं समणोवासपणं तस्स ठाणस्स आलोएयवं आव परिषज्जेय उवाहु मए !" " गोयमा इ! समणे मगचं महावीरे भगवं गोयम एवं
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२
श्री उपासकदशांग सूत्र--१
षपासी-"गोयमा ! तुम ष णं तस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पहिवजाहि, आणंद घ समणोवासयं एपमढें खामेहि । तए णं से भगवं गोयमे समणस्स भगवओ महावीरस्स"तहत्ति" एयमट्ट विणएणं परिसुणेइ पष्ठिमुणित्ता सरस ठाणस्स आलोपइ जाव पशिवज्जह, आणंदं च समणोवासयं एयमढं खामेइ । तर णं समणे भगवं महावीरे अण्णधा कयाइ बहिया जणवयविहार विहारह ।। सू. १६ ॥
अर्थ-गौतमस्वामी ने कहा-'हे भगवन् । आनन्द अमणोपासक इस विषय में आलोचना-प्रायश्चित्त के भागी हैं, अथवा में ?' तब भगवान महावीर स्वामी ने गौतमस्वामी से फरमाया--"हे गौतम ! आनन्द का कथन यथार्य है। तुम उस कयन की आलोचना कर प्रायश्चित्त करो तथा आनन्द श्रमणोपासक से क्षमापना करो।" गौतमस्वामी ने भगवान का कथन विनयपूर्वक श्रवण कर स्वीकार किया (और वे पुनः कोल्लाक सनिवेश गए) तथा आनन्द अमणोपासक से अपने कपन के लिए क्षमा याचना की। अन्यदा कमो भगवान धाहर जनपद में विचरने लगे।
विवेचन - यह उपासकदशांग सूत्र भगवान् सुधर्मास्वामी को रचना है। उन्होंने इसमें गौतमस्वामी का यह प्रसंग क्यों दिया? इस प्रश्न के उत्तर में शानी फरमाते हैं कि तोयंकरों से तो कोई भूल होती ही नहीं है। उनके बाद गणाघरों में गौतमत्वामी का अग्र स्थान था। भगवान के प्रथम-प्रधान शिष्य द्वारा एक श्रावक से क्षमा याचना करना साधारण बात नहीं है। इस दृष्टान्त से यह सिद्धि होती है कि चाहे कोई कितना ही बड़ा क्यों न हो तथा पगला व्यक्ति कितना ही छोटा क्यों न हो, भूल को मम मानना यही सम्यक्त्व की भूमिका एवं सिद्धि का प्रथम सोपान है । ‘में बड़ा है, छोटे के सामने मेरी मम्रता क्यों ?' यह भावना विकास की अवरोधक है।
प्रश्न-या गोतमस्वामी चार ज्ञान चौदह पूर्वधर नहीं थे ? यदि घे वो ऐसी कपन-स्खलना से सम्भव है ?
समाधान-प्रानन्यजी के क्षमा याचना प्रसंग से पूर्व ही गौतमस्वापी चार शान एवं चोदह पूर्व पारक । क्षावकाग्निक अ. 4 गाथा ५० में कहा गया है--
आचारपणतिधरं, चिट्ठिवायमहिम्मगं ।
पायविरलियं णच्चा, ग तं उवहसे मुगी । "पाचार-प्रशप्ति के माता मोर दृष्टिवाद के अध्येता भी बोलते समय प्रमाववश वपन से स्वलित हो जाय, तो उनके मशुद्ध वचन को पान कर साधु सन महापुरुषों का उपहास न करे।"
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
पया सत्य का भी प्रायश्चित होता है ?
४३
अत: गौतमस्वामी का उक्त कपन पाप शान चौदह पूर्व में बाधक नहीं है। सस्य मोमने । भाव रखते हुए भी उपयोग नहीं पहुंचने से पसत्य भाषण हो घाम तो शास्त्रकार उन्हें बाराषक मानते हैं. विराधक नहीं।
गौतमस्वामी ने पारणा भी बाद में किया, पहले क्षमा याचना की। मागों के मे देदीप्यमान ज्वलंत उदाहरण 'भूल को भूल स्वीकार करने को आदर्श प्रेरणा देते हैं ।
नए णं से आणंदे समणोषासए गहरों सीलनारहिं हाल अपान भालेला षीसं वासाई समणोवासगपरियागं पाउणित्ता एक्कारस य उवासगपडिमाओ सम्म कारणं फासित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता सहि भत्ताई अणसणाए छेदेता आलोइयपष्ठिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सोहम्मसिगरम महाविमाणस्स उत्तरपुरच्छिमेणं अरुणे विमाणे देषताए उबघण्णे । तत्थ णं अत्यगइयाणं देवाणं चस्तारि पलिओषमाई ठिई पण्णसा, सत्य णं आर्णपस्स वि देवरस पत्तारि पलिओषमाई टिई पण्णत्ता। भाणंदे भंते ! देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भषक्खएणं ठिहक्खएणं अणंतरं चयं चहत्ता कहिं गच्छिहिए? कहिं उववज्जिहिर? गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिह । णिक्खेवो । सत्तमस्स अंगस्स उवासगवसाणं पढम अज्झयणं समत्तं ॥सू.१७ ।।
___ अर्थ- आनन्द श्रमणोपासक शीलवत आदि बहुत-से धार्मिक अनुष्ठानों से मारमा को मावित करते हुए बीस वर्ष तक मावक-पर्याय का पालन किया, उपासक को ग्यारह प्रतिमाओं का सम्यक पालन किया, मासिकी संलेखना से शरीर व कषायों को क्षीण कर साठ भक्त तक अनशन का त्याग कर (सम्पूर्ण जीवन में लगे) बोषों को आलोचना कर योग्य प्रायश्चित्त-प्रतिक्रमण किया तथा आत्म समाधियुक्त काल कर के प्रपम देवलोक 'सौधर्म कल्प' के सौधर्मावतंसक महाविमान के ईशानकोण में स्थित अमण नामक विमान में देव रूप में उत्पन्न हुए । वहाँ कई देवों की स्थिति चार पल्पोपम की कही गई है, सवनमार आनन्द देव की स्थिति भी चार पल्योपम की है। गौतमस्वामी ने पूछा-'हे भगवन् । आनन्द देव चार पल्योपम की स्थिति पूरी होने पर देवभव का क्षय कर के मापृष्य पूरा होने पर कहाँ जन्म लेंगे, कहाँ उत्पन्न होंगे ?' भगवान् ने फरमाया-"हे
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४
श्री उपासकदशांग सूत्र -१
गौतम | वहाँ से आयु, स्थिति एवं भव का क्षय कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त यावत् समाना
॥ श्री उपासक
सूत्र का प्रथम अध्ययन सम्पूर्ण 11
विवेचन - श्रमणोपासक आनन्दजी को सत्वशीलता, निर्भीकता, स्पष्टता और सत्य प्रकट करने का साहस अनुकरणीय है। उन्हें जितना अवधिज्ञान हुआ, उतना गौतमस्वामी से निवेदन किया । अनुपयोगमा गौतमस्वामी ने उन्हें प्रायचित का फरमाया तो उन्होंने यह विचार नहीं किया कि 'ये भगवान् के प्रथम गणधर, प्रधान शिष्य, तथा मुख्य अंतेवासी हैं। में इनका कहा मान कर प्रायश्चित्त
हूँ । कदाचित् मेरी बात ठीक न हो । क्या ये झूठ कह सकते हैं ?' उन्होंने निर्भीकता पूर्वक स्पष्ट निवेदन किया कि 'जिनशासन की यह रीति-नीति नहीं रही। यहां सच्चे को सच्चा एवं निर्दोष को निर्दोष माना गया है। मैंने तो अंसा देखा, बेसा निवेदन किया है ।'
|| प्रथम अध्ययन समाप्त //
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीय अध्ययन
श्रमणोपासक कामदेव
जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महा.रेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स अंगरस उवासगदसाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयम पण्णते वोच्चस्स गं भंते ! अज्झयणस्स के अढे पण्णत्ते ? एवं खलु जंनू ! तेणं काले णं तेणं समएणं चंपा णाम णयरी होत्या, पुपणभद्दे चेहप, जिपसस्तू राया, कामदेवे गाहावई, महा भारिया । छ हिरण्यकोडीओ णिहाणपउसाओ, छ बुढिपउत्ताओ, छ पविस्थरपउत्ताओ, छ वया दसगोसाहरिसरणं घएणं । समोसरणं । जहा आणंदो तहा णिग्गओ तहेव सावयधम्म पडिवज्जइ सा घेव पत्तव्यया जाच जेट्टपुतं मित्तणाई आपुच्छित्ता जेणेष पोसहसाला तेणेव उवागण उवागछित्ता जहा आणंदो जाव समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपण्णत्तिं उपसंपज्जित्ताणं विहरइ १८
___ मर्ष--जम्बूस्वामी पृच्छा करते हैं-'हे भगवन् ! भगवान् महावीर स्वामी ने उपासकांग के प्रथम अध्ययन के जो मात्र फरमाए, वे मैने आपके मुखारविंद से सुनें । इसरे अध्ययन में भगवान ने क्या भाव फरमाए हैं ? आर्य सुधर्मास्वामी ने फरमाया'हे जम्बू ! इस अवसर्पिणीकाल के चौथे आरे में जब भगवान महावीर स्वामी विचर रहे थे, उस समय सम्पा नगरी थी, पूर्णभद्र उधान था, जितशत्रु राजा राज्य करते थे, 'कामदेव' नामक गाथापति थे, जिनकी पत्नी का नाम 'मद्रा' था। कामदेव के पास छ
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री उपासकदशांग सूत्र-२
ANNA
MAMANAR
करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं जितना धन निधान के रूप में सुरक्षित था, इतना ही च्यापार में तथा इतना ही घर-विक्षरी के रुप में फैला हुआ था। गायों के छह बज थे। एक व्रज में इस हजार गाएं होती हैं। भगवान महावीर स्वामी चम्पा पधारे । परिषद धर्म सुनने के लिए गई । आनन्द के समान कामदेव मी गए, यावत् श्रावक व्रत ग्रहण किए । कालान्तर में ज्येष्ठ-पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंप कर पौषधशाला में भगवान द्वारा बताई गई धर्मप्रज्ञप्ति स्वीकार कर धर्म साधना करने लगे।
देव उपसर्ग--पिशाच रूप
तए णं तस्स कामदेवरस समणोवासगरम पुचरत्तावरत्तकालसमयंसि पगे देवे मापी-मिच्छपिछी अंतिय पाउन्भूए तए णं से देवे एर्ग मह पिसायरूवं विउचड़, तस्स णं देवरस पिसापरूवरस इमे पपारवे वण्णावासे पण्णत्ते।
अर्थ-उस कामदेय श्रमणोपासक के पास मध्यरात्रि के समय एग मायोमिम्मा. दृष्टि देव आया । उसने एक विशाल पिशाध रूप को विकुवंणा की । उस पिशाच रूप का वर्णन इस प्रकार है:
सीसं से गोफिलजसंटाणसंठियं सालिमसेल्लसरिसा से केसा फबिलतेपणे दिपमाणा, महल्ल उहियाकमल्लसंठाणसंठिपं णिहाल मुगुंसपुंछ व तस्स भुम. गाओ फुग्गफुरगाओ, विगय-बीभग्छसणाओ सीसहिदिणिग्गयाउं अच्छीणि विगयवीमच्य दसणाई, कपणा जह सुप्पफत्तरं थेव घिगयीमदमणिज्जा, उम्भघुइसपिणमा से णासा, झुसिरा जमलचुल्लीसंटाणसंठिया दोऽवि तस्स णासापुडया, घोडयां व तस्स मंसई कलकविलाई विगयवीभच्छदसणाई ।
अर्थ--उस पिशाच का मस्तक गोफिलज-गाय आदि को बांटा खिलाने के बड़े टोकरे को ओंधा रखने पर जो आकार बनता है, उसके समान था। उसके केश घावल के तुस के वर्ण धाले (पिगल वर्ण वाले)चमकिले थे। ललाट का आकार ऐसापामानोबड़े घडेका
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
terपासक कामदेव
YO
मीचे का हिस्सा हो । गिलहरी की पूंछ के समान परस्पर बिना मिली भयंकर मोहें थी । दोनों आंखें घड़े के मुख जैसी विशाल तथा डरावनी थी। कानों का आकार सूप के टुकड़ों के समान था । भेड़ के नाक के समान या 'हुरा' नामक वाद्य के समान चपटी नाक थी । नासिका के दोनों छिद्र बड़ी-बड़ी मिली हुई मट्टियों के समान लगते थे । दाढ़ी-मूंछ के बाल घोड़े की पूंछ के समान कठोर थे ( गाल क्षीण मांस वाले तथा ऊंची निकली हुई हड्डो से कुबड़े के समान पे - पाठान्तर ) ।
उठा उस वेष लंबा, फालसरिसा से दंगा, जिन्भा जहा सुष्पकत्तरं देव चिगीभच्वं सणिज्जा, हलकुद्दालसंठिया से हणुया, गल्लकडिल्लं च तस्स खं फुट्ट कविले फरुसं महल्ले, हगाकारो से पुरषोवमे से बच्छे कोहिपाठासंठिया दोऽवि तस्स बाहा, णिसापाष्ठाणसंठाणसंठिया दोन तस्स अग्गहत्था, सिलोदसंठाणसंठियाओ हत्येसु अंगुलीओ ।
अर्थ - ऊंट के समान लम्बे होठ थे । लोहे की कुश या फावड़े के समान लम्बेलम्बे दांत थे। सूप के टुकड़े के समान मयंकर लम्बी जीम थी ( मुख के भीतर ऐसी लालिमा श्री मानी हिंगुल की खान हो - पाठान्तर ) हल की लकड़ी के समान बहुत टेढ़ी तथा लम्बी ठोडी घी, लोहे के कड़ाह के समान मध्य में खड्डे वाले, कुत्ते के समान फटे हुए बड़े कर्कश गाल में, स्कंध फूटे मृबंग के समान थे, नगर के द्वार (किवाड़) जंसी विशाल छाती थी, धान्य भरने की मिट्टी की फोटो के समान विशाल भुजाएं थीं। मूंग आदि पोसने की शिला के समान विशाल एवं स्थूल हाथ थे। लोढ़ी के समान हाथों की अंगुलियों में ।
सिपिण्ड संठिया से णक्खा, पहाबियपसेवओ व अंसि लबंति दोबि तस्स थणया, पोट्ट् अयकोहओ व्य वट्ट, पाणफलंदसरिसा से णाही, सिक्कगसंठाणसंदिया से पत्ते, किण्णवुडसंटाणसंठिया दोऽखि तस्स वसणा, जमलको द्वियासंठाणसंदिया वोऽषि तस्स ऊरू ।
अर्थ- सोप संपुट या किले के बुजं के समान तोखे और लम्बे नाखून थे । नाई के
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
बीमासकदशांग सूत्र-२
उस्तरा आदि रखने को चमड़े को पंसी के समान छाती में लटकते लम्बे स्तन । लोहे की कोठी जैसा गोम पेट पा, पानी की कुण्डी को मांति गहरी नाभि थी, (भग्न कटि वाले विरूप तथा टेढ़े बोनों नितम्ब घे--पाठान्तर)छींके के समान लटकता पुषचिन्ह या, चावल मावि भरने की गोणी के समान अण्डकोष में, धान मरने की कोठी के समान लम्बी बंधाएं थीं।
अज्जुणगुर्द व तस्स जाणूई कुडिलकुडिलाई विगयवीभन्छदसणाई अंधाओ कक्खडीओ लोमेहि उवचियाओ, अहरीलोदसंठाणसंठिया वोऽवि तस्स पाया, अहरीलोढसंठाणसंठियाओ पाएसु अंगुलीओ सिप्पिपुरसंठिया से मक्खा लाह माइजाणुए विगयभग्गग्गभुमए ।
अर्थ-अर्जुन वृक्ष की गांठ के समान कुटिल एवं बहुत बीभत्स घुटने पे । घुटने के नीचे का भाग मांस-रहित तथा कठोर रोमावली वाला था। पांव मसाला पीसने को शिला के समान पे । लोड़ी के समान अंगुलियां चौं, सोप-संपुट के समान नाखून घे, गाड़ी के पिछले भाग में लटकते काष्ट के समान छोटे तथा बेमोल घटने थे, मुकुटी बड़ी भयावनी और कठोर थी (विकराल टेढी, कृष्ण मेघ के समान काली भौंह थी, लम्बे होठों से बात बाहर निकले हुए पे-पाटान्सर)।
अवदालियवयणविवरणिल्लालिघग्गजीहे सरहफयमालियाए उंदुरमालापरिणद्वसुकचिंधे पउलकयकण्णपूरे सप्पकरवेगच्छे।
अर्थ-गुफा के समान मुख से जीभ का अप माग बाहर निकला हुआ बड़ा भयंकर दिखाई देता था। गिरगिट की मालाएं पहनी हुई थी। चूहों की मालाएं मी पहन रखी थी। कानों में कुण्डल के स्थान पर नेवले लटक रहे थे। दुपट्टे के स्थान पर सर्प लपेटे हुए थे, (चूहे को शिर का आभूषण, विचछू की मुद्रिकाएँ, सर्प का यज्ञोपवीत पहना हुआ था। मुख, नाक तथा नख सहित व्याघ्रचर्म पहना हुआ पा। शरीर पर मांस और कधिर का लेप किया गया था।
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
YE
श्रमणोसक कामदेव - देवोपसर्ग
अप्फोडते अभिगज्जत भीममुक्कहट्टहासे णाणाधिहपंचवण्णेहिं लोमेहिं उबचिए एवं महं णीलुप्पलगबलगुलिय भय सिकुसुमप्पा अमिं खुरधारं गहाय जेणेव पोमहसाला जेणेध कामदेवे समणोवासए तेणेष उपागच्छड, उवागच्छत्ता आसुरते रुट्टे कुवि डिक्किए मिसि मिसीयमाणे कामदेवं समणोवासयं एवं षयासी
अर्थ-- इस प्रकार भयंकर रूप बना कर मोम, उत्कृष्ट अट्टहास कर के करतल से स्फोटन करता हुआ, मेघ के समान गर्जना करता हुआ, पांचों रंगों वाले लोगों सहित, नील कमल के समान, भैंस के सौंप के समान, अलसी के कुसुम तथा नील के समान प्रभा वाली तीक्ष्ण धार वाली तलवार हाथ में ग्रहण कर के अहाँ कामदेव श्रमणोपासक की पौषधशाला थी, वहाँ वह वेब आया और भयंकर क्रोधाभिभूत हो कर मिसमिसाहट करता हुआ कहने लगा ।
हे भो कामदेवा ! समणोवासया अपत्थियपत्थिया दुरंतपंतलक्षणा हीणपुण्णधाउद सिया हिरिमिरिधि- कित्तिपरिवज्जिया ! धम्मकामया पुण्णकामया, सरकामया मोकामया धम्मखिया पुष्णकंस्विया सग्गकंस्थिया मोक्खकंखिया धम्मपित्रासिया पुण्णपिवासिया सम्मविवासिया मोक्षपिवासिया ! णो खलु कप्पड़ तव देवाशुपिया ! जं सीलाई क्याई वेरमणाई पच्चत्रखाणाई पोसहोववासाई चालितए वा खुमित्त वा खंडितए वा मंजित वा उज्झित वा परिचहत्तर वा तं जड़ णं तुमं अजं सीलाई जाव पोसहोववासाई ण छड्रेसि ण मंजेसि नो ते अहं अज्ज इमेणं णीलुप्पल जाव असिणा खंडाखंडि करेमि, जहा गं तुमं देवाशुपिया अदुहहवसटे अकाले चैव जीविद्याओ वत्ररोविज्जसि । नए णं से कामदेवे समणोवास तेणं देवेणं पिसायरूयेणं एवं वृत्ते ममाणे अभी अतत्थे अणुब्बिगे अनु भिए अचलिए असंते तुसिणीए श्रमज्झाणोषगए विहरः । सू. १९॥
" अरे हे कामदेव श्रमणोपासक ! जिसकी कोई चाहना नहीं करता उस मृत्यु की चाहना करने वाले ! वुष्ट एवं हीन लक्षणों वाले ! हीन चतुवंशी को जन्मे । लज्जा, लक्ष्मी, धर्म और कीर्ति से रहित। धर्म, पुण्य, स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करने की
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०
श्री उपासकदशांग सून-२
कामना आकांक्षा वाले, तीव्र इच्छा युक्त पिपासु, हे वेवानुप्रिय 1 तुझे धारण किए शीलव्रत, अनुवत, गुणवत तथा पौषधोपचास आदि भावक व्रतों से विचलित होना, क्षुभित होना, देश रूप से खण्डना करना, भंग करना, उपेक्षापूर्वक त्याग देना, पूर्णकर से परित्याग कर देना नहीं करुपता है । परन्तु यदि आज तू इन व्रतों से विचलित नहीं होगा, यावत् परित्याग नहीं करेगा तो इस नीलकमल जैसी तीक्ष्ण तलवार से तेरे लण्ड-खण्ड कर लूंगा । जिससे तू आर्त-ध्यान युक्त होकर अकाल-मृत्यु को प्राप्त होगा ।"
कामदेव श्रमणोपासक उस पिशाच रूपधारी देव के ये वचन सुन कर भयभीत नहीं हुए, त्रास के प्राप्त नहीं हुए, उद्विग्न नहीं हुए, क्षुमित नहीं हुए, शुभ परिणामों से चलित नहीं हुए और कायिक खेष्टाओं से भी संधान्त नहीं हुए, किन्तु शान्तिपूर्वक धमंध्यान करते रहे।
तर णं से देवे पिसायरूवे कामदेवे समणोवासयं अभीयं जाव धम्मज्झागोबरायं बिहरमाणं पास पासित्ता ढोच्वंपि तच्चपि कामदेव एवं वयासी- "इं भो कामदेवा ! समणोवासया अपत्थिय पत्थिया अड् णं तुमं अज्ज जाब दवरोविज्जसि," तए णं से कामदेवे समणोवासए तेणं देवेणं दोपि तच्चपि एवं वृत्ते समागे अभीए जाव धम्मज्झाणोचगाए विहरइ । तर पणं से देवे पिसापरूवे कामदेव समणोवासयं अभीयं जाप विहरमाणं पासह पासित्ता आसुरते तिबलियं भिउडि पिडाले साहइड कामदेवं समणोवासयं णीलुप्पल जाव अमिण खंडाखंडि करेइ । तर चां से कामदेवे समणोवासए तं उज्जलं जाव दुरहियासं वेपणं सम्म सहह जात्र अहिया सेह ॥ सू. २० ॥
अर्थ- जब उस विशाच रूपधारी देव ने कामदेव श्रमणोपासक को निर्भीक यावत् धमंध्यान ध्याते हुए देखा, तो दूसरी बार तीसरी बार सो उपरोक्त वचन कहे, कि "हे अप्रार्थित प्रार्थी । पायस् तेरे टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा" तब भी जब वे तनिक भी भयमीत नहीं हुए, तो उसके ललाट में तीन सल बन गए। यह अत्यंत कुपित हुआ और अपने नीलकमल के समान उस तीक्ष्ण धार वाले बढ़ग से शरीर के टुकड़े टुकड़े कर दिए। इससे
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
बमणीपासक कामदेव-देवोपना
कामदेव को अत्यन्त भयंकर वेदना हई, जो दुसह्य, कर्कश, कठोर यावत् असह्य थी। परंतु कामदेव धर्मध्यान से विचलित नहीं हुए और उस वेदना को समभाव से सहते रहे।
हस्ती रूप से घोर उपसर्ग तए णं से देवे पिसापरूवे कामदेवं समणोवालयं अमीए जाय बिहरमाणं पास पासिता जाहे जो संचापर कामदेवं समणोवासपं जिग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए था खाभित्तए वा विपरिणामित्तए था ताहे संते संते परितंते सणिपं मणियं पच्चोसफ्फर पच्चोसक्कित्ता पोसहसालाओ पढिणिक्खमा परिणिक्खमित्ता दिव्वं पिसायरूवं विप्पजहा विप्पजाहिसा एगं मई दिव्यं इत्यि रूपं विउवा मतंगपाठियं सम्म संट्टियं सुजायं पुरओ उदग्गं पिओ वराह अयाच्छि अलंच. फुच्छि पलंपलंयोदरापरकर अन्झुग्गयमउलमल्लियाविमलघवलदत कंत्रणकोसीपबिहानं आणामिपचायल लियसविल्लियग्गसो कुम्मपडिपुण्णचलणं वीमाणा अल्लीणपमाणजुत्तपुच्छ मत्तं मेहमिव गुलगुलेंतं मणपवणसइणवेगं दिव्यं हत्यिरूचं विउव्या विवियत्ता जेणेव पोसहसाला जेणेव कामदेवे समणोवासए तेणेव उवागण उवागछित्ता कामदचं समणोवासयं एवं धपासी।
अर्थ-उस पिशाच रूपधारो देव ने कामदेव को भय-रहित यावत धर्मध्यान करते देखा। जब वह उन्हें निग्रंथ-प्रवचन से चलित, अमित और विपरिणामित नहीं कर सका, तो वह लज्जा और ग्लानि से थक कर बानः वानः पौषधशाला से बाहर निकला । उसने पिशाच रूप त्याग कर एक महान दिव्य हाथी का रूप बनाया। चार पाय, सूर, पूंछ और लिंग ये सातों अंग भूमि का स्पर्श करते थे, इस प्रकार वह हायी सप्तमांग प्रतिष्ठित था। अंगोपांग सुन्दर और प्रमाणोपेज थे, आगे की ओर मस्तक ऊँचा था, पृष्ठ भाग सूअर के समान पुष्ट मा, उसकी कुक्षि बकरी के समान अलंब थो, गजानन के समान होठ लम्बे और लटक रहे थे, दात मल्लिका (नवीन विकसित बेला) के फूल के समान स्वच्छ श्वेत, तथा स्वर्ण की चूड़ियों वाले में, कुछ नमाए हुए धनुष के समान चपल सूड का अप्रभाग पा, कछुए के समान संकुचित धरण थे, बोसो नाखुन , पूछ भी प्रमाणोपेत घी, मावण के बादलों के
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री पासकदशांग सूत्र-२
समान गम्भीर गर्जना करता हुआ मन एवं पवन के समान शीघ्र गति युक्त हाय) का रूप बना कर कामवेष धमणोपासक के समफा आया और कामदेव भमणोपासक से कहने लगा;
"हं भो कामदेचा ! सरगोचालया गझेब नप जे सिमो ते अज्ज अहं सोण्डाए गिहामि, गिहामित्ता गेसहसालाओ णीणेमि, गीणेमित्ता उपद हामं उबिहामि, उब्धिहामित्ता तिक्खेहिं दंतमूसलाई परिच्छामि, पदिच्छामित्ता अहे धरणितलसि तिकबुत्तो परसु लोलेमि जहाणं तुम अदुहवसट्टे अकाले घेव जीवियाओ ववरोविज्जसि।" तर f से कामदेवे समणोवासए सेणं देवेणं हथिरूयेणं एवं वुत्ते समाणे अमीए जाव विहरइ । तए णं से देवे हत्यि रूवे कामदयं ममणोवासयं अभीयं जाव विहरमाणं पासइ, पासित्ता दोच्चपि तच्चपि कामदेवं समणोवास एवं वपासी है भो कामक्षेषा ! महेव जाष सोऽपि विहाह । मए णं से देवे इन्धिरूवे कामदेवं समणोपासयं अभीय जाब विहरमाणं पामह, पासित्ता आसुरुत्ते रूठे कुथिए चंडिविका मिसिमिसायमाणे कामदेवं समणोवामयं मोण्डाए गिणहरु, गिण्डित्ता उड्ढे बेहासं उबिहह उविहित्ता तिक्वहिं दसम्मलेहि परिच्छा. पदिकित्ता अहे धरणितलंसि लिक्खुत्तो पाएसु लोलेर । नए णं से कामढवे समणो. वामए नं उज्जलं जाव अहिंयाले ॥सू. २१॥
अर्थ-हे कामदेव ! यदि तू श्रावक-व्रतों का भंग नहीं करेगा, तो मैं तुझे मुंह से पकड़ कर, पौषधशाला से बाहर ले जाऊंगा और आकाश में ऊंचा फेंक दूंगा तया नीचे गिरते समय मेरे तीषण धांतों पर मेल कर नीचे भूमि पर गिरा दूंगा, तपा तीन बार पांवों तले कुचलंगा । जिससे तू आर्तध्यान करता हुआ अकाल में मर जायेगा। ये वचन सुन कर भी कामदेव धमणोपासक को तनिक भी भय नहीं हुआ, और पूर्ववत् धर्मध्यान करते रहे। उपरोक्त वचन दो-तीन बार कहे, तब मी कामदेव को धर्मध्यान ध्याते अविचल देखा, तो देव ने कुपित हो कर अपने हायी रूप से कामदेव को सूंह द्वारा ग्रहण कर पौषधशाला से बाहर लाया और आकाश में ऊंचा उछाला, और गिरते हए अपने तीक्ष्ण दांतों पर मेला, तथा भूमि पर पटक कर तीन बार पांवों तले कुचला । इससे कामवेवजी को पूर्ववत असहा
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमोपासक कामदेव-देवोपसर्ग
बेदना हुई, परन्तु कामदेव ने यह वेदना भी समभाव से सहन को और धर्मध्यान से लेशमात्र भी नहीं हिगे।
देव उपसर्ग--सर्प रूप
तए णं से देवे हत्यिसवे कामदेवं समणोपासयं जाहे णो संचाएइ जाव सणिय सणियं पच्चोमक्का, पच्चोसक्कित्ता पोसहसालाओ पडिमिक्खमा, पडिणिक्खमित्ता दिन्यं हस्थिरूवं विपमहइ, विप्पजहित्ता एग महं दिव्य सप्परूवं विउरुवा-उग्गविसं चंडविसं घोरविसं महाकाय मसीमूसाकालगणपणविसरोसपुण्णं अंजणा पुंजणिगरप्पगासं रत्तच्छ लोहियलोयणं जमलमुगलचंचलजीहं धरणीयलवेणिभूयं उक्कफुकुडिलजटिलफक्कमवियहफडाडोवफरणदच्छ ले.हागरधम्ममाणधमधमयोस अणागलियतिन्यचंयरोस सप्परूयं विउघड, विश्वित्ता जेणेव पोसहसाला जेणेव कामदेबे समणोवासए तेणेव उवागच्छद, उवागच्छिता कामदेवं समणोवासयं एवं बयासी ।
अयं-हाथी के रूप से जन देव कामदेव को धर्म से न डिगा सका, तो शनःशनः पौषधशाला से बाहर निकला और हरती का रूप त्याग कर एक महान दिव्य सर्प रूप की विकुर्वणा की । वह सर्प उन विष बाला, अल्प समय में ही शरीर में व्याप्त हो जाय ऐसे चए (सैद्र) विष वाला, शीघ्र ही मृत्यु का हेतु होने से घोर विला, बड़े आकार वाला, स्याही एवं मूस (धातु पलाने का पात्र) के समान काला, वृष्टि पड़ते हो प्राणो भस्म हो जाय ऐसा दृष्टिविष, जिसकी आँखें रोष से मरी पी, काजल के ढेर के समान प्रमा वाला, जिसकी आंखें लालिमायक्त कोध वाली घी, दोनों जीमें चंचल तथा लपलपाती पी, अत्यन्त सम्मा तथा कृष्णवर्ण वाला होने से धरती को वेणी (काली चोटी) के समान दृष्टिगत होता या, अन्य का परामव करने में उत्कट, चाह एवं स्वमाय से अत्यंत कुटिल, जटिल, निष्टर, फण का घटाटोप करने में वक्ष,लहार की धौंकनी के समान घमघमायमान धान्च करता हुआ, फरकार करता हुआ, जिसका तीन को रोका आना संभव नहीं, ऐसा भयंकर सर्प रूप बना कर
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री उपासकदशांग सूत्र-२
कामदेव श्रमणोपासक के निकट आया और यों कहने लगा
"हं मो कामदेषा समणोवासपा ! जाच ण भंजेसि तो ते अज्जेष अई मरसरस्स कार्य दुरुहामि, दुरुदामिसा पच्छिमेणं भागणं तिक्खुत्तो गीचं बेटेमि,
ढित्ता तिक्खाहिं विसपरिगयाहि दादाहि उरंसि चेव निकुमि जहाणं तुम अदुहवसट्टे अकाले चेव जीवियाओ बबरोविज्जसि । तए णं से कामदेवे समणोवासर ते देणं सप्णरूण एनं बुन्ने समाणे अमीर जाव विहरह। सोऽपि वोच्चपि तच्चपि भणइ, कामदेवोऽवि जाव विहरइ । तए णं से देवे सप्परवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाष पासइ, पसित्ता आसुरुत्ते रूढे कृषिए पंडिक्किए मिसिमिसीयमाणे कामदेवस्स समणोषासयस्स सरसरस्स कायं दुरूहइ दुरूहित्ता पच्छिमभायणं तिक्खुत्तो गीवं वेढेइ, द्वित्ता तिक्खाहिं विसपरिगयाहिं दाढाहि उरंसि चेव णिकुटे । तए णं से फामदेवे समणोषामए तं उज्जलं जाव अहियासेह।
अर्थ-कामदेव ! यदि तू बाधक-प्रतों का अंग नहीं करेगा, तो में अभी सर. सराहट करता हुआ तेरे शरीर पर घड़ जाउँगा, पूंछ से तेरी गर्दन पर तीन आंटे लगा कर लिपट जाउंगा तमा तीक्ष्ण विधली दाढ़ानों से तेरे हवयं पर उसंगा, जिससे तू आत्तध्यान करता हआ अकाल में ही मर जायेगा। देव वचन सुन कर मी जब कामदेव डरे नहीं, तो देव ने दो-तीन बार उपरोक्त वचन कहे, तब भी मन-परिणामों में पलायमान नहीं हुए, सब सर्परूपधारी देव शीघ्र ही अत्यन्त कुपित हुआ और सरसराहट करसा हुमा कामदेव पर चढ़ गया। उनकी गर्दन को अपने तीन वढ़ बांटे लगा कर तीक्ष्ण विषपूर्ण वाढ़ानों से हृदय पर उसा, जिससे कामदेव को अत्यन्त भयंकर बेदमा हुई। इस उन वेदना को उन्होंने समभाव से सहन किया, परन्तु धर्मज्यान से लेशमात्र भी चलित नहीं हए ।
तए णं से देव सप्पलवे कामदेषं समणोपासयं अभीयं जाव पासह, पासित्ता जाहे णो संयाएइ कामदेवं समणोवास णिग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए या खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा नाहे संते नंते परितंते सणियं सणियं पच्चोसाइ पच्चोसकित्ता पोसहसालाओ पडिणिक्खमह, परिणिक्खमित्ता दिव्यं सप्परूवं
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रमणोपासक कामदेव--तुम घन्य हो- इन्द्र से प्रशंसित
विप्पजहइ, विप्पजहिता एगं मई दिव्यं देवरूवं विउवह, हारविराइयवच्छ जाव दस दिसाओ उज्जोवेमाणं पमासेमाणं पासाइयं दरिसणिज्ज अभिरूवं परिरूवं दिडर्व देघाहर्ष बिउठवा विउठिवत्ता कामदेवस्स समणोवासयस्स पोसह. सालं अणुप्पषिसइ अणुप्पविसित्ता अंतलिक्वपरिवणे सखिखिणियाई पंच. वण्णाई वत्थाई पवरपरिहिर कामदेवं समणोधासयं एवं क्यासी
अर्थ-(यक्ष, हाथी और सपं रूप तीन प्रकार से उपस देने के बाद मी) जब सर्प रूपधारी वेव ने कामदेव श्रमणोपासक को मिर्मय यावत् धर्मध्यान में लीम देखा, और निपंथ-प्रवचन से लेता-मात्र मी चलित न कर सका, लुमित नहीं कर सका, विपरिणामित नहीं कर सका, सब थक कर त्रास को प्राप्त हमा, और क्लात होकर शानः शन पौषधशाला से बाहर निकला। उसमें सर्प का रूप त्याग कर देष रूप की विकुर्षणा की। उस देव का वक्षस्थल मालाओं से सुशोभित था, मामूषणों तथा शरीर की काति से वशों दिशाएँ प्रका. शित हो रही थी, वह देष दर्शनीय, बार-बार दर्शनीय और रूप काति में अनुपम या 1 ऐसी विकुर्वणा करके वह कामदेव बमणोपासक को पौषधशाला में आया । अंतरिक्ष में घंधुद सहित श्रेष्ठ पांचों रंगों के प्रधान वस्त्र धारण किए हुए उस देव ने कामदेव से इस प्रकार कहा
कामदेव तुम धन्य हो--इन्द्र से प्रशंसित " भो कामदेवा समणोवासया ! धपणेसि णं तुम देवाणुप्पिा ! सपुणे कपत्थे कयलक्षणे सुलद्धे णं तव देवाणुप्पिया ! माणुस्सा जम्मजीवियफले, अस्स णं तब णिग्गंथे पावयणे इमेयाख्या पडिवत्ती लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया। एवं खलु देवाणुप्पिया ! सक्के देविदे देवराया जाव सक्कसि सीहासणंसि घउरासीईए सामाणियसाहस्सीणं जाव अण्णेसिं च पट्टणं देवाण य देवीण य मझगए एषमाइक्खद, एवं भासह, एवं पण्णवेह, एवं परूबेड़-एवं खल देवाणुपिया ! जंबूहीवे दीवे मारहे वासे चंपाए णयरीए कामदेवे ममणोवासए पोसहसालाए पोसहियर्षभधारी वन्भसंधारोवगर समणस्स भगवओ महा रस्स अंनियं धम्मपण्णात उपसंपत्तिाणं विहरह । णो खलु से सक्का केणइ देवेण वा दाणवेण वा जाप
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी उपासकदशांग सूच-२
wwwwwwwwwww
गंभब्वेणं णिग्गंथाओ पाषयणाओ पालित्तए वा खोभितए पारिपरिणामित्तए था।
अर्थ--हे कामदेव अमगोपासक ! आप धन्य हैं, हे देवान प्रिय ! आप पुण्यशाली है, कृतार्थ हैं, आपके शारीरिक लक्षण शम है, मनुरूप जन्म और जीवन प्राप्त कर आपने सफल किया है, आप महान् पुण्यात्मा हैं। आपको निपंथ-प्रवधान में पूर्ण दृढ़ता, निष्ठा, श्रद्धा एवं चि मिली, प्राप्त हुई, मली प्रकार स्थित हुई है।
हे देवानप्रिय ! एकबार सौधर्म देवलोक के अधिपति शन्द्र महाराज सौधर्मावतं. सक मिसात की सार्माममा में पौरामी नार सामानिक वेवों, तेतीस त्रायत्रिशक देवों, चार लोकपालों, आठ अप्रमाहिषियों आदि तथा अन्य देवी-देवताओं के मध्य अपने सिंहासन पर विराज रहे थे। उन सब के समक्ष शफन्द्र ने यह प्ररूपणा की कि
'हे देवों 1 अंबद्वीप के भरतक्षेत्र में चम्पा नामक मगरी है। वहां कामदेव धमनोपासक पौषधशाला में रहा हुआ, घमण भगवान महावीर स्वामी द्वारा फरमाई गई धर्मप्रज्ञप्ति का यथावत् पालन करता हुआ धर्मध्यान कर रहा है। किसी भी देव, दानव, या, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग और गंधर्व में यह सामर्थ्य नहीं कि वह कामदेव श्रमणो. पासक को निप्रप-प्रवचन से चलित कर सके, क्षभित कर सके, विपरिणामित कर सके।
नए णं अहं सस्करस देविपस्स देवरण्णो एपमढें अमरहमाणे, अपत्तियः माणे अरोएमाणे इई हन्धमागए । तं आहो णं देवाणुप्पिया । इड्ढी जुई जसो पलं पीरियं पुरिसक्कार-परक्कमे लाद्ध पत्ते अभिसमपणागए। विट्ठा णं देवाणुप्पिया। इइदी जाव अभिसमपणागया, तं खामेमि णं देवाणुप्पिया ! खमंतु मज्झ देवाणु. पिया। खंतुमरहनि णं देवाणुपिया णाई भुज्जो करणयाए सिकटु पापयरिए पंजलिउडे एयमद्धं भुजो मुज्जो खामेइ खामित्ता जानेव दिसं पाउम्भूए सामव विसं पहिगए । तग णं से कामदेवे समणोवासए निरुवसगं तिकट्टु पडिम पारेह ॥ तू. २३ ॥
अर्थ-तब मैने शक्रेन्द्र के वचनों पर श्रद्धा, प्रतीति, कचि नहीं की। उनके वचन को मिथ्या सिद्ध करने के लिए तथा आएको धर्म से रिगाने के लिए में यहाँ आया और
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
कामदेव तुम धाम हो-इन्द्र से प्रशंसित
आपको अनेक उपसर्ग दिए, किन्तु आप धर्म से सनिक भी डिगे नहीं । धन्य है आपकी ऋद्धि, प्रल, वीर्य, ति, यश और पुरुषा-पराक्रम को। आपको निपंथ-प्रवचन में लता और निष्ठा मैने देनी । हे देवानुप्रिय ! आपको मैंने जो उपसर्ग दिये, उस अपराध को मामा कीजिए । आप क्षमा करने योग्य है । मैं क्षमाप्रार्थी हूँ, इत्यादि वचों से समा मागता हुआ वह देव, हाथ जोड़ कर कामगेम के पैरों पर मत मारक्षमा भावना की और जिस विशा से मापा था, उसी दिशा में लौट मया। 'अब में निरुपसर्ग हो गया हूँ'--ऐसा विचार कर कामदेवजी ने प्रतिमा पाली ।
..
.
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महाषीरे जाव विहरह। तए कामदेष समणोवासए इमीसे कहाए लद्ध समाणे एवं खलु समणे भगषं महावीरे जाव विहरह। तं सेयं खलु मम समणं भगवं महावीर मंदित्ता नमसित्ता तओ पडिणियसस्स पोसहं पारित्तए तिकट्टु एवं संपेहेर, संहिता सुद्धाप्पावेसाई वत्थाई जाप अप्पमहग्य जाव मगुस्सवग्गुरापरित्तिखित सयाओ गिहाओ परिणिक्खमइ, परिणिक्खमिता संपणार मज्झमशेणं णिग्गछह, णिग्गच्छित्सा जेणेव पुण्णमहे घेहए जहा संखो जाव पज्जुवासह । तए णं समणे भगवं महावीरे कामदेषस्स समणोषासयस तीसे यात्र पम्मकहा समत्ता ॥ स. २४॥
अर्थ- उस काल उस समय में बमण मगवान महावीर स्वामी चंपामगरी पधारे। कामदेव घमणोपासक को भगवान के पधारने का समाचार मिला, तो उन्होंने विचार किया कि भगवान् के समीप आ कर वना नमस्कार एवं पर्युपासना करके फिर पौषध पालना मेरे लिए उचित है। ऐसा विचार कर समवसरण में जाने योग्य शुद्ध वस्त्र पहने तमा अनेक मनुष्यों के समूह से घिरा हुमा अपने घर से निकला। राजमार्ग से होते हुए जहाँ पूर्णभद्र सचान था वहाँ आया और (भगवसी वा. १२.१ वणित) शंख पावक की भांति पर्युपासमा करने लगे। भगवान् ने कामदेव और बस विशाल जन सभा को धर्म-कया फरमाई।
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
d
श्री उपासमादशांग सूत्र-२
कामदेव का आदर्श “कामदेवाइ ? समणे भगवं महावीरे कामदेवं समणोपासयं एवं धपासीसे गूणं कामदेवा! तुम्म पुन्वरत्तावरत्तकालसमयसि एगे देवे अंतिए पाउन्मए । तए णं से देखे एगं महं दिव्यं पिसायसवं विउवा, बिउवित्ता आसुरत्त कहे कुविए चंतिक्किए मिसिमिसीयमाणे पगं महं नीखुप्पल जाव आसिँ गहाय तुमं एवं वयासी-ई भो कामदेवा ! जाव जीषियाओ अवरोविज्जसि,तं तुम तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरसि एवं षण्णगरहिया सिण्णिवि उपसग्गा तहेव पतिउमरियन्वा साप यो परियो, संपूर्ण कामदेवा अढे समठे?" "हंता अत्थिा"
अर्य-श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने कामदेव श्रमणोपासक को संबोधित कर फरमाया—'हे कामदेव ! कल मध्य रात्रि के समय तुम्हारे पास एक देव माया और पिशाच रुप बना कर पावत् मार डालने की धमकी दो। तुमने निर्भीक रहकर तीनों उपसगों को सममाव से सहन किया यावत वह देव लौट गया, इत्यादि वृत्तांत क्या सस्य है ? ' कामदेव ने कहा-"हाँ भगवन् ! सत्य है।"
“अज्जो इ समणे भगवं महावीरे पहवे समणे-णिग्गथे पणिग्गंधीओ घ आमंतेत्ता एवं वयासी- आइ ताव अज्जो समणोपासगा गिहिणो गिहमज्झावसंता दिघमाणुस्सतिरिक्खजोणिए उवसग्गे सम्म सहति आय अहियासंति, मक्का पुण्णाई अनो! समणेहिं णिग्गयेहिं दुषालसंगं गणिपिटगं अहिजमाणेहिं दिव्यमाणुसतिरिक्खजोणिए सम्म सहित्तए आव अहियासित्तए, तओ ते यहवे समणा णिग्गंधा य णिग्गंपीओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स तहत्ति एयमदं विणए णं पहिसुगंति । तए थे कामदेवे समणोवासए हह जाय समणं भगवं महावीरं पसिणाइं पुच्छई अट्ठमादिया, समणं भगवं महावीरं तिक्खुतो वह पामंसह बंदिता णमंसित्ता जामेव दिसि पाउपभूए तमेव दिसि परिगए । तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कपाइ पाओ पडिणिखमइ, परिणिक्खमित्ता पहिया अणवयविहारं विहराइ ॥ सू. २५ ॥
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
कामदेव का भावरी
मर्थबहुत-से सम्धु-साध्वियों को आमंत्रित कर श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने फरमाया--"हे आर्यो ! गृहस्प अवस्था में रह कर भावक-धर्म का पालन करते हुए भी जब वैविक, मानवीय और तिर्मच संबंधी उपसा को धममोपासक सम्यक प्रकार से तहन करते हैं, परंतु धर्म से विचलित नहीं होते, तां साधु-साध्दियों का तो कहना ही पया ? वे सो वावशांगी रूप गणिपिटक के धारक होते हैं। अतः उन्हें तो दैविक मानवीय और तियंच संबंधी उपसगों को सम्यक प्रकार से सहन करना ही चाहिए।"
भगवान् के इन बचनों को सभी साधु-साध्वियों ने विनयपूर्वक स्वीकार किया।
कामदेव ने भगवान से अनेक प्रश्न पूछ कर अर्थ धारण किये और वंबना नमस्कार करके जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में लौट गए। भगवान् मी कालान्तर में चंपा से विहार कर बाहर जनपद में विचरने लगे।
विचन--कामदेवजी ने सविधि पौषध पाल कर वस्त्र परिपर्सन फिए । पौषध-सभा में जाने योग्य विशिष्ट वस्त्र नहीं थे।
शंका---" मूलपाठ में तो बिना पौषध पाले ही समवसरण में गये ऐसा वर्णन है, फिर 'आप सविधि पौषध' पालने की बात कैसे कह रहे हैं ?"
समाधान-- उन्होंने उपवास रूप पोषध नहीं पाला पा । पारणा तो भगवान के पास से लोटने के बाद किया पा। यही आशय समझना चाहिए।
नए णं से कामदेवे समणोवासए पढम उवासगपरिमे उपसंपमिसाणं विहरइ । तए णं से कामदेव समणोवासए पहहिं जाव भविप्ता वीसं बासाई समणोपासग परियागं पाउणित्ता एक्कारस उवासगपडिमाओ सम्मं कारणं फासेसा माप्तियाए सलेहणाए अप्पाणं झूसिप्ता सहि भत्ताई अणसणाए छेदेसा भालोइय. पडिक्फते समाहि पत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सोहम्म पग्सियस महाविमाणस्स उत्तरपुरछिमेणं अरुणामे विमाणे देवत्ताए उवषण्णे | तत्य णं अस्गइयाणं देवाणं पत्तारि पलिओवमा टिई पण्णत्ता कामदेवस्स वि देवस्स
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री उपासकदणांग सूत्र — २
चारि पलिओ माई टिई पण्णत्ता से णं भंते! कामदेवे ताओ देवलोगाओ आउकारर्ण भवक्खपणं ठिक्वपूर्ण अनंगरं वर्य चहत्ता कहि गमिहिर, कहि उबवज्जिहि १ गोषमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ । णिक्खेषो ।। सू. २६ ।। ॥ सप्तमस्त अंगस्स प्रवासगवसाणं वीर्य अज्झयणं समन्तं ॥
I
६०
अर्थ -- कामदेव क्षमणोपासक ने श्रावक को पहली प्रतिमा यावत् ग्यारहवीं प्रतिमा की आराधना की। उपवास, बेला, तेला, अठाई, अर्द्ध-मासखमण, मासक्षमण आदि से आत्मा को मावित की बीस वर्ष तक आवक-पर्याय का पालन किया और एकमासिकी संलेखना से साठ भक्त का छेवन किया तथा दोषों की आलोचना-प्रतिक्रमण कर के समाधियुक्त काल कर के प्रथम वेवलोक 'सौधर्म कल्प' के सौधर्मावतंसक महविमान के उत्तरपूर्व दिशा-भाग में 'अरुणाम' नामक विमान में उत्पल हुए। वहाँ अनेक देवों की स्थिति चार पल्योपम की कही गई है, तवनुसार कामदेव भी चार पत्योपम की स्थिति वाले देव हुए । गौतमस्वामी पूछते हैं- 'हे भगवन् ! कामदेव उस वेवलोक से आयु-भव एवं स्थिति का क्षय कर के वहाँ से व्यय कर कहाँ जा कर उत्पन्न होंगे ?
भगवान् ने फरमाया- हे गौतम! वहाँ से वे महाविदेह-क्षेत्र में उत्पन्न हो कर सिद्ध बुद्ध तथा मुक्त बनेंगे ।
प्रस्तुत अध्ययन में अनेक पाठों का संकोच जानना चाहिए | यमा— श्रावक के व्रत ग्रहण त्याग भादि ।
हुमा है, वहां सारा वर्णन आनन्दजी के समान करना, परिग्रह में वर्तमान सम्पति से अधिक का
शकेन्द्र द्वारा प्रशंसा की जाने पर एक देव द्वारा पिशाच, हाथी एवं सर्प के रूप बना कर उपसर्ग दिए जाने का वर्णन दड़ा ही रोमांचकारी है। कैसे श्रावक वे भगवान् के ? कितनी निर्भीकता, कितनी कष्ट-सहिष्णुता !! उनके आदर्श निर्भय जीवन से जितनी शिक्षा ली जा सके, कम है ।
कष्टों को समभाव से सहा सो तो ठीक, पर साक्षात् तीर्थंकर देव द्वारा साधु-साध्वियों के मध्य 'महान् प्रशंसा' किए जाने पर भी उन्हें गर्व नहीं हुआ। यह बात भी कम नहीं है । मान-सम्मान को पचा जाने की ऐसी अद्भुत क्षमता बिरलों में ही होती है।
|| द्वितीय अध्ययन समाप्त ॥
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीय अध्ययन
चुलनीपिता श्रमणोपासक
-
उक्खेवो तहयरस अज्झयणस्स — एवं खलु जंबू ! तेणं काले णं तेणं समपर्ण वाणारसी णामं णयरी, कोट्टए चेइए, जियसत्तू राया । तत्थ णं वाणासीय जयरीए चूलणीपिया णामं गाहावई परिवसह । अढे जाव अपरिभूए । सामा मारिया । अड्ड हिरण्णकोडीओ णिहाणपउत्ताओ अट्ठ त्रुटि पत्ताओ अट्ठ पवित्थरपउत्ताओं अट्ठ वया दसगोसाहस्रिणं वरणं जहा आणंदो राइसर जाव सव्वकज्जनहावर यावि होन्था । सामी समोसढे, परिसा णिग्गया, चुलणीपियावि जहा आणंदो तहा णिग्गओ, तहेब गिहिधम्मं पढिबज्जर, गोयमपुच्छा तहेव से जहा कामदेवरस जाव पोसहसालार पोसहिए भयारी समणस्स भगवओ महावीररस अतियं धम्मपणति उवसंपज्जित्ताणं बिहर ३ ॥ सू. २७ ॥
1
अर्थ-- तृतीय अध्ययन का प्रारंभ - भगवान् सुधर्मा स्वामी फरमाते हैंहे जम्बू ! उस काल उस समय जब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विचर रहे थे, मारसी नामक नगरी थी। वहाँ कोष्ठक नाम का उद्यान था । जितशत्रु राजा राज्य करता था। उस वाणारसी नगरी में ' चुलनी पिता' नामक गद्यापति रहता था, जो ऋद्धिसम्पन्न यावत् अपराभूत था । उसके आठ करोड़ का धन निधान के रूप में, आठ करोड़ व्यापार में तथा आठ करोड़ की घर बिखरी थी। दस हजार गायों के एक व्रज के हिसाब से आठ वज थे। उसकी पत्नी का नाम श्यामा' था। भगवान् वहां पधारे। परिवद आई। चुलनीपिता ने भी धर्म सुन कर आनन्दजी की भाँति श्रावक व्रत अंगीकार किया । कालान्तर में कामदेव की भाँति घुटनीपिता पौषधशाला में ब्रह्मचर्ययुक्त पौषध करता हुआ बमण भगवान् महावीर स्वामी द्वारा फरमाई गई धर्म-प्रज्ञप्ति को स्वीकार कर आत्मा को भावित करने लगा ।
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२
श्री उपासकदशांग सूत्र-३
तए णं तस्स खुलणीपियरस समणोबासयस्त पुश्वरत्तावरत्तकाल समयंसि पगे देवे अतियं पाउन्मूए। तए णं से देखें एग पीलुप्पल जाव आस गहाय चुलणी. पियं समणोवास एवं पयासी-"हं भो चुलणीपिया ! समणोवासया जहा कामदेवो जाव ण भज्जसि तो ते भई अन्न जेपुत्तं साओ गिहाओ गाणेमि णीणेमित्ता तव अग्गओ धामि, घाएप्ता तओ मंसमोल्ले करेमि, करता आदाण. भरियसि कहासि अपहेमि, अबहेत्ता तव गायं मंसेण य सोणिपण य आयंचामि, अहा गं तुम अहवस अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि।" तए णं से चुलणीपिया समणोषासए तेणं देवेणं एवं खुत्ते समाणे अभीए जाब विहरह।
अर्थ- अर्द्धरात्रि के समय उसके समीप (कामदेव की भांति) एक देव आया, तथा नीलकमल के समान खडग धारण कर बोला यावत् "यदि तू व्रत-मंग नहीं करेगा, तो में आज तेरे सबसे बड़े पुत्र को तेरे घर से ला कर तेरे समक्ष माहंगा, तपा उसके मांस के तीन खण्ड कर के उबलते हुए तेल के कड़ाह में तलंगा और उस मांस एवं रक्त का सेरे शारीर पर सिंचन करूंगा, जिससे तू आतंध्यान के वश हो, अकाल मृत्यु को प्राप्त करेगा।" देव के ऐसे वचन सुन कर भी चुलनीपिता श्रमणोपासक परे महीं और धर्म में स्थिरचित्त रहे।
तए णं से देवे चुलणीपियं समणोपासयं अभीयं जाव पासह, पासित्ता पोग्यपि तच्चपि शुलापियं समणोवासयं एवं घयासी-हं भो धुलणीपिया ममणोवासया! तं देव भणइ, सो जाव विहरह । तए णं से देवे चुलणीपिर समणोघासयं अभीयं जाव पासित्ता आसुरत्ते रुठे कृथिए चडिक्किा मिसिमिसीयमाणे चुलीपियरस समणोवासयस्स जेहं पुत्तं गिहाओ जीणेह, णीणेत्ता अग्गओ घाइ धाएत्ता तआ मंससोल्लग करेइ करेत्ता आवाणभरियसि कहायिसि अहहह, अाहेत्ता चुलणीपियस्स समणोघासयस्स गाय सेण या सोणियेण य आयचाइ, तए णं से घुलणीपिया समणोवासए सं उज्जलं जाष अहियासेह।
मयं-- जब वेव में चुलनीपिता अमणोपासक को निर्भय देखा, तो रो-तीन बार
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
चुलनीपिता श्रमणोपासक
घमंध्यान में लीन देखा, तो देव बहुत कुपित हुआ को घर से लाया। उस पुत्र को आवक के समक्ष
पुत्र
उपरोक्त वचन कहे। तब भी उसे और चुलनोपिता के सब से बड़े ला कर मार डाला और उस के तीन टुकड़े कर के उबलती हुई तेल की कढ़ाई में डाल कर, मांस खण्डों को तला और उस असह्य उष्ण रक्त-मांस से चुलनी पिता के शरीर का सिंचन किया। इससे उसे अत्यन्त मयंकर असह्य वेदना हुई, जिसे घुलनी पिता ने शान्तिपूर्वक सहन किया और व्रत में स्थिर रहा।
1
६३
तए णं से देवे चुलणीपियं समणोवासयं अभीर्य जाव पास, पासिता दोsपि चुलणीपियं समणोवासयं एवं वयासी - हं भो चुलणीपिया समणोवासया ! अपत्थिय पत्थिया जाव ण भज्जसि तो ते अहं अज्ज मज्झिमं पुतं साओ गिहाओ जीणेमि णीणेत्ता तव अग्गओ घारमि जहा जेठं पुप्तं तव भणड़, तहेव करे, एवं वंपि कणीयसं जाव अहियासे ।
• अर्थ - चुलनीपिता के निर्भयता एवं निश्चलता से वेदना सहन करने पर देव ने दूसरी बार मझले पुत्र को मार डालने की धमकी दी यावत् उबलते हुए रक्त-मांस से उसके बेह का सिंचन किया। तीसरी बार में छोटे पुत्र को यावत् मार कर चूलनीपिता श्रमणोपासक पर डाला, किन्तु चुलनीपिता धर्म से किचित् भी नहीं डिगे ।
तए णं से देवे चुलणीपियं समणोषासयं अभीयं जाब पासर, पासिता चत्थं पि खलणीपियं समणोवासयं एवं बयासी - हं भो चुलणीपिया समणोवासया ! अपत्थिपत्थिया ४ ज णं तुमं जाव ण भज्जसि तओ अहं अज्जा इमा तब भाषा भद्दा सत्थवाही देवयगुरुजणणी पुक्करदुक्करकारिया तं ते साओ गिहाओ णीणेमि जीणेत्ता तव अग्गओ घारमि, धाएता तओ मंससोल्लए करेमि, करेत्ता आदाणभरियंसि कहाहयंसि अहहेमि, अहेत्ता तव गायं संसेण य सोणिएण य आयंचामि जहा णं तुमं अहदुहट्टवसट्टे अकाले चैव जीवियाओ ववरोबिज्जसि । तए णं से बुर्ण पिया समणोवासए तेणं देवे णं एवं वृत्तं समाणे अमीर जाव बिहरह
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री पासकदशांग सूत्र-३
अ-लीपिता ममगोपासक को निर्मय देख कर चोषी बार देव ने कहा'हे चुलनीपिता ! मत्यु की चाहना वाले पावत् यदि तु धर्माच्युत न होगा, तो मैं तेरी माता पहा सार्यवाही को, जो तेरे लिए बेव-गम के समान आवरणीय तथा दुष्कर कार्य करने वाली है, तेरे सामने मार कर उबलते हुए तेल की कड़ाई में तल कर मांस-खण्डों से तुसे लिप्त काँगा, जिससे तू आत ध्यान में अकाल मृत्यु प्राप्त करेगा।' तब भी वे निभय रहे।
तए णं से देवे चुलणीपिय समणोवासयं अभीयं जाब विहरमाणं पासा, पासित्ता चुलणीपियं समणोवासयं दोच्चपि तच्चपि एवं पयासी-हं भो पुलणीपिया समणोवासया ! तहेब जाप अवरोविज्ञप्ति । तए णं तस्स चुदणीपिपस्स समणोषासयरस तेणं देवेणं वोच्चपि तच्चपि एवं बुत्तस्स समाणस्स इमेधारूवे अज्झस्थिए ५ अहो णं इमे पुरिसे अणारिए अणारियबुद्धी अणारियाई पाषाई कम्माई समायरइ । जेणं ममं जेई पुत्तं साओ गिहाओ णीणेह, णीणेत्ता मम अग्गओ घाएइ, घाएत्ता जहा कयं तहा बितेइ जाच गायं आयचइ । जेणं ममं मजिझम पुत्तं साओ गिहाओ जाव मोणिएण य आयंचई । जेणं ममं कणीयसं पुस्तं साओ गिहाओ महेव जाव आयंचइ । जाऽवि य इमा ममं माया महा सत्यवाही देवपगुरूजणणी दुक्करदुक्करकारिया तं पि च णं इच्छह साओ गिहाओ जीणेत्ता मम अग्गओ घाएत्तए । तं सेयं खलु ममं एवं पुरीसं गिण्डित्तए।
अर्ष-प्रथम बार कहने पर चुलनीपिता श्रमणोपासक निर्मय रहे, तो दूसरो-तीसरी बार उपरोक्त वचन कहे । तव चुलणोपिता ने विचार किया--"अहो! यह पुरुष निश्चय हो अनार्य, अनार्य-वि वाला सपा पाप कर्मों का आचरण करने वाला है। इसने पहले मेरे बड़े पुत्र को मेरे सामने भार साला, फिर मंझले को तथा फिर छोटे को। अब कहीं यह मेरी माता को न मार आले, इसलिए मुझे इसे पकड़ लेना ही उचित है।"
विवेचन-कामदेव सध्ययन में देव ने पिशाच रूप बनाया था, यह! सम्भवतः पुरुष का रूप बना कर उपरोक्त उपसगं किए, इसी कारण चुलनीपिता ने उसे देवकृत उपसगं न समझ कर पुरुषकृत माना 1 पुरुष वैसा कर भी सकता था, इसी कारण वे परहने को अद्यस दृए । यदि उन्हें देव का शाम होता. सो वे अब भी पूर्ववत् वृद रहते, ऐसा अनुमान होता है।
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
चुलनीपिता देव पर मपटता है
६५
चुलनीपिता देव पर झपटता है
तिकट्टु उद्घाइए, सेऽवि य मागासे उप्पइए, तेणं च खंभे आसाइए, मया माया सणं कोलाहले कर लए णं सा भरा सत्यवाही कोलाहलसई सोच्या णिसम्म जेणेष खुलणीपिया समणोवासए तेणेष उवागच्छा, उवागत्तिा फुलणी. पियं समणोवासयं एवं धपासी-"किणं पुत्ता ! तुम महया महया सद्धणं कोलाहले कए।" तर णं से चुलणीपिया समणोपासए अम्मयं भई सत्यवाहिं एवं बयासी--
अर्थ-ऐसा विचार कर चुलनीपिटा श्रमणोपासक उसे पकड़ने के लिए ललकारते हए उच्चत हुए तो वह देव भाकाश में उड़ गया और खम्भा हाथ में आया। चुलनीपिता का उन कोलाहल सुन कर उसकी माता भद्रा सार्थवाही उसके समीप आई और कोलाहल का कारण पूछने लगी। सब धुलनीपिता धमणोपासक कहने लगे--
"एवं स्वस्लु अम्मो ! ण जाणामि केवि पुरिसे आसुरुत्ते ५ एर्ग मई नीलुप्पल जाव असि गहाय मम एवं वयासी-हं भो चुलणीपिया समणोवासया! अपस्थिपपत्थिया ४ जहणे तुम जाव चवरोविज्जसि | अहं तेणं पुरिसणं एवं बुत्ते समाणे अभीए जाब बिहरामि । तए णं से पुरिसे ममं अभीयं जाव विहरमाणं पासइ, पासित्ता मम दोच्चपि तच्चपि एवं षयासी-ई भो धुलणीपिया समणोवासया! तहेष जाप गायं आयंच। तएणं अहं तं उज्जलं आप अहियासमि । एवं तहेव उच्चारेयब्ध सव्वं जाव कणीयसं जाव आयंपाद | अहं तं उज्जलं जाव महियासेमि । तए णं से पुरिसे मर्म अभीयं जाप पामइ, पासिसा ममं पस्थंपि एवं बयाली-ई भो धुलणीपिया समणोबासपा ! अपस्थियपस्थिया जाव ण मज्जसि तो ते अज्ज जा इमा माया गुरु जाव बवरोविज्जसि । तए णं अहं तेणं पुरिसेणं एवं खुत्ते समाणे अभीए जाब बिहामि । तए णं से पुरिसे वोच्चपि तच्चपि ममं एवं वयासी-ई मो चुलणीपिया समणोवासया ! अज्ज जाव पवरोविज्ञसि । सए णं ते णं पुरिसेणं दोच्चपि तच्चपि ममं एवं युत्तस्स समाणरस इमेयास्वे
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री उपासकदाग सूत्र-३
अज्झथिए ५ अहोणं हमे पुरिसे अणारिए जाव समायरह, जेणं ममं जेई पुतं साओ गिहाओ तहेव जाव कणीयसं जाव आयंचा । तुम्भेऽवि य णं पच्छइ साओ गिहाओ णीणेत्ता मम अग्गओ पाएसए । सेयं खलु ममं एवं पुरिसं गिण्डिसएत्ति कटु उद्धाइए । सेऽपि घ आगासे उप्पए। मएऽवि य खंभे आसाइए महया महया सहणं कोलाहले कए।
"हे--माता ! न जाने कौन व्यक्ति नीलकमल के समान प्रभा वाला सहा ले कर मेरे पास आया और कुपित होकर कहने लगा कि 'हे चलनीपिता! यदि हसत-मंग नहीं करेगा, तो मैं तेरे ज्येष्ठ-पुत्र को मार कर तुम पर उबलता हुआ रक्त-मांस छिड़कुंगा पावत् उसने बड़े पुत्र को मारा। फिर भी मैं धर्म में स्थिर रहा. तब उसने मंझले पुत्र को मार डालने की धमकी दी और मार डाला, फिर छोटे पुत्र को भी यावत मार डाला। तब मो वह नहीं माना और आपको मार डालने का कहने लगा, तब मैंने विचार किया कि यह कोई अनार्य पापी व्यक्ति है, जिसने मेरे तीनों पुत्रों मार डाला और मन देवमह के समान पूज्या माता को भी मारना चाहता है । मैं इसे पकड़ लूं'-ऐसा विचार कर मैने उसे पकड़ना चाहा, तो वह हाथ नहीं आया। मैं खमा ही पपद पाया। इसीलिए मैंने यह कोलाहल किया है।"
वत भंग हुआ प्रायश्चित्त लो
तए णं सा भद्दा सत्यवाहि चुलणीपिणं समणोवामयं एवं पयासी-"णो खलु केइ पुरिसे तब जाव कणीयसं पुत्तं साओ गिहाओ जीणेइ, पीणेत्ता व अग्गओ घाए । एम णं कर पुरिसे उपसरगं करेह । एस णं तुमे विदरिमणे दिडे, तं गं तुम इयाणि भग्गव्यए भग्गणियमे भग्गपोसहे विहरसि । णं तुम पुत्ता ! एयरस ठाणरस भालोएहि जाष पटिवजाहि।" लए णं चुलीपिया समणीवासए अम्मगाए महाए सस्थवाहीए तहत्ति एयमढे विणएणं पहिसणेह, पहिसुणेता सरस ठाणस्स आलोएइ जाष पडिधज्जइ॥ सू. २८॥
अपं- तब मना सार्थवाही ने अपने पुत्र से कहा--'घुलनीपिता ! न तो किसी
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
खत भंग हुआ प्रायश्चित्त लो
पुरुष ने तेरे पुत्रों को मारा है, यावत् न कोई पुरुष दुःख देने आया है। किसी सिम्याको मेव को छलना के कारण तुमने भयंकर वृश्य देखा है, जिससे तेरा प्रत, नियम तथा पोवध भग्न हुआ है। हे पुत्र | इस दोष-स्थान की आलोचना कर तप-प्रायश्चित्त स्वीकार करो। सब पूज्या मातुश्री के वचनों को चुलनीपिता बावक ने हाथ जोड़ कर विनयपूर्षक स्वीकार किया, तथा लगे हुए दोष का शुद्धिकरण किया ।
विवेषन-एलनीपिता से उसकी माता ने कहा कि तुमने भयंकर स्वरूप देखा है, जिससे तुम भग्नवत हुए हो । स्थूल प्राणातिपात विरमण को तुमने भाव से भंग किया है। भयंकर स्वरूप को क्रोधपूर्वक मारने दौड़े, जिनसे व्रत का भंग हुमा, क्योंकि अपराधी को भी मारना प्रत का विषय नहीं है। इसलिए 'भग्ननियम' क्रोध के उदय से उत्तरगुण का भंग हुआ, एवं 'भग्नपौषध'--प्रव्यापार पौषध ब्रत का भी भंग हुमा, इसलिए उसकी आलोचना करो मोर गुरु के पागे पापों को निवेदन करके उसका प्रायश्चित्त करी, आत्मसाक्षी से उस पाप की निंदा करी, पतिचार रूप मल को साफ कर के व्रत को शुद्ध करो, फिर दोष न लगे, ऐसी सावधानी रखो 1 यथार्थ सपकम प प्रायचित्त लो।
साधु के समान गृहस्थ भी यथायोग्य प्रायश्चित्त का पात्र है। यह बात इस मूत्रपाठ से स्पष्ट हो जाती है। उपरोषस खुलासा श्रीमद् अभयदेव मूरि ने टीका में किया है।
मए णं से चुलणीपिया समणोपासए परमं उखासगपडिम उषसंपज्जित्ता णं विहरह। पढ़मं उथासगपद्धिम अहासुतं जहा आणंदो जाव पक्कारसवि । तएणं से चुलीपिपा समणोवासए तेणं उरालेणं जहा कामदेवो जाद सोहम्मे कप्पे सोहम्म-वधिमगरस महाविमाणस्स उत्तरपुरछिमेणं अरुणप्पमे विमाणे देवताए उववणे चत्तारि पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता । महाविदेहे वासे सिजिमहिइ ५ णिक्खेचो ॥ सू. २९॥
अर्थ- (कालान्तर में) बुलनीपिता श्रमणोपासक ने प्रथम उपासक प्रतिमा संगी. कार की, यावत् आनंदजी की भौति ग्यारह ही प्रतिमाओं का घोर-तप सहित मुड आyधन किया यावत कामदेव की भांति (बीस वर्ष की बाधक-पर्याय का पालन किया मासिको संलेखमा से) प्रथम देवलोक के सौधर्मावतंसक महाविमान के उत्तरपूर्व में स्थित
।
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री उपासकदांग सूत्र-३
मणप्रम नामक विमान में उत्पन्न हुए। (वहाँ कई देशों की स्थिति पार पस्योरम को कही गई है। सानुसार) जुलनीपिता श्रमणोपासक की स्थिति चार पल्पोपम को है। (भगवान महावीर स्वामी से गौतमस्वामी ने पूछा-'हे भगवन् ! भूलनीपिता देव, देवमन का कय कर के कहाँ उत्पन्न होगा ? मगवान् ने फरमाया-'हे गौतम !) वहाँ से अव कर महाधिवेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिख बब मुक्त होगा।
॥ तृतीय अध्ययन समाप्त ॥
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्थ अध्ययन श्रमणोपासक सुरादेव
उक्खेवओ धउत्थस्स अज्झयणस्स एव खलु.जबू! ते णे काले तेणं समएणं वाणारसी णाम णपरी, कोहए चेहए, जियसत्तु राया, मुरादेषे गाहावई अड्डू, छ हिरण्णकोडीओ जाव उ वया दसगोसाहस्सिएणं पएणं, घण्णा मारिया, सामी समोसवे, जहा माणको तहेच पहिषज्जह गिहिधम्म, अहा कामदेवो जाय समणरस भगवओ महावीरस्स धम्मपण्णति उपसंपज्जित्ताणं विहरइ ।। सू. ३० ॥
___अर्थ-बोये अध्ययन का उत्थान-भगवान सुधर्मास्वामी फरमाते है-हे जं। उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी विचर रहे थे, तब बागारसी मामक नगरी पी, कोष्ठक उद्यान था, जितशत्र राजा राज्य करते थे, यहाँ 'सुरादेव' नामक गायापति रहते थे। उनके छ: करोड़ का धन निधान में, छ: करोष व्यापार में, सपा छः करोड़ की घरबिखरी थी। दस हजार गार्यो के एक ब्रज के हिसाब से छः प्रज थे। घना नामक पत्नी यो । उस समय अमण-भगवान महावीर स्वामी दाणारसी पधारे। आनन्द को मांति सुरादेव ने भी धर्म सुन कर मावक-धर्म स्वीकार किया और कामदेव की मोति पौषधयुक्त होकर भगवान् की धर्मप्राप्ति का पालन करने लगे।
तए णं तस्स सुरादेवस्स समणोषासयरस पुनवरत्तापरत्तकालसमय सि एगे देवे अंलियं पाउम्भरित्या से देवे पर्ग महं पीलुप्पल जाव असिं गहाय सुरादेवं समणोषासर्य एवं षयासी-" भो सुरादेवा समणोवासया ! अपस्थियपस्थिया ४ जाणं तुम सीलाई जाव ण भंजसि तो ते जेडं पुत्तं साओ गिहाओ गाणेमि, णीमेत्ता तष अग्गओ घाएमि, घाएत्ता पंच मंससोल्लए करेमि, आदाणभरियसि
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
७०
श्रो उपासकदमांग सूत्र -४
वाइसि अहेमि, अहेता तब गायं मंसेण य सोणिएण प आधामि जहा णं तुमं अकाले चैव जिविद्याओ बबरोबिज्जसि । एवं मज्झिमयं कणीयसं, एक्क्के पंच सोल्लया, महेव करेइ, जड़ा चुलणीपियरस, पणवरं एक्वेक्के पंच सोल्लया ।
अर्थ - - मध्य रात्रि के समय सुरादेव श्रमणोपासक के समीप एक देव प्रकट हुआ और तीक्ष्ण धार वाली पाड्ग लेकर कहने लगा--' -"हे मुरादेव | यदि तूने भावकव्रत का त्याग नहीं किया, तो तेरे बड़े, मंझले और छोटे- तीनो पुत्रों को तेरे समक्ष मार डालूंगा, उबलते तेल में तल कर उनके पांच-पांच टुकड़े करके तेरे शरीर पर छिड़कूंगा" यावत् उस देव ने वंसा हो किया, तथा सुरादेव ने समभावपूर्वक यह वेदना सहन की और घमं में स्थिर चिप्स रहा 1
सरणं से देवे सुरादेव समणोबासयं चउत्प एवं बयासी - हं मो सुरादेवा ! समणं वासया ! अपस्थिपत्थिया ४ जाव ण परिच्चपसि तो ते अज्ज सरीरंसि जगलमगमेष सोलस सेगायके पस्विवामि तं जहा- मासे फासे (जरे वाह्ने क्रुच्छिसूले भगंदरे अरिसए अजीरए दिट्टिसूले मुद्वसृठे अकारिए अच्छबेणा कण्णवेपणा कंडुए डवरे) कोदें । जहा गं तुमं अहहह-जाब ववरोजिसि । तरणं से सुरादेव समणोबासप जाब बिहरड़ | एवं देवो दोच्चपि लच्यपि भण जाव रोषज्जसि ।
अर्थ- तथ देव बोला- "हे सुरादेव ! यदि तू धर्म का त्याग नहीं करता तो में एक साथ तेरे शरीर में इन सोलह महारोगों का प्रक्षेप करता हूँ-१ प्रवास २ खाँसी ३ जबर ४ वाह ५ कुक्षिशूल ६ भगंदर ७ बबासीर ८ अजीर्ण ६ वृष्टिशूल १० मस्तकशूल ११ अरोचक १२ आँख की वेदना १३ कान की वेदना १४ खाज १५ उदर रोग और १६ कोढ़। जिससे तू आर्त के वशीभूत हो कर अकाल मृत्यु को प्राप्त होगा। उपरोक्त वचन सुम कर भी सुरादेव धर्म से विचलित नहीं हुए । तब देव ने यही बात दूसरी-तीसरी बार कहो ।
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
धमणोपासक सुरादेव
तए णं तस्स मुरादेवस्स समणोवासपरस तेणं देवेणं योरपि तचापि एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अझस्थिए ४ अहो णं इमे पुरिसे अणारीए जाव समायरइ । जेणं ममं जेटुं पुस्तं गाव कणीपस जाप आयचा । जेऽवि य में सोलह रोगायंका तेऽवि य इच्छा मम सरीरंगसि पक्विवित्तए । सेयं वस्तु मर्म एवं पुरिसं गिण्हित्सए तिकटु उद्धाइए । सेऽवि य आगासे उम्पइए, तेण य खम आसाइए महया महया सणं फोलाहले कए।
॥ सत्तमस्स अंगस्स उवासगवसाणं नउत्थं अज्मयणं सम्मप्तं ॥
अचं- उपरोक्त वचन दो-तीन बार सुन कर सुरादेव श्रमणोपासक विचार करने लगा-यह कोई अनार्य पुरुष है, जिसने मेरे तीनों पुत्रों को मार गला। अब सोलह महा. रोगातकों का प्रक्षेप करना चाहता है। इसलिए इस अनार्य पुरुष को पकड़ लेना अच्छा है। ऐसा विचार कर सुरादेव आवेशपूर्वक ललकारता हुआ उसे पकड़ने को प्रपटा, तो यह देव आकाश में उड़ गया और पोषधशाला का संमा ही हाय में आया ।
तए णं मा धन्ना भारिया कोलाहलं सोचा णिसम्म जेणेव सुरादेवे समणोवासए तेणेव उवागच्छा, उवागरिछस्ता एवं क्यासी-"किपणं देवाणुप्पिया! तुहि महया महया मद्देहि कोलाहले कर ?” नए णं से सुरादेवे समणोवासए धणं मारियं एवं पयासी-"एवं खल देवाणुप्पिए! केऽधि पुरिसे तहेव कहा जहा घुलणीपिया। घण्णाऽवि पडिभणइ जाव कणीयम । णो खलु देवाणुप्पिया! तुम्भ केऽपि पुरिसे सरीरंसि जमगसमगं सोलस-पेगायके पक्खिषह, एम णं कवि पुरिसे तुझं उपसग्गं करेइ।" सेर्स जहा पलापियरस सहा भण। एवं सेसं जहा चुमणीपियरस मिरवसेस जाव सोहम्मे कप्पे अरुणकते विमाणे उपवणे । चत्तारि पलिओषमाई दिई । महाविदेहे वाले सिज्झिहिद ५। णिक्खेषो ॥ सू. ३१ ॥
___अर्थ-कोलाहल सुन कर सुरावेव की पत्नी घना आई और कारण पूछने लगी। सुरादेव ने सोलह रोगातको सक का सारा विवरण बताया । तब घना कहने लगो
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी चपासकांग सूत्र
"म तो किसी ने तुम्हारे तीनों पुत्रों को मारा है और न किसी ने सोलह रोगों का प्रक्षेप किया है। यह तो किसी पुरुष ने आपको उपसर्ग दिया है। शेष सारा वगंन पलनीपिता के समान बानना चाहिए यपा--प्रायश्चित्त लेने, शुद्धिकरण, प्रतिमा आराधन, सपस्या, बीस वर्ष की भा.
काय, मासिको संलेखना याव: प्रथम देवलोक के अहणकान्त विमान में उत्पत्ति । चार पल्पोपम की स्थिति और वहाँ से महाधिवेह क्षेत्र में जन्म ले कर सिद्ध-बुध मुक्त बनेंगे।
॥ चतुर्थ अध्ययन समाप्त ।।
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
पंचम अध्ययन
श्रमणोपासक चुल्लशतक
एवं खलु जर ते णं काले णं ते णं समएणं आलमिया णाम णपरी, संखवणे उज्जाणे, जियसत्तू राया, चुल्लसपए गाहावा अइढे जाव छ हिरण्णकोडीओ जाव छ पण लगोशाशसिप वारा, सामारिया, सामी समोसदे, जहा आणंदो गिहिधम्म पडिवज्जइ । सेसं जहा कामदेवो जाप धम्मपण्णर्ति उपसंपज्जिताणं विहरह ॥ सु. ३२ ॥
अर्थ-हे जंग। उस काल उस समय में जब भगवान महावीर स्वामी विचर रहे थे, आसमिका नामक नगरी के बाहर शंखवन नामक उद्यान पा, जितशत्रु राजा राज्य करता था। 'चुल्लशतक' नामक ऋद्धिसम्पत गाथापति रहता था। उसके छह करोड़ का धन निधान में, छह करोड़ का व्यापार में, छह करोड़ की घरविक्षारी व वस हजार गायों का एक बज ऐसे छह बज थे। भगवान् आलमिका गरी पधारे। पल्लनातक में धर्म सुन कर आनन्वनी की भांति बावकवत धारण किए । कामदेव की भांति पौषधयुक्त होकर भगवान द्वारा बताई गई धर्म-विधि अनुसार पालन करने लगा।
तए णं तस्स चुल्लसयगरस समणोषासयस्स पुरुवरसावरत्तकालसमयंसि एगे देवे अंलिअंजाब असिंगहाय एवं षयासी-"भो चुल्लसयमा समणोवासया! जाव ण मंजसि तो ते अज्ज जेई पुत्तं साओ गिहाओ जीणेमि, एवं जहा चुलणीपिय । णवर एक्केरके सत्त मंससोल्लया जाव कणीयसं जाप आयंचामि । सपणे से चुल्लसपए समणोपासए जाप विहरण ।
अर्ष-मध्यरात्रि के समय एक वेब आया और कहने लगा कि 'हे चल्लातक
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी उपासकदशांग भूत्र
श्रमणोपासक ! यदि तुने श्रावक-व्रतों का परित्याग नहीं किया, तो तेरे तीनों पुत्रों को साप्त-सात टुकड़े कर, बनते तेल में अन कर तेरे शरीर पर छिड़कंगा। इससे तू आतंध्यान करता हुआ अकाल मृत्यु से मरेमा ।' धो-तीन बार ऐसा कह कर देव ने वैसा ही किया । इससे चुल्लमातक को असह्य वेदना हुई, जिसे उन्होंने समभावपूर्वक सहन को।
___तए णं से देवे चुल्लसययं समणोबासय चउत्थंपि एवं वपासी--" मो चल्लसयगा ! समणोवासया ! जाव ण भंजसि नो ते अज्ज जाओ इमाओछ हिरण्णकोडिओ णिहाणपउत्ताओ छ चुटिपउत्ताओ छ पवित्धरपउत्ताओ ताओ साओ गिहाआणीणेमिणीणेता आलभियाए जायरी सिंघाडग जाव पहेसु सवओ समंता विपहरामि । जहा गं तुम अदुहवसट्टे अकाले वेव जीवियाओ ववरोबिजसि । तए णं से चल्लसयए समणोवासए तेणं देवेणं एवं वुत्ते समणे अभीए जाव विहरह। तए णं से देवे चुल्लसयर्ग समाणो पासयं अभीयं जाव पासित्ता दोषि तमपि तहेय भणइ जाव ववरोविजसि ।
अर्थ-तम देव चौथी बार चुल्लशतक घमणोपासक को कहने लगा--'यदि तू तों को मंग नहीं करेगा, तो तेरी मो सम्पति छ: करोड़ को निधान के रूप में, छ: करोड़ की व्यापार में, छ: करोड़ की घरबिखरी में है, उसे में आलमिया नगरी के सारे मागों में बिखेर दंगा, जिससे तू आत्त-ध्यान ध्याता हुआ अकाल मृत्यु से मर जायगा । देव के ये पचन सुन कर चुल्लशतक विचलित नहीं हुआ, तो देवने उपरोक्त वचन दो-तीन बार कहे।
तए णं तस्स चुल्लसयगस्स समणोवासयस्स तेणं देवेणं दोच्चपि सरचापि एवं बुत्सस्स समाणस्म अयमेयारूवे अज्झथिए ४ 'अहो णं इमे पुरिसे अणारिए जहा चुलणीपिया तदा चिंतेइ जाव कणीयसं जाव आयंचइ । जाओऽवि घणं इमाओ मम छ हिरण्णकोहीओ णिहाणपउत्ताओ छ बुद्धिपउत्ताओ छ पविस्थरपउत्ताओ ताओऽवि य णं इच्छह ममं साओ गिहाओ जीणेता आलभिपाए णयरिए सिंघाडग जाब विपरित्तए । सं सेयं खस्तु ममं एयं पुरिसं गिण्डित्तए तिकटु उद्धाइए जहा सुरायो सद्देष भारिया पुच्छह तहंष कहेइ ॥ सू. ३३ ॥
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रमणोपासक धुल्लशतक
अर्थ-दूसरी-तीसरी बार उपरोक्त वचन सुन कर चुल्लशतक ने विचार किया'यह कोई अनायं पुरुष है। इसने मेरे तीनों पुत्रों को मार कर तेल में तल कर सात-स टुकड़े कर दिये । अब यह मेरी सारी सम्पत्ति को बिखेर कर नष्ट करना चाहता अतः इसे पकड़ लेना उचित है-ऐसा विचार कर पकड़ने उठा तो केवल खंभा ह आया। उसका कोलाहल सुन कर बहला भार्या ने धना की भांति समझापा । उप आलोचना प्रायविधात से विभूति की।
_सेसं जहा धुलणीपियस्म जाब मोहम्मे कप्पे अरुणसिह विमाणे उपवण चत्तारि पलिओवमाई ठिई । सेसं तहेव आष महाविदेहे वासे सिजिला ॥णिक्खेगे ॥ सू. ३४ ॥
॥ सत्तमरस अंगरस उवासगदसाणं पंचम अजायणं सम्मतं ॥
अर्थ- शेष सारा वर्णन चुलनीपिता के समान जानना चाहिए, यावत् अरुणा विमान में देवरूप में उत्पन्न हुए। वहां चार पल्योपम की स्थिति कही गई है। वहीं महाविवेह क्षेत्र में जन्म ले कर सिड-वृद्ध एवं मुक्त बनेंगे।
॥ पंचम अध्ययन सम्पूर्ण ॥
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
छठा अध्ययन
श्रमणोपासक कुण्डकोलिक
छहस्स उक्खेवओ। एवं खलु जम्बू ! तेणं काले ण तेणं समए णं कम्पिल्लपुरे णयरे । सहरसम्भवगे उजाणे । जियसनु राया। कुशकोलिए गाहाबई । पूसा भारिया । छ हिरण्णकोडीओ णिहाणपउत्ताओ, छ बुदिनपउत्ताओ, छ पवित्थर. पउत्साओ, छ षया सगोसाहस्सिएणं वएणं । सामी समोसदे । जहा कामदेगे तहा साधयपम्म पडिबज्जह । सच्चेष वसम्वया जाव पडिलामेमाणे विहरह।।
अर्थ-छठे अध्ययन का प्रारम्म । सुधर्मा स्वामी फरमाते हैं-'हे जंबू । भगवान् महावीर स्वामी की विद्यमानता में, कम्पिलपुर नामक नगर पा। महलाच वम नामक उद्यान पा । जितशत्रु राजा राज्य करता था । वहाँ 'कुणकोलिक' नामक गापापति रहता था। उसकी पत्नी का नाम पूषा था। छ: करोष स्वर्ण मुद्राएं मण्डार में, छ: करोड़ व्यापार में लगा हुआ था, और छ: करोड़ की घर-शिखरी पी। भगवान् का कम्पिलपुर पधारना हमा। कामदेवजी को मोति कुष्कोलिक ने भी बारह प्रकार का बाधक-धर्म स्वीकार किपा, यावत् साधु-साधियों को प्रासुक-एषणीय आहार-पानी बहराते हुए रहने लगे।
तए णं से कुण्डकोलिए समणोवासए अण्णया कयाह पुश्वावरपड कालसमयंसि जेणेव असोगवणिया जेणेव पुढवीमिलापट्टए तेणेव उबागच्छद, उवागछित्ता णाममुहगं च उत्तरितगं च पुढवीसिलापहर ठवेड, ठवेत्ता समणस्स भगवओ महाच रस्स अंतियं धम्मपण्णत्तिं उघसंपज्जित्ताणं विहरह।
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रमणोपासक कुण्डकोलिक
अर्थ---एक दिन दोपहर के समय कुण्डकोलिक श्रमणोपासक अशोकवाटिका में गए और पृथ्वीशिलापट्ट पर बैठे। उन्होंने अपनी नामांकित मुद्रिका व उत्तरीय-वस्त्र उतार कर पृथ्वी शिला पर रमा नया भगवान महावीर स्वामी द्वारा बताई गई धर्मविधि का चिन्तन करने लगे।
विवेचन-यद्यपि यहाँ 'सामायिक करने का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, तथापि मुदिका व उत्तरीय (नाभि से ऊपर थोड़ने का वस्त्र) उतारने का कारण सामायिक की क्रिया सम्भव है।' अनः उपरोक्त उल्लेख से जाना जा सकता है कि सामायिक में सांसारिक कपड़े नहीं पहनने की परम्परा कितनी प्राचीन है।
नियतिवाद पर देव से चर्चा तए णं तस्स कुण्डकोलियरस समणोपासयस्स एगे देवे अंतियं पाउन्भ. वित्था। तए णं से देवे णाममुहगं च उत्तरिज्जं च पुढवासिलापओ गेण्हा, गेण्हिता सखिस्विर्णि० अंतलिक्खपडिवण्णे कुण्डकोलियं समणोवासयं एवं पयासी"हं भो कण्डकोलिय समणोवासया! संवरी देवाणुप्पिया ! गोमालस्स मखलि. पुत्तस्स धम्मपण्णसी, त्यि उठाणे इ वा कम्मे हवा बले इवा धारिए इ वा पुरि. सक्कारपरक्कमे इ वा णियया सव्वभावा । मंगुली णं समणरस भगवओ महा. वीरस्स धम्मपपणती, अस्थि उठाणे इ वा कम्मे हवा बले इ वा वीरिए हमा पुरिसक्कारपरक्कमेइ वा अणियया सवमावा ।
अर्थ-धर्मप्रज्ञप्ति की आराधना करते हुए कुण्ठकोलिक के पास एक देव माया। उसने कुण्ठकोलिक की मुद्रिका और उत्तरीय वस्त्र उठा लिए, तथा धुंधराओं सहित वस्त्रों से युक्त अंतरिक्ष में रहा हुआ कहने लगा-"अहो कुण्डकोलिक ! मंसलिपुत्र गौशालकको धर्मविधि अच्छी है, क्योंकि उसमें उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकारपराक्रम आदि कुछ भी नहीं है । सभी भावों को नियत माना गया है। परन्तु श्रमण मगवान् महावीर स्वामी की धर्म-प्रज्ञप्ति अच्छी नहीं है, क्योंकि उसमें उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकारपराक्रम आदि माने गए हैं। सभी भावों को अनियत माना गया है।
विवेचन--काल, स्वभाव, कर्म, नियति एवं पुरुषार्थ-ये पांचों समवाय अनुकूल होने पर ही
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८
बी
व्यासकवणाग सूत्र
कार्य-सिद्धि होती है, तथापि केवल एक की अपेक्षा कर शेष की उपेक्षा करने वाले असत्यमाषण करते हैं। जैसे- 'काल' को ही सर्वोसर्वा मानने वालों का कथन है कि-काल हो भूतों (जीवों) को बनाता है, नष्ट करता है, जब सारा जगल सोता है तब भी काल जाग्रत रहता है। काल मर्यादा को कोई उल्लंघन नहीं कर सकता । थपा
काल: सृजति भूतानि, फाल: संहरते प्रवाः ।
काल: सुप्तेसु जागति, कालो हि दुरतिक्रमः ।। (२) स्वभाववादी का कथन है
कण्टकस्प तीक्ष्णस्वं, मयूरस्य विचिभता ।
वर्णश्च ताम्रचूड़ानाम, स्वभावेन भवन्तिहि ।। कांटे की तीक्ष्णता, मयूर पंखों की विचित्रता, मुर्गे के पत्तों का रंग, मे सब स्वभाव से ही होते हैं। बिना स्वभाव के आप से नारंगी नहीं बन सकती।
(५) कर्मवाद का कथन है, कि अपने-अपने कर्म का फल सब को मिलता है। केवल कर्म ही सर्वेसर्वा है ।
(४) पुरुषाधाव का मन्तव्य है कि पुरुषार्थ के मार्ग पोष सारे समवाय व्यर्थ है । जो भी होता है, पुरुषाय से होता है।
(५) नियतिवादो का अभिमत हैप्राप्तव्यो नियतिवालाश्रयेण योऽर्थः ? खोऽवश्यं भवसि ना शुमाऽशुभो वा।
भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नाभत्र्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाश ।।
अर्थ- वही होता है जो नियति के बल से प्राप्त होने योग्य है । चाहे वह शुभ हो या अशुभ। प्राणी चाहे कितना ही प्रयत्न करे, जो होने वाला है, वह अवश्य होता है जो नहीं होना है, वह कदामि नहीं होता है।
__उपरोक्त पाचौं समवाय मिल कर हो सत्य है । नियतिवादी कहता है कि पुरुषार्थ से मदि प्राप्ति हो जाती है, तो सभी को नयों नहीं होती, जो पुरुषार्थ करते हैं। इधर पुरुषार्थवादी नियतिपादियों का खोखलापन बताते हुए कहते हैं कि यदि नियति से ही प्राप्त होने का है, तो पुरुषा क्यों करते हो? क्यों हाय-पर हिलाते हो । रोटी को मुंह में जाना भवितव्यता है, तो अपने माप पहुँच जायेगी।
देव ने कुण्डकोलिक के समक्ष नियतिवाद का पक्ष प्रस्तुत किया कि यह वात अच्छी है। म तो कोई परलोक है, न पुनर्जन्म । जब वीर्य नहीं तो बल नहीं, कर्म नहीं, बिना कर्म के कंसा सुम्च और सा दुःख ? जो भी होता है, भवितव्यता से होता है।
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
नियतिवाद पर देव से चर्चा
तर णं से कुण्डकोलिए समणोबासए तं देवं एवं पयासी-"जह णं देवा ! संबरी गोसालरस मंखलिपुत्तस्म धम्मपण्णत्ती-मत्यि उट्ठाणे इ वा जाव णीपया सव्वभावा, मंगुली पं समणस्म भगवओ महाारस्स धम्मपण्णत्ती-अस्थि उद्दाणे ६ का साथ अणिपया सम्बभावा । तुमे णं देवा ! इमा एयारूवा दिव्या देबिदी दिव्या देवज्जुई दिब्वे देवाणुभावे किणा लद्धे, किणा पत्त, किणा अभिसमण्णागए, किं उहाणेणं जाब पुरिसक्कारपरक्कमेणं, उदाहु अणुट्टाणेणं अकम्मेणं जाव अपुरिसक्कारपरक्कमेणं?
अयं-तब कुण्डकोलिक प्रमणोपाशक ने उस देव से कहा- "हे देव ! आपने कहा कि 'मंलिपुत्र गोशालक की धर्मप्रज्ञप्ति अच्छी है । उसमें उत्थान आदि को नास्ति यावत् समी भाव अनियत हैं और श्रमण भगवान महावीर स्वामी को धर्म-प्राप्ति अच्छी नहीं है, क्योंकि उसमें उत्थान आदि का अस्तिस्य यावत् सभी भाव अनियत बताए गए हैं।' सो हे देव 1 तुम्हें इस प्रकार की यह जो दिव्य देव ऋद्धि, विस्य देव-धुति तथा दिध्य देवानमाग प्राप्त हुआ है, वह उत्थान पावत् पुरुषकारपराक्रम से प्राप्त हुआ है, या अमस्थान, अकर्म यावत् अपुरुषकारपराक्रम से ?"
तए णं से देथे कुण्डको लियं समणोपासयं एवं वपासी-"एवं खलु देवाणुपिया ! मए इमेयारूवा दिवा देविड्ढी ३ अणुहाणेणं जाव अपरिसक्कारपरक्कमेणं लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया।"
अर्थ-उस देव ने कुण्डकोलिक ममणोपासक से इस प्रकार कहा- "हे वेवानप्रिय । म यह दिव्य ऋद्धि, पति, देवानुमाग अनुस्पान से यावत अपुरुषकार-पराक्रम से प्राप्त हुआ है।"
देव पराजित होगया तए णं से कुण्डकोलिए समणोषासए तं देवं एवं वयासी-जाणं देवा ! तुमे इमा एयारवा दिया देविड्दी ३ अणुहाणेणं जाय अपुरिसरकारपरक्कमेणं लद्धा
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री उपासफदशाग सूत्र-६
पत्ता अभिसमण्णागया। जेसिं पं जीवाणं णत्यि उहाणे इ वा पत्ते कि ण देवा ? अह ण देवा | तुमे इमा एयारूवा विव्वा देवड्ढी ३ उहाणेणं जाव परक्कमेणं लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया तो ज बदसि सुंदरी णं गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स धम्मपपणत्ती-त्धि उहाणे इ वा जाब णियया सयभावा । मंगुली णं समणस्म भगवओ महावीरस्स धम्मपण्णत्ती-अस्थि उहाणे वा जाव अणियया सव्यभाया तं ते मिच्छा।
___ अर्थ-तव कुण्डकोलिक अमयोपासक ने उस देव से कहा- हे देव ! यदि तुमने अनुस्थान यावत् अपुरुषकारपराक्रम से ही विष्य देव-ऋद्धि, धुत्ति और देवानुमान प्राप्त कर लिया, तो जो जीव अनुस्थान यावत् अपुरुषकार-पराक्रम वाले हैं, वे देव क्यों नहीं बने ? अतः हे देव ! तुमने जो यह देव-ऋद्धि प्राप्त की है, वह उत्थान यावत् पुरुषकारपराक्रम से प्राप्त की है, तब भी तुम यह कहते हो कि 'मंखलिपुत्र गौशालक की धमंप्रज्ञप्ति अच्छी । जो सभी भावों को नियत बताती है, तथा भगवान महावीर स्वामी की धर्म-प्रजाप्ति अच्छी नहीं है, जो समी भाषों को अनियत बताती है। तुम्हारा यह पाथन मिथ्या है।
विवेचन-यदि देवमय के योग्य पुरुषार्थ के बिना ही कोई देव बन सकासा हो, तो सभी जीव देव ही क्यों नहीं हो गए ? प्रतः देव का यह कथन बसस्य है कि में बिना उत्थानादि के ही देव बन गया हूँ।
मए णं से देवे कुण्डफोलिएणं समणोबासरणं एवं युत्त समाणे संकिए आव कलससमावणे णो संचाएड कुण्डकोलियरस समणोवासयस किचि पामोक्ख. माइक्खित्तए । णाममुद्दयं च उत्तरिज्जयं च पुढविसिलापथए ठवेइ, ठविप्ता जामेव विसिं पाउम्भूए तामेष विसिं पडिगए।
अर्थ-कुण्डको लिक का उपरोक्त कथन सुन कर देव शक्ति हो गया, उसका चित्त भ्रमित हो गया । अतः वह कुण्डकोलिक को कुछ भी प्रस्फुत्तर नहीं दे सका, वरन् स्वयं निरुत्तर पराजित हो गया । नामांकित अंगठी तथा उत्तरीय वस्त्र को पृथ्वीशिलापट्ट पर
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुण्डकोलिक तुम धन्य हो
रख कर वहां से आया था, वहीं चला गया ।
कुण्डकोलिक तुम धन्य हो
से णं काले ण सेणं समरणं सामी समोसटे । सपण से कुंडकोलिए समणो. एसए इमीसे कहाए लरहे इह जहा कामदयो तह णिग्गच्छद जाप पज्जुषासह घम्मकहा ॥ सू. ४१॥
अर्थ-उस समम भगवान महावीर स्वामी कम्पिल्लपुर पधारे । भगवान् के पधारने का वृत्तांत नान कर कुण्डकोलिक बहुत हषित हुए यावत् कामदेव की मांति पर्युपासना करने लगे। भगवान् ने धर्मवेशना फरमाई ।
"कुण्डकोलियाइ" | समणे भगवं महावीरे कुण्डकोलियं समणोपासयं एवं बयासी-"से गूणं कुण्डकोलिया ! कल्लं तुभं पुष्यावरहकालसमयसि असोग. पणियाए एगे देवे अंतियं पाउम्भवित्था । तए णं से देवे णाममुई च तहेव जाप पद्विगए। से गूणं कुण्डकोलिया! अट्टे समहे?" "इता अस्थि ।” "तं धण्णे सिणं तुमं कुण्डकोलिया ! जहा" कामदेवो।
अर्थ-कुण्डकोलिक को संबोधित कर भगवान् महावीर स्वामी ने फरमाया"हे कुण्डकोलिक [ कल दोपहर के समय अशोकवाटिका में तुम्हारे समीप एक देव माया और उसने तुम्हारे उत्तरीय व नामांकित मुनिका उठाई यावत् प्रश्नोत्तरों का वर्णन यावत् लौट गया । हे कुण्डकोलिक ! क्या यह बात सत्य है?" कुण्डकोलिक ने उत्तर दिया--"हां भगवन् ! सत्य है ।" तब भगवान् महावीर स्वामी ने फरमाया"हे कुण्डकोलिक ! तुम धन्य हो" यावत् कामदेव के समान सारा वर्णन जानना।
"अजो इ!" समणे भगवं महावीरे सभणे णिग्गंधे य णिग्गंधीओ य आमं. तित्ता एवं वयासी-जा तावं अज्जो गिहिणो गिहिमज्झाषसंता णं अण्णथिए अटेहि य हेहि य पसिणेहि य कारणेहि य वागरणेहि य णिपट्टपसिणवागरणे
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
८२
श्री उपासकदारंग सूत्र - ६
करेंति । सक्का पुणा अज्जो समणेहिं णिग्गंथेहि दुबालसंगं गणिपिडगं महिलामाणेहिं अण्णउत्थिया अहि य जाव निष्पट्टपणिचागरणा करित्तए । तए णं समणा पिगंधा यणिग्गंर्थ ओ प समणस्स भगवओ महावीरस्स " तत्ति" एयमटू विण पण पडणेति । एणं से कुण्डको लिए समणोवासए समणं भगवं महाबीरं बंद णमंसर, वंदिता णर्मसित्ता परिणाएं पुच्छर, पुच्छिता अट्टमावियह, अट्टमादिपत्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं परिगए । सामी चहिया अणवयविहारं बिहरइ ।। सू. ४२ ॥
अर्थ--सपश्चात् भगवान् महावीर स्वामी ने साधु-साध्वियों को आमंत्रित कर फरमाया - " हे आर्यों 1 गृहस्थावस्था में रहे हुए भावक भी अन्यतिथियों को अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण, आहवान आदि तथा प्रश्नोत्तरों से निरुत्तर कर देते हैं, तो द्वादशांग के अध्येता गणिपिटकघर साधु-साध्वी का तो कहना ही क्या ? उन्हें तो अवश्य ही अन्यतथियों को नियतर करना चाहिए। तब उपस्थित साधु-साध्वियों ने भगवान् के कथन को विनयपूर्वक स्वीकार किया। तत्पश्चात् कुण्ड कोलिक ने वंदना नमस्कार कर भगवान् से प्रश्न पूछ कर अर्थ धारण किए तथा अपने स्थान चले गए । अयन्दा भगवान् बाहर जनपद में विचरने लगे ।
तए णं तरस कुण्डफोलियस्म समणोवासयरस बहूहिं सील जाब भावेमाणस चोरस संवराई वताई पण्णरसमस्स संचच्छरस्स अंतरा वहमाणस्स अण्णा कयाइ जहा कामदेवो नहा जेट्टपुत्तं ठवेत्ता सहा पोसहसालाए जाव धम्मपण्णत्ति उपसंपज्जिसाणं विहरह । एवं एक्कारस उवासगपरिमाओ तहेब जाव मोहम्मे कप्पे अरुणझए बिमाणे आज अंत काहिइ ॥ सु. ४३ ॥
॥ सप्तमस्स अंगस्स उषासगदसाणं छट्ठे अज्झयणं समस्तं ॥
अर्थ — कुण्डको लिक श्रमणोपासक बहुत से शोलवत, गुणव्रत यावत् पोषधोपवास तथा तपस्या से आत्मा को भाषित करते हुए रहने लगे। श्रावक-पर्याय के चौदह वर्ष
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रमणोपासक कुण्डकोलिक
व्यतीत हो जाने के बाद पन्द्रहवें वर्ष के किसी दिन कामदेव की भांति ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का मुखिया नियुक्त कर के पोषधशाला में धर्म-विधि की आराधना करने लगे । ग्यारह उपासकप्रतिमाओं का सम्यक् आराधन स्पर्शन एवं परिपालन किया । यावत् सारा वर्णन जान लेना चाहिए। संलेखना कर के समाधिपूर्वक काल कर के प्रथम सौधमं देवलोक के अध्वज नामक विमान में चार पल्योपम की स्थिति वाले देव हुए। यहाँ से महाविवेह क्षेत्र में जन्म ले कर सिद्ध-बुद्ध यावत् सभी दुःखों का अंत करेंगे 1
॥ छठा अध्ययन सम्पूर्ण ॥
८३
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तम अध्ययन
श्रमणोपासक सकडालपत्र
सत्तमस्स उक्खेवो । पोलासपुरे णाम जयरे, सहसंपवणे उज्जाणे, जियसत्तु राया । सत्य णं पोलामपुर णयरे महालपुत्ते णामं कुंभकारे आजीविओवासए परिषसइ । आजीवियसमयसि लदहे गहिय? पुच्छियढे विणिच्छिपढ़े अभिगयठे अद्विमिंजपेमाणगगरते य "अपमाउसो ! आजीवियसमए अढे अयं परमढे सेसे अणट्टे" ति आजीषियसमएणं अप्पाणं भावमाणे विहरइ ।
अर्थ- सप्तम अध्ययन के प्रारम्भ में भगवान् सुधर्मा स्वामी फरमाते है-"हे जंबू ! उस समय पोलासपुर नामक नगर के बाहर सहस्त्राम्रवन नामक उद्यान था। जितशत्र राजा था । वहाँ गोशालक-मत 'आजीविक' को मानने वाला सकडालपुत्र नामक कुम्हार रहता था। वह आजीविक मत को भलिभांति समझा हुआ था। उसके मन में आजीविक मत को बढ़ श्रद्धा पी। हड्डो और हड्डो को मज्जा तक आजीविक-मत के प्रेम में रंगी हुई थी। वह इसे अर्थ, परमार्य एवं शेष को अनर्थ मानता था।
तस्स णं सालपुत्तरस आजीविओवासगरस एक्का हिरणकोसी णिहाणपउत्ता एक्का बुड्ढि पउत्ता एक्का पवित्थरपउत्ता एक्के का दसगोसास्सिएणं पएणं । तस्स णं सहालपुत्तस्स आजीविओषासगरस अग्गिमित्ता णाम मारिया होत्या। तस्स णं सहालपुत्तस्स आजीविओषासगरस पोलासपुरस्स जयरस्म पहिया पंच कुंभकारावणमघा होत्था । तत्थ णं यहवे पुरिमा दिण्णभइभत्तवेयणा कल्लाकल्लिं यहवे करए य धारए य पिडा य घडए य अद्धघहए य फलसए य अलिंजरए य जंबूलए य उहियाओ य करेंति, अण्णे य से यहवे पुरिसा दिण्णभइ.
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
सकालपुत्र को देव सन्देश
भत्तवेयणा कल्लाकहिं तेहिं यहूहिं करएहि य जाच उहियाहि य रायमगंसि विति फरपेमाणा विहरति ।
अर्थ-सकशालपुत्र आजीविकोपासक के पास एक करोड़ स्वर्ण मद्राएँ निधान में पी, एक करोष व्यापार में तथा एक करोड़ को घर-विखरी थी। दस हजार गायों का एक वज था । उसकी पत्नी का नाम 'अग्निमित्रा' था। पोलासपुर नगर के बाहर उसके मिट्टी के बरतन बनाने की पांच सौ दुकाने थीं । उसने अनेक पुरुषों को भोजन और घेतन दे कर नौकर रख लिया था जो प्रतिदिन यहुत-से छोटे-बड़े लोटे, थालियो, मटके, मटकियां, कलशे, गोलियो, सुराही-कुंने, प्रमाणोपेत घड़े आदि बनाया करते थे। अन्य बहुत-से नौकर थे जो उन बरतनों को राजमार्ग पर चा करते थे। इस प्रकार वह कुंभकार अपना व्यवसाय चलाया करता था।
सकडाल पुत्र को देव-सन्देश
तए णं से सहलपुत्ते आजीविओवासए अण्णया कयाइ पुष्वावरणहकाल. समयंसि जेणेष अमोगवणिया सणेष उवागच्छइ, उवागच्छित्तागोसालस्स मंखलि. पुत्तस्स अंतियं धम्मपण्णत्ति उपसंपज्जित्ताणं विहरई । सए णं तस्स सहालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स एगे देवे अंतियं पाउमवित्था । तए णं से देवे अंतलिक्ख. पढिवण्णे सापेखिणियाइं जाव परिहिए सहालपुत्तं आजीविओवासयं एवं धपासी
अर्थ-एक दिन सकडालपुत्र आजीविकोपासक मध्यान्ह के समय अशोकवाटिका में जा कर मंखलिपुत्र गोशालक की धर्मविधि का चिन्तन करने लगा। वहां एक देव आया। घंघरुओं सहित श्रेष्ठ वस्त्रों का धारण करने वाला वह देव माकाश में रह कर मों कहने लगा--
पहिरण देवाणुप्पिया कलं इहं महामाहणे उप्पण्णणाणदंसणधरे तीयपप्पण्णमणागपजाणए अरहा जिणे केवली सवणू सव्वदरिसी तेलोक्कपहियमाहियपूहरा सदेवमणुयामरस्स लोगस्स भच्चणिज्जे बंदणिज्जे सकारणिज्जे संमाणणिज्जे
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
पी सपासकबाग सूत्र--
कल्लाणं मंगल देवयं इयं जाव पज्जुबासणिज्जे तच्चकम्मसंपया पउने । गं तुम बज्जाहि जाव पज्जुवासेज्जाहि । पाडिहारिएणं पीसफलगसिज्जासंधारण उवणिमंतेज्जाहि।' दोच्चपि तच्चपि एर्ष वयह बात्ता जामेव विसं पाउन्भूए तामेष दिसं पडिगए।
"हे देवानप्रिय ! कल यहाँ महामाहन पधारेंगे को केवलज्ञान-दर्शम के धारक, मूत वर्तमान और भविष्य के सम्पूर्ण ज्ञाता, अरिहंत, जिन, केवली, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी, तीनों लोक में वंदनीय महामहिम, त्रिलोक पूजित, सभी देव-बानव और मनुष्य सहित सारे लोकवासियों द्वारा वे अचनीय हैं, वंदनीय हैं, सत्कार-सम्मान के योग्य है, कल्याणकारी है, विघ्नों का नाश करने के कारण मंगलकारी हैं, देवाधिदेव हैं, ज्ञान रूप हैं यावत् पर्युपासना के योग्य तथा विशुद्ध तपप्रभाव से जिन्हें अनंत चतुष्टय, अष्ट महाप्रासहाय, चीतीस तियादि की प्राप्ति हुई है, ऐसे एक महापुरुष पधारेंगे। तुम उनके पास जा कर बंदना-नमस्कार करना यावत् पर्युपासना करना । पाट-बाजोट, स्थान, संस्तारक आदि इच्छित वस्तुओं का आमन्त्रण देना यावत् सेवा करना।" दो-तीन बार उपरोक्त कपन कह कर देव जिस विशा से आया था, उसी विशा में लौट गया।
तए णं तस्स सहालगुत्तस्स आजीविओषासगस्स तेणं देवेणं एवं बुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अजमस्थिए ४ समुप्पण्णे-एवं खलु ममं धम्मायरिए धम्मोवएसए गोसाले मंखलिपुत्ते से णं महामाहणे उप्पण्णणापासणधरे जाच मुच्चकम्मसंपया संपत्ते से गं कई हव्यमागच्छिस्सा | तए णं तं अहं बंदिस्सामि जाव पज्जुवासिस्मामि पटिहारिगणं जाव उवणिमंतिरसामि ।
अर्थ-देय के द्वारा उपरोक्त कथन सुन कर सकडालपुत्र ने विचार किया कि मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक मंलिपुत्र गोशालक महामाहन यावत् अतिशयघारी हैं। वे कल यहाँ पधारें। । में उन्हें बन्दना-नमस्कार यावत् पर्यपासना करूंगा। प्रतिहारिक पोठफलक आदि का निमन्त्रण करूंगा।
विवेधन- यामि देव ने तो भगवान महावीर स्वामी के लिए महामाहान, मम मादि पदों का प्रयोग किया था, पर सकारालपुत्र ने गोशालक के लिए सारा वृतान्त समना ।
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रमणोपासक कुण्डकोलिक
--
I
तपणं कल्लं जाब जलते समणे मग महावीरं जाव समोसारिए, परिसा णिग्गया जाव पज्जुवास । तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओबासर इमीसे कहाए लट्ठे समाणे एवं खलु समाणे भगवं महावीरे जाव विहरइ । तं गच्छामि गं समणं भगवं महावीरं श्रंदामि जाब पज्जुवासामि । एवं संपेहेड संपेहिता पहाए जाव पायच्छिते सुद्धप्पाचे साई जाव अप्पमहग्घा भरणा लंकियसरीरे मणुस्वरपुरापरिगए साओ गिहाओ पडिणिक्खम, पडिणिक्यमित्ता पोलासपुरं यरं म मज्झेणं णिग्गच्छर, णिग्गच्छित्ता जेणेव सहस्संघवणे उज्जाणे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छ. उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आपाहिणं पयाहिणं करंड, करिता बंद णमंस, वंदित्ता णमंसित्ता जाव पज्जुवामइ ।
-
अर्थ – प्रातः काल होने पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पोलासपुर के सहस्रास्रवन उद्यान में पधारे। परिषद धर्मकथा सुनने के लिए गई, और पर्युपासना करने लगी । सकल पुत्र आजीविकोपासक को ज्ञात हुआ कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे हैं, तो उसने स्नान किया, समा के योग्य वस्त्र धारण किए, वजन में अल्प और मूल्य में ऊंचे आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया और मित्रजनों से घिरा हुआ वह राजमार्ग से सहसावन उद्यान में भगवान् के समीप आया और तीन बार भावर्तनयुक्त वंदना - नमस्कार कर पर्युपासना करने लगा ।
८७
तपणं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स तसे य महा जाव धम्म कहा समता । "सहाल पुष्ता इ 1" समणे भगवं महावीरे साल पु आजीविओवासयं एवं वयासी - " से शृणं सङ्गालपुस्ता । कस्लं तुमं पुरुवावरण्डकालमसि जेणेव असोगवणिया जाब बिहरसि, तए णं तुब्भं एगे देवे अंतिय पाउ भविथा, तप णं से देवे अतलिक्लपडिषण्णे एवं बयासी - भो सद्दालपुत्ता ! तं वेव सव्यं जाव पज्जवासिस्सामि । से णूर्ण सहादपुत्ता ! अट्ठे समट्ठे ?” "हंसा अस्थि | णो खलु सालपुष्ता ! तेणं देवेणं गोसालं मंखलितं पणिहाय एवं वृत्ते । अर्थ - - तब भगवान् ने शकडालपुत्र आजीविकोपासक को तथा उस विशाल जनसभा को धर्मकया फरमाई । धर्मकथा समाप्त होने पर भगवान ने कालपुत्र को संबोधित
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
८५
श्री उपासकदशांग सूत्र—७
कर फरमाया-' -" हे सकबालपुत्र | कल दोपहर के समय जब तुम अशोकवाटिका में थे, तब एक देव तुम्हारे पास आया और उसने उपरोक्त बात कहो। तुमनं उसे गोशालक के लिए समझा यावत् उसकी पर्युपासना का विचार किया इत्यादि । यह बात सत्य है ?" सकडालपुत्र ने उत्तर दिया--"हाँ भगवन् ! सत्य है ।" तब भगवान् ने फरमाया-' सकडालपुत्र ! वेब का कथन मंसलिपुत्र गोशालक के लिये नहीं था ।
लए धणं तस्स सहालपुत्तस्स आजीविओषासगस्स समणेणं भागवया महावीरेणं एवं वुतरस समाणस्स इमेयारूये अज्झत्थिए ४ – ' एस णं समणे भगवं महावीरे महामाहणे उप्पण्णणाणदंसणधरे जाव तच्चक्रम्मसंपयासंपत्ते । तं सेयं खलु ममं समणं भगवं वंदित्ता णमंसित्ता पाविहारिणं पीढफलग जाव उवनिमंतित्तर ।' एवं संपेहेर, संपेक्षित्ता उद्वार उठेइ उट्टित्ता समणं भगवं महावीरं
दह णमंसह, णमंसित्ता एवं वयासी - " एवं खलु भंते! ममं पोलासपुरस्स णपरस्स पहिया पंच कुंभकारावणस या । तत्थ षणं तुग्भे पाडिहारियं पीढ जाव संधारयं ओगिहित्ता णं विरह । तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तस्स आजीवि ओवास गरस एवम पडणे, परिणेत्ता सहालपुत्तस्स आजीविओवासगस्त पंचकुंभकारावणसएस फासृएसणिज्जं पारिहारियं पीडफलग जाव संधारयं ओगिपित्ताणं विरह |
अर्थ — सकम्मालपुत्र को भगवान् के वचन सुन कर यह जाल हो गया कि अम भगवान् महावीर स्वामी महामाहन यावत् सर्वज्ञ सर्वदर्शी है। उसने विचार किया कि मुझे अपनी पाँच सौ दुकानें यावत् पीड़-फलक का निमंत्रण देना उचित है। ऐसा सोच कर वंदना नमस्कार करके उसने भगवान् से प्रार्थना को "हे भगवन् ! पोलासपुर नगर के बाहर मेरी पांच सौ दुकानें हैं। आप वहाँ पाट-पाटले ग्रहण कर बिराजे।" भगवान् मे सक बालपुत्र की बात स्वीकार कर के प्रासुक एषणीय पाट-पाटले ग्रहण कर वहाँ रहने लगे ।
भगवान्
और सकाल के प्रश्नोत्तर
तपणं से सालपुत्ते बाजीविओवासर अण्णया कयाइ घायाययं को लाल -
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान् और सकलालपुत्र के प्रश्नात्तर
-
-
-
मंहं अंतो सालाहितो पहिया णीणेह, णीणित्ता आयसि बलया । नए णं समणे भगर्ष महाबीरे सहालपसं आजीविओवामयं एवं वासी-"सहालपत्ता ! एसर्ण कोलालभडे कओ ?" तर णं से सहालपुत्ते भाजीविओवासए समणं भगवं महावीरं एवं बयासी-"एस णं भंते ! पुन्धि महिया आसी, ओ पच्छा उवएणं णिगिज्जइ, णिगिज्जित्ता छारेण प करिसेण य एगयो मासिज्जा मीसिज्जित्ता चक्के भारोहिज्जइ । तओ पहवे करगा य जाय उडियाओ य कज्जति।"
अर्थ- एक दिन सकडालपुत्र माओविकोपासक वाम से कुछ सूखे बर्तनों को घर से माहर निकाल कर धूप में सुखा रहा था। उस समय वहाँ पधारे हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सकडालपुत्र आजीविकोपासक से कहा--" हे सकडालपुत्र ! ये मिट्टी के घर्तन कैसे बने हैं ?" तब सकशालपुत्र ने उत्तर दिया
"हे भगवन् । पहले यह सब मिट्टो रूप में थे। उस मिट्टी को पानी में भिगोया जाता है। फिर उसमें राख एवं लोद मिलाते हैं, तया उस पिण को खूब संवा जाता है, तब उसे चाफ पर चढ़ा कर भौति-मांति के बर्तन बनाए जाते हैं।"
लए णं ममणे भगवं महावीर सहालपुत्त भाजीबिओवासगं एवं पयासी"सघालपत्ता ! एस नं कोलालभो कि उहाणेणं आव पुरिसक्कारपरक्कमेणं कनइ उदाहु अणुहाणेणं जाच अपुरिसक्कारपरक्कमेणं फज्जाद!" तए णं से सहालपुत्त आजीविओवासए समर्ण भगर्ष महावीरं एवं बयासी-"मत! अणुट्टा. पोणं जाय अपुरिसक्कारपरक्कमेणं, णस्थि उहाणे । षा जाष परक्कमे का, णियया सबभाषा।
अयं-- तब भगवान महावीर स्वामी ने सकढालपुत्र आजीविकोपासक से पूछा" हे सकलालपुत्र ! ये मिट्टी के बर्तन उत्थान यावत् पुरुषकार-पराकम से बने हैं या (बिना बनाए ही) अनुत्थान यावत् अपुरुषकार-पराक्रम से बने हैं ?
सकडालपुत्र ने उत्तर दिया--"हे भगवन् ! अनुस्थान यावत् अपुरुषकार पराक्रम से बने हैं। इसमें उत्थान यावत् पुरुषकार-पराक्रम महीं है। क्योंकि सभी भाव नियत है।"
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०
श्री उपासको सूत्र --:
तए णं समणे भगवं महावीरे सहालपुत्तं आजीविओघासगं एवं वयासी'सद्दालपुत्ता ! अइ णं तुभं केइ पुरिसे वायाहयं वा पक्केल्लयं वा कोलाल मंड अवहरेज्जा वा विक्खिरेज्जा था भिदेउजा वा अच्छिदेजा वा परिद्ववेज्जा वा अरिंगमित्ताए वा भारियाए सद्धिं बिउलाई भोग भोगाई मुंजमाणे विहरेज्जा, तस्स र्ण पुरिसस किं दंडवतेज्जासि ? भंते ! " अहं णं ते पुरिसं आओसेज्जा वा होज्जा वा पंचेज्जा वा महेज्जा वा तज्जेज्जा वा तालेज्जा वा निच्छोरेज्जा वा जिन्भलेखा या अकाले श्रेव जीवियाओ बबरोवेज्जा |
17
अर्थ-तब भगवान् ने सकडालपुत्र से पूछा - " हे सकडालपुत्र ! यदि कोई पुरुष धूप में सूखे हुए इन कच्चे और पके बरतनों को अपहरण कर ले, मिट दे, फेंक दे, फोड़ दे, छेद करवे, अथवा फेंक दे और तेरी अग्निमित्रा भार्या के साथ भोग भोगे, तो तुम उस पुरुष को वण्ड होगे क्या ?” तब सकडालपुत्र ने कहा
##
हे भगवन् ! ऐसे पुरुष पर में आक्रोश करूंगा, डण्डे आदि से मारूंगा, रस्सी आदि से बांधूंगा, पीहूंगा, थप्पड़-मुषके आदि से ताडना तर्जना करूंगा, उसे फटकारूँगा, तिरस्कार करूंगा यावत् जीवन- रहिस कर दूंगा।
"सहालता । जो खलु तुम्भ केइ पुरिसे वायायं वा पक्केल्लयं बा फोलाल भण्यं भवरह या आप परिवेश वा अग्निमित्ताए वा भारियाए सद्धि बिउलाई भोग भोगाई भुंजमाणे बिरड, णो वा तुमं मं पुरिसं आओसेज्जसि वा हणिज्जसि वा जाव अकाले शेष जीवियाओ षबरोवेज्जसि । जड़ णत्थि उहाणे इ वा जान परक्कमे इ वा शिपया सबभावा, अड़ पण तुन्भ केड़ पुरिसे वायाहयं जाट परिवेइ वा अग्गिमित्ताए वा जाब बिहरह। तुमं ता तं पुरिसं जाओसेसि वा जान बबरोवेसि तो जं बदसि पात्थि उट्टाणे इ वा जाव विधा सबभावा तं ते मिच्छा ।"
अर्थ-तब भगवान् से फरमाया- "हे सकबालपुत्र ! तुम्हारे मतानुसार न तो कोई पुरुष तुम्हारे कच्चे-पके बरतन चुराता यावत् फेकता है और न कोई अग्निमित्रा मार्या
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
सकाळपुत्र समझा और श्रमणोपासफ बना
के साय मोग ही भोगता है । इलिये तुम उस पुरुष पर न तो आक्रोश करोगे यावत् प्राणरहित नहीं करोगे। पदि उत्थान यावत् पुषकार-पराक्रम नहीं है, सभी भाव नियत है, जो होना होता है वही होता है, तो तुम बरतन पुराने वाले यावत् फेंकने वाले को तथा अग्निमित्रा मार्या के साथ कुकर्म करने वाले को आक्रोश यावत् प्राण वप क्यों पोगे? अत: उरणार यावत् पुरवसाराम मह मामले का तुम्हारा मत मिथ्या है।"
सकडालपुत्र समझा और श्रमणोपासक बना
एस्थ पं से सहालपुत्ते आजीविओवासए संबुद्ध । तए णं से सद्दालपुस्त आजीविओवासए समणं भगवं महावीरं षंदइ णमंसह, चंदित्ता णमंसित्ता एवं षयासी-"इच्छामि णं मंते! सुभ अंतिए घम्मं णिसामेत्तए।" तए णं समणे भगवं महावीरे सहालपुस्तस्स आजीविओवासगरस तीसे य जाव धम्म परिकहेइ ।
अर्थ- भगवान् का युक्तियुक्त वचन सुन कर सकमालपुत्र में प्रतिबोध पाया। उसने भगवान को बदना-नमस्कार कर कहा-"हे भगवन् ! मेरी इच्छा है कि आपसे धर्म सुन ।" तब भगवान् ने उसे एवं अम्प उपस्थित जन-समवाय को धर्म-कथा फरमाई।
तए णं से सहालपुसे भाजीविओवासए समणस्स भगवओ महषीरस्स अंतिए धम्म सोचा णिसम्म हहतुह जाव हियए जहा आणंदो महा गिहिधम्म पडिपज्जा । णवरं एगा हिरण्णकोडी णिहाणपउत्ता एगा हिरण्णफोडी बुड्ढीपउत्ता एगा हिरण्णकोही पवित्थरपत्ता एगे पर दसगोसाइस्सिएणं वएणं । जाव समणं भगवं महावीरं वंदहणमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता जेणेक पोलासपुरे पयरे तेणेव उवा. गच्छद उवागछितापोलासपुरणयरं मझमझेणं जेणेष सए गिहे जेणेव अग्गिमित्ता भारिया सेणेव उवागच्छद, उवागत्तिा भग्गिमित भारियं एवं षयासी-"एवं खलु देवाणुप्पिए ! समणे भगवं महावीरे जाव समोसदे, तं गच्छाहिणं तुमं समणं भगचं महावीरं वंदाहि जाव पज्जुवासाहि, समणस्त भगवओ महावीररस अंतिए पंचाणुब्वयं सत्तसिपखावइयं दुधालसाविहं गिहिधम्म पडिपज्जाहि।" तर णं सा
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी तपासादांग सूत्र--
अग्गिमित्ता मारिया सहालपुत्तस्स समणोवासगस्स "नहत्ति" प्यमहं विणण्ण पडिसुणे।।
अर्थ-धर्मकथा सुन कर मानन्दजी की मांति सभडालपुत्र ने भी श्रावक के बारह पत स्वीकार किए । विशेषता यह है कि पांचवें परिग्रह-परिमाण में एक करोड़ स्वर्णमा निधान में, एक करोड़ घ्यापार में तथा एक करोड़ की धर-बिखरा और देस हजार गार्यों का एक ब्रज, इसके उपरांत परिग्रह का त्याग किया। व्रत ग्रहण कर श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार किया और अपने घर वा कर अग्निमित्रा मार्या से कहा-"हे देवानुप्रिए 1 श्रमण भगवान महावीर स्वामी यहाँ बिराजमान हैं। तुम जाओ, बंबना नमस्कार यावत् पर्युपासना करो। पांच अणवत और सात शिक्षाप्रत रूप धावकधर्म स्वीकार करो।' अग्निमित्रा भार्या में सफडालपुत्र की बात विनयपूर्मक स्वीकार की।
अग्निमित्रा श्रमणोपासिका हुई तए णं से सहालपुत्ते समणोवासए कोषियपुरिसे महाद, महादेत्ता एवं पयासी-"खिप्पामेव मोदेवाणुप्पिया लहुकरणजुत्तजोऽयं समरखरपालिहाणसमलिहियसिंगरहिं जंबूणयामयकलावजोत्तपइपिसिएहिं रपयामपघंटसुत्तरज्जुगवर कंचण-खड्यणत्यापग्गहोग्गहियएहिं णीलप्पलकयामेलएहि पवरगोणजुवाणा णाणामणिकणमघंटियाजालपरिगपं सुजाय गजुत्तउज्जुगपसस्थसुविसपम्मियं पवरलक्षणोक्वेयं जुत्तामेव धम्मियं जाणप्पवर उवट्ठवेह, उववेत्ता मम श्यमाणसिय पच्चपिपणह । तए णं ते कोबियपुरिसा जाब पच्चप्पिणति ।
अर्थ-तम सालपुत्र में अपने कर्मचारियों को बुला कर कहा-"शीघ्र ही शीघ्रगति वाला रथ उपस्थित करो, जिसमें जोते जाने वाले बल वक्ष, खर तक लम्बी पंछ वाले, सरीले सोंगों वाले, गले में सुनहरे आभूषण पहने हुए, सुनहरी नक्काशीवार जोत घाले, गले में लटकते हुए चांदी के घर वाले, सुनहरी सूत की नाय से बंधे हए, मस्तक पर मील कमल के समान कलंगी धारण किए हुए हों और युवावस्था वाले हों।" कर्मचारियों ने आमानुसार कार्य कर आमा प्राप्त की।
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
अग्निमित्रा श्रमणोपासिका हुई
तए णं सा अग्गिमित्ता भारिपा पहाया जाप पायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई जाव अप्पमहायाभरणलं कियसरीरा चेरिया पक्कचालपरिकिण्णा धम्मियं जाणापपरं दुरूहह, दुरुहिता पोलासपुरं गयरं मझमज्झेणं णिग्गच्छा, णिग्गच्छिता जेणेष सहस्संबोइजाजत मोलगट महानारे तेणेष उवागणा, उगा. गचित्ता त्तिकखुत्तो जाव बंबई णमंसा, बंदित्ता णमंसित्ता पच्चासण्णे णाइ दूरे जाप पंजलिउड़ा ठिाया चेष पम् षासह । मए णं समणे भगवं महावीरे अग्गिमित्तार तीसे य जाव धम्मं कहेह।
___ अर्थ- अग्निमित्रा ने स्नान कर समा में जाने योग्य शुद्ध वस्त्र धारण किए और आभूषणों मे देह-विभूषित को। तत्पश्चात् वासियों के समूह से परिवत होकर धामिक एष पर बैठ कर पोलासपुर से निकली तथा सहखात्रवन उद्यान में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के समीप गई। तीन बार वंदना-नमस्कार कर, न अधिक दूर न अधिक निकट हाप जोड़ कर पर्युपासना करने लगी। भगवान ने धर्म-देशना फरमाई ।
तपणं सा अग्गिमित्ता भारिया समणरस भगवओ महावीररस अंलिए रम्भ सोचा णिसम्म हहतुहा ममणं भगवं महावीर वंदर णमंसह, दित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-"महहामि णं भंते ! णिग्गंध पाषयणं जाव से जहेयं तुम्मे षयह। जहा णे देवाणुप्पियाणं अतिए पहवे उग्गा भोगा जाच पत्याइया, गो खल अहं कहा संचाएमि देवाणुपिपाणं अंतिए मुण्डे भवित्ता जाव अहंगं देवाणरिपयाणं अतिए पंचाणुध्वयं मत्ससिक्खायाइयं दुबालमविहं गिनिधम्म परिवजिस्मामि ।" "अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा परिपंधं करेह ।"
अर्थ-धर्म सुन कर अग्निमित्रा भार्या ने भगवान् से निवेदन किया-"हे भगवन् ! में निफ्रन्य-प्रवचम पर श्रद्धा करती हूँ, यावत जैसा आपने फरमाया सा ही हं. यया है। जिस प्रकार बहुत से राजा राजेश्वर आपके समीप संपम धारण करते हैं, सो मेरी सामय नहीं है। मैं आपश्री से पांच अणवत एवं सात शिक्षा-दस रूप भावक धर्म स्वीकार करूंगी।" भगवान ने फरमाया--" हे वेवानप्रिया । जैसे सुख हो, वंसा करो, धर्म-कार्य में प्रभाव मत करो।"
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४
श्री उपासफदशाग सूत्र-.
तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया समणस्स मगवओ महावीररस अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खापायं बुवालसविहं सावगधम्मं पढिवाजा, पडिज्जित्ता समणं भगर्ष महावीर पंप णमंसद, वंदित्ता णमंसित्ता नमेव धम्मियं जाणापवर दुरुहा, बुरुहिता जामेव दिसं पाउम्भूया तामेव दिस परिगया। तए णं समणे भगवं महावीरे अपणया कपाइ पोलासपुराओ जयराओ सहरसंपवणाओ परि. णिरुपमा परिणियसमिस पहिया अवयवहार बिहरह।
अर्थ-- तम अग्निमित्रामा ने पांच अणवत एवं सात शिक्षा-व्रत रूप प्रावक के बारह बत अंगीकार कर भगवान को वन्दना-नमस्कार किया और रप में बैठ कर जिस विशा से आई, उसी दिशा में चली गई। अन्यवा कभी भगवान महावीर स्वामो बाहर जनपद में विचरने लगे।
सकडाल को पुनः प्राप्त करने गोशालक आया
सर णं से सहालपुत्त समणोषासए जाए जाब भभिगयजीवाजीचे जाव विहरह। तर णं से गोसाले मख लिपुत्त इमीसे कहाए लदहे ममाण-पखं खलु सहालपुत्त आजीवियसमयं वमित्सा ममणाणं णिग्गंधाणं दिहि परिवणे में गच्छामि णं सहालपुत्तं आजीविओवासयं समणाणं णिग्गंधाणं विहिवामेत्ता पुणरवि आजीवियदिदि गेहावित्तपत्ति कटु एवं संपेहेर, मंहिता आजीबियसंघसंपरिबुडे जेणेव पोलामपुरे णपरे जेणेष आजीवियसमा तणेष उवागच्छा, उवागछित्ता आजीवियसभाए मंहगणिक्खयं करेइ, करित्ता कइयहिं आजीविएहिं माद्धिं जेणेव सदालपुत्ते समणोवासए तेणेव उपागच्छद ।
__ अर्थ- सकलालपुत्र षमणोपासक बन गए। 2 जीब-अजीव के ज्ञाता यावत् साधु-साध्वियों को प्रासुक एवणीय आहार-पानी प्रतिलाभित करते हुए रहने लगे। मंलिपुत्र गौशालक को ज्ञात हुआ कि सकडालपुत्र आजीविकोपासक ने आजीविक मत का त्या कर श्रमण-नियों को दृष्टि स्वीकार करती है, तो उसने सोचा कि-ममें जाना
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वापी गोशालक भगवान् की प्रशंसा करता है
चाहिए तपा सकडालपुत्र से जैनधर्म छरमा कर पुनः माविक मत में स्थिर करना चाहिए । वह अनेक आजीविक-मतियों के साथ पोलासपुर मगर में आया और 'आजीविक समा' में मण्डोपकरण रख कर अपने शिष्यों सहित सकमालपुत्र बमषो. पासक के निकट आया।
सकडालमुत्र ने गोशालक को आदर नहीं दिया
तए णं से सहालपुस्ते समणोवासए गोसालं मस्खलिपुत्तं एज्जमाणं पासा, पासित्ताणो आधाइ णो परिजाणइ अणादायमाणे अपरिजाणमाणे तुसिणीए संचिहह। तए णं से गोसाले मखलिपुत्ते सहालपुत्तेणं ममणोपासएणं अणासाइजमाणे अपरिजाणिज्जमाणे पीठफलगसिज्जासंपारद्वयाए समणस्स भगवो महावीरस्स गुणकित्तणं करेमाणे सहालगुत्तं समणोषासयं एवं वपासी
अर्थ- सालपुत्र श्रमणोपासक ने मंगलिपुत्र गोशालक को मात देखा, तो उस का आदर-सत्कार नहीं किया और चुपचाप बैठा रहा । सकळालपुत्र के उपेक्षामाद को समझ कर पीठ-फलक स्थान एवं शय्या की प्राप्ति के लिए गोशालक ने भगवान महावीर स्वामी के गणकोत्तन करते टए सकलालपुत्र से इस प्रकार कहा।
स्वार्थी गोशालक भगवान् की प्रशंसा करता है
"आगए णं देवाणुप्पिया! हं महामाहणे ?" तर णं से सहालपुते समणो. वामए गोसालं मखलिपुत्ते एवं धयासी--"के णं देवाणुप्पिपा! महामाहणे?" तए णं से गोसाले मंखलि पत्ते सहालपुत्तं समणोवासयं एवं बयासी-"समणे भगवं महापारे महामाहणे।" “से केणष्टेणं देवाणप्पिया! एवं बुरुचह-समणे भगवं महावीरे महामाहणे ?" "एवं खलु सदाल पुत्ता! समणे भगवं महा रे महामाहणे उप्पण्णणाण-दसणधरे जाव महियपइए जाव तच्चकम्मसंपया" संपाउन् । से तणटेणं देवाणुपिया एवं बुच्चा-समणे भगवं महावीरे महामाहणे ।"
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री उपासकदाग सूत्र-७
.
अर्थ-हे देवानु प्रिय ! क्या यहाँ महामाहन ' आए थे ?" सकालपुत्र धमणोपासक ने पूछा-" हे देवानप्रिय । सहामाहम कान है।" पोशालक ने कहा-"षमण भगवान महावीर स्वामी महामाहन ।"
सकबालपुत्र ने पूछा-" हे देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान महावीर स्वामी को महामाहन किस कारण से कहते हो ?"
गोशालक ने कहा-"श्रमण भगवान महावीर स्वामी महामाहन उत्पन्न मानदर्शन के धारक, अरिहंत जिन-केवली यावत् तीन लोक के वंदनीय-पूजनीय है। अतः वे महामाहन हैं।
"आगर णं देवाणुप्पिया! इहं महागोये "के देवाणुप्पिया! महागोवे?" "समणे भगवं महावीरे महागोवे!" "से केणदेणं देषाणुप्पिया! जाव महागोवे ?" " एवं खलु देवाणुप्पिा ! समणे भगवं महावीरे संसाराहाए पहले जीवे णस्ममाणे विणस्समाणे खज्जमाणे छिज्जमाणे भिज्जमाणे लुप्पमाणे विलुप्पमाणे धम्ममरणं वंडेणं सारक्खमाणे संगोवेमाणे णिव्यापमहापा साहत्यि संपावेड । से तेणडेणं सहालपुत्ता एवं चुच्चह-समणे भगवं महावीरे महागोवे।"
अर्थ-हे वेवानप्रिय क्या यहाँ 'महागोप' आए थे ? "महागोप कौन है ?" घमण भगवान महावीर स्वामी महागोप है। "भगवान महागोप किस प्रकार हैं?" सकडालपुत्र ने पूछा।
गोशालक ने कहा-“हे सकलालपुत्र ! संसार अस्वी में बहस-से जीव सम्मागं से नष्ट हो रहे हैं, विनष्ट हो रहे हैं, मिथ्यात्यावि द्वारा खाए जा रहे हैं, छरे जा रहे हैं, मेरे मा रहे हैं, उनका हरण किया जा रहा है, उम गायों के समान जीवों को धर्म रूपी जे से रक्षा कर श्रमण भगवान महावीर स्वामी मुक्ति रूपी बाई में पहुंचाते हैं। अतः वे महान् बाले के समान होने से महागोप कहे गए हैं।
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वार्थी गोपालक भगवान् की प्रशंसा करता है
"आगए णं देवाणुप्पिया! महासत्यवाहे ?" "के णं देवाणुप्पिया : महासत्यवाहे !" "महालपुत्ता ! समणे भगवं महावीर महासत्यवाहे?" "से केणणं.?" एवं खल देवाणुप्पिया समणे भगवं महाधीरे संसाराइवीए पहवे जीवे णस्ममाणे विणस्लमाणे आय विलुप्पमागे घम्ममरणं पंयेणं सारक्खमाणे० णियाणमहापष्टणाभिमुहे माहत्यि संपावेद, से तेणटेणं सहालपुता! एवं बुच्चा-समणे भगवं महावीरे महासत्यवाहे।"
अर्थ-गोशालक ने पूछा- "हे देवानुप्रिय क्या यहाँ 'महासापंवाह' आए थे ?" प्रश्न-"कौन महासार्थवाह ?" । 'श्रमण भगवान महावीर स्वामी महासार्थवाह हैं।' "कैसे ?"
गोशालक ने कहा-“हे सकडालपुत्र ! अमण भगवान् महावीर स्वामी संसारअटपी में भटकते हुए, नष्ट होते हुए पावत् विलुप्त होते हुए बीवों को धर्म करी मार्ग दिखा कर भली प्रकार से रक्षण करते हैं, तपा निर्वाण का महानगर में पहुंचाते हैं। अतः अमण भगवान महावीर स्वामी को में महासार्थवाह कहता है।
“आगए णं देवाणुप्पिया ! महाधम्मकही ?" "के गं देवाणुप्पिया ! महाधम्मकही ?" "समणे भगर्वमहावीरे महाधम्मकहीं?" “से केणणं समणे भगवं महावीरे महाधम्मकही ?" "एवं खलु देवाणुप्पिया समणे भगचं महावीरे महामहालयंसि संसासि यहवे जीवे णस्समाणे विणस्ममाणे स्वज्जमाणे जिज्ञमाणे मिज्जमाणे लुप्पमाणे विलुप्पमाणे उम्मगपडिवणे सप्पह विप्पणठे मित्तणलाभिभूप अहबिहकम्मतमपडलपडोच्चपणे बहहिं अहि य जाव घागरणेहि य चाउरंताओ संसार- कंताराओ माहत्धि णित्यारेट, से तेणढणं देवाणुप्पिया! एवं पुरुषा-समणे भगवं महावीर महाधम्मकही।"
अयं-" हे सकडालपुत्र ! क्या यहाँ 'महाधर्मकयो' आए थे ?" "कौन महाधर्मकथी ?"
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
-श्री उपासकवर्धाग सूत्र
"भमण भगवान महावीर स्वामी महाधर्मकपी हैं।" "किस प्रकार ?"
गोशालक उत्सर घेता है-"अगाध संसार में पड़त-से नीव मष्ट होते हैं। खवित होते हैं, छेवित होते हैं, भेदित होते हैं, लुप्त होते है, विलप्त होते हैं, उन्मार्ग में प्रवृत्त होत हैं, सन्मार्ग से भ्रष्ट होते है, मिथ्यात्व से पराभूत होते हैं और आठ कर्म रूप महा अंधकार के समूह से आच्छावित होते हैं। उन संसारी बीवों को घमण भगवान महावीर स्वामी धर्मोपवेश वे कर, अर्थ सममा कर, हेतु पता कर, प्रश्न का उत्तर देकर तथा शंका-शल्य मिटा कर चतुर्गति रूप संसार-अटवी से स्वयं पार पहुंचाते हैं। इसलिए है सकमालपुत्र ! मैं श्रमण भगवान महावीर स्वामी को महाधर्मकथी कहता हूं।"
"आगए णं देवाणुप्पिया 1 इई महाणिज्जामए ?" "के गं देवाणुप्पिया। महाणिज्जामए ?" "समणे भगर्ष महावीरे महाणिज्जामए !" "से फेणट्टेणं०१" "एवं खस्तु देवाणुप्पिया ! ममणे भगवं महागरे संसारमहासमुपहवे जीवे णस्ममाणे विणस्समाणे जाव विलुप्पमाणे बुडमाणे णिवुडमाणे उप्पिषमाणे धम्ममईए गावाए णिव्याणतीराभिमुहे साहत्यि संपावेइ । से तणट्टेणं देवाणुप्पिया! एवं सुच्चा-समणे भगवं महावीरे महाणिज्जामए ?"
___ अर्थ-गोशालफ फिर पूछता है—"हे देवानप्रिय ! यहाँ 'महान निर्यामक' आए थे?"
'कौन महानिमिक ?' 'षमण भगवान महावीर स्वामी महान् निमिक है। सकडालपुत्र पूछते हैं-"किस प्रकार महान निमक है ?"
पोशालक कहता है-"संसार एक महान् दुस्तर समुद्र है। इसमें संसारी बीच नष्ट हो रहे हैं, विनष्ट हो रहे है, पायत पूछ रहे हैं, जन्म-मरण रूपी पोते लगा रहे हैं, ऐसे हवते जीवों को प्रमण भगवान महावीर स्वामी धर्मपी नाव में बिठा कर स्वयं निर्वाण रूपी तौर तक पहुँबाले हैं। अतः उन्हें मैं महान् धर्म-निमिक (बई जहाज को चलाने वाले, सया, नाविक) कहता हूँ।"
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
7
में भगवान् से विवाद नहीं कर सकता
मैं भगवान् से विवाद नहीं कर सकता
तपणं से सालपुत्ते समणोवासर गोमाले मंखलिपुत्तं एवं वपासी" तुम्भे णं देवाणुपिया ! इयच्छेया जाव इयणिउणा इषणयवादी उमएसलद्वा इयविणाणपता । पभू र्ण तुम्मे मम धम्माचरिपूर्ण धम्मोवसरणं भगवया महा वीरेण सार्द्धं विवादं करेत्तर !" "णो तिणट्टे समट्ठे ।"
१६
अर्थ - तब सकडालपुत्र ने मंखलिपुत्र गोशालक से कहा कि "हे देवानुप्रिय | जब आप इतने वक्ष, चतुर, निपुण नयवासी, प्रसिद्ध वक्ता एवं विज्ञानवाले हैं, तो क्या आप अमण भगवान् महावीर स्वामी के साथ शास्त्रार्थ कर सकते हैं ?"
गोशालक ने उत्तर दिया- "नहीं, में भगवान् से विवाद नहीं कर सकता । में असमर्थ हूँ ।"
"से केहेणं देवापिया ! एवं बुच्च — गो खलु पभू तुभे मम धम्मापरिएणं जाव महावीरेणं सद्धिं विवादं करेतर ?” " सहालपुत्ता से जहाणाम केह पुरिसे तरुणे जुग जाव णिउणासिप्पोचगए एवं महं अयं वा एवं वा सूघरं वा कुक्कुर्ड वा तित्तिरं वा वयं वा लावयं वा कोयं वा कविजलं वा वायसं वा
पण या हन्यंसि वा पायंसि वा खुरंसि वा पुच्छमि वा पिच्छंसिया सिंगंसि वा विसामि वा रोमंसि था जहिं जहिं गिव्ह नहिं नहिं णिचलं निष्कं धरेइ । एवमेव समणे भगवं महावीरे मम पहूहिं अट्ठेहि य हेऊहि य जाव वागरणेहि य जहिं जा गिoss ता ता णिष्पकुपसिणवागरणं करेह से लेपादेणं सदालपुत्ता ! एवं बुच्च - णो खलु पभू अहं तव धस्मारिएणं जाब महावीरेणं सद्धि विवाद फरेचए ।"
अर्थ- सकडालपुत्र ने पूछा - "हे देवानुप्रिय ! आप अमण भगवान् महावीर स्वामी से विवाद क्यों नहीं कर सकते ?"
गोशालक ने उत्तर दिया--" हे सकडालपुत्र ! शंसे कोई चतुर शिल्प-कला का
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
बी उपासनादशांग सूत्र
ज्ञाता युवक पुरुष किती बकरे को, मेढ़े को, सूअर, मर्गे, तोतर, बटेर, लावक, कबूतर, कपिजल, कौए अथवा बाज का हाथ, पाय, खुर, पंछ, पंख, सींग या रोम, इनमें से जो मौ अंग पकड़ता है, तो वह लेश-मात्र भी हिल-डुल नहीं सकता। इसी प्रकार अमण मगवान् महावीर स्वामी मी मुझे अर्थ, हेतु, व्याकर ग आदि द्वारा जहाँ-जहाँ पकड़ें, वहां-वहाँ में निरुत्तर हो जाऊं। इसलिए ऐसा कहा कि में घमण भगवान महावीर स्वामी से शास्त्रार्थ करने में असमर्थ हूं।
मैं तुम्हें धर्म के उद्देश्य से स्थान नहीं देता नाये सहालगत्ते ममणोवामा गोसाल मंस्खलिपुत्तं एवं घासी"जम्हा णं देवाणुप्पिया! तु मम धम्मायरियस्म जाय महावीरस्म मतेहि सच्चहि तहिहिं सभा भावेहिं गुणकित्तणं करेह तम्हा णं अहं तुम्भे पाहि. हारिएणं पीढ जाव संथारएणं उवणिमंतेमि । णो चेच पं धम्मोत्ति वा तवोति बा। तं गच्छह णं तुम्भ मम कुंभारावणेसु पाडिहारियं पीढ-फलग जाव ओगिणिहत्ताणे
___ अर्थ-सकडालपुत्र ने कहा- "हे भललिपुत्र पोशालक ! आपने मेरे धर्मोपदेशक धर्माचार्य श्रमण भगवान महावीर स्वामी का सत्य, तथ्य, सदमत भावों का यथार्थ गुणकीर्तन किया, अतः म प्रातिहारिक पीठ-फलक आदि का निमंत्रण करता है। परन्तु में इसमें धर्म या तप मान कर देता हूँ, ऐसी बात नहीं है। आप जाइए तथा मेरी दुकानों से इच्छित पीव-फलक आदि ले कर सुख से रहिए।"
तए णं से गोमाले मखलिपुत्ते महालपुत्तस्स समगोवामयस्म पयमट्ट पढिसुणेड, पडि मुणित्ता कुंभाराधणेसु पाडिहारियं पीढ जाव ओगिडित्ताणं सिह रह । नए णं से गोसाले मंखलि गुत्ते सहालगुत्तं ममणोवामयं जाहे णो मंचाए पहहि आचवणाहि य पपणवणाहि य सण्णवणाहि विणवणाहि य णिग्गंधाओ पाययणा चालित्ता वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा ताहे संते संते परितते
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
देवोपमा
पोलामपुराओ जयराओ परिणिक्षमा, परिणिक्खमित्ता पहिया जणवयविहारं बिहरह।
___अर्थ- गोशालक उन दुकानों से पाट-पाटले पाग्या मादि ग्रहण कर रहने लगा। मोति-भांति के सामान्य वचनों, विशेष वचनों, अनुकूल वचनों एवं प्रतिकूल वचनों से भी जब यह मकडालपुत्र को निपथ-प्रवचन से बलित नहीं कर सका, अमित नहीं कर सका, मम-परिणामों से भी विचलित नहीं कर सका, तो यक कर, खेरित हो कर, पोलासपुर से बाहर जनपर में विधरने लगा।
देवोपसर्ग नए णं तस्स सहालपुत्तस्स समणोवासयस्स पहहिं सील० जाप भाषमाणस्स पोरस संबच्छरा घइक्कता। पण्णरसमस्स संबच्छरस्स अंतरा वहमाणस्स पुग्यरत्तापरत्तकाले जाव पोसहसालाए समणस्स भगवओ महावीरस्म अंतियं धम्मपपणत्ति उवसंपत्तिा णं विहरह। मए णं नरस महालपुत्तस्स ममणोवामपस्स पुब्बरतापरत्तकाले एगे देवे अंतिअंपाउन्मवित्था | नए णं से देवे एर्ग महं जीस्तुप्पल जाव अनि गहाय सहाल पुत्तं समणोषासयं एवं बयासी-जहर घुलणीपियस्स तहेव देवो उवमग्गं करे । णवर एककेक्के पुत्ते णव मंसमोल्लए करेड जाव कणीयसं घापड, धाएहत्ता जाव आयघड़। नए णं से सदालपुत्ते समणोवासए भभीए जाव विहरह।
अर्थ- बहुत-से अणवतों, गणततों आदि से आत्मा को भावित करते हुए सकशलपुत्र को चौदह वर्ष बीत गए। पन्द्रहवें वर्ष में किसी दिन वे पौषधशाला में भगवान को धर्म-विधि की आराधना कर रहे थे। आधीरात के समय एक देव आपा और नीलकमल के समान खड्ग ले कर कहने लगा-"यदि तू धर्म से विचलित नहीं होगा, तो तेरे तीनों पुत्रों के खण्ड-खण्ड कर, उकलते तेल में तल कर तेरे शरीर पर छिड़कंगा मारा वर्णन धूलणी पिता के समान है । विशेषता यह है कि एक-एक पुत्र के नौ-नौ टुकड़े किए यावत् सफडालपुत्र निमंय रह कर धर्माराधमा करते रहे।
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०२
श्री उपासकदशांग मूत्र-७
नए णं से देवे सहालपुत्तं समोवासयं अभीयं जाव पासित्ता बउत्यपि महालपुत्तं समणोपासयं एवं पयासी-"हं भो महालपुत्ता समणोवासया ! अपस्थियपत्थिया जायण मंजसितओ ते जाइमा अग्गिमित्ता भारिया धम्मसहा.
या धम्मपिजिया धम्माणुरागरसा समसहदुक्खसहाइया तं ते माओ गिहामओ णीणेमि, पीणित्ता मष अग्गओ पाएमि घाइसा णव मंससोल्लए करेमि, करता भादाणभरियसि कडाहयंसि अहमि अहिता नव गायं मंसेण प सोणिएण य आयंचामि । जहा णं तुम अहह जाय ववरोबिज्जमि । तए णं से सहालपुत्ते समणोवासए तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अमीए जाब विहरइ।
अर्ष-सकबालपुत्र को निभय जान कर चौथी बार देव ने कहा—"हे सकमालपुत्र | मत्यु की इच्छा वाले ! यदि तू शोलवत गणव्रत का परित्याग नहीं करेगा, सो तेरी भार्या अग्निमित्रा जो तेरे लिए धर्म-सहायिका, धर्मानुरागिणी, सुख-दुःख में समान सहायिका है, उसे तेरे घर से लाकर तेरे सामने मार कर उसके नौ मांस खण्ड करूंगा, तथा उकलते हुए कमाह में डाल कर तेरे शरीर पर छिड़कंगा जिससे तू आतध्यान करता हुआ अकाल में ही मत्य को प्राप्त होगा।" ऐसा कहने पर भी सफडालपुत्र निर्भय रहे।
तए णं से देवे सहालपुस्तं समणोवामय वोच्चपि तच्चपि एवं बयासीहै भो सहालपुत्ता ममणोवासया सं घेष भणइ । तर णं तस्म महालपुत्तस्स समणोवासयरस तेणं देवेणं वोच्चपि तच्चपि एवं वृत्तस्म समाणस्म अयं अजाथिए ४ समुप्पण्णे । एवं जहा धूलणीपिया तहेब चिंतेइ जेणं ममं जेडं पुस्तं जेणं मम मजिसमयं पुत्तं जेणं ममं कणीयसं पुसं जाव आयं चह, जाऽपि य णं ममामा अग्गिमित्ता भारिया समसुदुक्खमहाइया तं पि य इच्छद साओ गिहाओ गीणेत्ता ममं अग्गओ घाएत्तए । त सेयं खलु मम एयं पुरि गिहित्तए त्ति कटु उद्घाइए। जहा चूलापिया तहेव सर्व भाणियव्वं । णषरं अग्गिमित्ता भारिया कोलाहलं सुणित्ता भणइ । सेस जहा घुलणीपियावत्तव्वया। गवरं मरुणभए बिमाणे उस षण्णे जाव महाविदेहे वासे सिजिहिय। णिक्खेषओ॥
॥ सत्तमस्स अंगस्म उषासगदसाणं सत्तमं अज्झयणं समतं ।।
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
देवोपसर्ग
१०६
___ अर्थ-उस देव में दूसरीमार-तीसरी बार उपरोक्त वचन कहे तब सकरालपुत्र भमणोपासक को यह सुन कर विधार हुआ कि निश्चय ही यह कोई अनार्य-कुष्ट पुरुष है, जिसने पहले मेरे ज्येष्ठ पुत्र को फिर मंझले पुत्र को और फिर छोटे पुत्र को मेरे सामने भारा, नौ-नौ मांस-व्रण किए, सपा उन्हें मेरे शरीर पर छिड़क कर वेदना उत्पन्न को। अब यह मेरी धर्मसहायिका अग्निमित्रा भार्या को मार कर उपके नौ मांस-मण कर माम पर छिड़कना चाहता है। अतः मेरे लिए उचित है कि इसे पका लं।' ऐसा सोच कर ज्योंही पकड़ना बाहा, वेव उड़ गया, और खंमा हो हाम आया । सफडालपुत्र ने कोलाहल किया, अग्निमित्रा मार्या ने उन्हें वस्तु-स्थिति समझाई, सपा प्रायश्चित्त वे कर शुद्ध किया। वशेष सारा वर्णन चूलणीमिता ने समान जाना चाहिए । निगम कि संलेखना संधारा कर के सौधर्म नामक प्रथम देवलोक के अरुणभूत विमान में उत्पन्न हुए। चार पल्पोपम को स्थिति का उपभोग कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्ध-बुद्ध एवं मुक्त बनेंगे।
॥ सप्तम अध्ययन समाप्त ॥
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टम अध्ययन
श्रमणोपासक महाशतक
अट्ठमरस उपखेषओ। एवं खलु जम्न् । तेणं काले णं तेणं समएणं राय. गिह परे, गुणसाले बेहप, संगिए राया। सत्य णं रायगिहे महासयए णाम गाहाबई परिवसह । अढे जहा आणंदो। णवरं अट्ट हिरण्णकोडीओ मंकमाओ णिहाणपडत्ताओ, अह हिरण्णकोडीओ संकसाओ बुढिपउत्ताओ, अट्ठ हिरण्णकोडीओ संकसाओ पवित्धरपउत्ताओ, अट्ट वया दसगोसाहम्मिएणं वएणं । नस्स णं महासयगम्म, रेघईपामोक्खाओ तेरस भारियाओ होत्था। अहीण जाव सुरूवाओ। सस्स णं महासयगस्स रेवईए मारियाए कोलधरियाओ अट्ठ हिरणकोडीओ अह क्या वसगोसाहस्मिरणं पएणं होत्या, अवसंसाणं दुवालसण्हं भारियाणं कोलरिया एगमेगा हिरण्पाकोडी एगमेग य कए दमगासाहम्मिएणं घर णं हात्या ।
अर्थ- आठवें अध्ययन के प्रारम्भ में जंबू स्वामी के पूछने पर आर्य सुधर्मा स्वामी फरमाते हैं-" हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर स्वामी विद्यमान घे, ता राजगह नगर के बाहर गुणशोल उद्यान था । श्रेणिक राजा राज्य करते थे। राजगृह में 'महाशतक' नामक गायापति रहता था। जो आनन्द को मांति आढ्य यावत् अपरामत था। उसके पास आठ करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का धन निधान-प्रयुक्त था, आठ करोड़ व्यापार में तथा आठ करोड़ की घरबिखरी यो । वस हजार गायों का एक प्रज, एसे आठ प्रज प्रमाण पश-धन था। उन महासतकजी के रेवतीप्रमुख तेरह पत्नियां यो । रेवती के पीहर घालों ने रेवती को प्रीतियान में आठ करोड़ स्वर्ण माएँ एवं गायों के आठ व्रज दिए थे।
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
जमणोपासक महाशतक
घोष बारह भार्याओं के पीहर वालों में एक-एक करोडवर्ण-मा सपा बस हजार गायों का एक-एक प्रज दिया था।
विवेचन- संकसापो पाब्द का प्रपं टीका में-'संकसानो' तिकात्येन द्रव्यमान विशेषेण' मास्ताः संकाप्त्याः' किया है । अर्थ में लिखा है तथ्य नापने का कांस्य नाम का पात्र विशेष, जिसमें बत्तीस सेर बजन समा सकता है । पूज्यश्री अमोणकऋषिजी म. सा. ने 'संकसापो'का प्रपं नहीं किया है । 'कोलरियायो' का अर्थ है-'पीहर मे ।'
तेणे काले ण तेणं समपर्ण सामी समोसदे, परिसा जिग्गया, जहा आणको तहा जिग्गाइनहेष साधयधम्म पडिवज्जा। णवरं अह हिरणकोडीओ संकसाओ उरुचाए । श्रवण, रेवई पामोक्वाहिं तेरसहिं भारिणाहिं अपसेस मेहुणविडि पच्चालाई । सेल का सोना का मारूवं अभिग्गई अभिगिण्हइ कल्लाकस्लि च णं कप्पड़ मे ये वोणियाए कंसपाईए हिरण्णभरियाए संदवहरित्तए । नए णं से महासयए समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरदातए णं समणे भगवं महावीरे पहिया जणषयविहारं विहरइ ।
अ- उस समय राजगह मगर के गुणसोल उद्यान में अमन भगवान महावीर स्वामी का पदार्पण हुआ। परिषद धर्मकपा सुनने के लिए गई, मानवमी की भाति महाशतकजी ने श्रावक के बारह व्रत स्वीकार किए । विशेष यह कि आठ करोड़ मण्यार में, आठ करोड व्यापार में और आठ करोड़ की घरबिखरो 1 गौमों के माठ बज का परिमाण किया। रेवती मावि तेरह पस्तियों के अतिरिक्त शेष मेघन का प्रत्याख्यान किया। सवा यह अभिग्रह लिया कि " में कल से निस्य दो प्रोण कांस्यपात्र मरे (एक प्रोण सोलह खेर के लगभग होता है, इस प्रकार बत्तीस सेर) सोने से अधिक का व्यापार नहीं करूंगा।" व्रत धारण करने से महाशतक 'श्रमणोपासक' हो गए। वे बीब-अजीब को जानने वाले यावत् साधु-साध्वियों को प्रासुक-एषणीय आहार-पामी बहाने वाले हो गए। तत्पश्चात् कमी भगवान जमपत्र में विचरने लगे।
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री उपासकवांग भूब
कामासक्त रेवती की लशंस योजना तए णं तीसे रेवईए मारियाए गाहावहाए अण्णया कयाइ पुन्यरत्तावरत्तकालसमयसि कुडुंध जाव इमेयारूये अज्झस्थिए ४–एवं खल्लु अहं मासिं दुवालसण्डं मवत्तीणं विघाएणं णो संचाएमि महासयएणं समणोवासएणं सद्धिं उरालाई माणुस्सयाई भोगभोगाई भुजमाणी विहरिस्तए । # सेयं खलु ममं एपाओ दुवालसधि सवत्तियाओ अग्गिप्पओगेणं या सत्थप्पओगेणं वा विसापओगेणं वा जीवियाओषधरोविसा एयासिं एगमेगं हिरपणकोडिं एगमेगं वयं सपमेव उद. संपज्जित्ताणं महासयएणं समणोषासएणं सद्धिं उरालाई जाप विहरित्तए । एवं संपेहेर, संहिता तासि खुवासलण्हं सवस्तीणं अंतराणि य छिहाणि य विवराणि य पडिजागरमाणी विहरह।
अर्थ- एफबार मध्यरात्रि के समय रेवतो गापापल्ली को कुटम्स जागरणा करते हए विचार हुआ कि “इन बारह सोतों के कारण मैं महाशतक श्रमणोपासक के साथ यथेच्छ कामभोग नहीं भोग सकती । अतः मेरे लिए यह उचित होगा कि इन बारह हो सोतों को अग्निप्रयोग से, शस्त्र द्वारा या विष द्वारा जीवन-रहित कर दूं और इनका एक-एक करोड़ स्वर्ण तथा गोवज अपने अधीन कर के महाशतक के साथ निविघ्न मानवीय काममोगों का उपभोग कहें।" ऐसा मनोसंकल्प कर के रेवती उन बारह सोतों के छिद्रान्वेषण करने लगी।
रेवती ने सपत्नियो की हत्या कर दी
नए णं सा रेवई गाहावी अण्णया कयाइ तासि दुवालमण्डं सवप्तीर्ण अंगरं जाणिता छ मवत्तीओ सत्यापओगेणं उद्दवेश, उइयत्ता हसवत्तीओ बिमापओगेण उहवेह उत्रवेत्ता तासि दुवालसहं सबत्तीणं कोलघरि गमेगं हिरण्णकोहि एगमेगं वयं सयमेव पडियज्जइ, पडिज्जिस्ता महासयएणं समणोबासरण मद्धिं उरालाई भोगभोगाई भुंजमाणी विहरह ।
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमारि घोषणा और रेवती का पाप
अर्थ- रेवती गाथापत्नी ने अक्सर देख कर अपनी बारह सोतों को मारने का ठान लिया। उसने अपनी छः सोतों को शस्त्र प्रयोग से तपाछ: सोतों को विष दे कर मार डाला और उनका बारह करोड़ का धन तथा बारह बज अपने अधीन कर लिए । अब वह अकेली ही महाशतक के साथ ऐन्त्रिक सुख भोगने लगी।
तए णं सा रेवई गाहावाणी मसालोलुया मंसंस मुछिया गिद्धा गदिया अज्झोपवण्णा बहुविहेहि मंसेविंय सोल्लेहि य तलिएहि यज्जिएहि य सुरंग महुंच मेरगं च मज्ज सीधु च पसण्ण च भासाएमाणी विमाएमाणी परिमाएमाणी परिभुजेमाणी विहर।
अर्थ-रेवती मांस-लोलप बन गई । मांसाहार के बिना उसे अंत नहीं मिलता पा। मांस के टुकड़े-टुकड़े कर वह उन्हें तल-मन कर और मसाले मिला कर कई प्रकार की मबिराओं के साथ स्वाद ले कर बार-बार लाने लगी।
अमारि घोषणा और रेवती का पाय
सप ण रायगिहे पयरे भण्णया कयाइ अमाघाए घुड़े यावि होस्था। सए णं मा रेवई गाहावाणी मंसलोया मंसेसु मुच्छिया ४ कोलघागि पुरिसे सहावेह सहावेता एवं पयासी-"तुन्भे देवाणुप्पिया! मम कोलघरिपहिलो पहिलो कल्लाकल्लि दुबे दुवे गोणपोयए उहह उहवेत्ता ममें उषणेह ।" सए ते कोलघरिया पुरिमा रेवईए गाहावाणीए तहत्ति एयम विणएणं पढिसुर्णति परिसुणित्ता रेवईए गाहावाणीए कोलघरिहितो पहिलो कल्लार्कील्ल दुवे दुवे गोणपोयए पति, बहेत्ता रेवाए गाहावरणीय उवणेति । नए णं मा रंबई गाहावाणी सहि गोणमंसेहि सोलेहि य ४ सुरं च ६ आसाएमाणी ४ चिहरह।
अर्थ- एकबार राजगह नगर में (महाराजाणिक ने) 'अमारि-घोषणा की। फलतः पशु-बध बन्द हो जाने से रेवतीको मांसाहार में बाधा खड़ी हो गई। तब पीहर से साप आए नौकर से उसने कहा कि "तुम मेरे पीहर से प्राप्त गो व्रमों में से प्रतिदिन गाय के
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
१.८
श्री उपासकपक्षांप सूत्र
वो बछड़े मार कर लाया करो।" वह कर्मचारी प्रतिदिन दो बछड़ों को मार कर उनका मांस रेवती को देने लगा। रेवती मांस-मदिरा का प्रचुर सेवन करने लगी।
रेवती पति को मोहित करने गई
नए णं तस्स महासयगस्स समणोवासगरस बहाद सील जाच मावे. माणस्स चोइस संबचरा वक्फंता । एवं तेहष जेटुं पुत्तं ठवेइ जाव पोसहसालाए धम्मपणत्ति उतसंपज्जित्ताणं विहर । तए ण सारेनई गाहाबदणी मत्ता लुलिया पिडण्णकेसी उत्तरिमयं विकदमाणी पिकडूढमाणी जेणेच पोसहसाला जेणेव महामयए ममणोवासए तेणेव उबागच्छा, उवागच्छित्ता मोहम्मापजणणाई सिंगा. रियाई इधिभावाई उबदसेमाणी उवयंसेमाणी महामययं समणोषामयं एवं वघासी-"हं भो महासयया समणोयामया ! धम्मकामया पुषणकामया सग्गकामया मोक्खकामया धम्मखिया ४, धम्मपिवासिया ४, किपणं तुम्भं देवाणुपिया ! धम्मेण वा पुण्णेण वा सम्गेण था मोक्खण था? अषणं तुम मए सद्धि उरालाई जाव मुंजमाणे णो विहरसि?"
___अर्घ-महाशतक घमणोपासक को प्रावक-व्रतों का निर्मल पालन कर के मात्माको भावित करते हुए चौवह वर्ष बीत गए । तत्पश्चात् आनन्दजी को मांति उन्होंने भी ज्येष्ठ-पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंपा और पौषधशाला में जा कर भगवान की धर्मप्राप्ति स्वीकार कर ली। एकबार रेवती भार्या उन्मत्त बनी हुई, मदिरा पीने के कारण स्थलित गति वाली, केश बिखरे हुए, ओखनो से भिर के बिना ही उस महाशतक पमणोपासक के समीय आई मोर कामोद्दीपन करने वाले श्रृंगार युवल मोहक वचन कहने लगी
___ "अरे हे महाशतक श्रमणोपासक ! तुम धर्म, पुण्य, स्वर्ग और मोक्ष के कामी हो, आकाक्षी हो, धर्म-पुण्य एवं मोक्ष प्राप्ति के पिपासू हो, परन्तु तुम्हें धर्म, पुण्य, स्वर्ग या मोम से क्या प्रयोजन है? तुम मेरे साथ कामभोग क्यों नहीं भोपते ? अर्थात् भावी सुख को कल्पना में प्राप्त बंपिक सुख की उपेक्षा पयों कर रहे हो ?"
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
रेवती पति को मोहित करने गई
विवेचन- रेवती का महामतक से कहने का पाशय यह है कि- तुम धर्मसाधना कर रहे हो, वह भविष्य में स्वर्ग मोर मोक्ष प्राप्त होने वाले सुम्न की कल्पना से कर रहे हो । परन्तु भवो मुन्द्र की मिप्या कामना से वर्तमान सुन्न को त्यागना नहीं चाहिए 1 छोड़ो इस साधना को पौर चलो मेरे माघ । में तुम्हें मभी सुख दूंगी।
तए णं से महासयए ममणोपासप रेवइए गाहावाणीए एपमई णो आदाइ णो परियाणाइ अणाढाइममाणे अपरियाणमाणे तुसिणीए धम्मज्माणोषगए बिह रह । तए णं सा रेषई गाहावइणी महासययं समणोवासयं दोच्चपि तच्चपि एवं वयासी- मोतं व भणइ ! मोऽधि नहेष जाव अणाराइज्जमाणे अपरियाणमाणे बिहरा । मए गं सा रेवई गाहावाणी महासयरर्ण समणोषासपणं अणादाइज्जमाणी अपरिपाणिज्जमाणी जामेव दिसं पाउन्भूया तामेष दिसं परिगया।
___ अर्थ-रेवती गायापत्नी के उपरोक्त वचन महाशतक श्रमणोपासक ने स्वीकर नहीं किया, मन से भी बाहना नहीं की और चुपचाप धर्माराधना में रस रहे । रेवती ने पह बात दो-तीन बार कही, तब भी वह चुपचाप रहा । महाशतक से उपेक्षित हो कर रेवती अपने स्थान चली गई।
तए णं से महासपए समणावामए पहम उपासगपग्मि उपसंपत्तिा विहरह । परमं महासुतं जाब एक्कारमऽधि । लए गं से महासयए समणोबासए तेणं उरालेणं जाब किसे धमणिसंनए जाए 1 नए णं सस्म महासययरस समणोगमयस्स अग्णया कयापुठवरतावरसकाले धम्मजागरि जागरमाणस्स अयं बजास्थिए ४ एवं खल अहं इमेणं उरालणं जहा आणंदो तग अपच्छिममारणलियमलहणासियसरीरे भत्ताणपटियाइक्विए काम अणमस्खमाणे हिरह।
अर्थ- महाशतकजो ने प्रथम उपासक-प्रतिमा की पपावत् आराधना की। इस प्रकार ग्यारह उपासक-प्रतिमाओं का सम्यग् पालन किया । कठोर तपश्चर्या के कारण महाशतक का शरीर अस्थि और शिराओं का जाल मात्र रह गया । एकबार धर्म जागरणा करते हुए उन्हें विचार हुआ कि अब शरीर बहुत कृषा हो गया है, अतः मुझे अपश्चिमभारणांतिक संलेखना-संथारा करना उचित है। उन्होंने संथारा कर लिया।
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
११.
श्री उपासकंदशांग सूत्र
तए णं तस्स महासषगस्त समणोवासगस्स मुभेणं अमवसाणेणं जाप खओषसमेणं ओहिणाणे समुप्पण्णे पुरथिमेणं लवणसमुहे जोयणसाहरिसर्य खेतं जाणइ-पासइ । एवं दक्षिणेण परुचत्यिमेणं, उत्तरेणं जाव चुल्लग्निमयंतं वास. हरपठवयं जाणइ-पासइ । अहे हमीसे रयणप्पमाए पुरवीए लोलुयायं परयं चउरासीहषाससहस्सद्वियं जाण-पासह ।।
___ अर्थ-संथारे में शुभअध्यावसायों और तयारूप कर्म का क्षयोपशम होने से महा. शतकमी को अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ। इससे वे पूर्व, दक्षिण और उत्तर दिशा में लवणसमुद्र का एक हजार योजन का क्षेत्र जानने-देखने लगे, उत्तर-दिशा में चल्लाहमत वर्षधर पर्वत तक का क्षेत्र जानने-देखने लगे। अघो-दिशा में वे चौरामी हजार वर्ष स्थिति वाले नरयिकों के निवास स्थान तक का प्रथम नरक का लोलयस्य नरकाबास देख में लगे ।
त दुखी होकर नरक में जाएगी
नाणं मा रेवई गाहापाणी अण्णया कया मत्ता जाव उत्तरिज्जयं विकमाणी विकदमाणी जेणेव महासयए समणोबासए जेणेव पोमामाला तणेच उवागमछा, उवागजिस्ता महासययं महेव भणा जाद दोच्चपि मच्चाप एवं वयासी- भो ! Hए णं सं महामपए ममणोवासप रेवईए गाहापाणीए वोच्चपि सध्यपि एवं खुत्ते समाणे आसुरुस्त ४ ओहिं पउंजा, पउंजित्ता मोहिणा आमाण, ओभत्ता रेवई गाहाबाणिं एवं बयासी-"हं मो रेषई ! अपम्पियथिए ४: एवं खलु सुमं अंतो सत्तरत्तस्स अलमएणं वाहिणा अभिभूया ममाणी अदुहा बसहा अममाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अहं हमीसे रयणप्पभाए पुरीए लोलुपच्छुए परए चउरासीवाससहस्साहिए औरइएस परइयत्ताए उपजि. हिसि।"
अर्थ-महाशतकनी को मयधिज्ञान होने के बाद एक दिन रेवती गाथापली कामवासना में उन्मत्त हो कर निर्लज्जतापूर्ण वस्त्र गिरातो हुई यावत् पौषधशाला में आई और पूर्वोक्त रोति से कहने लगी। दूसरी-तीसरी बार रेवती के द्वारा कामोस्पारक वचन
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
तू दुखी हो कर नरक में जाएगी
सुन कर महाशतक को क्रोध आ गया । उन्होंने अधिज्ञान से उपयोग लगाया और अवधिज्ञान से उसका आगामी मव देख कर कहने लगे-“अरे हे रेवती 1 विसको कोई चाहना नहीं करता, उस मौत को तू चाहने वालो है, यावत् तुसे वचन-विवेक भी नहीं रहा । तू निश्चय ही आज से सातवीं रात्रि में अलस रोग से आतंध्यान युक्त हो कर असमाधिपूर्वक काल कर के पहलो नरक के लोलयच्चय नरकावास में चौरासी हजार वर्ष की स्थिति वाले नरयिक के रूप में जन्म लेगी।"
नए णं मा रेबई गाहावड़णी महासयएणं समणोबासरणं एवं वुत्ता समाणी पर्व बयासी--"? णं मम महामयए समणोवासए हीणे णं मम महामया समणोवासए अवज्झाया णं अहं महामपरणं ममणोवासएणं गाइ णं अहं केणवि कुमारणं मारिजिस्मामि त्ति कटु भीया नया तसिया उठिवग्गा संआय. 'भया मणियं मणिय पच्चोसक्कड़ पच्चोमक्कित्ता जेणेव मए गिहे तेणेष उवा. गफछाइ, उवागच्छित्ता ओहय जामियाइ । नर णं सा रेवई गाहावड़णी अंना सत्तरत्तस्स अलसपणं वाहिणा अभिभूया अष्टदुहवमहा कालमासे फालं किया इमीसे रयणप्पभाए पुखबीए लोलुयच्चुप पारण चउरामीडयासमहरमट्टिइपसु रह. एसुरइयत्ताए उबवण्णा ।"
अर्थ-यह बात सुन कर रेवती को विचार हमा कि “निश्चय ही महाशतक मामणोपासक मन पर रुष्ट हो गए हैं। उनके मन में मेरे प्रति हीनभाव हो गए हैं। में उन्हें अच्छी नहीं लगती । अतः मैं नहीं जानती कि वे मुझे न जाने किस कुमौत से मारेंगे?" ऐसा सोच कर वह मयभीत हो गई, नरक बुलों के प्रवण से अद्विग्न हो गई और पास को प्राप्त हुई। वह धीरे-धीरे पोषधशाला से निकल कर अपने स्थान पर आई, तपा आतध्यान करने लगी। सातवें दिन अलसक-विचिका से पीड़ित होकर आतध्यान करती हुई असमाधिपूर्वक मर कर रत्नप्रमा पृथ्वी के लोलपम्य मरकाबास में, चौरासी हजार वर्ष की स्थिति वाले नरयिक के रूप में उत्पन्न हो । दिवेबम- नोवाति नापस्तावहारो न च पश्यते ।
बाबाशपंऽलसी मूतस्तेन सोडलसकः स्मृतः ।।
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
११२
श्री उपासकदशांग ८
―
- साया हुआ चाहार न तो ऊंचा जाता है और न नीचा जाता है, पर न पचता है, किन्तु मामा में पालसी हो कर पड़ा रहता है, उसे 'लक' रोग कहते हैं । विसूचिका भी कहते है ।
भगवान् गौतमस्वामी को भेजते है
लेणं काले णं तेणं समरणं समणे भगवं महावीरे समोसरणं जाव परिमा पढिगया । " गोयमाह" समणे भगवं महावीरे एवं वयासी - " एवं खलु गोयमा ! इहेव रायगियरे ममं अंतेवासी महासयए णामं समणोवासए पोसहसालाए अपच्छिममारणं तियसंलेहणाए सियसरीरे भक्तपाणपडियाइ विलए कालं अणवखमाणे बिहरइ | नए णं तस्स महासयगस्स रेवई गाहाबरणी मत्ता जाव विकदेमाणी विक्रमाणी जेणेव पोसहसाला जेणेव महासयर तेणेव उपागच्छ उबागच्छत्ता मोहुम्माय जाव एवं बयासी-सहेब जाब दोपि तच्चपि एवं वयासी ।
अर्थ-उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी राजगृह पधारे, परिषद धर्मोपदेश सुन कर लौट गई। भगवान् ने मीतमस्वामी से फरमाया-' --" हे गोतम 1 इस राजगृह नगर में मेरा अंतेवासी महाशतक श्रमणोपासक अपश्चिम-मारणांतिक संलेखना को आराधना कर रहा है। आहार पानी की इच्छा न करते हुए तथा मृत्यु की आकांक्षा नहीं रखते हुए पौषधशाला में वह शरीर और कषायों को क्षोण कर रहा हूं। उसके पास एक दिन रेवती गाथापत्नी आई थी तथा मोह-उन्मादजनक वचन दो-तीन बार कहे थे।
तर णं से महासयए समणोबास रेवहर गाहावाणीए दोपि तपि एवं कुत्ते समाणे आमुरते ४ ओ िपजह, पउंजित्ता ओहिणा आभोपर, आभाइसा रेवई गाहावर्णि एवं वयासी- जाव उववज्जिहिमि । णो खलु कप्पर गोयमा : समणोवासगस्स अपच्छिम जाय लूसियसरीरस्स भत्तपाणपडियार पिस्स परीसंतेहिं तच्चाहं नहि मन्भूपहिं अणिहेडिं अहं अपि अमणुष्णेहिं अमणामेह वागरणेोहं बागरित्तए । तं गच्छ णं देवाणुपिया ! तुमं महासययं समणां वासयं एवं बयासी - "नो खस्तु देवाणु पिया ! कृप्पा समणोपासगस्स अपच्छिम जाब भत
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
महाशतक तुम प्रायश्चित लो
११३
पाणपडिया किस्स परो संतहिं जाव बागरितप । तुमे य णं देषाणुपिया ! रेवई गाहावणी संतहिं ४ अणिद्वेहिं ३ वागरणेहिं बागरिया । तं गं तुमं एयरस ठाणस्स आलोएहि जब जहारिहं च पायच्छित्तं परिवज्जाहि ।"
I
अर्थ — रेवती के वचन दो-तीन बार सुन कर महाशतक श्रमणोपासक कुपित हुआ। अवधिज्ञान में उपयोग लगा कर आगामी भव देखा तथा प्रथम नरक में उत्पन्न होवेगी यावत् वचन कहे। हे गौतम । अपश्चिममारणांतिको संलेखना स्वीकार कर मृत्यु की आकांक्षा और आहार की अमिलाया नहीं रखने वाले पाक को सत्य, सभ्य, यथार्थ एवं सद्भूत होते हुए भी अप्रिय, अकान्त, अनिष्ट लगने वाले, मन को नहीं माने वाले और मन को बुरे लगने वाले वचन कहना नहीं कल्पता है । अतः हे देवानुप्रिय गौतम ! तुम महाशतक के समीप पौषधवाला में जाओ और उससे कहो कि "संलेखना में धावक को ऐसे व कहना नहीं कल्पता है । सुमने रेवतो गाथापत्नी को सत्य बात भी अप्रिय अनिष्ट आदि लगने वाली कही, अतः उस दोष-स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण कर यथायोग्य प्रायश्वित स्वीकार करो |
नए णं से भगवं गांयमे समणस्स भगवओ महावीरस्म "तहत्ति " एपमट्ठ विणणं पाडणे, पडिणित्ता तओ पडिणिक्खमह, पडिणिक्खमित्ता रायगि णय मज्ज्येणं अणुष्पविम, अणुप्पविसित्ता जेणेव महासयगरस समणोबासपरम गिहे जेणेव महासयण समणोवासए तेणेव उवागच्छ ।
अर्थ – भगवान् का आवेश सुन कर गौतम स्वामी ने विनयपूर्वक स्वीकार किया और अपने स्थान से निकले तथा राजगृह नगर में प्रविष्ट होकर महाशतक श्रमणोपासक के घर पधारे ।
महाशतक तुम प्रायश्चित्त लो
लए पां से महामयए भगवं गोयमं एज्जमाणं पासड, पासिता इट्ठ जाव हिय भगवं गोयमं बंदर णमंसह । तए गं से भगवं गोयमे महासययं समणो
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री उपासकदशोग मूत्र
वासयं एवं बयासी-"एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीर पवमाइक्रखर भासद पण्णवेह परवेइ-'णों खलु कापह देवाणुप्पिया ! समणांवामगरस अपच्छिम जाव वागरित्तए ! तुमे पं देवाणप्पिया ! रेवई गाहावी संतहिं जाव बागरिया। तं णं तुम देवाणुरिपया ! एयरस ठाणस्स आलोएहि जाप परिषज्जाहि ।"
अर्थ-भगवान गौतम स्वामी को पधारते हुए देख कर महाशतक धमणोपासक का चित्त प्रीति से मर गया, हरय हर्षित हुआ यावत् उसने प्रसन्न हो कर भगवान गौतम स्वामी को वंदना-नमस्कार किया। तम गोतम स्वामी ने फरमाया-"हे महाशसक । धमण भगवान महावीर स्वामी इस प्रकार आख्यान करते है, भाषण करते हैं, विशेष कपन करते हैं, प्ररूपणा करते हैं कि संलेखना-संवारा किए बाधक को सत्य होते हुए भी अप्रिय वचन बोलना नहीं कल्पता है। तुमने रेवती गापापली को सस्य किन्तु अप्रिय बच्चन कहे । अतः हे देवानुप्रिय । उस बोष-स्थान की आलोचना प्रतिक्रमण कर प्रायश्चित्त कर के शुद्धिकरण करो।"
नारस महासगए समणाबासए भगपओ गोयमस्स "महति" एयम विएणं पहिसणंह, परिसुणित्ता तरस ठाणस्म आलोएड जाब अहारिहं च पायत्तिं पडिवजह । नए णं से भगवं गोयमे महामायगस्स समणोवास यस्म अंति. ग्राआ पडिणिकावमा, परिणिक्खमिसा गयगि यो मज्झंमज्झणं णिग्गा , णिग्गचित्ता जेणेष समणे मग महार तणेव उवागार, उाछित्ता समर्ण भगवं महाबीर अंदा णमंसह. बंदित्ता णमंसित्ता संजमेणं मवसा अप्पाणं भायमाणे विहरत | तरणं समणे भगवं महावीरे अण्णया कया गयगिहामओ पराआ परिणिस्त्रमा परिणिक्खमित्ता पहिया जणषयविहारं बिहरह।
__अर्थ-तम महाशतक ने भगवान गौतम स्वामी द्वारा कहे हुए भगवान महावीर स्वामी के आदेश को 'तहत्त'-आपका कथन यथार्थ है-कह कर विनयपूर्वक स्वीकार किया और गौतमस्वामी के पास उस बोष-स्थान की आलोचना की, योग्य प्रायश्चित्त प्रहण किया। तब गीतमस्वामी अपने स्थान को पधारे, तथा भगवान महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर संयम-तप से आत्मा को भावित करते हुए रहने लगे। तस्पश्चात् किसी दिन भगवान् ने बाहर जनपद में बिहार किया।
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
११५
महाशतक तुम प्रायश्मि को
तए णं से महासयए समणोवास पढाई सील जाच भावेता बीसं बासाई समणोधास यपरियार्थ पाणिता, एक्कारस उषासगपरिमाओ सम्मं कारणं फामित्ता मासियाए मंलेहणाए अप्पाणं भूमित्ता, सहिँ भत्ताई अणसणाए छेदिता, आलोय पक्कं समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे अरुणवडिसए विमाणे देवत्ताए उबवण्णं । चत्तारि पलिओ माई ठिई । महाविदेहे वासे सिज्झिहिर णिक्खेवो ।
|| सत्तमस्स अंगस्स उवासगवसाणं अट्टमं अज्झयणं ममतं ॥
-
अर्थ — उन महाशतक श्रमणोपासक ने आवक के बहुत से व्रत एवं तपश्चर्या से आत्मा को मावित किया और बोस वर्ष की भाषक पर्याय का तथा ग्यारह उपासक प्रतिमाओं का यथारीति सम्यक् पालन-स्पर्शन किया। मासिको संलेखना से शरीर और कषायों को जीज करके मृत्यु के अवसर पर आलोचना प्रतिक्रमण कर समाधिपूर्वक काल कर के सौधर्म taste के अणावतंसक विमान में उत्पन्न हुए, जहाँ चार पत्योपम तक देव-स्थिति का उपयोग कर वे महाविवेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध बुद्ध मुक्त होंगे। श्री सुधर्मास्वामी फरमाते हैं कि हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से भी उपासकदशांग के अष्टम अध्ययन के जो भाव मने सुने, ये हो तुम्हें कहे हैं ।
विवेचन - इस प्रध्ययन में विचारणा के लिए अनेक दृष्टिकोण उपलब्ध है - वेदमोहनीय की विचित्रता आहार का वेदोदय के साथ सम्बन्ध, माहार का मित्तवृति के साथ सम्बन्ध, ज्ञान होने पर भी पायोदय से अविवेकपूर्ण भाषण, माथि ।
|| अष्टम अध्ययन सम्पूर्ण ||
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवम अध्ययन
श्रमणोपासक नंदिन पिता
पवमस्स उक्खेयो । एवं खलु अंन्! तेणं काल णं तेणं ममएणं मावस्थी णयरी कोहए बेहए जियसत्तुराया। तत्थ णं मावथीए णयरीग गंदिणीपिया णामं गाहावई परिषसह, अडः चत्तारि हिरण्णकोडीओ णिहाणपडत्ताओ चत्तारि हिरणकोडीओ बुद्धिपउत्ताओ सत्तारि हिरणकोडीओ पवित्थापउत्ताओ चत्तारि बया दसगोसाहस्सिएणं धएणं, अस्सिणी भारिया | सार्मा ममोमंद. जहा आणंदो महेव गिहिघम्म पहिचज्जा । सामी वहिया विहरह।
अर्थ-हे जंबू ! उस समय बावस्ती नगरी के बाहर कोष्टक नामक उद्यान पा। जितशत्र राजा था। उस धावस्ती नगरी में 'नदिनीपिसा' नामक गावापति रहा करता था, जो माढ्य यावत् अपराभूत पा। उसके पास चार करोड़ स्वर्ण-मद्राएं भण्डार में, चार करो व्यापार में, तया चार करोड़ को घर-बिसरी श्री । चार गो बज थे । उनकी मार्या का नाम 'अश्विनी' था। मगवान महावीर स्वामी श्रावस्ती पधारे । आनन्द की मोति नन्विनीपिता ने भी श्रावधर्म स्वीकार किया। भगवान जनपद में विचरने लगे।
नाणं से पंदिीपिया समणांचासए जाए जाब विहगा। नगणं नम्म णदिणी पियरम ममणोवालयस्म पहाहि सीलन्चयगुण जाव मात्रमाणास्म चाइस मंबच्छराई घड़कनाई नहेब जेमु पुत्तं ठवा. धम्मपणपत्ति धीमं वामाई परिगणगं णाणत्त अरुणगवे विमाणे उत्रबाओ । महाविदहे वासे मिजिनहित । णिक्वेयो ।
॥ मत्तमरस अंगरम उवामगदमाणं णवमं अज्झयणं ममतं ॥ ..
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
पमणापासक नंदिनीपिता
अर्थ-विनीपिता बत धारण कर श्रमणोपासक बन गए। बीवानीव के माता यावत् साध-साध्वियों को प्रासुक-एषणीय आहार बहराने लगे। चौवह वर्ष के बाब ज्येष्ठ. पुत्र को कुटम्ब का मुखिया नियुक्त कर दिया । उपासक की ग्यारह प्रतिमाओं की आराधमा तथा अन्य तपश्चर्या आदि से बीस वर्ष तक की धमणोपासक पर्याय का पालन कर, मासिकी संलेखना से सौधर्म वेवलोक के अरणगवे विमान में उत्पन्न हो गए। वहाँ चार पल्योपम की स्थिति भोग कर और महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होंगे।
॥ नवम अध्ययन समाप्त ॥
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
दसम अध्ययन
श्रमणोपासक सालिहीपिता
दसमस्म उक्खेयो एवं खलु अन् ! तणं काले णं तेणं समरणं सावत्थी परी, कोहए चेहए, जियमत्तु रापा । नत्य णं सावन्धीए णयरीए सालिहीपिया णामं गाहावई परिवसह, अइदे दित्से, चत्तारि हिरपणकोडीओ णिहाणपउत्ताओ चत्तारि हिरणकोडीओ बुदिपउत्ताओ चत्तारि हिरपणकोडीओ पविस्थरपउत्ताओ चत्तारि वया दसगोसाहस्सिएणं वएणं, फग्गुणी भारिया । सामी समोसढे, जहा पाणंदो तहेव गिहिधम्म पडिवाइ।
___अपं–हे जम्बू ! उस समय बावस्ती नगरी भो । कोष्टक उद्याम था । जितशन राजा था । यहाँ 'सालिहीपिता' नामक गाघापति रहते थे, जो आदय यावत् अपराभत थे। उनके पास चार करोड़ स्वर्ण-मुवाओं का मार, चार करोड़ व्यापार में, चार करोड़ घरबिखरी थी। चार पो-ब्रज थे । 'फाल्गनो' नामक भार्या पो । उस समय भगवान् महावीर स्वामी का वहां पदार्पण हुमा। आनंद की मांति सालिहोपिता ने पावक-व्रत धारण किए । भगवान का विहार हो गया।
अहा कामदेवो नहा जेहं पुतं ठवत्ता । पोमहसालाए ममणरस भगवओ महावीरस्स धम्मपण्णति उपसंपजित्ताणं विहरइ । बरं णिरुषसग्गाओ, एक्कारसवि उवासगपडिमाओ तहेव भाणियब्वाओ। एवं कामदेवगमेणं णेपब्वं आप सोहम्मे कप्पे अरुणकीले विमाणे देवत्ताए उववण्णे। चत्तारि पलिओषमाइं ठिई। महाविदेहे वासं सिजिहि ।
॥ उवासगवसाणं पसमं अजनयर्ण समतं ॥
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रमणोपासक सालिहापिता
अर्थ-कामदेव के समान सालिहीपिता ने भी ज्येष्ठ-पुत्र को कुदम्प का भार सौंप कर भगवान की धर्मप्राप्ति स्वीकार की। उपसर्ग-रहित उपासक की ग्यारह प्रतिमाओं तथा तपश्चर्या से आत्मा को भावित किया। सारा वर्णन कामदेव के समान आनना चाहिए। विशेषता यह कि मनुष्याय पूर्ण कर के वे सौधर्म स्वर्ग के अरुणकील विमाम में देव रूप में उत्पन्न हुए । वे चार पल्मोपम की देव-स्थिति का उपभोग करेंगे और महाविबेहक्षेत्र में जन्म लेकर सिड-पव-मुक्त होंगे।
॥ दसम अध्ययन सम्पूर्ण ।।
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपसंहार
दसण्ह-वि पणरसमे संघच्छरे घमाणाणं चिंता । दसह वि वीस वासाई समणोषासयपरियाओ। एवं खल जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं सत्समरस अंगस्स उवासगदसाणं दसमस्स अजयणस्स अयम? पण्णत्ते। उवासगदमाओ समत्ताओ।
उवासगदसाणं सत्तमस्स अंगरस एगो मुयखंधो दम अजायणा एक्का सरगा दससु षेप दिवसेसु उदिस्सिज्जति सओ सुयखंघो समुहिरिसज्जा अणुण्ण. विजइ दोसु दिवसेसु अंगं तहेव ॥
___ अर्थ-वसों ही श्रावकों को पन्द्रहवें वर्ष में निवृत्ति धारण करने की इच्छाई। वसों ने बीस वर्ष की श्रमणोपासक-पर्याय का पालन किया। श्री उपासकांगका उपसंहार करते हुए भगवान् सुधर्मा स्वामी अपने प्रथम प्रधान शिष्य जम्बूस्वामी से फरमाते हैं कि सातवें अंग उपासकवशांग का भगवान् ने यह अर्थ फरमाया है। इस उपासगदशा नामक सातवें अंग सूत्र में एक तस्कंध तपा रस अध्ययन कहे गए हैं। इनका अध्ययन वस विनों में पूरा होता है।
॥ श्री उपासकदशांग सूत्र समाप्त ।
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपासकदशांग का संक्षेप में परिचय
पूर्वाचार्य कृत गाथाएँ
श्रमणोपासकों के नगर "वाणियगामे चंपा दुवे य वाणारसीए णयरीए।
आलभिया य पुरवरी, कंपिल्लपुरं प पोद्धावं ॥१॥ पोलासं रायगिई, सावस्थीए पुरीए दोषिण भवे ।
एए उवासगाणं, पपरा खलु होति बोळ्या ॥२॥ अर्थ- आनन्दजी श्रमणोपासक वाणिज्य प्राम के थे, २ कामदेवजी चम्पामगरी के, ३ चूलनीपिताजी वाराणसी के, ४ सुरादेवजी भी वाराणसी के, ५ चुलशतकमी बालभिया के ६ कुण्डकोलिकजी कम्पिलपुर के, ७ सकळालपुत्रजी पोलासपुर के ८ महाशतकनी राजगह के ६ नन्दिनीपिताजी और १० साहिपिताजी श्रावस्ति नगरी के निवासी थे।
श्रावकों की पत्नियों के नाम-- मिवणंद-मभू-मामा, धण्ण-यहुल-पूस-अग्गिमित्ता य ।
रेषा अस्मिणि तह फग्गुणी य भज्जाण णामाई ॥शा १ शिवानन्दा २ भद्रा ३ श्यामा ४ घमा ५ सहला ६ पूषा ७ निमित्रा ८ रेवति ९ अघिमो और १० फल्गनी ।
उपसर्गओहिणाण-पिसाए, माया-वाहि-धण-उत्तरिज्जे य।
मज्जा सम्बया दुधया णिरुषसग्गया दोषिण ॥४|| १ अवधिज्ञान का पिशाच का ३ माता का ४ म्याधि का ५ धन का ६ शस्त्र
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२२
श्री उपासकदागि सूत्र
और मुद्रिका का ७ भार्या का ८ रेवती पत्नी का ६-१० के कोई उपसर्ग नहीं हुआ।
सौधर्म-स्वर्ग में हुए 3ज विमानों के नामअरुगे अरुणाभे खल्लु, अरुणप्पह-अरुणकंन सिटे य ।
अरुणज्झए य ण्डे, भूय-वरिसे गवे कीले ॥२॥ १ अक्षण २ अरुणाम ३ अरुणप्रम ४ अरुणकांत ५ अवशिष्ट ६ अरुणध्वज ७ अरुणभूत ८ अरुणावतंस ९ अरुणगव और १० अरुणकिल विमान में उत्पन्न हए ।
गोधन की संख्या थाली सट्टि असीई, सट्ठी सट्ठी ग सट्टि दम महस्मा।
भसिई चत्ता पत्ता, एए षड्याण य सहस्साणं ॥२॥ १चालीस हजार २ साठ हजार ३ अस्सी हजार ४ साठ हजार ५ साठ हजार ६ साठ हजार ७ बस हजार ८ अस्सी हजार ९ चालीस हजार और १० सालीस हजार गौए थी।
श्रावकों की धन सम्पत्तिपारस अट्ठारस चउवीसं तिथि भट्टरसाह णेयं ।
धपणेण ति चोवीस, पारस पारस य कोडीओ ॥७॥ १ बारह हिरण्यकोटि २ अठारह हिरण्यकोटि ३ चौबीस हिरण्यकोटि ४ अठारह हिरण्यकोटि ५ अठारह हिरण्यकोटि ६ अठारह हिरण्यकोटि ७ एक हिग्यकोटि ८ चौबीस हिरण्यकोटि ९ बारह हिरण्यकोटि और १० के बारह हिरण्यकोटि धन पा।
उपभोग रिभोग के नियमउल्लण-वंतवण-फले अभिगणुस्वहणे मिणाणे य । वन्य-विलेवण-पुप्फे, आमरणं धूध-पेज्जार ८
१ आनाजी को किमी प्रकार का उपसर्ग नहीं हुआ । गोतमस्वामी गे सम्माद होना च विशेष घटना है, उपसर्ग नही। यहीबार कालिकजी के विषय में है। अन्य रफी सेवन उपनर्मइएमाता पिारितोसिम होने के निमित। अतएव पारको उपाय-रहंत मानन्ध 'षितमसा गायों .
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपासकदाग का संक्षेप में परिचय देने वाली गाथाएँ
भक्खोयण-सुख-घए सागे माहुर-जेमणऽण्ण-पाणे य।
तंयोले गयीसं, भाणंचाईण अभिग्गाहा ॥२॥ सभी अमणोपासकों के शरीर पोंछने का अंगोछा २ दातुन ३ फल ४ तेल अभ्यंगन ५ उबटन ६ स्नान ७ वस्त्र ८ चन्दनादि विलेपन ९ पुष्प १० आमरण ११ धूप १२ पान १३ मिष्ठान्न १४ चावल १५ वाल १६ घत १७ शाक १८ मघरक (फन) १९ मोजन २० पानी और २१ मुखवास ।।
अवधिज्ञान का परिमाणउई मोहम्मपुरे लोल्ए अहे उत्तरे हिमयते।
पंचसा तह तिदिसिं, मोहिपणाणं वसगणस्स ॥१०॥
अमणोपासक अवधिज्ञान से उध्वंलोक में सौधर्म-देवलोक सक, अधोलोक में रत्नप्रमा पृथिवी के लोलयच्चय नरकावास तक, उत्तर में हिमवंत वर्षधर पर्वत तक और पूर्व-पश्चिम और दक्षिण में पांच सौ योजन लवणप्तमा में जान-बेल सकते थे।
प्रतिमाओं के नामदसण-पप-सामाइप पोसह-परिमा-अर्षभ-सश्चित्ते। आरंभ-पेस-उद्दिन बज्जए समणए य ॥११॥ इक्कारस पडिमाओ, बीसं परियाओ अणसणं मासे ।
सोहम्मे चउपलिया, महाविदेहमि सिज्झिहिह" ॥१२॥ १ दर्शन प्रतिमा २ व्रत प्रतिमा ३ सामायिक ४ पौषध ५ कायोत्सर्ग ६ब्रह्मपर्य ७ सचिस आहार स्याग ८ स्वयं आरम्म-वर्जन १ मतक प्रेग्यारंभ वर्जन १० सहिष्ट. भक्त वर्जन और ११ श्रमणभूत प्रतिमा।
+ यहाँ अन्तर मालूम देता है । सूत्र के अ. ८ में महागातफ घमणोयामक को एक बार योगा सकसपणसमुद्र में देवाना मिखा है। अन्म मपी को पांच मी योपन है।
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ठ
तुंगिका के श्रमणोपासक
घेवाधिदेव अमण भगवान महावीर प्रम के उपासकों में, तुंगिका नगरो के धमणोपासकों का उल्लेख भगवती सूत्र श. २ उ. ५ में आया है। उनकी पौगलिक और मास्मिक ऋद्धि का मार्मिक वर्णन है। विषय के अनुरूप होने के कारण यह विषय यहाँ उद्धृत किया जाता है। कोशी ।
"तए णं समणे भगर्ष महावीरे रायगिहाओ णयगओ गुणसिलाओ चेह. याओ पडिणिक्खमह, पडिणिक्खमित्ता पहिया जणवय विहारं बिहराई।।
ते णं काले णं ते णं समए णं तुंगिया णाम णगरी होत्था, वण्णओ। तीसे णं तुंगिपार णयरीय पहिया उसरपुरस्थिमे दिसीभागे पुप्फवाए णाम बेहए होम्पा, वाणओ । नत्धणं तुंगियाए णपरीए पहये समणावासया परिवसंति, अदा दित्ता वित्यिण्णविपुलभषणसपणामणजाणवाहणाइण्णा, पहुधण पहजायरूवरपया, आओगपओग-संपउत्सा. विडिय विपुल-भत्तपाणा, पशुपासीदास गो-पहिसगवेलयप्पभूया, बहुजणस्स अपरिभूया।"
अर्थ- उस समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी राजगृह नगर के गणशील चाय से निकल कर अन्य जनपद में विचर रहे थे।
उस समय तुंगिका नाम की नगरी पी। उस नगरी के बाहर प्रवोत्तर विधा में पुष्पवती नाम का उधान था। सुंगिका नगरी में गहुत-से श्रमणोपासक निवास करते थे। वे श्रमणोपासक आढ्य (धन-धान्य से परिपूर्ण) दीप्त (वेदीप्यमान) धे। उनके प्रयन विशाल-विस्तीर्ण थे । शयन आसन यान वाहन आदि सुख के साधन भी उनके पास बहस
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
तुंगिका के श्रमणोपासक
१२५
और उत्सम थे। धन एवं सोना-चाही से भी वे परिपूर्ण थे। वे लेम-देन एवं ब्याज पर धन लगाने का व्यवसाय मी बहत करते थे। उनके यहां बहुत लोग भोजन करते थे। इसलिए सूठन में भी भोजन बहत रह जाता था। उसके वास-दासी, गाय, मैंस, मेड़-बकरियां भी बहुत थे। समर्थ थे। उन्हें कोई भी विचलित नहीं कर सकता था।
श्रमणोपासको की आत्मिक सम्पत्ति
"अमिगयजीवाजीषा, उपलद्ध पुण्ण पाषा आसप-संवर-णिज्जर-किरि. पाहिगरण-पंध-मोक्ख-सला । असहेजदेवाऽसर-णाग-सुषण्ण-जक्ख रक्खसकिग्णर-किंपुरुष-गरुल-गंधव महोरगाईएहिं णिग्गंधाओ पारयणाओ अतिक्कणिज्जा, णिग्गंथे पावयणे णिस्संकिया णिक्कस्त्रिया णिवितिगिच्छा, लट्ठा, गहि. पट्टा, पुच्छियट्ठा, अभिगयट्ठा, विणिच्चियट्ठा, अट्टिमिंजपेमाणुरागरस्ता । "अपमाउसो ! णिग्गंथे पाषयणे अड्ढे, अयं परमठे, सेसे अणडे । उसियफलिहा, असं गुय दुवारा, चियत्ततेउरघरपवेसा । बहूहिं सीलब्धय-गुण वेरमण पच्चक्खाणपोसहोववाहिं चाउसहमुविठ्ठ-पुण्णमासिणीसु परिपुण्णं पोमहं सम्मं अणुपाले. मापा, समणे जिग्गंथे फासु-एसणिज्जेणं भमण पाण खाइम-माहमेणं पस्य-पडि. ग्गाह फंघल पायपुंजणेणं पीढ फलग-सज्जा-संथारएणं ओसह-सज्जेणं पडिलामेमाणा अहापडिग्गहिएहि तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरति ।"
। सूत्रकार ने उपरोक्त शब्दों में उन आवशं घमणोपासक महानुभावों को मध्य आत्म-द्धि का अबछा परिचय दिया है।
अभिगम जीवाऽजीवा-उन श्रमणोपासकों ने जीव और अजीव तत्स्व का स्वरूप मामने के साथ अभिगत-आस्मा में स्थापित कर लिया था ।
उबलद्धपुण्ण-पावा-पुण्य और पाप तत्व का अर्थ और माशय प्राप्त कर लिया या। पुण्य और पाप के निमित्त, भाव, क्रिया और परिणाम समझ कर हृदयंगम कर चुके थे।
भासव-संवर-णिज्जर.... मोक्खकसला-आम्रव-संवर-निर्जरा किया अधिकरण
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२६
मी उपासकादमांग सूप
बंध और मोक्ष के स्वरूप, साधन, आचरण, बंधन और मुक्ति का स्वरूप वे समझे हुए थे। बाहन सिाल में नो, पण मोषज्ञ थे। आत्म-परिणत ज्ञान के वे धारक थे।
वे तत्त्वज्ञ, तत्त्वाभ्यासी, तत्त्वानुमयो, तत्त्वसंवेदक एवं तत्त्वदृष्टा विद्वान थे।
आस्मतस्व, आत्मघाव, आस्मा का स्वरूप, आत्मा की वैमाविक और स्वामाविक दशा का ज्ञान, आत्मा को अनात्म द्रव्य से संबद्ध करने वाले भावों और आचरणों एवं मुक्त होने के उपाय, मुक्तारमा का स्वरूप आदि के थे तलस्पी जाता यं । हेय-ज्ञेय और उपादेय का विवेक करने में निपुण थे।
असहेज्ज देवासुर.......वे श्रमणोपासक सुख-दुःख को अपने कर्मोदय का परिणाम मान कर शांतिपूर्वक सहन करते थे। परन्तु किसी देव-दानव को सहायता की इच्छा भी महीं करते थे। वे अपने धर्म में इतने बृढ़ थे कि उन्हें देव-दानवादि भी चलित नहीं कर सकते थे।
णिग्गंथे पावणे हिस्सफिया-निफ्रन्थ-प्रवचन-जिनेश्वर भगवंत के बताये हुए सिद्धांत में बढ़ श्रद्धावान थे। उनके हृदय में सिद्धांत के प्रति किसी प्रकार की शंका नहीं थी। वे जिनधर्म के अतिरिक्त अन्य किसी भी धर्म को आकांक्षा नहीं रखते थे। क्योंकि निग्रंन्य प्रवचन में उनकी पूर्ण श्रद्धा थी। धर्माराधन के फल में उन्हें तनिक भी सन्देह नहीं था।
लद्धहा गहियद्या........उन्होंने तत्त्वों का अर्थ प्राप्त कर लिया था। जिज्ञासा उत्पन्न होने पर भगवान अथवा सर्वश्रुत या बहुश्रुत गीतार्थ मे पूछ कर निश्चय किया था। सिद्धांत के अर्थ को मलि प्रकार समाप्त कर धारण कर लिया था। उन्होंने तत्वों का रहस्यज्ञान प्राप्त कर लिया था।
अद्विमिंज पेमाणुरागरता-उन एक मवावतारी श्रमणोपासकों की धर्मश्रद्धा इतनी बलवती थी कि उनके आत्म-प्रदेशों में धर्म-प्रेम माढ़ से गाढ़तर और गाड़तम हो गया था। उसके प्रभाव से उनकी हड्डियां और मज्जा भी उस प्रशस्त राग से रंग गई थी। भवाभिनन्दियों और पुद्गल राग-रत्त जीवों के तो अप्रशस्त राग से मात्मा और अस्थिया । मैली-कुचेली बनी रहती है। जब यह मेल कम होता तब आत्मा में धर्मप्रेम जागता है।
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
तुंगिका के श्रमणोपासक
१२७
ज्यों-ज्यों धर्म-राग बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों कालिमा हट कर प्रशस्त-शुभ रंग चढ़ता है, फिर एक समय ऐसा भी आता है कि सभी राग-रंग उड़कर विराग-दशा हो जाती है। यह उस नष्ट होती हुई कर्म-कालिमा को सुधरी हुई अवस्था है, जिसमें दुःखद-परिणाम वाली कवली प्रकृति धुल कर स्वच्छ बनाती है और शाके सारा नाका योग होता है। फिर कालिमा का अंश मिटा कि शुभ मी साथ ही मिट कर आत्म-ब्रव्य शुद्ध हो जाता है।
अयमाउसो ! णिग्गंथे पाययणे.........उनके धर्म-राग की उत्कृष्टता का प्रमाण यह कि जब साधर्मीबन्धु परस्पर मिलते अथवा किसी के साथ उनकी धर्म-चर्चा होती, तो उनके हृदय के अन्तस्सल से यही स्वर निकलता-"आपकमन् ! यदि संसार में कोई सारभूत अर्थ है, तो एकमात्र निर्ग्रन्य-प्रवचन - जिनधर्म हो है। यही परम अपं-उत्कृष्ट लाम है । शेष समी (धन-सम्पत्ति, कुटुम्ब-परिवार एवं अन्य मत) अनर्ष = दुःखदायक हैं।
उसियफलिहा अवं गुगदुवारा-वे उवार थे, दाता थे। उनके घर के द्वार यायकों के लिये ले रहते थे। पास्त्रण्डियों एवं कुप्रावनिकों से उन्हें किसी प्रकार का मय नहीं था। थे आहत-धर्म के पपिसत थे और तत्वचर्चा में किसी अन्य प्रायनिक से दयते नहीं थे।
चियत्तंतेउरघरप्पसा-जनता में उनकी प्रतीप्ति ऐसी थी कि वे कार्यवश किसी के घर में अथवा राज के अन्तःपुर में प्रवेश करते, तो जनता को उनके चरित्र में किसी प्रकार की शंका नहीं होती। वे अपने स्ववार-संतोष व्रत में बढ़ थे और जनता के विश्वास.
पात्र थे।
वे अनेक प्रकार के स्याग-प्रत्याख्यान, अणुवत-गुणवत, सामापिक, पौषधोपवास और अष्टमी चतुर्दशी अमावस्या और पूर्णिमा को प्रतिपूर्ण पौषध वप्त का पालन करते थे और श्रमण-निग्रंथ-साधु-साध्वी को अचित निर्दोष आहार-पानी, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पावप्रोछन, पीढ-फलक स्थान-संस्तारक औषध-भेषज आदि भक्तिपूर्वक प्रतिलापित करते रहते थे, और यथाशक्ति तप करते हुए अपनी आत्मा को पवित्र करते रहते थे।
मगवान के इन श्रमणोपासकों का चरित्र इस उपासकवांग सूत्र के साथ जोड़ने का यही आशय है कि हम उनके चरित्र का मनन करें और इनका अवलम्बन लेकर अपना मीवन सुधारें। अन्य विचारों और इधर-उधर घेखना छोड़ कर अपने इस आदर्श को ही अपनायेंगे तो हमारी मम्या पार हो जायगी।
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री कामदेवजी की सज्झाय
( मा पयम २ के मापार पर ) श्रावक श्री धीर ना चम्पा ना वासीनी । अन्तरा। एक दिन इन प्रशंसियोजी, भरी सभा के माप । बढ़ताई कामदेव नी, कोई असुर सके न चलाय ॥मा. ॥१॥ सरध्यो नहीं एक देवताजी, रूप पिशाच सनाय । कायम मानक बने प्रायो, नौशालाय ॥२॥ हं मो! रे कामदेवजी । पाने कल्पे नहीं रे कोय । चार धरम नहीं छोड़पो पण, हं छोड़ाव तोय ॥३॥ स्प पिशाच नो वेखने जी, डरिया नहीं मन माय । जाप्यो निम्यारवी देवता, दियो ध्यान में चित्त लगाय ॥४॥ एकबार मुलसं कहो, इम देव कहे वारंवार । कामदेव बोल्या नहीं, जब देव आयो छे बहार ।।५।। हायी रूप वेय कियोजी, पिशाच पणो कियो बूर । पौषधशाला में आयने, वो बोले वचन करूर ।।६।। मन करी चलिया नहीं, तब हावी मुंह में माल । पौषधशाला के बाहिरे, दियो आकाश माहि उछाल ।।७।। बंताल पर झेलने जो, कमल नौ परे रोल । बज्जवल वेदना उपनी पण, रह्या ध्यान अडोल ॥८॥ गज रूप तनी सप एवोजी, कालो महा विकराल । क दियो कामदेव ने, यो क्रोधो महा चंशल ॥९॥
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________ फामदेवजी की मझाय 129 जगदलबेदनः नाचीजी, उरगा नहीं तिल मात्र / सूर थाकी प्रकट हवोजी, देवता रूप साक्षात // 10 // करजोड़ी विनवे, पारा मुरपति किया रे बक्षाण / मैं ममति सरण्यो नहीं, याने उपसर्ग दियो भाम // 1 // मन करी इगिया नहीं जी, में धर्म पाया परिमाण / खमो अपराध माहरो कही, देव गपो निज स्थान // 12 // वीर जिनन्द समोसर्याजी, कामदेष बन्दम जाप / वीर कहे उपसर्ग नियोजी, देव मिथ्यात्वी आय // 13 // हां स्वामीमी सांच छ, जब श्रमण श्रमणी बुलाय / घर बेठा उपसगं सहो, म प्रशंसे जिनराय // 14 // बीस वरस शुद्ध पालियाजी, श्रावक ना प्रत पार / देवलोक मा उपन्या, चवी जासे मोक्ष मझार // 15 // मरुधर देश सुहामणोजी, जयपुर कियो थोमास / अष्टावस शत छयासीए, खुशालचन्द जोड़ी प्रकाश // 16 // ATV