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हमा । उसे कामदेवजी के चरणों में गिर कर क्षमा मांगनी पड़ी । श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने श्रमणोपामक कामदेवजी की प्रशंसा की और श्रमण-निम्रन्थों को उनका अनुकरण करने का उपदेश दिया। और कुण्डकोलिक धमणोपासक को उसकी सिद्धांत-रक्षिणी विमल बुद्धि पर धन्यवाद दिया। -"धण्णेसि णं तुम कुण्डकोलिया!" (अ. ६) और मद्रुक श्रमणोपासक को कहा-"मुटु पं मददुया । साहुर्ण मद्या ।" (भग. १८-७) ।
ऐसे थे वे महामना आदर्श श्रमणोपासक । धर्म में पूर्ण निष्ठा. दुद्ध आस्था और प्राणों की बाजी लगा कर भी स्थिर रहने की दृढ़ता होना परम आवश्यक है । इससे भव-वन्धन कट कर मुक्ति सनिकट होती है।
प्रतिमाओं का स्वरूप और श्रमणोपासक चरित्र
प्रतिमाओं का नाम और आगम-णित स्वरूप पर विचार करसे लगता है कि अंत की दो-तीन प्रतिमाओं के पूर्व की प्रतिमाएं ऐसी नहीं कि जिसमें गृह-त्याग कर उपाश्रय मैं रहते हुए साधना करना आवश्यक ही हो जाय, जैसे- दर्शन प्रतिमा है। इसमें सम्यकच का निरतिचार गुपालन करना अनिवार्य है । इसके अतिरिक्त अन्य साधना जो प्रतिमाधारण करने के पूर्व की जानी थी और जिन ग्रों का पालन होता था, वह पालन होता रहे । इस प्रतिमा के लिए धन्बार, कुटुम्ब परिवार आदि छोड़ना आवश्यक नहीं लगता।
२ दूसरी प्रतिमा में प्रथम प्रतिमा के दर्शनाचार के मिवाय पांच अणुनन और तीन गुणवान का पालन करना आवश्यक है।
तीमरी में सामायिक और दशावकासिक दत का पालन करने की अधिकता है।
: चौथी में अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या फो प्रनिपूर्ण पोपध करना विशेष रूप में पढ़ जाता है।
५ पाँचदी में दिन को ब्रह्मचर्य का पालन करना और रात में परिमाण कार के मर्यादित रहना होता है, स्नान और रात्रिभोजन का मी श्याग होता है ।
पांचवीं प्रतिभा सक ब्रह्मचर्य का सर्वथा न्याम करना और पोथी तब म्नान और रात्रि-भोजन या त्याग आवश्यक नहीं माना गया।
६ छठी ब्रह्मचर्य प्रतिमा है, ७ वीं में सचित्त वस्तु के आहार का त्याग होता है, परन्तु आवश्यक कार्य में आरम्भ करने का त्याग नहीं होता ! आठवीं में स्वतः आरंभ करने का, ६ वी में दूसरी से आरंभ करवाने का त्याग होता है और १० वी में उसके लिय बनाये हुए भोजन का त्याग होता है।
यहां तक अथवा आठवी प्रतिमा तक की पालना तो गह-त्याग के विना ही विवेकपूर्वक