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धर्मसाधना करते रहने से हो सकती है । परंतु भगवान् के उपासकों का चरित्र देखते हुए बोर उनकी साधना पर विचार करते हुए लगता है कि वे विशेष साधक थे । सम्पनत्व युक्त अणुव्रत गुशव्रत और farari का पालन तो वे चौदह वर्ष तक करते ही रहते थे । पन्द्रहवें वर्ष में उनकी भावना बढ़ी, परंतु सर्वत्यागी निर्ग्रन्थ होने जितना सामर्थ्य अपने में नहीं पाया. फिर भी उन्हें त्याग तो विशेष करना हो
1 श्रमणोपासक के लिए प्रतिमा का आराधन करने के सिवाय विशेष साधना उनके सामने नहीं थी। इसलिये उन्होंने धरवार का त्याग करने के बाद ही प्रतिमा का पालन करना चालू किया और तपस्या भी चालू कर दी । दर्शन-प्रतिमा का पालन करते समय भी वे जन्य व्रतों के पालक, ब्रह्मचारी और रात्रि भोजन के त्यागी रहे थे । गृह त्याग कर उपाश्रय में ले जाने के पश्चात् भी वे चौधी प्रतिमा तक अपचारी या रात्रि - भौजी रहे हों, ऐसा मानने में नहीं आता । अतएव यही उचित प्रतीत होता है कि वे विशेष साधक में श्रमणभूत जाराधक थे ।
वैसे श्रमणोपासक नाम भी हो सकते हैं
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जब आनन्द-कामदेवजी मोर अरहस्रक श्रमणोपासक का वर्णन आता है, तो कई लोग यह कह कर बचाव करते है कि. 'यह तो चौथं आर की बात है। आज न तो वैसा परीरसंहनन है और न मात्मसामभ्यं । इस युग में उनकी बराबरी नहीं हो सकती। अभी पांचवा जरा है। शरीर ढीलेखाले हैं, शक्ति कम है. परिस्थिति प्रतिकूल है। इसलिये समय के अनुसार चलना चाहिये । "
यह ठीक है कि यह पांचवां आरा है, संहनन संस्थान वैसे नहीं है और धन-सम्पत्ति भी उतनी नहीं है । परन्तु आत्म-सामध्यं से सम्म पुरुषायं उतना नहीं हो सके, ऐसा मानना उचित नहीं है । आज भी श्रमणोपासक उन जैसी साधना और तपस्या कर सकते हैं और उनसे अधिक भी। कई मासखमण, कोई दो मास, तीन मास तक की तपस्या करने वाले और संचारा कर के देह त्यागने वाले आज भी हैं ।
इस पंचमकाल में भी अपनी टेक पर मर मिटने वाले दृढ़ मनोबल है । राजनैतिक उद्देश्य से स्वयं मौत के मुंह में जाने वाले कान्तिकारी हुए । धेयंपूर्वक फांसी पर लटकने वाले हुए और जोतोजामती स्वयं अग्निकुण्ड में कूद कर जल भरने वाली वीरांगनाएं हुई। कोष, शाक या हताश हो कर आत्मधात करने घटनाएँ तो होती ही रहती है हमारे अपने ही युग में कई मनोवली बिना मोरोफार्म से बड़ा आपरेशन करवा लेते हैं। फिर धर्म के लिए ही साहस का अमाव कसे माना जाय ? क्या इस युग में एक सवावतारी नहीं हो सकते ?
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में तो सोचता हूँ कि कोई निष्ठापूर्वक अपनी सामथ्यं के अनुसार सम्यक् साधना करें, तो उन श्रमणोपासको के समान साधना हो सकना असंभव नहीं है ।