________________
इस सूत्र का मननपूर्वक स्वाध्याय करना विशेष लाभकारी होगा। इससे हमें मार्गदर्शन मिलेगा, साथ ही धर्म-आराधना में असमर होने की प्रेरणा मिलेगी।
उपासकवचाांग का यह प्रकाशन
बहुत दिनों से मेरी भावना प्रज्ञापना मूत्र का प्रकाशन करने की थी. परन्तु कोई अनुवाद करने वाला नहीं मिल रहा था। एक महाशय में अनुवाद करवाया था, परन्तु यह उपयुक्त नहीं लगा। फिर मैने यह काम प्रारम्भ किया, तो अन्य अधुरे पड़े कार्यों के समान यह कार्य भी रुक गया । में प्रथम-पद का एकेन्द्रिय जीवों का अधिकार भी पूर्ण नहीं कर सका । तत्पश्चात् यहाँ पं. म. श्री उदयचंदजी म. पधारे । मैने आपसे यह कार्य करने का निवेदन किया । आपने महर्ष स्वीकार किया और कार्य चालू कर दिया ! यदि यह कार्य सतत चालू रहता, तो अब तक कम से कम प्रथम भाग तो प्रकाशित हो ही जाता, परन्तु वे बिहार और व्याझ्यानादि में व्यस्त रहने के कारण प्रथम भाग जितना अंश भी नही बना सके।
प्रशापना के पश्चात् मेरा विचार जीवाजीवाभिगम मृत्र के प्रकाशन का भी था। परन्तु अब यह असम्भय लग रहा है । में यह भी चाहता था कि अपने माधर्मी-बन्धओं के उपयोग के लिए उपामकदशांग का प्रकाशन भी होना चाहिए । परन्तु करे कौन ?
गत कार्तिक शुक्लपक्ष में मैं दर्शनार्थ पाली-जोधपुर आदि गया था। यहाँ मृधर्मप्रचार मंडल के अग्रगण्य महानुभावों-धर्ममूर्ति श्रीमान् सेठ किसनलालजी सा. माल, धार्मिक-शिक्षा के प्रेमी एवं सक्रिय प्रसारक तत्त्वज्ञ श्रीमान् धींगडमलजी साहब, संयोजक श्री घीसूलालजी पिनलिया आदि मे विचार-विनिमय चलते मैने श्री धीमूलालजी पितलिया से कहा-" आप उपासकदशांग मूत्र का अनुवाद कीजिये । यह सूत्र सरल है। फिर भी में देख लूंगा और संघ से प्रकाशित हो जायगा।" श्री पिसलिगाजी ने स्वीकार कर लिया। फिर साधनों और गैनी के विषय में गत हुई । पत्र-व्यवहार भी होता रहा । परिणाम स्वरूप यह मूत्र प्रकाश में आया ।
श्री धीमूलालजी नवयुवक है, शिक्षित हैं, धर्मप्रिय है, जिज्ञासु हैं और तस्वस्तिक है। उनका धर्मात्साह देख कर प्रसन्नता होती है । सीधा-मादा साधनामय जीवन है । ' अंतकृत विवेचन' इनकी प्रथम कृति है । इसे देख कर ही मैंने श्री पितनियाजी मे उपामकरणांग सूत्र का अनुवाद करने का कहा था । परिणाम पाठकों के सामने है।
इसके प्रकाशन का ध्यय धर्ममूर्ति सुश्रावक श्रीमान सेठ किसनलालजी पृथ्वीराजजी गणेशमानजी