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श्री उपासफदशाग सूत्र-.
तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया समणस्स मगवओ महावीररस अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खापायं बुवालसविहं सावगधम्मं पढिवाजा, पडिज्जित्ता समणं भगर्ष महावीर पंप णमंसद, वंदित्ता णमंसित्ता नमेव धम्मियं जाणापवर दुरुहा, बुरुहिता जामेव दिसं पाउम्भूया तामेव दिस परिगया। तए णं समणे भगवं महावीरे अपणया कपाइ पोलासपुराओ जयराओ सहरसंपवणाओ परि. णिरुपमा परिणियसमिस पहिया अवयवहार बिहरह।
अर्थ-- तम अग्निमित्रामा ने पांच अणवत एवं सात शिक्षा-व्रत रूप प्रावक के बारह बत अंगीकार कर भगवान को वन्दना-नमस्कार किया और रप में बैठ कर जिस विशा से आई, उसी दिशा में चली गई। अन्यवा कभी भगवान महावीर स्वामो बाहर जनपद में विचरने लगे।
सकडाल को पुनः प्राप्त करने गोशालक आया
सर णं से सहालपुत्त समणोषासए जाए जाब भभिगयजीवाजीचे जाव विहरह। तर णं से गोसाले मख लिपुत्त इमीसे कहाए लदहे ममाण-पखं खलु सहालपुत्त आजीवियसमयं वमित्सा ममणाणं णिग्गंधाणं दिहि परिवणे में गच्छामि णं सहालपुत्तं आजीविओवासयं समणाणं णिग्गंधाणं विहिवामेत्ता पुणरवि आजीवियदिदि गेहावित्तपत्ति कटु एवं संपेहेर, मंहिता आजीबियसंघसंपरिबुडे जेणेव पोलामपुरे णपरे जेणेष आजीवियसमा तणेष उवागच्छा, उवागछित्ता आजीवियसभाए मंहगणिक्खयं करेइ, करित्ता कइयहिं आजीविएहिं माद्धिं जेणेव सदालपुत्ते समणोवासए तेणेव उपागच्छद ।
__ अर्थ- सकलालपुत्र षमणोपासक बन गए। 2 जीब-अजीव के ज्ञाता यावत् साधु-साध्वियों को प्रासुक एवणीय आहार-पानी प्रतिलाभित करते हुए रहने लगे। मंलिपुत्र गौशालक को ज्ञात हुआ कि सकडालपुत्र आजीविकोपासक ने आजीविक मत का त्या कर श्रमण-नियों को दृष्टि स्वीकार करती है, तो उसने सोचा कि-ममें जाना