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स्वापी गोशालक भगवान् की प्रशंसा करता है
चाहिए तपा सकडालपुत्र से जैनधर्म छरमा कर पुनः माविक मत में स्थिर करना चाहिए । वह अनेक आजीविक-मतियों के साथ पोलासपुर मगर में आया और 'आजीविक समा' में मण्डोपकरण रख कर अपने शिष्यों सहित सकमालपुत्र बमषो. पासक के निकट आया।
सकडालमुत्र ने गोशालक को आदर नहीं दिया
तए णं से सहालपुस्ते समणोवासए गोसालं मस्खलिपुत्तं एज्जमाणं पासा, पासित्ताणो आधाइ णो परिजाणइ अणादायमाणे अपरिजाणमाणे तुसिणीए संचिहह। तए णं से गोसाले मखलिपुत्ते सहालपुत्तेणं ममणोपासएणं अणासाइजमाणे अपरिजाणिज्जमाणे पीठफलगसिज्जासंपारद्वयाए समणस्स भगवो महावीरस्स गुणकित्तणं करेमाणे सहालगुत्तं समणोषासयं एवं वपासी
अर्थ- सालपुत्र श्रमणोपासक ने मंगलिपुत्र गोशालक को मात देखा, तो उस का आदर-सत्कार नहीं किया और चुपचाप बैठा रहा । सकळालपुत्र के उपेक्षामाद को समझ कर पीठ-फलक स्थान एवं शय्या की प्राप्ति के लिए गोशालक ने भगवान महावीर स्वामी के गणकोत्तन करते टए सकलालपुत्र से इस प्रकार कहा।
स्वार्थी गोशालक भगवान् की प्रशंसा करता है
"आगए णं देवाणुप्पिया! हं महामाहणे ?" तर णं से सहालपुते समणो. वामए गोसालं मखलिपुत्ते एवं धयासी--"के णं देवाणुप्पिपा! महामाहणे?" तए णं से गोसाले मंखलि पत्ते सहालपुत्तं समणोवासयं एवं बयासी-"समणे भगवं महापारे महामाहणे।" “से केणष्टेणं देवाणप्पिया! एवं बुरुचह-समणे भगवं महावीरे महामाहणे ?" "एवं खलु सदाल पुत्ता! समणे भगवं महा रे महामाहणे उप्पण्णणाण-दसणधरे जाव महियपइए जाव तच्चकम्मसंपया" संपाउन् । से तणटेणं देवाणुपिया एवं बुच्चा-समणे भगवं महावीरे महामाहणे ।"