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________________ श्री उपासकदाग सूत्र-७ . अर्थ-हे देवानु प्रिय ! क्या यहाँ महामाहन ' आए थे ?" सकालपुत्र धमणोपासक ने पूछा-" हे देवानप्रिय । सहामाहम कान है।" पोशालक ने कहा-"षमण भगवान महावीर स्वामी महामाहन ।" सकबालपुत्र ने पूछा-" हे देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान महावीर स्वामी को महामाहन किस कारण से कहते हो ?" गोशालक ने कहा-"श्रमण भगवान महावीर स्वामी महामाहन उत्पन्न मानदर्शन के धारक, अरिहंत जिन-केवली यावत् तीन लोक के वंदनीय-पूजनीय है। अतः वे महामाहन हैं। "आगर णं देवाणुप्पिया! इहं महागोये "के देवाणुप्पिया! महागोवे?" "समणे भगवं महावीरे महागोवे!" "से केणदेणं देषाणुप्पिया! जाव महागोवे ?" " एवं खलु देवाणुप्पिा ! समणे भगवं महावीरे संसाराहाए पहले जीवे णस्ममाणे विणस्समाणे खज्जमाणे छिज्जमाणे भिज्जमाणे लुप्पमाणे विलुप्पमाणे धम्ममरणं वंडेणं सारक्खमाणे संगोवेमाणे णिव्यापमहापा साहत्यि संपावेड । से तेणडेणं सहालपुत्ता एवं चुच्चह-समणे भगवं महावीरे महागोवे।" अर्थ-हे वेवानप्रिय क्या यहाँ 'महागोप' आए थे ? "महागोप कौन है ?" घमण भगवान महावीर स्वामी महागोप है। "भगवान महागोप किस प्रकार हैं?" सकडालपुत्र ने पूछा। गोशालक ने कहा-“हे सकलालपुत्र ! संसार अस्वी में बहस-से जीव सम्मागं से नष्ट हो रहे हैं, विनष्ट हो रहे हैं, मिथ्यात्यावि द्वारा खाए जा रहे हैं, छरे जा रहे हैं, मेरे मा रहे हैं, उनका हरण किया जा रहा है, उम गायों के समान जीवों को धर्म रूपी जे से रक्षा कर श्रमण भगवान महावीर स्वामी मुक्ति रूपी बाई में पहुंचाते हैं। अतः वे महान् बाले के समान होने से महागोप कहे गए हैं।
SR No.090457
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhisulal Pitaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year
Total Pages142
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_upasakdasha
File Size3 MB
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