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गौतम स्वामी का समागम
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गौतम स्वामी का समागम
तेणं काले णं तेणं समए णं समणे भगवं महावीरे समोसरिए, परिसा णिग्गया, जाव पहिगया, तेणं काले णं तेणं समरणं समणस्म भगवमो महावीरस्स जै? अंतवासी इंदई णामं अणगारे गोयमगोत्तेणं सत्तुस्सहे समचउरंससंठाणसंठिए वज्जरिसहणारायसंघयणे कणगपुलगणिघसपम्हगोरे उग्गतवे दित्त. तवे तत्ततये घोरत महातवे उराले घोरगुणे घोरतवस्सी घोरपम्मचेरवासी उच्छूट सरीरे संखित्तविउलतेउलेसे छह छद्रेणं अणिविखणं तचोकम्मेणं संजमेणं नवसा अप्पाणं भाबेमाणे विहारह ।
अर्थ-उस काल उस समय में(जब आनन्दजी का संथारा चल रहा था)प्रमण भगवान् महाबीन दानी वाणिजमाम नगर मारे परिवार सेवा में गई। धर्मोपदेश सुन कर लौट गई। तब धमण-भगवान महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य इंद्रमतिनी (गौतम गोत्र के कारण 'गौतम' के नाम से अधिक प्रख्यात थे) सात हाय अंधे, समचतुरस्र संस्थान वाले, धनऋषभनाराच संहनन वाले, कसौटी पर कसे शुद्ध सोने और पनपराग के समान गौरवर्ण के थे। उनका तप-उग्र, दीप्त, (कायरों के लिए लोहे के तपे गोले के समान ) सप्त, घोर, महान् और उवार था, हीन सत्त्व वाले उनके गुण सुन कर ही कांपते थे, अतः वे घोर गुणी थे। निरन्तर बैले-वेले का तप करने के कारण वे घोरतपस्वी थे। उनका ब्रह्मचर्य भी बहन निग्रह प्रधान था । वे शरीर की विभषा आदि नहीं करते थे, देह-मोहातीत थे। यद्यपि उन्हें विपुल तेमोलेरपा प्राप्त पी, परन्तु उसे वे शरीर में ही संक्षिप्त कर रखते थे, कमी प्रकट करने की इच्छा भी नहीं होती थी। वे निरन्तर वेलेबले का तप करते हुए अपनी आत्मा को संयम-तप से भावित करते हुए विचरते थे।
मए से भगवं गोयमे छट्टक्खमणगारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ विड्याए पोरिसीए झाणं झायइ, सझ्याए पोरिसीए अतुरियं अचवलं असंभंते मुहपत्ति पडिलेहेइ पग्लेिहिता भायणवत्थाई पग्लेिहेह पडिलेहिता भायणवत्याई