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श्री उपासकदशांग सूत्र - १
पमाह पमजित्ता भायणाईउग्गाहेड़ उग्गाहिता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेच उधागच्छ्ह उजागच्छित्ता समण भगवं महावीरं बंद णमंसह वंदित्ता णर्मसिस्ता एवं वयासी - इच्छामि णं भंते ! तुम्भेहिं अन्भणुष्णाए खट्ठक्खमणपारणगंसि वाणियगामें परे उच्चणीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स मिक्खायरियार अत्तिए । 'अहासहं देवाणुपिया ! मा परिबंध करेह ।”
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अर्थ- बेले के पारण के दिन भगवान् गौतम स्वामी ने प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया, दूसरे प्रहर में ध्यान किया, तीसरे प्रहर में चपलता एवं त्वरा रहित, असंभ्रान्त रीति से मुखस्त्रिका की प्रतिलेखना की, पात्रों और वस्त्रों की प्रतिलेखना की, पात्रों का प्रमार्जन कर के ग्रहण किया और जहाँ भगवान् महावीर स्वामी बिराज रहे थे, वहाँ आकर के धन्वना नमस्कार कर बोले— 'हे भगवन् ! यदि आपको आज्ञा हो तो वाणिज्यग्राम नगर में समुदानिकी मिक्षाचर्या के लिए जाऊँ ?' भगवान् महावीर स्वामी ने फरमाया-'हे देवानुप्रिय ! तुम्हें सुख हो, वैसा करो ।'
तर णं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेण अग्भणुष्णार समाणे ममणस्म भगवओ महावीरस्स अंतियाओ दृपलासाओ बेहयाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतरपरिलो यणार दिहीष पुरओ ईरियं सोहेमाणे जेणेव वाणियगामे णयरे तेणेव उवागच्छ उवागच्छित्ता वाणियगामे यरे उच्चणीयमज्झिमाएं कुलाई घरसमुद्राणस्स भिक्खायरिया अ ।
अर्थ - भगवान् की आज्ञा प्राप्त हो जाने पर गौतम स्वामी द्युतिपलाश उद्यान से निकल कर अस्वरित, अचपल एवं असंत्रांत गति से चार हाथ प्रमाण आगे का क्षेत्र देखते हुए समिति पूर्वक बाणिज्यग्राम नगर में सामुदानिकी मिक्षा के लिए भ्रमण करने लगे ।
तर णं से भगवं गोयमें वाणिपगामे णयरे जहा पण्णत्तीए तहा जाव भिक्खायरियाए अडमाणे अहापज्जन्तं मत्तपाणं सम्म पडिग्गाहे पश्चिग्गाहिता वाणियगामाओ पडिणिग्गच्छ पडिणिग्गच्छित्ता कोल्लायरस मणिबेसस्स अनूरसामंतेणं बीइवयमाणे बहुजणसद्दं णिसामेह, बहुजणो अण्णमण्णस्स ग्रवमाइक्वाइ
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