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श्रमणोपासक कुण्डकोलिक
अर्थ---एक दिन दोपहर के समय कुण्डकोलिक श्रमणोपासक अशोकवाटिका में गए और पृथ्वीशिलापट्ट पर बैठे। उन्होंने अपनी नामांकित मुद्रिका व उत्तरीय-वस्त्र उतार कर पृथ्वी शिला पर रमा नया भगवान महावीर स्वामी द्वारा बताई गई धर्मविधि का चिन्तन करने लगे।
विवेचन-यद्यपि यहाँ 'सामायिक करने का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, तथापि मुदिका व उत्तरीय (नाभि से ऊपर थोड़ने का वस्त्र) उतारने का कारण सामायिक की क्रिया सम्भव है।' अनः उपरोक्त उल्लेख से जाना जा सकता है कि सामायिक में सांसारिक कपड़े नहीं पहनने की परम्परा कितनी प्राचीन है।
नियतिवाद पर देव से चर्चा तए णं तस्स कुण्डकोलियरस समणोपासयस्स एगे देवे अंतियं पाउन्भ. वित्था। तए णं से देवे णाममुहगं च उत्तरिज्जं च पुढवासिलापओ गेण्हा, गेण्हिता सखिस्विर्णि० अंतलिक्खपडिवण्णे कुण्डकोलियं समणोवासयं एवं पयासी"हं भो कण्डकोलिय समणोवासया! संवरी देवाणुप्पिया ! गोमालस्स मखलि. पुत्तस्स धम्मपण्णसी, त्यि उठाणे इ वा कम्मे हवा बले इवा धारिए इ वा पुरि. सक्कारपरक्कमे इ वा णियया सव्वभावा । मंगुली णं समणरस भगवओ महा. वीरस्स धम्मपपणती, अस्थि उठाणे इ वा कम्मे हवा बले इ वा वीरिए हमा पुरिसक्कारपरक्कमेइ वा अणियया सवमावा ।
अर्थ-धर्मप्रज्ञप्ति की आराधना करते हुए कुण्ठकोलिक के पास एक देव माया। उसने कुण्ठकोलिक की मुद्रिका और उत्तरीय वस्त्र उठा लिए, तथा धुंधराओं सहित वस्त्रों से युक्त अंतरिक्ष में रहा हुआ कहने लगा-"अहो कुण्डकोलिक ! मंसलिपुत्र गौशालकको धर्मविधि अच्छी है, क्योंकि उसमें उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकारपराक्रम आदि कुछ भी नहीं है । सभी भावों को नियत माना गया है। परन्तु श्रमण मगवान् महावीर स्वामी की धर्म-प्रज्ञप्ति अच्छी नहीं है, क्योंकि उसमें उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकारपराक्रम आदि माने गए हैं। सभी भावों को अनियत माना गया है।
विवेचन--काल, स्वभाव, कर्म, नियति एवं पुरुषार्थ-ये पांचों समवाय अनुकूल होने पर ही