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व्यासकवणाग सूत्र
कार्य-सिद्धि होती है, तथापि केवल एक की अपेक्षा कर शेष की उपेक्षा करने वाले असत्यमाषण करते हैं। जैसे- 'काल' को ही सर्वोसर्वा मानने वालों का कथन है कि-काल हो भूतों (जीवों) को बनाता है, नष्ट करता है, जब सारा जगल सोता है तब भी काल जाग्रत रहता है। काल मर्यादा को कोई उल्लंघन नहीं कर सकता । थपा
काल: सृजति भूतानि, फाल: संहरते प्रवाः ।
काल: सुप्तेसु जागति, कालो हि दुरतिक्रमः ।। (२) स्वभाववादी का कथन है
कण्टकस्प तीक्ष्णस्वं, मयूरस्य विचिभता ।
वर्णश्च ताम्रचूड़ानाम, स्वभावेन भवन्तिहि ।। कांटे की तीक्ष्णता, मयूर पंखों की विचित्रता, मुर्गे के पत्तों का रंग, मे सब स्वभाव से ही होते हैं। बिना स्वभाव के आप से नारंगी नहीं बन सकती।
(५) कर्मवाद का कथन है, कि अपने-अपने कर्म का फल सब को मिलता है। केवल कर्म ही सर्वेसर्वा है ।
(४) पुरुषाधाव का मन्तव्य है कि पुरुषार्थ के मार्ग पोष सारे समवाय व्यर्थ है । जो भी होता है, पुरुषाय से होता है।
(५) नियतिवादो का अभिमत हैप्राप्तव्यो नियतिवालाश्रयेण योऽर्थः ? खोऽवश्यं भवसि ना शुमाऽशुभो वा।
भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नाभत्र्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाश ।।
अर्थ- वही होता है जो नियति के बल से प्राप्त होने योग्य है । चाहे वह शुभ हो या अशुभ। प्राणी चाहे कितना ही प्रयत्न करे, जो होने वाला है, वह अवश्य होता है जो नहीं होना है, वह कदामि नहीं होता है।
__उपरोक्त पाचौं समवाय मिल कर हो सत्य है । नियतिवादी कहता है कि पुरुषार्थ से मदि प्राप्ति हो जाती है, तो सभी को नयों नहीं होती, जो पुरुषार्थ करते हैं। इधर पुरुषार्थवादी नियतिपादियों का खोखलापन बताते हुए कहते हैं कि यदि नियति से ही प्राप्त होने का है, तो पुरुषा क्यों करते हो? क्यों हाय-पर हिलाते हो । रोटी को मुंह में जाना भवितव्यता है, तो अपने माप पहुँच जायेगी।
देव ने कुण्डकोलिक के समक्ष नियतिवाद का पक्ष प्रस्तुत किया कि यह वात अच्छी है। म तो कोई परलोक है, न पुनर्जन्म । जब वीर्य नहीं तो बल नहीं, कर्म नहीं, बिना कर्म के कंसा सुम्च और सा दुःख ? जो भी होता है, भवितव्यता से होता है।