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अनिन्दवी अभियह
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मानवीय भोगों की प्राप्ति हो, ऐसी इच्छा करना।
आनन्दजी का अभिग्रह
तए णं से आणंद गाहावई समणरस भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचा. गुब्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुबालसाविहं सावधम्म परिषज्जा परिवज्जित्ता समणं भगवं महावीर पंवइ णमंसह वित्ताणमंसित्ता एवं वयासी-"णो खरल मे भंते ! कप्पइ अज्जप्पमिई अण्णाउथिए वा अपणउत्थियदेवयाणि वा अपणउस्थियपरिग्गहियाणि वा वंदित्तए वा णमंसित्ताए वा, पुब्धि अणालत्तण आलवित्तए षा संलपित्तए वा, सेसिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं या दाउं पा अणुप्पदाउं घा, णण्णस्य रायामिओगेण, गणाभिओगेणं, बलामिओगेणं, देवपाभिओगेणं, गुरुणिग्गहेणं, विसितारेणं ।
*धानन्दजी की प्रतिज्ञा के इस पाठ में प्रक्षेप भी इभा है। प्राचीन प्रतियों में न तो 'बेरमाई' रब्द मा और न 'बरिहंत पेश्याई । मध्यान् महावीर प्रभु के प्रमुख उपासकों के चरित्र में मूर्तिपूजा का उल्लेख नहीं होना, उस पल के लिये अत्यन्त खटकने वासो बात थी । इजिये प्रप्त कमी को दूर करने के लिए किसी सत-प्रेमी ने पहने ' पेश्याई' शब्द मिनाया । कालान्तर में किसी को यह नौ अपर्याप्त लगा, तो उसने अपनी ओर से एक शब्द और बढ़ा कर' अरिहंसपेयर कर दिया। किन्तु यह प्रक्षेप भी व्यर्थ रहा। मोंकि इससे भी उन उपासकों को माघमा और बारापना पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । वह तो तब होता कि उनके सम्परत्व, व्रत या प्रतिमा आराधना में, भूति के नियनित्त दर्शन करने, पूजन-महापूजन पारने और सीर्थयात्रा का स्लेख होता । ऐसा तो बुछ भी नहीं है, फिर इस माह से होना भी क्या है।
स पाठ के विषय में जो योग हुई है, उसका विवरण ' श्री अगरचन्द मदान सरिया जैम पारमाक्षिक संस्था बीकानेर' से प्रकाशित 'जैन सिद्धांत बोन संग्रह ' भाग ३ के परिशिष्ठ से साभार उद्धृत करते है
उपासकवभाग के मानन्दाध्ययन में मी लिवा पाठ आया है-"नो पल मे मते कापा मम्जप्पमिदं अनथिए वा, अस्थिय देवपाणि चा, अन्तस्पिपरिगहियाणि वा वित्तएबा ममंसित्तए पा इत्यादि।
अर्थात हे भगवान् ! मुझे माज से लेकर अन्य अधिक, अन्मयूथिक के देव अथवा अन्य पूधिक के सारा सम्मानित पा गृहीत को वन्दना नमस्कार करना नहीं कल्पता । इस जगह तीन प्रकार के पाठ उपलब्ध होते हैं
(क) मन जरिषम परिहियाणि । (ब) अन्न चरिणयपरिग्गाहयाणि घेइंया। (ग) अन्न उत्मिपरि गहियाणि अरिहंत धेईयाई।