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मुर्शनी का परिवर्तन और अनादर उनके लिये भी लाभदायक हुआ और वे अपने शिष्यों के साथ निग्रंथ-धर्म में दीक्षित होकर महात्मा यावन्यापुत्र अनगार के शिष्य बन गए और आराधक हो कर मुक्त होगए।
अन्यपूर्थिक देव और उसके गुरुवर्ग एवं अपने से निकल कर अन्ययुथ में मिले हुए के प्रति ही श्रमणोपासक का यह अनादर पूर्ण अबहार है, परन्तु अपमान करने का नहीं। गृहस्थ के साथ ऐसा व्यवहार नहीं होता, क्यों कि गृहस्थ से सम्बन्ध या तो पारिवारिक होता है, या सामाजिक एवं व्यावसायिक, विधर्मी से धार्मिक नहीं होता। अतएव उसका जो योचित आदर होता है, वह लौकिक आधार पर होता है और अन्यतीर्थी साधु तो मात्र धर्म से ही सम्बन्धित होते हैं।
माजकल अनेकान्त का मिथ्या महारा ले कर अन्यों से समन्वय कर के उन्हें भी सच्चे मान कर आदर देने की नथाकथित जैन विद्वानों ने ओ कुप्रवृत्ति अपनाई है, वह उपादेय नहीं है । यदि इस प्रकार का समन्वय श्रमण भगवान महावीर प्रभु को मान्य होता, तो सद्दालपुत्र के नियतिवाद का खण्डन कर पुरुषार्थवाद का मण्डन नहीं करते और कुण्डकोलिक के नियनिदाद के खण्डन की सराहना नहीं करते, जबकि गम्यक नियति को तो स्वीकार किया ही है और अन्य कारणों को भी स्वीकार करते हुए नियति मान्य की है । इससे स्पष्ट है कि स्पावाद एवं अनेकान्स मम्यक हो और मित्रांत के अनुकूल हो, तभी मान्य हो सकता है, अन्यथा वह मिथ्या होता है और अमान्य रहता है । जहाँ जिनेश्वर भगवत के धर्मादेश से किञ्चित् भी असहमति हो, वहाँ उपेक्षा ही रहती है । जमाली आदि निन्दा एफ को छोड़ कर सभी बातों में सहमत थे । केवल एक विषय की असहमति एव विरोध के कारण के मिथ्या दृष्टि एवं संघवाह्य ही मान गए । सुचना के अभाव में विशुद्ध चर्या और आचार-धर्म का प्रतिपालन भी असम्यक् तथा ससार का ही कारण मानने वाला जैन दर्शन, गुड़ और गोबर को एकमेक करने वाले असम्यक समन्वय को स्वीकार नहीं करता। अतएव आगमोफत श्रमणोपासकों के चरित्र का ही अनुसरण करना हमारे लिये हितकारी होगा।
पारिहंत खेडयाई मक्षित है?
बानन्दाध्ययन का "अरिहंत चेझ्याई' गन्द भी विवाद का कारण बना है। मनुष्य का अहं उसे आन-बूझ कर अभिनिवेशी (ठाग्रही) पना कर कुकृत्य करवाता है । 'अरिहंत चत्य' शब्द भी मताग्रह के बल से मूलपाठ में जा बैठा । सब से पहले 'चेझ्याई घुमा और उसके बाद 'अरिहंत' पहुंच कर जुड़ गया । टीका के शब्दों से भी लगता है कि 'अरिहंत' शब्द टीकाकार द्वारा बताये हुए लक्षण के सहारे में मूलपाठ में घुस गया हो । सम्बन्धित पाठ का संस्कृत रूप टीका में इन अक्षरों