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येणधारियों को कुन्दन नहीं कहंगा, उनसे सम्पर्क भी नहीं रखूगा, अपने पूर्व के देव-ग और साधर्मो मेजिन से उस दिन के पूर्व तक उसका सम्बन्ध रहा-हेव जानकर उन्होंने त्याग दिया।
आज के लौकिक दृष्टि वाले कई अनी अपना मागं भूल गये हैं। उन्होंने राजनैतिक एवं सामापिक-लौकिक प्रचारकों से प्रभावित हो कर 'सर्वधर्म समभाव' का उनका घोष अपना लिया और सपना आवशं छोड़ दिया। इस लौकिक प्रचार ने जन उपदेशकों और लेखकों को भी प्रभावित किया । उन्होंने इस प्रचार को धर्म एवं शास्त्रसम्मत प्रमाणित करने के लिये 'अनेकान्त ' का Hठा महारा ले कर मिथ्यावाद चलाया और धर्मश्रदा की जड़ें ही काटने लगे । यदि उपासक-वर्ग उनके बहकावे में नहीं झावे और इन आदर्ण उपासकों के साधनामय जीवन पर ध्यान दे, नो अपने धर्म में स्थिर रह सकते हैं ।
समन्वय नहीं
अनेकान्त को रक्षक के बदले भक्षक बनाने वालों को चाल मे बचने के लिये श्रमणोपासक आनन्द की इस प्रतिज्ञा पर ध्यान देना चाहिये कि-"में अन्ययधिकादि को मान-सम्मान नहीं दूंगा, बिना बोलाये बोलूगा भी नहीं और उन्हें आहारादि का निमन्त्रण भी नहीं दूंगा।" कुछ दिन पूर्व सक जिन का उपासक था, भक्त था, परम श्रद्धा से एक मात्र उन्हें ही उपास्य एवं आराध्य मानता धा, उन गोमालक के अपने घर आने पर भी जिसने आदर नहीं दिया, और इतना भी नहीं कहा कि-"आइयें, ठिये ।" एक बराबरी के गृहस्थ के आने पर भी हम-"आइयं. पधाग्यि. विराजिय," आदि शब्दों से आगत का स्वागत करते हैं. तब जिन्हें वर्षों तक परम आराध्य मान कर वन्दनादि करते रहेसर्वोत्कृष्ट सम्मान देते रहे, उसी के आगमन पर मुख फेर कर उपेक्षा करना कितना खटकने वाला होगा- आज की दृष्टि में 7 आज के एमे लोगों की दृष्टि में यह मभ्यना के विरुद्ध व्यवहार है। ऐसे मभ्यतावादी लोग सद्दालपुत्र को ' कट्टरपंथी ' या 'सम्प्रदायवादी फह भकते हैं । किन्नु ऐसी बात नहीं है। ऐसा वही मोच मकता है जिसकी दृष्टि में चोर और माहूकार, कलटा और मनी. विष और अमृत में, एक बालक अथवा भोंदू के समान समादर हो । ओ कांच और रत्न में ममभावी हो । उम सुधायक ने ममम लिया कि ये लोगों को उन्मार्ग में ले जाने वाले हितभव है जीवों को भवावटवी में भटका कर दुखी करने वाले हैं, विष में भी अधिक भयानक हैं । इनकी तो छाया में भी बचना चाहिये । हम जब तक अनजान होते है, तबतक मित्र कार में प्रिय लगने वाले ठग से घनिष्ठला रखते हैं, परन्तु ज्योंही उसकी असलियत जान हो जाती है. त्योंही उममे मर कर दूर रहने लगते हैं । यही बात कुप्रावधनिकों के विषय में समझनी चाहिये । इस प्रकार श्रमणोपासक थीआनन्दजी की प्रतिज्ञा और सफडालजी का गोगालक का आदर नहीं करना सर्वथा उचित है । ऐसा ही दूसरा उदाहरण ज्ञानाधर्मकयांग मूत्र अ. ५ का श्रमणोपासक सुदर्शनजी का है, जिन्होंने अपने पूर्व के धर्म गुरु परिव्राजकाचार्य शुकजी का आदर नहीं किया था । परिबाजकार्य मरल थे, सत्यान्वेषी यं ।