________________
भगवान के आदर्श श्रमणोपासक
जिनोपदिष्ट द्वादशागी का भातवो अंग 'उपासकदशांग मूत्र' है । इसमें श्रमण भगवान महावीर स्वामी के अनेक गृहस्थ-उपासकों में से दस उपामको का चरित्र वर्णन है. ! भगवान के आनन्द-कामदेव मावि उपासकों का चरित्र हम उपासकों के लिए पहले भी आदर्श (दर्पण) रूप पा, आज भी है और मागे भी रहेगा । हम इस आदर्श को मम्मुख रख कर अपनी आत्मा, अपनी दशा और परिणति देखें और यथाशक्य अपनी त्रुटियों दोषों और कमजोरियों को निकाल कर वास्तविक श्रमणोपासा बनने का प्रयत्न करें, तो हमारा यह भव और परभव मुधर सकता है और हम एक भवावतारी भी हो सकते है। यदि अधिक भव करें, और भम्यक्त्व का साथ नहीं छोड़े, तो पन्द्रह भव--देव बऔर मनुष्य के कर के मित्र भगवान् बन सकते हैं।
वे श्रमणोपासक धन-वैभव, मान-प्रतिष्ठा और अन्य सभी प्रकार की पोद्गलिक मापदा से भरपूर गवं मुखी थे । परन्तु जब भगवान महावीर प्रभु का पावन उपदेषा मुना, तो उमकी दिशा और ...दमा दोनों पलट गई । मवाभिनन्दी और प्द्गलानन्दी मिट कर आत्मानन्दी बन गए। उनकी रूचि निवृत्ति की और बढ़ गई । भगवान् के प्रथम दर्शन में ही उन्होंने अपने व्यापार-व्यवसाय, आमा-तृष्णा
और भोग-बिलाम पर अणुव्रत का ऐसा अंकुश लगाया कि वे वर्तमान स्थिति में ही संवरित रहे। माप ही उनका लक्ष्य प्रवृत्ति पटा कर. निवृत्ति बढाने का भी रहा ही। इसीसे वे नौदह वर्ष तक व्यापारव्यवसाय और मह परिवार में रह कर अणुवतादि का पालन करते रहे । तत्पश्चात् म्यवसायादि से निवृत्त हो कर उपासक-प्रतिमाओं की आराधना करने के लिए पौषधमाला में पले गये और विशेष रूप में धर्म की आराधना करने लगे।
बन्यों की मंगति से बचे
हम उन आदमं श्रमणोपासकों के माधना जीवन पर दृष्टिपात करें, तो हमें उनकी भगवान्, श्रमम-निग्रंथ और जिनधर्म के प्रति अगाध एवं अटूट धद्धा के दर्शन स्पष्ट रूप से होते हैं । ये एकान्न कम से जिन-धर्म मे ही उपासक थे । प्रतिमाराधना तो गाद की बात है । जिस दिन उन्होंने भगवान् के प्रथम वर्णन किय, प्रथम उपदेश सुना और मम्यग्दृष्टि तथा देशविरत धरणोपासक बने, उसी दिन, मी ममय उन्होंने 'भगवान् के सम्मुख यह प्रतिज्ञा कर ली कि-" में अब अन्यधिक देव अमायूष के माध्वादि और जिनधर्म को छोड़ कर अन्ययथ में गये-सम्यक्त्व एवं जिनधर्म से पवित हुए