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शिवादेवी भी प्राधिक बनी
पडिलाभेमाणस्स विहरित्तए ति कटु इमं पपारूवं अभिग्गई अभिगिहा, अभिगिहित्ता पसिणाई पुच्छह, पुच्छित्ता अट्ठाई आदिय, आदिइसा ममणं भगवं महावीर लिखुत्तो चंदड़, बंदित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिमाओ इ. पलासाओ चेहयाओ पडिणिक्षमह, पद्धिणिक्षमित्ता जेणेव वाणियगामे जयरे जेगेष सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उत्रागछित्ता सिवाणंदं भारियं एवं वयासी'एवं खलु देवाणुप्पिए ! मए समणस्स भगवओ महावीरस्म अंतिए धम्म णिसंते सेऽवि य धम्मे में इतिर डितिर अनिकाह, , गगां तुम देवाणप्पिए ! समणं भगवं महावीरं वदाहि जाव पज्जुबासाह, समणस्स भगवओ महावीरम अंतिए पंचाणुब्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुधालसविहं गिहिधम्म पडिवजाहि ॥७॥
अर्थ-श्रमण-निग्रंथों को प्रासुक-एषणीयशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, पाठ, बाजोट, उपाधय और घास आदिका संस्तारक, बीयधि, मेषज, ये चौदह प्रकार की सामग्री महराना मुझे कल्पता है। ऐसा अभिग्रह धारण कर और प्रश्नावि पूछ कर, अर्थ धारण कर भगवान् को तीन बार वंचना कर के ध्रुतिपलाश उद्यान से अपने घर आए एव अपनी पत्नी शिवानंवा से इस प्रकार कहने लगे-“हे देवान प्रिय ! मैने अमण भगवान महावीर स्वामी के समीप धर्म सुना । वह धर्म मुझे अच्छा लगा। उस पर मेरी गाढ़ी कचि हुई है। हे प्रिये ! तुम भी श्रमण भगवान महावीर स्वामी को सेवा में जा कर, वंवना-नमस्कार कर, पर्यपासना करो तथा पांच अणुव्रत और सात शिक्षादत रूप धाधक-धर्म स्वीकार करो।"
नएणं सा सिवाणंदा भारिया आणंदेणं समणोवामपणं एवं बुत्ता समाणा हतुहा कोटुंबियपुरिसे सहावे, सहावेत्ता एवं पयासी-खिप्पामेव लहुकरण जाव पज्जुबासह । तएणं ममणे भगवं महावीरे मिवानंदापतीसे य महइ जाव धम्म कहे, ना पंसा सिवानंदा समपास्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा णिसम्म हट्ट आव गिहिधम्म पहिवज्जड़, पडिज्जित्ता तमेव धम्मियं जाणप्पवर दुरूहइ दुहिता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया ॥सू. ८॥