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श्री उपासकदशांग सूत्र है
इस प्रकार के अन्यतीर्थिक देवों की वंदना नमस्कार मादि नहीं करने का आनन्दजी ने अभिग्रह लिया था ।
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'अण्णउस्थियाणि परिगहियाणि - यहां पाठ-भेद है और विवादजनक है, साथ ही टीकाकार का किया हुमा प्रर्थं तो प्रपने समय में पूर्णरूप से प्रसरी मौर जमी हुई मूर्तिपूजा से प्रभावित है ।
और 'बेइय' चैश्य शब्द का अर्थ मात्र प्रतिमा ही नहीं होता। प्रसिद्ध जंनाचार्य पूज्य श्री १००८ श्री जयमलजी म. सा. ने 'चेश्य' शब्द के एक सौ बारह प्रर्यो को खोज की। 'जयध्वज' लिखा हैपू. ५७३ से ५७६ तक वे देखें जा सकते हैं। वहीं मंत
" इति अलंकरणे बोधं ब्रह्माण्डं सुरेश्वर वार्तिके प्रोक्तम् प्रतिमा घेदय शब्वे नाम १० मो छ । चेइय ज्ञान नाम पाँचमो छे। चेहय शब्दे पति = साधु माम सास छे । पछे यथायोग्य ठामे से नाम हु से जावो । सर्व चेत्य शब्द मा अकि ५७ अने वेश्य शब्दे ५५ सब ११२ लिखितं ।"
"पू. भूधरजो शिष्य ऋषि जयमल नागौर मझे सं. १५०० घेत सुदी १० दिने ।" आनन्दजी के अभिग्रह वर्जन में तथाकथित 'चेइपाई' का प्रासंगिक अर्थ यह है कि
" में अन्यतिथियों द्वारा प्रगृहीत साधुओं को वंदना-नमस्कार नहीं करूंगा।" यदि हम कुछ क्षणों के लिए मानलें कि अन्यतीर्थियों द्वारा प्रगृहीत परिहंत प्रतिमा को वंदना नमस्कार नहीं करने का नियम लिया, किंतु वंदना-नमस्कार के बाद जो 'बिना बोलाए नहीं बोलना' तथा ' बाहार पानी देने' की बात है, उसको संगति कैसे होगी ? वंदना-नमस्कार तो प्रतिमा को भी किया जा सकता है, परन्तु बिना बोलाए बालाप-संला और चारों प्रकार के माहार देने का व्यवहार प्रतिमा से तो हो ही नहीं सकता। यह कैसे संगत होगा ? पहले जी मलिगी या साधर्मी साधु या, बाद में वह अभ्यतिथियों में चला गया है, तो वह व्यापन एवं कुशील है। उसे वंदना नमस्कार नहीं करने का नियम सभ्यस्व की मूलभूमिका है । इसी उपासकदशा में मागे पाठ पाया है कि कडालपुत्र पहले गोचालक का श्रावक था, बाद में भगवान् के उपदेश से जैन श्रावक बना, फिर गोमालक ने उसे अपना बनाना चाहा। ज्ञाताकांग सूत्रांग, निरावलिका पंचक, भगवती आदि में पनेको वर्णन मिलते हैं, नही स्वमत से मन में तथा परमत से स्वमत में भाने के उल्लेख है । अतः परमतगृहंत जैन साधुओं को 'पण्ण उत्थिया हियाणि' अर्थ मानना उचित लगता है ।
कम्प मे समणे णिग्गंधे फासुएणं एस णिज्जेणं असण-पाण खाइम- साइमेणं चत्थ-पडिम्गह-कंपल- पापपुंछणेणं पढ-फल- सिज्जा संधारणं ओसह मेसज्जेण प