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.. -श्री उपासवान राम-१
तपाणतरं ष णं सामाझ्यस्स समणोषासरणं पंच अइयारा जाणियल्याण समायरियल्या, तं जहा–मणप्पणिहाणे, वयदुप्पणिहाणे, कायदुष्पणिहाणे, सामाझ्यस्स सइअकरणया, सामाश्यस्स अणवष्ट्रियस्स करणया।
अर्थ--तवन्तर श्रमणोपासक को श्रावक के नववे व्रत सामायिक के पांच अतिचार जानने योग्य हैं, आचरण योग्य नहीं है। यथा;
५ प्रणिपान-मननयोग की दुष्प्रसि । मन के बस दोष लगाना । २ वचनदुष्प्रणिधान--वचनयोग की दुष्प्रवृत्ति । वचन के दस दोष लगाना। ३ कायदुष्प्रणिधान--काययोग को दुष्प्रवृत्ति । काया के बारह दोष लगाना।
४ सामायिक की स्मति नहीं रखना--'मैने सामायिक कर लो पी'इस प्रकार सामायिक के समय का ज्ञान नहीं रहना । सामायिक को भूल कर सापध-प्रवृत्तियों करने लग जाना।
५ सामायिक का अनवस्थितकरण-अव्यवस्थित रीति से सामायिक करना और सामायिक का काल-मान पूर्ण एए बिना ही सामायिक पार लेना आदि ।
सयाणंतरं च णं देसाचगासियस्स समणोवासपूर्ण पंच अइयारा जाणियन्या ण समायरियब्वा, सं जहा-आणवणपओगे,पेसवणप्पओगे,सदाणुवाय,रुवाणुवाए, पहियापोग्गलपखवे ।
अर्थ-दसवें व्रत-देशावकाशिक के पांच अतिचार जाने, परंतु आचरण नहीं करे । यथा--१ आनयन-प्रयोग २ प्रेष्य-प्रयोग ३ शब्दानुपात ४ रूपानुपात ५ बहिर्मुद्गल प्रक्षेप।
विवेचन-१ देसावगासियं-"विग्वतगहीतरय विपरिणामस्य प्रतिविनं संक्षेपकरणलक्षणे सर्व पतसंक्षेपकरण लक्षणे वा।" भभि. भाग ४ पृ. २६३२ । अर्थ-छठे प्रत दिशा-परिमाण को प्रतिदिन पंक्षिप्त करना तपा सभी व्रतों के परिमाण को संक्षिप्त करना 'वेशावकाशिक' कहलाता है।
दिशा-मर्यादा करने से वह स्वयं तो मर्यादितभूमि से बाहर नहीं जा सकता, परन्तु दूसरों को भेजकर कोई वस्तु मंगवाना 'मनयन-प्रयोग है। कोई वस्तू भिमवाना 'प्रेष्य-प्रयोग है। (संबर मादि में मकान से बाहर रहै व्यक्ति बादि को) बुलाने या भेजने के लिए शब्दादि से संकेत, आकृति से ईशारा कर के अथवा कंकर आदि फेंक कर अपनी उपस्थिति बताना अथवा कार्य का संकेत देना महः 'शब्दानुपास, रूपानुपात और बहिदिगल-प्रक्षेप' है।