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तुंगिका के श्रमणोपासक
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ज्यों-ज्यों धर्म-राग बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों कालिमा हट कर प्रशस्त-शुभ रंग चढ़ता है, फिर एक समय ऐसा भी आता है कि सभी राग-रंग उड़कर विराग-दशा हो जाती है। यह उस नष्ट होती हुई कर्म-कालिमा को सुधरी हुई अवस्था है, जिसमें दुःखद-परिणाम वाली कवली प्रकृति धुल कर स्वच्छ बनाती है और शाके सारा नाका योग होता है। फिर कालिमा का अंश मिटा कि शुभ मी साथ ही मिट कर आत्म-ब्रव्य शुद्ध हो जाता है।
अयमाउसो ! णिग्गंथे पाययणे.........उनके धर्म-राग की उत्कृष्टता का प्रमाण यह कि जब साधर्मीबन्धु परस्पर मिलते अथवा किसी के साथ उनकी धर्म-चर्चा होती, तो उनके हृदय के अन्तस्सल से यही स्वर निकलता-"आपकमन् ! यदि संसार में कोई सारभूत अर्थ है, तो एकमात्र निर्ग्रन्य-प्रवचन - जिनधर्म हो है। यही परम अपं-उत्कृष्ट लाम है । शेष समी (धन-सम्पत्ति, कुटुम्ब-परिवार एवं अन्य मत) अनर्ष = दुःखदायक हैं।
उसियफलिहा अवं गुगदुवारा-वे उवार थे, दाता थे। उनके घर के द्वार यायकों के लिये ले रहते थे। पास्त्रण्डियों एवं कुप्रावनिकों से उन्हें किसी प्रकार का मय नहीं था। थे आहत-धर्म के पपिसत थे और तत्वचर्चा में किसी अन्य प्रायनिक से दयते नहीं थे।
चियत्तंतेउरघरप्पसा-जनता में उनकी प्रतीप्ति ऐसी थी कि वे कार्यवश किसी के घर में अथवा राज के अन्तःपुर में प्रवेश करते, तो जनता को उनके चरित्र में किसी प्रकार की शंका नहीं होती। वे अपने स्ववार-संतोष व्रत में बढ़ थे और जनता के विश्वास.
पात्र थे।
वे अनेक प्रकार के स्याग-प्रत्याख्यान, अणुवत-गुणवत, सामापिक, पौषधोपवास और अष्टमी चतुर्दशी अमावस्या और पूर्णिमा को प्रतिपूर्ण पौषध वप्त का पालन करते थे और श्रमण-निग्रंथ-साधु-साध्वी को अचित निर्दोष आहार-पानी, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पावप्रोछन, पीढ-फलक स्थान-संस्तारक औषध-भेषज आदि भक्तिपूर्वक प्रतिलापित करते रहते थे, और यथाशक्ति तप करते हुए अपनी आत्मा को पवित्र करते रहते थे।
मगवान के इन श्रमणोपासकों का चरित्र इस उपासकवांग सूत्र के साथ जोड़ने का यही आशय है कि हम उनके चरित्र का मनन करें और इनका अवलम्बन लेकर अपना मीवन सुधारें। अन्य विचारों और इधर-उधर घेखना छोड़ कर अपने इस आदर्श को ही अपनायेंगे तो हमारी मम्या पार हो जायगी।