________________
४२
श्री उपासकदशांग सूत्र--१
षपासी-"गोयमा ! तुम ष णं तस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पहिवजाहि, आणंद घ समणोवासयं एपमढें खामेहि । तए णं से भगवं गोयमे समणस्स भगवओ महावीरस्स"तहत्ति" एयमट्ट विणएणं परिसुणेइ पष्ठिमुणित्ता सरस ठाणस्स आलोपइ जाव पशिवज्जह, आणंदं च समणोवासयं एयमढं खामेइ । तर णं समणे भगवं महावीरे अण्णधा कयाइ बहिया जणवयविहार विहारह ।। सू. १६ ॥
अर्थ-गौतमस्वामी ने कहा-'हे भगवन् । आनन्द अमणोपासक इस विषय में आलोचना-प्रायश्चित्त के भागी हैं, अथवा में ?' तब भगवान महावीर स्वामी ने गौतमस्वामी से फरमाया--"हे गौतम ! आनन्द का कथन यथार्य है। तुम उस कयन की आलोचना कर प्रायश्चित्त करो तथा आनन्द श्रमणोपासक से क्षमापना करो।" गौतमस्वामी ने भगवान का कथन विनयपूर्वक श्रवण कर स्वीकार किया (और वे पुनः कोल्लाक सनिवेश गए) तथा आनन्द अमणोपासक से अपने कपन के लिए क्षमा याचना की। अन्यदा कमो भगवान धाहर जनपद में विचरने लगे।
विवेचन - यह उपासकदशांग सूत्र भगवान् सुधर्मास्वामी को रचना है। उन्होंने इसमें गौतमस्वामी का यह प्रसंग क्यों दिया? इस प्रश्न के उत्तर में शानी फरमाते हैं कि तोयंकरों से तो कोई भूल होती ही नहीं है। उनके बाद गणाघरों में गौतमत्वामी का अग्र स्थान था। भगवान के प्रथम-प्रधान शिष्य द्वारा एक श्रावक से क्षमा याचना करना साधारण बात नहीं है। इस दृष्टान्त से यह सिद्धि होती है कि चाहे कोई कितना ही बड़ा क्यों न हो तथा पगला व्यक्ति कितना ही छोटा क्यों न हो, भूल को मम मानना यही सम्यक्त्व की भूमिका एवं सिद्धि का प्रथम सोपान है । ‘में बड़ा है, छोटे के सामने मेरी मम्रता क्यों ?' यह भावना विकास की अवरोधक है।
प्रश्न-या गोतमस्वामी चार ज्ञान चौदह पूर्वधर नहीं थे ? यदि घे वो ऐसी कपन-स्खलना से सम्भव है ?
समाधान-प्रानन्यजी के क्षमा याचना प्रसंग से पूर्व ही गौतमस्वापी चार शान एवं चोदह पूर्व पारक । क्षावकाग्निक अ. 4 गाथा ५० में कहा गया है--
आचारपणतिधरं, चिट्ठिवायमहिम्मगं ।
पायविरलियं णच्चा, ग तं उवहसे मुगी । "पाचार-प्रशप्ति के माता मोर दृष्टिवाद के अध्येता भी बोलते समय प्रमाववश वपन से स्वलित हो जाय, तो उनके मशुद्ध वचन को पान कर साधु सन महापुरुषों का उपहास न करे।"