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भगवान् और सकलालपुत्र के प्रश्नात्तर
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मंहं अंतो सालाहितो पहिया णीणेह, णीणित्ता आयसि बलया । नए णं समणे भगर्ष महाबीरे सहालपसं आजीविओवामयं एवं वासी-"सहालपत्ता ! एसर्ण कोलालभडे कओ ?" तर णं से सहालपुत्ते भाजीविओवासए समणं भगवं महावीरं एवं बयासी-"एस णं भंते ! पुन्धि महिया आसी, ओ पच्छा उवएणं णिगिज्जइ, णिगिज्जित्ता छारेण प करिसेण य एगयो मासिज्जा मीसिज्जित्ता चक्के भारोहिज्जइ । तओ पहवे करगा य जाय उडियाओ य कज्जति।"
अर्थ- एक दिन सकडालपुत्र माओविकोपासक वाम से कुछ सूखे बर्तनों को घर से माहर निकाल कर धूप में सुखा रहा था। उस समय वहाँ पधारे हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सकडालपुत्र आजीविकोपासक से कहा--" हे सकडालपुत्र ! ये मिट्टी के घर्तन कैसे बने हैं ?" तब सकशालपुत्र ने उत्तर दिया
"हे भगवन् । पहले यह सब मिट्टो रूप में थे। उस मिट्टी को पानी में भिगोया जाता है। फिर उसमें राख एवं लोद मिलाते हैं, तया उस पिण को खूब संवा जाता है, तब उसे चाफ पर चढ़ा कर भौति-मांति के बर्तन बनाए जाते हैं।"
लए णं ममणे भगवं महावीर सहालपुत्त भाजीबिओवासगं एवं पयासी"सघालपत्ता ! एस नं कोलालभो कि उहाणेणं आव पुरिसक्कारपरक्कमेणं कनइ उदाहु अणुहाणेणं जाच अपुरिसक्कारपरक्कमेणं फज्जाद!" तए णं से सहालपुत्त आजीविओवासए समर्ण भगर्ष महावीरं एवं बयासी-"मत! अणुट्टा. पोणं जाय अपुरिसक्कारपरक्कमेणं, णस्थि उहाणे । षा जाष परक्कमे का, णियया सबभाषा।
अयं-- तब भगवान महावीर स्वामी ने सकढालपुत्र आजीविकोपासक से पूछा" हे सकलालपुत्र ! ये मिट्टी के बर्तन उत्थान यावत् पुरुषकार-पराकम से बने हैं या (बिना बनाए ही) अनुत्थान यावत् अपुरुषकार-पराक्रम से बने हैं ?
सकडालपुत्र ने उत्तर दिया--"हे भगवन् ! अनुस्थान यावत् अपुरुषकार पराक्रम से बने हैं। इसमें उत्थान यावत् पुरुषकार-पराक्रम महीं है। क्योंकि सभी भाव नियत है।"