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________________ १.८ श्री उपासकपक्षांप सूत्र वो बछड़े मार कर लाया करो।" वह कर्मचारी प्रतिदिन दो बछड़ों को मार कर उनका मांस रेवती को देने लगा। रेवती मांस-मदिरा का प्रचुर सेवन करने लगी। रेवती पति को मोहित करने गई नए णं तस्स महासयगस्स समणोवासगरस बहाद सील जाच मावे. माणस्स चोइस संबचरा वक्फंता । एवं तेहष जेटुं पुत्तं ठवेइ जाव पोसहसालाए धम्मपणत्ति उतसंपज्जित्ताणं विहर । तए ण सारेनई गाहाबदणी मत्ता लुलिया पिडण्णकेसी उत्तरिमयं विकदमाणी पिकडूढमाणी जेणेच पोसहसाला जेणेव महामयए ममणोवासए तेणेव उबागच्छा, उवागच्छित्ता मोहम्मापजणणाई सिंगा. रियाई इधिभावाई उबदसेमाणी उवयंसेमाणी महामययं समणोषामयं एवं वघासी-"हं भो महासयया समणोयामया ! धम्मकामया पुषणकामया सग्गकामया मोक्खकामया धम्मखिया ४, धम्मपिवासिया ४, किपणं तुम्भं देवाणुपिया ! धम्मेण वा पुण्णेण वा सम्गेण था मोक्खण था? अषणं तुम मए सद्धि उरालाई जाव मुंजमाणे णो विहरसि?" ___अर्घ-महाशतक घमणोपासक को प्रावक-व्रतों का निर्मल पालन कर के मात्माको भावित करते हुए चौवह वर्ष बीत गए । तत्पश्चात् आनन्दजी को मांति उन्होंने भी ज्येष्ठ-पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंपा और पौषधशाला में जा कर भगवान की धर्मप्राप्ति स्वीकार कर ली। एकबार रेवती भार्या उन्मत्त बनी हुई, मदिरा पीने के कारण स्थलित गति वाली, केश बिखरे हुए, ओखनो से भिर के बिना ही उस महाशतक पमणोपासक के समीय आई मोर कामोद्दीपन करने वाले श्रृंगार युवल मोहक वचन कहने लगी ___ "अरे हे महाशतक श्रमणोपासक ! तुम धर्म, पुण्य, स्वर्ग और मोक्ष के कामी हो, आकाक्षी हो, धर्म-पुण्य एवं मोक्ष प्राप्ति के पिपासू हो, परन्तु तुम्हें धर्म, पुण्य, स्वर्ग या मोम से क्या प्रयोजन है? तुम मेरे साथ कामभोग क्यों नहीं भोपते ? अर्थात् भावी सुख को कल्पना में प्राप्त बंपिक सुख की उपेक्षा पयों कर रहे हो ?"
SR No.090457
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhisulal Pitaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year
Total Pages142
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_upasakdasha
File Size3 MB
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