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श्री उपासकदशांग सूत्र
(४) पौषध प्रतिमा-इसमें प्रष्टमी, चतुर्दशी तथा अमावस्या-पूर्णिमा को पौषध करमा अनिवार्य होता है । वह पौषध में दिन में नींद नहीं ले सकता, प्रतिलेखन-प्रमार्जन, ईपिषिक प्रतिक्रमणादि में प्रमाव नहीं करता। यह प्रतिमा चार मास की है।
(५) कायोत्सर्ग शामिना- तिका बाजा पोषय की रमि को कायोत्सगं न करे, तो भी कल्प्य है, परन्तु इसमें खड़े-खड़े, या बैठे-बैठे या मशक्ति हो तो सोए-सोए कायोत्सगं करना पावश्यक है। दूसरी विशिष्टता यह है कि इसके धारक का विवा-ब्रह्मचारी होना आवश्यक है । रात्रि-मर्यादा मी होनी आवश्यक है। इसी कारण इस प्रतिमा का समवायांग में 'दिया बंभयारी रति परिमाणको नाम दिया है । इस प्रतिमा को पाराधना जघन्य एक, पो, दिन तथा उत्कृष्ट पाँच मास तक होती है। इसमें धोती की लांग खुली रखनी होती है तथा रानि-मोजन का त्याग भी आवश्यक है।
(६) ब्रह्मचर्य प्रतिमा-इसका धारक शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करता है । शेष पूर्व प्रतिमानों के नियम तो अगली प्रतिमा में अनिवार्य है ही। यह उत्कृष्ट छह मासिकी है।
(७) सचित्ताहार त्याग प्रतिमा-वैसे तो सचिसाहार करना धावक के लिए उचित नहीं है, परन्तु प्रत्येक श्रावक सचित्त का त्यागी नहीं होता । इस प्रतिमा का धारक पूर्ण रूप से सचित्त, पर्द्धसचित्त या सचित्त-प्रतिबद्ध का त्यागी होता है। यह उस्कृष्ट सात मास तक की जाती है।
(८) मारम्भ त्याग प्रतिमा-इसका धारक स्वयं एक करण एक योग भयवा एक करण तीन योग आवि से प्रारम्भ करने का त्यागी होता है । आरम्भ करमे करने वाले को स्वस्तिको व माज्ञापनो धोनों क्रियाएँ लगती है, जबकि स्वयं प्रारम्भ नहीं करने वाले को 'स्वस्तिको ' त्रिमा नहीं लगती। इस प्रतिमा का उत्कृष्ट कालमान पाठ मास है।
(९) प्रेष्यारम्भ वर्जन प्रतिमा-इसका धारक भारम्भ करवाने का भी त्यागी होता है । कराने रूप आज्ञापनी क्रिया भी टल जाती है। सामान्य नयानुसार करने, कराने जैसा पाप मात्र अनुमोदना में नहीं होता, क्योंकि उस कार्य में अपना स्वामित्व नहीं होता । इसमें मात्र अनुमोदना खुली रहसी है। वह भाधाकम माहारादि का त्यागी नहीं होता । इसका उत्कृष्ट कालमान नौ मास है।
(१०) उद्दिदष्ट भक्त-वर्जन प्रतिमा-इसका धारक अपने लिए बनाए गए आहारादि का सेवन भी नहीं करता । इसमें उस्तरे से या तो पूरा मस्तक भुपिडत होता है, या पोटी के केश रस्त कर शेष मस्तक । यद्यपि इस प्रतिमा में अपनी भोर से किसी सायय विषय में स्वतः कुछ भी नहीं कहा जाता, पर एकवार या बारबार पूछने पर भात विषय में 'जानता हूँ' सपा प्रशात विषय में 'नहीं जानता,' इस प्रकार की दो भाषाएं बोलना फल्पता है। यद्यपि यह विरक्त होता है, तथापि इस कथन से मस्किचित अनुमोदन तो लगता ही है, क्योंकि जो सर्वथा अनुमोदन-रहित हो, उसे पूछने