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आनन्द का गृहत्याग और प्रतिमा आराधन
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मी सांसारिक कार्य के लिए मत पूछना, मेरे लिए आहारादि भी मत बनाना।" इस प्रकार ज्येष्ठ पुत्र और मित्र-परिजन आदि को पूछ कर मानन्दजी अपने घर से निकले और राजमार्ग से होते हुए कोल्लाक सनिवेशस्थ पौषधशाला में पाए और पौषधशाला का प्रमार्जन किया । फिर लघुनीत बहीनीत परठने योग्य स्थान की प्रतिलेखना को, वर्म का संस्तारक बिछाया
और उस पर बैठ कर श्रमण भगवान महावीर स्वामी द्वारा उपविष्ट धर्मप्रशस्ति को ग्रहण कर रहने लगे।
तए णं से आणंदे समणोवासए उवामगपद्धिमाओ उपसंपज्जिता णं विहरह, पहम उवासगपडिम अहामुत्तं अहाफप्पं अहामग्गं अहाता सम्मं कारण फासेइ पाले सोहेइ सीरेइ कित्तेह आराहेइ । तए णं से आणंदे समणोवासए दोच्चं उपासगपष्टिमं एवं तच्चं चउत्थं पंचमं छठं सत्तमं अट्ठमं णवमं दसम एक्कारसम जाव आराहे ॥ सू. १३॥
अर्थ--आनन्द श्रमणोपासक ने श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं को ग्रहण किया। प्रथम प्रतिमा की सूत्रानुसार, कल्पानुसार, मार्गानुसार, तथ्यानुसार सम्यक् रूप से काया से स्पर्शना की, पालन किया, शोषन किया, कीर्तन किया, माराधना की। प्रपम प्रतिमा की स्पर्शना यावत् आराधना के बाद दूसरी यावत् तीसरी, चौथो, पांचवों, छठी, सातवीं आठवीं, नौवी, वसवों, और ग्यारहवी प्रतिमा की आराधना की।
विवेचन-प्रतिमा का अर्थ है-'अभिग्रह विशेष, नियम विशेष ।' श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं कही गई है--
(1) दर्शन प्रतिमा---इसमें श्रावक का सम्यग्दर्शन विशेष पाद्ध होता है। निर्दोष-निरतिचार और मागार-रहित पालन किया जाता है । वह लौकिक देव पोर पो की माराधना नहीं करता और निग्रंथ-प्रवचन को ही अर्थ-परमायं मान कर शेष को अनर्थ स्वीकार करता है।
(२) प्रत प्रतिमा--इसमें पांव अणुव्रत व तीन गुणनों का नियमा पासान होता है । मागार भौर अतिचार कम तथा भाव-शुद्धि अधिक होती है।
(३) सामायिक प्रतिमा-तीसरी प्रतिमा में सामायिक एवं देशावगामिक प्रत धारण किये हो जाते है । सामायिक ब्रत अधिक समय और विशुद्ध किये जाते हैं।