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आनन्द श्रमणोपासफ अतिचार
बताए पनुसार माल नहीं देना, मिलावट करना प्रादि । ये पापों कृत्य लोमा किए जाने पर 'पना वार' की परिधि में चले जाते हैं। बिना लोभ के किसी को माज्ञा के मधीन होकर, उदासीन भाव से या वसे मन्य कारणों से ही प्रसिचार रहते हैं (मोक्षमार्ग पु. १७१)।
तयाणनरं च णं सदारसंतोसिए पंच अइयारा जाणियध्या ण समायरियम्वा, से जहा-इत्तरियपरिग्गहियागमणे अपरिग्गहियागमणे अणंगकीडा, परविवाहफरणे कामभोगति म्यामिलासे।
अर्थ-तवन्तर श्रावक के चौथे वत 'स्वदार-संतोष' के पांच अतिचार जानने योग्य है, सेवन करने योग्य नहीं है--१ इत्वरिकापरिगृहीतागमन २ अपरिगहीतागमन ३ अनंगक्रीड़ा ४ परविवाहकरण ५ कामभोग-तीवाभिलाष ।
विवेचन-१ इत्वरिका परिगृहीसागमन-विवाह हो जाने के बाद भी उम्र, शारीरिक विकास प्रादि नहीं होने के कारण, मासिक-धर्म में नहीं माने प्रादि अनेक कारणों से वो मोग अवस्था को अप्राप्त है, ऐसी स्वस्त्री से गमन करना 'इत्वरिफा परिगृहीलागमन' है।
२ अपरिगही तागमन--जिसके साथ सगाई तो हई है, परंतु विवाह नहीं होने से जो अब तक अपरिगृहीता है, ऐसी स्ववाग्दत्ता कन्या से गमन करना अपरिगृहीता गगन है।
३ मनंगक्रीड़ा--कामभोग के अंग योनि पोर मेहन है। इनके अतिरिक्त अन्य धंग काम के मंग नहीं माने गए हैं, उनसे कोड़ा करना 'अनंगक्रीड़ा' है।
___४ पर विवाहकरण--जिनकी सगाई, विवाह अपने जिम्मे नहीं हो, उनकी सगाई करने की प्रेरणा करना, सहयोग देना, विवाह करवाना मादि को परविचाहकरण में गिना गया है।
५ कामभोग तोवाभिलाषा-गौण रूप से पांचों इंद्रियविषयों और मस्य रूप से मंषन में अत्यंत दि--मूर्छा भाव रख कर उन्ही मध्यवसायों से युवत रह कर व्रत की अपेक्षा करना, भोग-साधनों को बढ़ाना, 'काममोगतीव्राभिलाघ' है । 'वेद जनित बाधा' को शान्त करने की भावना के अतिरिक्त शंष सभी कार्यों के लिए यह अतिचार है । पया-बाजीकरण करना, कामबद्धक पौष्टिक भस्में, रमायने गोषधियाँ मादि लेना, वासना वर्द्धक पठन, कामवर्द्धक चित्रादि अवलोकन, पन्योन्य भासन, सौन्दर्य प्रसाधक सामग्री का प्रयोग आदि।
तयाणंतरं च णे इच्छापरिमाणस्स समणोवासपणं पंचअइयारा जाणियमा ण समायरियव्वा, तं जहा-खेत्तवत्धुपमाणाइक्कमे, हिरण्ण सुवण्णपमाणाइफमे,