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श्री उपासकदशांग सूत्र-१
'शम्ट कर्म' है 1 यथा-रेल, मोटर, सूमर साइजित मानिनो कारखाने । लुहार, सुथार, आदि द्वारा गाडियो बनाना आदि।
४ माटी कर्म-बैल, घोहे ऊंट, मोटर आदि को मारे पर घलाना भाटी कम है।
५ स्फोटक कर्म-पृथ्वी, वनस्पति पादि फोड़ना फोहीकर्म है । यथा--सान, कुमा, बावड़ी, तालाब आदि खोदना, पत्थर निकालना, खेती के लिए जमीन की जुताई, धान का आटा या मूंग, उड़त, चने भादि की दाल बनाना, शालि से मूसा उतार कर चावल बनाना आदि कार्यों को मुख्य रूप से कोसीकर्म में गिना गया है। यहां गंभीरता से समझने की बात यह है कि खेती की पूर्ववर्ती क्रियाएँपृथ्वी पर हल जोतना भाति सथा पश्चाद्वर्ती किमाएं गेंह आदि का आटा या मग मादि की दाल बना कर देना या बेच कर मार्जीविका चलाना स्फोटक कर्म के मन्तगंत है । जुताई के बाद निष्पत्ति की मध्यवर्ती क्रियाए वनकर्म में मानी गई है। अतः खेती केवल स्फोटक फर्म ही नहीं, धनकर्म भी है। यह बात पूर्वाचार्यों ने स्पष्ट बतलाई है।
६ वंत-वाणिज्य---मुख्य प्रषं में हाथी दांत का व्यापार, उपलक्षण से ऊँट, बकरी, मेड प्रादि की जट ऊन, गाय-भंसादि का चमड़ा, हड्डियो, नाखून आदि स जीवों के अवयव का व्यापार' दंतवाणिज्य' में गिना गया है।
लाक्षा-वाणिज्य---लाल का व्यापार मुख्य प्रर्थ में लिया गया है, मेनशील, घातकी, नील, साबुन, सज्जी, सोडा, नमक, रंग आदि का व्यापार भी 'अभिधान रामेंद्र कोष' भाग ६ पृ. ५९६-९७ पर साक्षा-वाणिज्य में लिए गए हैं ।
८ रसवाणिस्य--'अभिधान राजेन्द्र ' भाग ६ पृ. ४९३ " मधम द्यांसभक्षणवसामम्मादुग्नदधिचततेमादिविक्रय 1 शहछ, शराब, मांस, चर्वी, मक्खन, दूध, दही, घी, तेल बादि का व्यापार करना रस-वाणिज्य में गिना गया है। कोई कोई गड़, शक्कर के व्यापार को भी इसमें मानते हैं।
९ के वाणिज्य--दास-पासी का क्रय-विक्रय एवं गाय, भैंस, बकरी, भेड़, ऊंट, घोड़े आदि को खरीदने बेचने का घंधा केशवाणिज्य में लिया गया है। अभि. भाग ३ पृ. ६६८ ।
१० विषवाणिज्य-सोमल आदि मासि भाति के जहर, बंदूक, कटार, आदि मात्र गस्त्र, हरताल, प्राणनाशक इन्जेक्सन, गोलियां, चूहे मारने की गोलिया, खेत में दिए जाने वाले रासायनिक खाद, पाउडर, छिड़रने की हो. डी. टी. आदि पाठार, तथा वे समस्त वस्तुएं जिनसे प्राणान्त सम्भव है, पटाखे, बारुद आदि भी बंचना विषवाणिज्य में गिना गया है। साथ ही कुदाली, हल, फावड़े, र्गेतिमा, तगारिया, सेंबल, जूलिए आदि का व्यापार भी विषवाणिज्य में गिना है (अभि. भाग १ पृ. १२५८) ।