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११.
श्री उपासकंदशांग सूत्र
तए णं तस्स महासषगस्त समणोवासगस्स मुभेणं अमवसाणेणं जाप खओषसमेणं ओहिणाणे समुप्पण्णे पुरथिमेणं लवणसमुहे जोयणसाहरिसर्य खेतं जाणइ-पासइ । एवं दक्षिणेण परुचत्यिमेणं, उत्तरेणं जाव चुल्लग्निमयंतं वास. हरपठवयं जाणइ-पासइ । अहे हमीसे रयणप्पमाए पुरवीए लोलुयायं परयं चउरासीहषाससहस्सद्वियं जाण-पासह ।।
___ अर्थ-संथारे में शुभअध्यावसायों और तयारूप कर्म का क्षयोपशम होने से महा. शतकमी को अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ। इससे वे पूर्व, दक्षिण और उत्तर दिशा में लवणसमुद्र का एक हजार योजन का क्षेत्र जानने-देखने लगे, उत्तर-दिशा में चल्लाहमत वर्षधर पर्वत तक का क्षेत्र जानने-देखने लगे। अघो-दिशा में वे चौरामी हजार वर्ष स्थिति वाले नरयिकों के निवास स्थान तक का प्रथम नरक का लोलयस्य नरकाबास देख में लगे ।
त दुखी होकर नरक में जाएगी
नाणं मा रेवई गाहापाणी अण्णया कया मत्ता जाव उत्तरिज्जयं विकमाणी विकदमाणी जेणेव महासयए समणोबासए जेणेव पोमामाला तणेच उवागमछा, उवागजिस्ता महासययं महेव भणा जाद दोच्चपि मच्चाप एवं वयासी- भो ! Hए णं सं महामपए ममणोवासप रेवईए गाहापाणीए वोच्चपि सध्यपि एवं खुत्ते समाणे आसुरुस्त ४ ओहिं पउंजा, पउंजित्ता मोहिणा आमाण, ओभत्ता रेवई गाहाबाणिं एवं बयासी-"हं मो रेषई ! अपम्पियथिए ४: एवं खलु सुमं अंतो सत्तरत्तस्स अलमएणं वाहिणा अभिभूया ममाणी अदुहा बसहा अममाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अहं हमीसे रयणप्पभाए पुरीए लोलुपच्छुए परए चउरासीवाससहस्साहिए औरइएस परइयत्ताए उपजि. हिसि।"
अर्थ-महाशतकनी को मयधिज्ञान होने के बाद एक दिन रेवती गाथापली कामवासना में उन्मत्त हो कर निर्लज्जतापूर्ण वस्त्र गिरातो हुई यावत् पौषधशाला में आई और पूर्वोक्त रोति से कहने लगी। दूसरी-तीसरी बार रेवती के द्वारा कामोस्पारक वचन