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श्री उपासकदणांग सूत्र — २
चारि पलिओ माई टिई पण्णत्ता से णं भंते! कामदेवे ताओ देवलोगाओ आउकारर्ण भवक्खपणं ठिक्वपूर्ण अनंगरं वर्य चहत्ता कहि गमिहिर, कहि उबवज्जिहि १ गोषमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ । णिक्खेषो ।। सू. २६ ।। ॥ सप्तमस्त अंगस्स प्रवासगवसाणं वीर्य अज्झयणं समन्तं ॥
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अर्थ -- कामदेव क्षमणोपासक ने श्रावक को पहली प्रतिमा यावत् ग्यारहवीं प्रतिमा की आराधना की। उपवास, बेला, तेला, अठाई, अर्द्ध-मासखमण, मासक्षमण आदि से आत्मा को मावित की बीस वर्ष तक आवक-पर्याय का पालन किया और एकमासिकी संलेखना से साठ भक्त का छेवन किया तथा दोषों की आलोचना-प्रतिक्रमण कर के समाधियुक्त काल कर के प्रथम वेवलोक 'सौधर्म कल्प' के सौधर्मावतंसक महविमान के उत्तरपूर्व दिशा-भाग में 'अरुणाम' नामक विमान में उत्पल हुए। वहाँ अनेक देवों की स्थिति चार पल्योपम की कही गई है, तवनुसार कामदेव भी चार पत्योपम की स्थिति वाले देव हुए । गौतमस्वामी पूछते हैं- 'हे भगवन् ! कामदेव उस वेवलोक से आयु-भव एवं स्थिति का क्षय कर के वहाँ से व्यय कर कहाँ जा कर उत्पन्न होंगे ?
भगवान् ने फरमाया- हे गौतम! वहाँ से वे महाविदेह-क्षेत्र में उत्पन्न हो कर सिद्ध बुद्ध तथा मुक्त बनेंगे ।
प्रस्तुत अध्ययन में अनेक पाठों का संकोच जानना चाहिए | यमा— श्रावक के व्रत ग्रहण त्याग भादि ।
हुमा है, वहां सारा वर्णन आनन्दजी के समान करना, परिग्रह में वर्तमान सम्पति से अधिक का
शकेन्द्र द्वारा प्रशंसा की जाने पर एक देव द्वारा पिशाच, हाथी एवं सर्प के रूप बना कर उपसर्ग दिए जाने का वर्णन दड़ा ही रोमांचकारी है। कैसे श्रावक वे भगवान् के ? कितनी निर्भीकता, कितनी कष्ट-सहिष्णुता !! उनके आदर्श निर्भय जीवन से जितनी शिक्षा ली जा सके, कम है ।
कष्टों को समभाव से सहा सो तो ठीक, पर साक्षात् तीर्थंकर देव द्वारा साधु-साध्वियों के मध्य 'महान् प्रशंसा' किए जाने पर भी उन्हें गर्व नहीं हुआ। यह बात भी कम नहीं है । मान-सम्मान को पचा जाने की ऐसी अद्भुत क्षमता बिरलों में ही होती है।
|| द्वितीय अध्ययन समाप्त ॥