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श्री उपासकदयांग सूत्र
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प्पियाणं अंलिए बहवे राईसरतलबरमाईवियकोटुंबियसेडिसेगावहमस्थवाहप्पमिडओ मुगहे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पपइया णो खलु अहं तहा संचा. एमि मुण्डे जाव पब्बइत्तए। अहं णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुब्वइयं सत्तसिक्खावइयं धुवालसविहं गिहिधम्म पडिजिमस्सामि । अहासुई नेवाणुप्पिया ! मा पडिचंध करेह ॥ ४॥
अर्थ-आनन्द धर्मोपदेश सुन कर हृष्ट-तुष्ट हए । उनका चित्त आनन्दित हमा। वे वंदना-नमस्कार कर कहने लगे-'हे भगवन् ! मैं निय-प्रवचन पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि करता हैं । आपने जो भाव फरमाए, वे वास्तव में से ही हैं, उनमें अन्यथा कुछ भी नहीं है । अतः पह निग्रंय-प्रवचन मुझे रचा है, आपका कथन ययार्य है। आपके समीप बहुत-से राजा, सेठ, सेनापति आदि संयम धारण करते हैं, परन्तु मेरी सामर्थ्य नहीं कि गृहस्यावस्था छोड़ कर मुनि बन सकूँ। मैं तो आपको साक्षी से पांच अणुव्रत और सात शिक्षावत रूप श्रावक के बारह व्रत धारण करूंगा। भगवान् ने फरमाया--" हे देवान. प्रिय 1 जैसे तुम्हें सुख हो वैसा करो, परन्तु धर्म-कार्य में प्रमाव मत करो।"
तएणं से आणंदे गाहावाइ समणस्स भगवओमहावीरस्स अंतिए तप्पदमपाए पूलगं पाणाइवाय पच्चक्खाइ जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं न फरेमि न कारवेमि मणसा पयसा कायसा।
अर्य--- आनन्दजी भावक के प्रथम व्रत में स्थूल प्राणासिपात का प्रत्याख्यान करते हैं--"में यावज्जीवन मन, वचन, काया से स्थल प्राणातिपात का सेवन नहीं करूंगा और न करपाउँगा।
विवेचन- संसारी बीवों के मुख्य दो भेद है-त्रा और स्थावर । स्थूल प्राणातिपात विरम में श्रावक निरपराधी नम जोत्रों को जान-बुझ कर संकल्पपूर्वक हिमा का त्याग करता है।
... तयाणंतरं च ण धूलगं मुसावार्य पच्चक्खाइ जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं न फरेमि न कारवेमि मणसा वयसा कायसा।
अर्थ-- श्रावक के दूसरे व्रत में आनन्यजी स्थूल मृषावाद का प्रत्याख्यान करते है-'मैं वो करण और तीनों योग से स्थूल मायाव का सेवन नहीं करूंगा और न कराउँगा,