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कामदेव तुम धाम हो-इन्द्र से प्रशंसित
आपको अनेक उपसर्ग दिए, किन्तु आप धर्म से सनिक भी डिगे नहीं । धन्य है आपकी ऋद्धि, प्रल, वीर्य, ति, यश और पुरुषा-पराक्रम को। आपको निपंथ-प्रवचन में लता और निष्ठा मैने देनी । हे देवानुप्रिय ! आपको मैंने जो उपसर्ग दिये, उस अपराध को मामा कीजिए । आप क्षमा करने योग्य है । मैं क्षमाप्रार्थी हूँ, इत्यादि वचों से समा मागता हुआ वह देव, हाथ जोड़ कर कामगेम के पैरों पर मत मारक्षमा भावना की और जिस विशा से मापा था, उसी दिशा में लौट मया। 'अब में निरुपसर्ग हो गया हूँ'--ऐसा विचार कर कामदेवजी ने प्रतिमा पाली ।
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तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महाषीरे जाव विहरह। तए कामदेष समणोवासए इमीसे कहाए लद्ध समाणे एवं खलु समणे भगषं महावीरे जाव विहरह। तं सेयं खलु मम समणं भगवं महावीर मंदित्ता नमसित्ता तओ पडिणियसस्स पोसहं पारित्तए तिकट्टु एवं संपेहेर, संहिता सुद्धाप्पावेसाई वत्थाई जाप अप्पमहग्य जाव मगुस्सवग्गुरापरित्तिखित सयाओ गिहाओ परिणिक्खमइ, परिणिक्खमिता संपणार मज्झमशेणं णिग्गछह, णिग्गच्छित्सा जेणेव पुण्णमहे घेहए जहा संखो जाव पज्जुवासह । तए णं समणे भगवं महावीरे कामदेषस्स समणोषासयस तीसे यात्र पम्मकहा समत्ता ॥ स. २४॥
अर्थ- उस काल उस समय में बमण मगवान महावीर स्वामी चंपामगरी पधारे। कामदेव घमणोपासक को भगवान के पधारने का समाचार मिला, तो उन्होंने विचार किया कि भगवान् के समीप आ कर वना नमस्कार एवं पर्युपासना करके फिर पौषध पालना मेरे लिए उचित है। ऐसा विचार कर समवसरण में जाने योग्य शुद्ध वस्त्र पहने तमा अनेक मनुष्यों के समूह से घिरा हुमा अपने घर से निकला। राजमार्ग से होते हुए जहाँ पूर्णभद्र सचान था वहाँ आया और (भगवसी वा. १२.१ वणित) शंख पावक की भांति पर्युपासमा करने लगे। भगवान् ने कामदेव और बस विशाल जन सभा को धर्म-कया फरमाई।