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श्री उपासकवा
४ पापकर्मोपदेश--पाप-कर्म का उपवेश नहीं दूंगा।
विवेचन – भिक्षाप्रतों के लिए धावक का यह मनोरय रहता है कि 'ऐसी मेरी श्रद्धा प्रापणा तो है, फरसना करूं तन पद्ध हो।' सामायिक कभी कम बने, ज्यादा बने, नहीं बने, चौदह नियम आदि कभी चितारे, कभी याद नहीं रहे, दया-पोषध का अवसर कभी हो, कभी न हो तथा अनिधिसंविभाग व्रत की स्पांना मी साधु-साध्वी का योग मिलने पर संभव है। अतः संभवत: आनन्दजो के चारों शिक्षा-व्रतों का उल्लेख यहाँ नहीं हो पाया हो । वैसे तो उन्होंने अमुक प्रकार से शिक्षा-व्रत भी पण शिए ही होंगें, तभी उन्हें 'बारह व्रतधारी' कहा गया है।
बानन्दजी की व्रत-प्रतिज्ञाओं के बाद भगवान् अम्हें प्रतों के मतिचार बतलाते है।
अतिचार
इस खस्तु आणदाइ ! समणे भगषं महावीरे आणंदं समणोवासगं एवं बयासी एवं खलु आणंदा! समणोवासपणं अभिगयजीचाजीवेणं जाव अणइक्कमणिज्जेणं सम्मत्तस्स पंच अश्यारा पेयाला जाणियब्वा ण समायरिपब्वा, तं जहा-संका, कंखा, बिगिच्छा, परपासंहपसमा, परपासंहसंघवे ।
अर्थ--आनन्द श्रमणोपासक को सम्बोधित करते हुए श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने फरमाया-“हे आनन्द | नीव-अजीव आदि नव तत्त्व के प्राता एवं देव-दानवादि से मी समकित-यत नहीं किए जा सकने योग्य श्रमणोपासक को सम्पवस्व के प्रधान पांच अतिचार जानने योग्य तो है, परंतु आचरण करने योग्य नहीं हैं। यया-१शंका २कांक्षा ३ विचिकित्सा ४ परपासं प्रशंसा ५ परपाप्त संस्तव ।
विवेचन-अतिचार-प्रभिधान राजेन्द्र भाग १ पृ. ८ पर अतिचार थन्द के कुछ प्रय इस प्रकार दिये हैं--प्रण किए हुए प्रत का प्रतिकमण, उल्लंघन, चारित्र में स्खलना, व्रत में देश-मंग के हेतु प्रात्मा के अशुभ परिणाम विशेष ।
१ शंका---जिनेन्द्र-मपित निग्रंथ-प्रवचन के विषय में संशय-दक्षित रखना'गह पेमा है या वैसा 'प्रादि ।