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ज्येष्ठ शुक्लकी पंचमी, सुन्दर लगन विचार । महापुराण स्थापित करौ, सब ग्रन्थनको सार ॥१४॥ चेला श्रीगुणभद्रजी, गुरुआज्ञाकौं धार ॥ आदि अंत तक सब कथा, रच दीनी विस्तार ॥१५ तिनहीका परिपट्टमें, सब मुनिका सरदार । भये मुनी जिनचन्द्रजी, संयमपालनहार ॥१६॥ शिष्य भये तिनके सही, कुन्दकुन्द मुनिराज ।
ध्यानिनमैं उत्तम भये, जैसे सिरके ताज ॥ १७ ॥ इसमें एक तो यह वात विलकुल गलत है कि, जी गुरुका नाम अपराजित था । क्योंकि महापुराणमें तथा पाश्र्वाभ्यु दय आदिमें उन्होंने स्वयं अपने गुरुका नाम वीरसेन लिखा है, जैसा कि आगे दिखलाया जायगा। दूसरे गुणभद्रकी शिष्य परिपा' टीमें जिनचन्द्र और कुन्दकुन्दको वतलाना अच्छी तरहसे स्पष्ट क रहा है कि, ग्रन्थकत में ऐतिहासिक ज्ञानका सर्वथा अभाव था। . तो विक्रमकी पहली दूसरी शताब्दिके कुन्दकुन्दाचार्य और कहां न शताब्दिके गुणभद्राचार्य ! यदि कुन्दकुन्दकी परिपाटीमें गु .. लिखते, तो भी ठीक था। परन्तु यहां तो गुणभद्रकी परिपाटीमें कुन् कुन्दको लिखकर उलटी गंगा बहाई गई है !
इसके सिवाय पं० वखतरामजीकृत वुद्धिविलास नामक म५ पद्यग्रन्थमें खंडेलाका राजा खंडेलगिरि बतलाया है, जो पं. वंशका था और जिनसेनस्वामीका उक्त नगरमें कहींसे विहार कर