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उववाइय सुत्त
गोलबावड़ियों और लम्बी बावड़ियों में, रंग-बिरंगी शुभ ध्वजाओं से युक्त, सुन्दर ढंग से बने हुए रम्य जालगृह-जाली वाले घर थे।
पिंडिम-णीहारिम-सुगंधि-सुह-सुरभि-मणहरं च महया गंधद्धणिं मुयंता, णाणाविह-गुच्छ-गुम्म-मंडवग-घरग-सुह-सेउ-केउ-बहुला, अणेग-रह-जाण-जुग्गसिविय-पविमोयणा, सुरम्मा पासाईया दरिसणिजा अभिरूवा पडिरूवा। . - कठिन शब्दार्थ - पिंडिम - एकत्रित, णीहारिम - दूर तक फैलने वाले, सुगंधि - सुगन्ध, सुह सुरभि मणहरं - शुभ गंध से मन को हरण करने वाली, गंधद्धणिं - गन्ध ध्राणि-गंध की तृप्ति, मुयंताछोड़ते हुए, मंडवग - मण्डप, घरग- घर, सुह - सुख, सेउ - सेतु (पुल, मार्ग) केउ - केतु - पताका, रह - रथ, जाण - यान-सवारी, जुग्ग - युग्य-गाडी, सिविय - शिविका-पालखी, पविमोयणा - रखने के स्थान।
भावार्थ - वह वृक्ष समूह, दूर तक पहुँचने वाली सुगन्धि के सञ्चित परमाणुओं की शुभ महक के द्वारा मन को हर लेता था। क्योंकि वह विपुल तृप्तिकारक सुगंधि को छोड़ता-रहता था। वहाँ विविध गुच्छ, गुल्म, मंडप, घर, सुखप्रद मार्ग या क्यारियों की पालियाँ और ध्वजा की बहुलता थी। उसमें रथ, यान, डोलियां और पालखियाँ के प्रविमोचन-ठहराने के स्थान थे। इस प्रकार वे वृक्ष चित्त के लिए आह्लादक, नयनाभिराम, मनोरम और हृदयाकर्षक थे।'
अशोक वृक्ष ४- तस्स णं वणसंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एक्के( एगे) असोगवरपायवे पण्णत्ते। कुस-विकुस-विसुद्ध-रुक्ख-मूले, मूलमंते, कंदमंते जाव पविमोयणे सुरम्मे पासाईए दरिसणिजे अभिरूवे पडिरूवे।
कठिन शब्दार्थ-कुस-डाभ, विकुस-डाभ सरीखा एक घास।
भावार्थ - उस वनखण्ड के लगभग मध्यभाग में एक विशाल अशोक वृक्ष था। वह सुन्दर था। उस वृक्ष का मूल कुश-दर्भ और विकुश-घास आदि से रहित विशुद्ध था। उसके मूल आदि दसों अंग श्रेष्ठ थे। वह सभी गुणों (यावत् प्रविमोचन तक के वनखण्ड के वृक्षों के विषय में कथित विशेषताओं) से युक्त सुरम्य, चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप था, चित्त आह्लादक....था।
विवेचन - दूसरी वाचना में इतना पाठ अधिक है
दूरोवगय कंदमूल वट्ट-लट्ठ संठिय-सिलिट्ठ घण मसिण णिद्ध सुजाय णिरुवह उव्विद्ध पवर खंधी अणेगनर पवर भुया-गेझो कुसुम भर समो णमंत पत्तल विसाल
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