Book Title: Uvavaiya Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 184
________________ प्रतिविरत - अप्रतिविरत अल्पआरंभी.....का उपपात मन, वचन और काया से त्याग करते हैं और देश से त्याग नहीं करते हैं । जीवनभर के लिए और अंशतः नहीं हटाते हैं। विवेचन - ' साहूहिं' पदकी संयोजना पूर्ववर्ती 'सुप्पडियाणंदा' पद से भी हो सकती है और उत्तरवर्ती 'एगच्चाओ....' आदि पदों से भी हो सकती है । पूर्ववर्ती पद से संयोजित होने पर यह अर्थ होगा - 'साधुओं के प्रति अत्युत्तम भावना रखने वाले ।' १७५ मिथ्यादर्शन से जन्य अन्ययूथिकों के प्रति वन्दनादि की क्रिया । उनसे भाव से तो विरत है। किन्तु राजाभियोगादि के कारण अविरत हैं। वस्तुतः देखा जाय तो श्रमणोपासक त्याग की दृष्टि से तो सभी सावद्यादि क्रियाओं को त्याज्य ही समझता है । किन्तु निवृत्त होने में शक्त्य नुसार ही प्रवृत्त होता है । अपनी अंशतः अनिवृत्ति में, वह स्वकीय आत्मिक दुर्बलता का ही अनुभव करता है । अर्थात् दृष्टि में तो पूर्णत: विशुद्धि है, किन्तु प्रवृत्ति में नहीं । अंशत: क्रिया-निवृत्ति में भी वही दृष्टि-विशुद्धि कार्य कर रही है। जो सूत्रकार ने 'विरया' शब्द के स्थान पर 'पडिविरया' शब्द का प्रयोग किया है, इसमें यही रहस्य प्रतीत होता है। एगच्चाओ आरंभसमारंभाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अपडिविरया । एगच्चाओ करणकारावणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अपडिविरया । · एगच्चाओ पयणपयावणाओ पडिविरया जावज्जीवाएं, एगच्चाओ पयणपयावणाओ अपडिविरया । भावार्थ - अंशतः आरंभ-समारंभ से जीवनभर के लिए क्रिया-निवृत्त होते हैं और अंशत: अनिवृत्त। अंशतः करने-कराने से पचन- पचावन से निवृत्त होते हैं- जीवनभर के लिए और अंशत: अनिवृत्त । एगच्चाओ कोट्टणपिट्टणतज्जणतालणवहबंध-परिकिलेसाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अपडिविरया । एगच्चाओ ण्हाणमद्दणवण्णगविलेवणसद्दफरिसरसरूवगंधमल्लालंकाराओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अपडिविरया । भावार्थ - अंशत: कुट्टन अर्थात् कूटना, पिट्टन-मुद्गरादि से पीटना, तर्जन - उपालंभ देना, ताडनचपेटादि से मारना, वध - मारना, बन्ध- रस्सी आदि से बांधना और परिक्लेश- बाधाउत्पादन से जीवनभर के लिए और स्नान, मर्दन, वर्णक, विलेपन, शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध, माल्य और अलङ्कार से जीवनभर के लिए निवृत्त होते हैं और अंशत: निवृत्त नहीं होते हैं। जेबावणे तहप्पगारा सावज्जजोगोवहिया कम्मता पर - पाणपरियावणकरा कज्जंति, तओ वि जाव एगच्चाओ अपडिविरया । तं जहा - समणोवासगा भवंति । भावार्थ - और भी इस प्रकार निन्द्य-पापात्मक क्रिया से युक्त - सावद्ययोग और कूड़-कपट के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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